अधिगम अक्षमता (learning Disabled)

अधिगम अक्षमता

(learning Disabled)



अधिगम अक्षमता का अर्थ -


“अधिगम अक्षमता” पद दो अलग-अलग पदों  “अधिगम” और “अक्षमता” से मिलकर बना है। अधिगम शब्द का आशय “सीखने” से है तथा “अक्षमता” का तात्पर्य “क्षमता के अभाव” या “क्षमता की अनुपस्थिति” से है। अर्थात्‌ सामान्य भाषा में “अधिगम अक्षमता” का तात्पर्य “सीखने की क्षमता अथवा

योग्यता” की कमी या अनुपस्थिति से है। 


सीखने में कठिनाइयों को समझने के लिए हमें एक बच्चे की सीखने की क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों का आकलन करना चाहिए। प्रभावी अधिगम के लिए मजबूत अभिप्रेरण, सकारात्मक आत्म छवि, और उचित अध्ययन प्रथाएँ एवं रणनीतियाँ आवश्यक शर्ते हैं।




अधिगम अक्षमता की परिभाषा -


औपचारिक शब्दों में, “अधिगम अक्षमता” को “विद्यालयी पाठ्यक्रम” सीखने की क्षमता की कमी या अनुपस्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। 


“अधिगम अक्षमता” पद का सर्वप्रथम प्रयोग 963 ई. में सैमुअल किर्क द्वारा किया गया था और इसे निम्न शब्दों में परिभाषित किया था-


अधिगम अक्षमता को वाक्‌, भाषा, पठन, लेखन या अंकगणितीय प्रक्रियाओं में से किसी एक या अधिक प्रक्रियाओं में मंदता, विकृति अथवा अवरुद्ध विकास के रुप में परिभाषित किया जा सकता है, जो संभवत: मस्तिष्क कार्यविरुपता या संवेगात्मक अथवा व्यावहारिक विक्षोभ का परिणाम है।


इसके पश्चात से अधिगम अक्षमता को परिभाषित करने के लिए विद्वानों द्वारा निरंतर प्रयास किए गए, लेकिन कोई सर्वमान्य परिभाषा विकसित नहीं हो पाई।


अमेरिका में विकसित फेडरल परिभाषा के अनुसार, 


“विशिष्ट अधिगम अक्षमता को, लिखित एवं मौखिक भाषा के प्रयोग एवं समझने में शामिल एक या अधिक मूल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति, जो

व्यक्ति के सोच, वाक, पठन, लेखन, एवं अंकगणितीय गणना को पूर्ण या आंशिक रुप में प्रभावित करता है, के रुप में परिभाषित किया जा सकता है। इसके अंतर्गत इन्द्रियजनित विकलांगता, मस्तिष्क क्षति, अल्पतम असामान्य दिमागी प्रक्रिया, डिस्लेक्सिया, एवं विकासात्मक वाच्चाघात आदि शामिल है। इसके अंतर्गत वैसे बालक नहीं साम्मिलित किए जाते हैं, जो दृष्टि, श्रवण या गामक विकालांगता, संवेगात्मक विक्षोभ, मानसिक मंदता, सांस्कृतिक या आर्थिक दोष के परिणामत: अधिगम संबंधी समस्या से पीड़ित है।”


 


वर्ष 994 में अमेरिका की अधिगम अक्षमता की राष्ट्रीय संयुक्त समिति (द नेशनल ज्वायंट कमीटी ऑन लर्निंग डिसएबलिटिज्स) ने अधिगम अक्षमता को परिभाषित करते हुए कहा कि -


“अधिगम अक्षमता एक सामान्य पद है, जो मानव में अनुमानत: केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के सुचारु रुप से नहीं कार्य करने के कारण उत्पन्न आंतरिक विकृतियों के विषम समूह, जिसमें की बोलने, सुनने, पढ़ने, लिखने, तर्क करने या गणितीय क्षमता के प्रयोग में कठिनाई शामिल होते हैं, को दर्शाता है। जीवन के किसी भी पड़ाव पर यह उत्पन हो सकता है। हालाँकि अधिगम अक्षमता अन्य प्रकार की अक्षमताओं (जैसे कि संवेदी अक्षमता, मानसिक मंदता, गंभीर संवेगात्मक विक्षोभ) या सांस्कृतिक भिन्‍ता, अनुपयुक्तता या अपर्याप्त अनुदेशन के प्रभाव के कारण होता है लेकिन ये दशाएँ अधिगम अक्षमता को प्रत्यक्षत: प्रभावित नहीं करती हैं।”


