वास्तविक शिक्षा का स्वरूप (Nature Of Real Education)

प्रस्तावना -

परंपरागत रूप से मनुष्य को प्राप्त होने वाले ज्ञान और संस्कारों को शिक्षा कहते हैं। साथ ही इसे अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करना भी शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया होती है। अर्थात शिक्षा कर्म के साथ क्रिया भी होती है। हालाँकि अभी तक हमने सिर्फ शिक्षा और उसकी प्रक्रिया के संबंध में बात की है परंतु यह निबंध वास्तविक शिक्षा विषय वस्तु पर केंद्रित है। शिक्षा के साथ वास्तविक शब्द को जोड़ना इसे विशेष अर्थ प्रदान करता है। वास्तविक शिक्षा इस बात पर जोर देती है कि पाठ्यक्रम एवं उसकी प्रचलित विधियों से इतर शिक्षा क्या है?


शिक्षा मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है, जो न केवल ज्ञान प्रदान करती है, बल्कि सामाजिक, मानसिक और नैतिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह व्यक्ति को जीवन की वास्तविक चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना चाहिए। वास्तविक शिक्षा का स्वरूप वह है, जो न केवल अकादमिक विषयों तक सीमित हो, बल्कि व्यक्ति की सोच, समझ, और संस्कारों का भी निर्माण करे। इसका उद्देश्य आत्मनिर्भरता, नैतिक मूल्य, और समाज के प्रति जिम्मेदारी को विकसित करना है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अक्सर केवल परीक्षा परिणामों पर जोर दिया जाता है, जबकि वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य एक व्यक्ति को समग्र रूप से उन्नति की ओर अग्रसर करना है। इस संदर्भ में, यह आवश्यक है कि शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो, जो व्यक्ति को समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रेरित करे और उसके भीतर आत्मविश्वास, करुणा, और सृजनात्मकता का विकास हो।


शिक्षा की महत्ता प्रत्येक देशकाल एवं परिस्थितियों के लिये उतनी ही आवश्यक रही है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक शिक्षा के स्वरूप, उद्देश्य, लक्ष्य आदि पर चर्चा होती रही है एवं सदैव उसके वास्तविक स्वरूप को खोजने का प्रयास किया जाता रहा है। हमारे भारत के ऋषि मुनियों ने ‘सा विद्या या विमुक्तये’ का ज्ञान देकर शिक्षा की महत्ता पर बल दिया था। वास्तविक शिक्षा वही होती है जो मुक्ति का मार्ग प्रदान करे। मुक्ति का अर्थ सामान्यतः संसार से पलायन के संदर्भ में लिया जाता है परंतु विद्या का जोर इस पलायन पर नहीं अपितु धर्म के साथ जीविका उपार्जन एवं धर्म युक्त कर्मों की महत्ता पर है। 

अगर व्यक्तिगत स्तर पर देखें तो मुक्ति का अर्थ मनुष्य को विस्मृति के अंधकार से निकाल कर स्वयं की सहज अनुभूति से है। सामूहिक स्तर पर इसकी अभिव्यक्ति राष्ट्र एवं लोगों के कल्याण के रूप में होती है।  ऐसी स्थिति में ही व्यक्ति एवं समाज अज्ञानता, अभाव और दुख आदि से मुक्ति पाकर परम सुख की प्राप्ति करता है। ऐसी स्थिति सिर्फ और सिर्फ शिक्षा के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। आज भी यह प्रश्न विचारणीय है कि वर्तमान में वास्तविक शिक्षा का स्वरूप क्या है। 

शिक्षा के स्वरूप के संबंध में हम पाते हैं कि यह परंपरागत शिक्षा आध्यात्मिक शिक्षा, औपचारिक शिक्षा, अनौपचारिक शिक्षा, नूतन शिक्षा, भौतिक शिक्षा आदि प्रकारों में विभक्त है। समस्त बंधनों से मुक्त करना, जीवन जीने की तैयारी, पीढ़ी दर पीढ़ी संचित ज्ञान के भंडार को आगे प्रेषित करना आदि सभी शिक्षा के उद्देश्यों के अंतर्गत आते हैं।  सिर्फ साक्षरता तक सीमित रहने वाली शिक्षा अधूरी मानी जाती है। जो शिक्षा व्यक्ति के उद्देश्य प्राप्त एवं उसकी जरूरतों की पूर्ति में सहायक बने वहीं वास्तविक शिक्षा होती है। 