उपर्युक्त परिभाषाओं की समीक्षा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अधिगम अक्षमता एक व्यापक संप्रत्यय है, जिसके अंतर्गत वाक, भाषा, पठन, लेखन, एवं अंकगणितीय प्रक्रियाओं में से एक या अधिक के प्रयोग में शामिल एक या अधिक मूल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति को शामिल किया जाता है, जो अनुमानत: केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के सुचारू रुप से नहीं कार्य करने के कारण उत्पन्न होता है। यह स्वभाव से आंतरिक होता है।




अधिगम अक्षमता की प्रकृति एवं विशेषताएँ -


अधिगम संबंधी कठिनाई, श्रवण, दृष्टि, स्वास्थ, वाक्‌ एवं संवेग आदि से संबंधित अस्थायी समस्याओं से जुड़ी होती है। समस्या का समाधान होते ही अधिगम संबंधी वह कठिनाई समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत अधिगम अक्षमता उस स्थिति को कहते हैं जहाँ व्यक्ति की योग्यता एवं उपलब्धि में एक स्पष्ट अंतर हो। यह अंतर संभवत: स्नायुजनित होता है तथा यह व्यक्ति विशेष में आजीवन उपस्थित रहता है।



चूँकि अधिगम अक्षमता को कानूनी मन्यता प्राप्त नहीं है और जनगणना में अधिगम अक्षमता को आधार नहीं बनाया जाता है। इसलिए देश में मौजूद अधिगम अक्षम बालकों के संबंध में ठीक-ठीक आँकड़ा प्रदान करना तो अति मुश्किल है लेकिन एक अनुमान के अनुसार यह कहा जा सकता है कि देश में इस प्रकार के बालकों की संख्या अन्य प्रकार के विकलांग बालकों की संख्या से से कहीं ज़्यादा है। यह संख्या, देश में उपलब्ध कुल स्कूली जनसंख्या के 1-41 प्रतिशत तक ही सकता है। सन्‌ 2012 में चेन्नई में समावेशी शिक्षा एवं व्यावसायिक विकल्प विषय पर सम्पन्न हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन “लर्न 2012” में विशेषज्ञों ने कहा कि भारत में लगभग 10% बालक अधिगम अक्षम हैं।


अधिगम अक्षमता की विभिन्‍न मान्यताओं पर दृष्टिपात करने से अधिगम अक्षमता की प्रकृति के संबंध में आपको निम्नलिखित बातें दृष्टिगोचर होंगी -


  1. अधिगम अक्षमता आंतरिक होती है।


  1. यह स्थायी स्वरुप का होता है अर्थात यह व्यक्ति विशेष में आजीवन विद्यमान रहता है।


  1. यह कोई एक विकृति नहीं बल्कि विकृतियों का एक विषम समूह है।


  1. इस समस्या से ग्रसित व्यक्तियों में कई प्रकार के व्यवहार और विशेषताएँ पाई जाती हैं।


  1. चूँकि यह समस्या केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की कार्यविरुपता से संबंधित है, अतः यह एक जैविक समस्या है।


  1. यह अन्य प्रकार की विकृतियों के साथ हो सकता है, जैसे- अधिगम अक्षमता और संवेगात्मक विक्षोभ।


  1. यह श्रवण, सोच, वाक, पठन, लेखन एवं अंकगणितीय गणना में शामिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति के फलस्वरुप उत्पन्न होता है, अतः यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है।


अधिगम अक्षमता के प्रकृत्ति को चित्र संख्या एक के माध्यम से समझा जा सकता है -






 


अधिगम अक्षमता के लक्षण को आप अधिगम अक्षम बालकों की विशेषताओं के संदर्भ में समझ सकते हैं। उपरोक्त मुख्य लक्षणों के अतिरिक्त कुछ अन्य लक्षण भी प्रदर्शित कर सकते हैं, जो निम्नलिखित है जेड


  • बिना सोचे-विचरे कार्य करना

  • उपयुक्त आचरण नहीं करना

  • निर्णयात्मक क्षमता का अभाव

  • स्वयं के प्रति लापरवाही

  • लक्ष्य से आसानी से विचलित होना

  • सामान्य ध्वनियों एवं दृश्यों के प्रति आकर्षण

  • ध्यान कम केन्द्रित करना या ध्यान का भटकाव

  • भावत्मक अस्थिरता

  • एक ही स्थिति में शांत एवं स्थिर रहने की असमर्थता

  • स्वप्रगति के प्रति लापरवाही बरतना

  • सामान्य से ज्यादा सक्रियता

  • गामक क्रियाओं में बाघा

  • कार्य करने की मंद गति

  • सामान्य कार्य को संपादित करने के लिए भी एक से अधिक बार प्रयास करना

  • पाठ्य सहगामी क्रियाओं में शामिल नहीं होना

  • क्षीण स्मरण शक्ति का होना

  • बिना वाह्म हस्तक्षेप के अन्य गतिविधियों में भाग लेने में असमर्थ होना

  • प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी दोष



अधिगम अक्षमता का वर्गीकरण -


अधिगम अक्षमता एक वृहद्‌ प्रकार के को कई आधारों पर विभेदीकृत किया गया है। ये सारे विभेदीकरण अपने उद्देश्यों के अनुकूल हैं। इसका प्रमुख विभेदीकरण ब्रिटिश कोलंबिया (2011) एवं ब्रिटेन के शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक (सपोर्टिंग स्टुडेंटस विद लर्निंग डिसएबलिटिः ए गाइड फॉर टीचर्स) में दिया गया है, जो निम्नलिखित है -


  1. डिस्लेक्सिया (पढ़ने संबंधी विकार)

  2. डिस्ग्राफिया (लेखन संबंधी विकार)

  3. डिस्कैलकुलिया (गणितीय कौशल संबंधी विकार)

  4. डिस्फैसिया (वाक्‌ क्षमता संबंधी विकार)

  5. डिस्प्रैक्सिया (लेखन एवं चित्रांकन संबंधी विकार)

  6. डिसऑर्थोग्राफिया (वर्तनी संबंधी विकार )

  7. ऑडिटरी प्रोसेशिंग डिसआर्डर (श्रवण संबंधी विकार )

  8. विजुअल परसेप्शन डिसआर्डर (दृश्य प्रत्यक्षण क्षमता संबंधी विकार)

  9. सेंसरी इंटिग्रेशन और प्रोसेसिंग डिसआर्डर (इन्द्रीय समन्‍वयन क्षमता संबंधी विकार)

  10. ऑर्गनाइजेशनल लर्निंग डिसआर्डर (संगठनात्मक पठन संबंधी विकार)




अब आप बारी-बारी से एक-एक का अध्ययन करेंगे।


  1. डिस्लेक्सिया - 


डिस्लेक्सिया शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्द “उस” और “लेक्सिस” से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है “कठिन भाषा (डिफिकल्ट स्पीच)”। वर्ष 887 में एक जर्मन नेत्र रोग विशेषज्ञ रुडोल्फ बर्लिन द्वारा खोजे गए इस शब्द को “शब्द अंधता” भी कहा जाता है। डिस्लेक्सिया को भाषायी और सांकेतिक कोडों भाषा के ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्णमाला के अक्षरों या संख्याओं का प्रतिनिधित्व कर रहे अंकों के संसाधान में होनेवाली कठिनाई के रुप में परिभाषित किया जाता है। यह भाषा के लिखित रुप, मौखिक रुप एवं भाषायी दक्षता को प्रभावित करता है। यह अधिगम अक्षमता का सबसे सामान्य प्रकार है। 



डिस्लेक्सिया के लक्षण निम्नलिखित हैं-


  • वर्णमाला अधिगम में कठिनाई

  • अक्षरों की ध्वनियों को सीखने में कठिनाई

  • एकाग्रता में कठिनाई

  • पढ़ते समय स्वर वर्णों का लोप होना

  • शब्दों को उलटा या अक्षरों का क्रम इधर-उधर कर पढ़ा जाना, जैसे- नाम को मान या शावक को शाक पढ़ा जाना, वर्तनी दोष से पीड़ित होना

  • समान उच्चारण वाले ध्वनियों को न पहचान पाना

  • शब्दकोष का अभाव

  • भाषा के अर्थपूर्ण प्रयोग का अभाव

  • क्षीण स्मरण शक्ति




डिस्लेक्सिया की पहचान - 


उपर्युक्त लक्षण हालाँकि डिस्लेक्सिया की पहचान करने में उपयोगी होते हैं। लेकिन इन लक्षणों के आधार पर पूर्णतः विश्वास के साथ किसी भी व्यक्ति को डिस्लेक्सिक घोषित नहीं किया जा सकता है। डिस्लेक्सिया की पहचान करने के लिए सन्‌ 1973 में अमेरिकन फ़िजिशियन एलेना बोडर ने “बोड टेस्ट ऑफ रीडिंग-स्पेलिंग पैट्टन” नामक एक परीक्षण का विकास किया। भारत में इसके लिए “डिस्लेक्सिया अर्ली स्क्रीनिंग टेस्ट” और “डिस्लेक्सिया स्क्रीनिंग टेस्ट” का प्रयोग किया जाता है।


 


डिस्लेक्सिया का उपचार - 


डिस्लेक्सिया का पूर्ण उपचार असंभव है लेकिन इसको उचित शिक्षण-अधिगम पद्धति के द्वारा निम्नतम स्तर पर लाया जा सकता है।