वास्तविक शिक्षा के तहत महज अक्षर ज्ञान, विभिन्न प्रकार की जानकारियों का समावेशन और जीवन यापन करना ही शामिल नहीं है बल्कि यह व्यक्तिक  चरित्र, आध्यात्मिक अनुभव और सामूहिक रूप से संस्कृति के विकास का एक समुच्चय है। इंसान में ईश्वरीय गुणों और बाह्य सामर्थ्य के विकास का अवसर वास्तविक शिक्षा के तहत ही प्राप्त होता है। वास्तविक शिक्षा द्वारा लौकिक एव परलौकिक दोनों प्रकार की उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास और संतुलित जीवन केवल वास्तविक शिक्षा के उपरान्त ही संभव है।

वास्तविक शिक्षा क्या है इसे परखने के कई मापक हैं जैसे जिसके द्वारा जीवन के उद्देश्य प्राप्त किये जा सकें, जो जीवन मूल्यों एवं मानवीय मूल्यों की कसौटी पर खरा उतर सके, जो व्यक्ति को विनम्रता और सहनशीलता प्रदान करे, जो व्यक्ति के जीवन को संतुलित कर सके और व्यक्ति के साथ समाज के हितों को भी साध सके एवं विद्यार्थियों के जीवन को संस्कारवान और अर्थपूर्ण बनाए।

इन मापदंडों को देखने पर हम पाते हैं कि हमारी वर्तमान शिक्षा का स्वरुप इस कसौटी पर खरा नहीं उतर पाता क्योंकि आज की शिक्षा व्यवस्था अधूरी, भयप्रद, विलासिता आधारित, भांगी प्रकृति और स्वार्थ केंद्रित हैं जो धर्म के सही मूल्यों से दूर करते हुए अनेक विकृतियों को उत्पन्न करते हुए अंततः समाज को नकारात्मक रूप में प्रभावित करती है। आज की इस वर्तमान शिक्षा में परिवर्तन अति आवश्यक है।

आज शिक्षा का उद्देश्य सर्वांगीण विकास न होकर केवल रोज़गार प्राप्त करने तक सीमित रह गया है। आज की शिक्षा का स्वरुप केवल औपचारिक मात्र ही है जिसमें चारित्रिक संपदा एवं मूल्यों का नितांत अभाव पाया जाता है। वर्तमान शिक्षा अत्यधिक खर्चीली एवं महँगी भी है, जो विदेशी संस्कृतियों से प्रभावित है। यह मानव जीवन के वास्तविक लक्ष्यों से कहीं दूर है। आज कि शिक्षा केवल धनार्जन तक ही सीमित रह गई है एवं समाज में फैली समस्याओं व विभिन्न दुखों के निवारण से कहीं दूर चली गई है। इसका बल गुणात्मक विकास के बजाय मात्रात्मक विस्तार पर ही रह गया है। विभिन्न अवसंरचनात्मक एवं संसाधनों का अभाव इस समस्या को और गंभीर बनाता है।

आज जरुरत है कि वर्तमान में प्रचलित शिक्षा के स्वरुप को वास्तविक शिक्षा से जोड़ा जाए। अगर इसमें व्याप्त विभिन्न कमियों को दूर कर लिया जाए तो वर्तमान शिक्षा का स्वरुप भी परिवर्तित होकर पूर्ण वास्तविक शिक्षा में बदल सकती है। इसके लिये निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है-

  • आवश्यक अवसरंचना का निर्माण 
  • राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रभक्ति का समन्वय 
  • संस्कारों पर विशेष बल
  • शिक्षा के दायरे को विस्तृत करना 
  • व्यवहारिक शिक्षा की ओर ध्यान 
  • नैतिक शिक्षा पर जोर (धर्म एवं मानवीय मूल्य युक्त)
  • मूल्य आधारित पाठ्यक्रम
  • चरित्र निर्माण

वास्तविक शिक्षा वह अवधारणा है जिसके द्वारा वर्तमान शिक्षा की कमियों को दूर करते हुए जीवन को पूर्ण और सार्थक बनाया जा सकता है। इसके द्वारा शिक्षा क्षेत्र में सुधार कर एक बड़ी क्रांति लाई जा सकती है। शिक्षा के निर्माण के समय हमें वास्तविक शिक्षा की महत्ता पर जोर देने की आवश्यकता है क्योंकि वास्तविक शिक्षा मनुष्य के विकास की अभिव्यक्ति है।


अज्ञान समस्त विपत्तियों का मूल कारण है। अज्ञानी रहने की अपेक्षा जन्म न लेना ही अच्छा है”

-प्लूटो




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