  1. डिस्ग्राफिया - 


“डिस्ग्राफिया अधिगम अक्षमता का वो प्रकार है जो लेखन क्षमता को प्रभावित करता है। यह वर्तनी संबंधी कठिनाई, खराब हस्तलेखन एवं अपने विचारों को लिपिबद्ध करने में कठिनाई के रुप में जाना जाता है।”


डिस्ग्राफिया के लक्षण- इसके निम्नलिखित लक्षण है -


  • लिखते समय स्वयं से बातें करना

  • अशुद्ध वर्तनी एवं अनियमित रुप और आकार वाले अक्षर को लिखना

  • पठनीय होने पर भी कॉपी करने में अत्यधिक श्रम का प्रयोग करना

  • लेखन सामग्री पर कमजोर पकड़ या लेखन सामग्री को कागज के बहुत नजदीक पकड़ना

  • अपठनीय हस्तलेखन

  • लाइनों का ऊपर-नीचे लिखा जाना एवं शब्दों के बीच अनियमित स्थान छोड़ना

  • अपूर्ण अक्षर या शब्द लिखना।



उपचारात्मक कार्यक्रम- 


चूँकि यह एक लेखन संबंधी विकार है, अतः, इसके उपचार के लिए यह आवश्यक है कि इस अधिगम अक्षमता से ग्रसित व्यक्ति को लेखन का ज्यादा से ज्यादा अभ्यास कराया जाय।


 


  1. डिस्कैलकुलिया-


यह एक व्यापक पद है जिसका प्रयोग गणितीय कौशल अक्षमता के लिए किया जाता है। इसके अंतर्गत अंकों संख्याओं के अर्थ समझने की अयोग्यता से लेकर अंकगणितीय समस्याओं के समाधान में सूत्रों एवं सिद्धांतों के प्रयोग की अयोग्यता तथा सभी प्रकार के गणितीय कौशल अक्षमता शामिल है।


 


डिस्कैलकुलिया  के लक्षण -


 इसके निम्नलिखित लक्षण हैं -


  • नाम एवं चेहरा पहचानने में कठिनाई

  • अंकगणितीय संक्रियाओं के चिन्हों को समझने में कठिनाई

  • अंकगणितीय संक्रियाओं के अशुद्ध परिणाम मिलना

  • गिनने के लिए ऊँगलियओं का प्रयोग

  • वित्तीय योजना या बजट बनाने में कठिनाई

  • चेकबूक के प्रयोग में कठिनाई

  • दिशा ज्ञान का अभाव या अल्प समझ

  • नकद अंतरण या भुगतान से डर

  • समय की अनुपयुक्त समझ के कारण समय-सारणी बनाने में कठिनाई का अनुभव करना।


डिस्कैलकुलिया के कारण- 


इसका कारण मस्तिष्क में उपस्थित कार्टेक्स की कार्यविरुपता को माना जाता है। कभी-कभी तार्किक चिंतन क्षमता के अभाव के कारण या कार्यकारीस्मृति के अभाव के कारण भी डिस्ग्राफिया उत्पन्न होता है।



डिस्कैलकुलिया का उपचार- 


उचित शिक्षण-अधिगम रणनीति अपनाकर डिस्कैलकुलिया को कम किया जा सकता है।  कुछ प्रमुख रणनीतियाँ निम्नलिखित है -


  • जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से संबंधित उदाहरण प्रस्तुत करना

  • गणितीय तथ्यों को याद करने की लिए अतिरिक्त समय प्रदान करना

  • फ्लैश कार्ड्स और कम्पुटर गेम्स का प्रयोग करना

  • गणित को सरल करना और यह बताना कि यह एक कौशल है जिसे अर्जित किया जा सकता है।


  1. डिस्फैसिया- 


ग्रीक भाषा के दो शब्दों “डिस” और “फासिया” जिनके शाब्दिक अर्थ क्रमशः “अक्षमता” एवं “वाक्‌” होते हैं,  से मिलकर बने शब्द डिस्फैसिया का शाब्दिक अर्थ वाक्‌ अक्षमता से है। यह एक भाषा एवं वाक्‌ संबंधी विकृती है जिससे ग्रसित बच्चे विचार की अभिव्यक्ति या व्याखान के समय कठिनाई महसूस करते हैं। इस अक्षमता के लिए मुख्य रुप से मस्तिष्क क्षति (ब्रेन डैमेज) को उत्तरदायी माना जाता है।



  1. डिस्प्रेक्सिया- 


यह मुख्य रुप से चित्रांकन संबंधी अक्षमता की ओर संकेत करता है। इससे ग्रसित बच्चे लिखने एवं चित्र बनाने में कठिनाई महसूस करते हैं।



अधिगम अक्षम बालकों की पहचान -


आरम्भिक चरण में अधिगम अक्षमता की पहचान करना अत्यन्त कठिन है क्योकि इसके लिए वास्तविक व्यवहार एवं अपेक्षित व्यवहार में महत्वपूर्ण अन्तर होना आवश्यक है। अधिगम अक्षमता की पहचान जितनी देर से होगी उसका निदान उतना ही कठिन होता जाता है तथा किशोरावस्था में गलत प्रवृत्तियों का शिकार होने की उनकी सम्भावना बढ़ जाती है। इसकी पहचान प्रारम्भिक स्तर पर बालको के व्यवहार द्वारा की जाती है। लगभग पूरा दिन छात्रों के साथ व्यतीत कर के उसका निरीक्षण करने के कारण शिक्षक अधिगम अक्षमता की पहचान के लिए ज्यादा उपयुक्त होता है। पूर्व चिह्नित अक्षमताओं के आधार पर शिक्षक छात्र की सम्भाव्य अधिगम अक्षमता की जानकारी प्राप्त कर पाता है।


 


अधिगम अक्षम बालक द्वारा प्रदर्शित लक्षण -


अधिगम अक्षमता एक इस प्रकार की विकलांगता है, जिसमे कई श्रेणी, तीव्रता तथा क्षेत्र वाली कठिनाइयां सम्मिलित होती हैं। ये कठिनाइयां स्वतंत्र रूप से या समूह में किसी अधिगम अक्षम बालक में प्रकट हो सकती हैं। अधिगम अक्षम बालक में निम्नलिखित व्यवहारगत लक्षण पाए जाते हैं, जिन्हें समझ कर इस प्रकार के बालकों की शीघ्र पहचान की जा सकती है -


  • बुद्धि —  


सामान्यत: अधिगम अक्षम छात्र सामान्य या सामान्य से अधिक बौद्धिक स्तर के हो सकते हैं तथा कुछ छात्र विशेष प्रतिभा के भी होतें है।


  • प्रत्यक्षीकरण एवं गामक क्षमता — 


हम जानतें है कि प्रत्यक्षीकरण का सम्बन्ध अर्थपूर्ण संवेदना से है। प्राय: अधिगम अक्षम बालकों को प्रत्यक्षीकरण में समस्या उत्पन्न होती है। फलस्वरूप वे विभिन् ध्वनियों एवं दृश्यों में विभेीदीकरण और उद्दीपकों को उसके नियत स्थान पर रख कर प्रत्यक्षीकरण में कठिनाई महसूस करते हैं। ऐसे बालक भिन्‍न-भिन्‍न उद्दीपकों पर भी समान प्रतिक्रिया दे सकतें है। इन्हें ध्यान केन्द्रीकरण एवं संवेग सम्बन्धी समस्याओं का भी सामना करना पड़ सकता है। ऐसे बालकों में दीर्घकालीक एवं अल्पकालिक समृति सम्बन्धी समस्याएँ होती हैं, जो धारणा एवं प्रत्यास्मरण आधारित होती है। उन्हें स्वयं अपने द्धारा किए कार्यो के नियन्त्रण में भी कठिनाई होती है। अन्य बालकों की अपेक्षा समायोजन, वर्गीकरण एवं व्यवस्थित करने का कौशल भी उनमें कम होता है।अधिगम अक्षमता के कारण इनकी गामक क्षमताएँ प्रभावित होती है। ऐसे बालकों की लिखावट भी सामान्यत: अच्छी नहीं होती है, साथ ही उन्हें विभिन्‍न चित्रों की पहचान एवं वर्गीकरण में भी कठिनाई होती है।



  • पराबोद्धिक कौशल — 


पराबौद्धिक कौशल कार्य के सफल कार्यान्वयन को सुनिश्चित करता है। पराबौद्धिक कौशल के अन्तर्गत किसी भी कार्य को प्रभावकारी ढंग से करने के लिए प्रयुक्त होने वाले कौशल, कार्ययोजना तथा आवश्यक संसाधन का ज्ञान आवश्यक है। इसमें स्व-नियन्त्रित तंत्रों की आवश्यकता होती है। इनमे व्यवसायिक गतिविधियां, कार्यरत योजना के प्रभाव का मूल्यांकन, प्रयत्नों के परिणाम का परीक्षण तथा समस्याओं का निराकरण सम्मिलित हैं।


  • व्यवहारगत एवं भावनात्मक गुण — 


अधिगम अक्षम बालक या तो अतिक्रियाशील होतें है या कम क्रियाशील होतें हैं। ऐसे बालकों के व्यवहार में प्राय: शीघ्र विचलन, अल्प ध्यान केंद्रीयकरण, स्मृतिदोष, अतिसंवेग, अतितीत्र एवं असमान्य भावपूर्ण प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है। ऐसे बालकों को सामाजिक समायोजन में अधिक कठिनाई होती है, क्योकि प्राय: संवेगों के प्रभाव में वे सामाजिक मूल्यों एवं सीमाओं का उल्लंघन कर जातें हैं। एसे बालक स्वयं के व्यवहार के प्रभाव का आकलन नहीं कर पातें है जिसके परिणामस्वरूप उनमें सामुचित समझ एवं अन्य भवनात्मक बोध का अभाव होता है। परिणामस्वरूप उन्हें दूसरों से सदैव नकारात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त होती है और समाज में वे अवांछित हो जातें हैं। दूसरों से प्रभावपूर्ण अन्तःक्रिया में अक्षमता के कारण उनमें आत्मसम्मान का अभाव हो सकता है। ऐसे बालकों के दुर्व्यवहार का कारण उनका अवसाद एवं हताशा है, जो अधिगम अक्षमजन्य होती है। अधिकांश शोध के आँकड़े ये प्रदर्शित करतें हैं कि ऐसे बालकों की सामाजिक स्वीकारात्मकता कम होती है। फिर भी समाज में कुछ ऐसे अधिगम अक्षम बालकों के भी उदाहरण मिलते है, जो अपने वर्ग, विधालय और समूह में लोकप्रिय हुए हैं।


  • पाठ्य अधिगम क्षमता  —


अधिगम अक्षम बालक प्राय: अपने वर्ग के अन्य छात्रों से पठन-पाठन, अर्थबोध, भाषाप्रवाह एवं उच्चारण आदि क्षेत्रों में अपेक्षाकृत पीछे छूट जातें है। सामान्यतः ऐसे छात्र ध्वनियों, वर्णो एवं संख्याओं के विपरीत अर्थ ग्रहण कर लेतें है। यह समस्याएँ बाद में श्रवण एवं वाचन सम्बन्धी समस्याओं को और गंभीर बना देती है।


  •  संप्रेषणीय क्षमता —


अधिगम अक्षम बालकों को ध्वनियों को उच्चारित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। ऐसे बालक ध्वनियों की पुनरावृत्ति एवं हकलाहट से ग्रसित होतें है। इन्हे भाषा के वास्तविक स्वरूप को सामाजिक प्रयोग हेतु रूपान्तरित करने में समस्या होती है। यह समस्या अर्थपूर्ण संप्रेषण हेतु उचित शब्दों के चयन के रूप में प्रदर्शित होती होती है।


  • स्मृति एवं विचारगत क्षमता - 


प्राय: ऐसे छात्रों को शब्दों एवं ध्वनियों को (जो शब्दों का निर्माण करती हैं) याद करने में कठिनाई हो सकती है। इन्हें अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक स्तर पर शब्दों का अर्थ प्रत्यास्मरण में समस्या होती है। इनकी यह अक्षमता या तो उनके स्मृति दोष के कारण होती है अथवा इनकी दीर्घकालिक स्मृति सम्बन्धित सूचनाओं के प्रत्यास्मरण सम्बन्धी समस्याओं का परिणाम हो सकती है।


  • विशिष्ट शैक्षिक उपलब्धि सम्बन्धित विशेषताएँ —


ऐसे बालक अलग-अलग. विशिष्ट शैक्षिक क्षेत्रों में उपलब्धि सम्बन्धी कमी प्रदर्शित करतें हैं। इन विद्यालयी सम्बन्धी विशिष्ट उपलब्धियों में अवरोध निम्न रूपों में दिखाई देतें हैं:


  • लेखन-पाठन सम्बन्धी —


  • पठन सम्बन्धी अक्षमताओं के कारण पठन कार्य में आत्मविश्वास की कमी प्रदर्शित करतें हैं।

  • पठन सम्बन्धी कार्यो के दौरान शारीरिक असहजता प्रदर्शित करतें हैं।

  • कुछ शब्दों को स्वयं ही छोड़तें और जोड़ते चले जाते हैं।

  • वैकल्पिक शब्दों का प्रयोग करतें हैं।

  • विपरीतार्थक शब्दों का प्रयोग करतें हैं।

  • बोध एवं प्रवाह सम्बन्धी समस्याएँ प्रदर्शित होती हैं।



  • गणितीय अधिगम सम्बन्धी-


  • गामक अक्षमता, संख्याओं से लेखन सम्बन्धी कमी प्रदर्शित होती है।

  • बहुचरणीय गणितीय प्रश्नों के हल करने में समस्या होती है।

  • भाषामें प्रयुक्त बहुअर्थीय शब्दों के प्रासंगिक अर्थबोध में समस्या आती है।

  • शब्दों एवं चिन्हों से सम्बन्धित अमूर्त्त तार्किक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।



अधिगम अक्षम बालकों की शिक्षा तथा उनका समायोजन

(Education And Adjustment Of Children With Learning Disabilities)


परम्परागत रूप से विशेष शिक्षको द्वारा दी गयी वरीयता एवं विद्यालयी नीतियों के आधार पर ही अधिगम अक्षम बालकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जाता है। अभिभावक एवं शिक्षक दोनों को प्रशिक्षण कार्यक्रम से बालकों में हो रहे अपेक्षित परिवर्तन के प्रति भी सचेत रहना चाहिए। अधिगम अक्षम बालकों की समस्याओं से सम्बन्धित सुचनाएँ प्रदान करने के लिए शिक्षकों के पास उसकी सम्पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है। इस प्रकार अभिभावको एवं शिक्षकों के द्वारा बालको की योग्यताओं के सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा ही उनके भीतर नवीन कौशलों का विकास सम्भव है। जब किसी बालक का अपेक्षित विकास नहीं होता है तब इन सूचनाओ और आँकड़ों के आधार पर ही नई युक्तिओं का प्रयोग कर प्रभावशाली ढंग से उन्हें प्रशिक्षित करने का प्रयास किया जाता है। बालकों के मूल्यांकन की सूचनाएँ शिक्षकों को भविष्य में प्रभावी एवं उत्तम योजनाओं के निर्माण में मार्गदर्शन का कार्य करती है। विशेष शिक्षक शिक्षण पाठ्यक्रम के प्रमुख लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को चिन्हित कर, बालकों की रूचि, योग्यता एवं आवश्यकतानुसार विषयवस्तु को सुबोध बनाने का प्रयत्न करते है।


मर्शर और पुलेन (2009) (स्मिथ पॉवेल, पैटॉन तथा डॉवडी, 2011] में उल्लेखित) ने विद्यालयी पूर्व शिक्षा के पाठ्यक्रम हेतु कुछ प्रतिमान प्रदान किए गये, जिनमें कुछ निम्न है —



  1. विकासात्मक प्रतिमान — 


विकासात्मक प्रतिमान के अन्तर्गत बालक को अधिगम के लिए उत्तम परिवेश उपलब्ध कराने के साथ विविध अनुभवों से गुजरने का अवसर प्रदान कराता है। उसमें भाषा, कहानियाँ, रचनात्मक, अवसरों, व यात्राओं के माध्यम से बालक के विकास को उद्दपित करने का प्रयास किया जाता है।


  1. बौद्धिक प्रतिमान — 


बौद्धिक प्रतिमान पियाजे के सिद्धान्त पर आधारित है, जिसका प्रमुख उद्देश्य बालक के बौद्धिक एवं वैचारिक योग्यता को उद्पित करना है। इसके अन्तर्गत स्मृति, भाषा, विभेद क्षमता, अवधारणा निर्माण, आत्म मूल्यांकन, बोध एवं समस्या समाधान को उत्तम बनाने हेतु प्रदान किया जाता है।


  1. व्यवहारात्मक प्रतिमान — 


प्रत्यक्ष अनुदेशन द्वारा प्राप्त अवधारणा और पुर्ननलन सिद्धान्त व्यवहारात्मक प्रतिमान का आधार है। प्रत्येक छात्र के लिए लक्ष्य का निर्धारण कर उसके व्यवहार का निर्धारण करना आवश्यक है।



वर्ट्स, कलाटा एवं टाम्पकिन्स (2007) ने अधिगम अक्षम बालकों के प्रशिक्षण हेतु निम्न विधियों का वर्णन किया है—



  1. प्रत्यक्ष अनुदेशन —


यह एक आँकडो पर आधारित अनुदेशन है जिसमें विविध अधिगम लक्ष्यों की पहचान की जाती है, व्यवहार अधिगम का अध्ययन किया जाता है, तथा लक्ष्य प्राप्ति के सन्दर्भ में दिखने वाले सुधारों को नोट किया जाता है। अधिगम अक्षम बालकों की सुविधा हेतु विषयवस्तु को संरचनात्मक चरणों में बांटकर यह अनुदेशन एक गहन शैक्षिक योजना प्रदान करता है। पिछले पाठ का पुनरावलोकन, पाठ का स्पष्ट उद्देश्य, कौशल अनुप्रयोग का प्रत्यक्ष और संरचनात्मक प्रदर्शन, प्रतिपुष्टि, सकारात्मक पुनर्बलन, सुधार, उदाहरण, सार्वजनिक प्रशंसा, छात्र सहभागिता इत्यादि कारणों से यह अनुदेशन बहुत हद तक सफल प्रतीत हो रहा है। प्रत्यक्ष अनुदेशन द्वारा प्राप्त अवधारणा एवं पुनर्बलन सिद्धान्त व्यवहारात्मक प्रतिमान के आधार हैं।



  1. बौद्धिक अनुदेशन —


इस अनुदेशन में चिन्हित की गयी समस्याओं के आधार पर पाठ का निर्माण किया जाता है। इसमें शैक्षिक एवं अनुदेशनात्मक गतिविधियों, ध्यान, प्रतियुत्तर, अभ्यास प्रत्यास्मरण, और अधिगम के हस्तान्तरण पर बल दिया जाता है। अधिगम अक्षम छात्र सीमित शैक्षिक कार्य योजना का प्रयोग कर अपनी प्रतिक्रिया की निगरानी करते हैं तथा स्वंय सुधार के साथ विकास के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। शिक्षक विभिन्‍न शिक्षण सामग्रियों पुन्बलन तथा छात्रों के सबल एवं कमजोर पक्षों का सम्पूर्ण आँकड़ा प्रस्तुत कर उनके सफलता एवं उपलब्धियों पर विशेष बल देते हुए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं। इस प्रकार शिक्षक और छात्र लक्ष्यों का निर्धारण कर स्वयं निगरानी का कार्य करतें है।



  1. अध्ययन कौशल प्रशिक्षण —


अधिगम कौशल प्रशिक्षण या पराबौद्धिक अध्ययन कौशल प्रशिक्षण छात्रों के अधिगम के निम्न क्षेत्रों में सहायता और निर्देश प्रदान करता है—

  • नोट्स लेने व जाँच प्रक्रिया में सम्मिलित होने मे

  • रचना करे में

  • योजना बनाने में

  • विवरण प्रस्तुत करने में

  • पठन-पाठन एवं अधिन्यास हेतु आवश्यक शिक्षण सामग्रियों के रखने में


यह प्रक्रिया अधिगम कार्य (पठन एवं लेखन कौशल) के सुनियोजन मूल्यांकन पर विशेष बल देती है। उदाहरणार्थ, किसी पाठ्यपुस्तक की मुख्य सुचनाओं का निचोड़ निकाल अपनी स्मृति के आधार पर अधिन्यास में उसका प्रयोग करना सीखना एक जटिल कार्य हो सकता है। वस्तुत: शिक्षक सम्पूर्ण स्वतंत्र प्रभावी कार्य करने की योग्यता को उच्च स्तर के अध्ययन कौशल से जोड़कर देखते है। वे बालाकों से यह अपेक्षा करते है कि वे सूचनाओं एवं शैक्षिक संसाधनो जैसे नोट्स, पाठ्य पुस्तक, कार्यसुचि, सूचनाओं आदि को फलदायी प्रकार से सम्बन्धित कर अपने अधिन्यास को प्रभावकारी ढंग से सम्पूर्ण कर सके।


 


सामाजिक कौशल प्रशिक्षण —


सामाजिक कौशल प्रशिक्षण सकारात्मक पुनर्बलन के प्रयोग व भावनाओं को समझाने आदि की क्रियाओं पर बालकों की विशेष कौशल क्षेत्र में मदद करता है। वे क्षेत्र इस प्रकार है- मित्र बनाने में, वयस्कों से विभिन्‍न परिवेश और परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने में आदि। यह प्रशिक्षण बालकों को भावनात्मक स्तर पर सुव्यवस्थित एवं दृढ़ बनाता है, साथ ही उनमें आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न कराता है। अत: इस प्रकार बालकों में स्वप्रोत्साहन, आत्मप्रशंसा, आत्मसम्मान संयम एवं स्थितियों व भावो पर नियन्त्रण आदि का भाव पुष्ट होता है। बालकों में प्रतियोगिता की भावना का विकास होता है। सामाजिक कौशल प्रशिक्षण बालकों में अवसाद तनाव और भ्रम आदि से मुक्ति पाने व भावनाओं के आदान-प्रदान करने के कौशलों का विकास करता है। शिक्षकों को प्रसन्‍न व्यवहार करवाना ही इस प्रशिक्षणों का मूल लक्ष्य है। “क्या आप इसे पुन: बताएंगें?', एक अच्छा प्राम्भिक प्रश्न हो सकता है। इस प्रश्न को पूछने के लिए बालक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह उस शिक्षक द्वारा दी गयी जानकारियों या व्याख्यान को सुनने के पश्चात उचित अन्तराल की ध्यान पूर्वक प्रतिक्षा करे जिससे उसके प्रश्न की सार्थकता सिद्ध हो सके।


समावेशी कार्य विधियाँ —


विशेष शिक्षा के नूतन नियम इस बात पर बल देते हे कि अधिगम अक्षम बालको की शिक्षा यथासम्भव सामान्य बालकों के साथ हो। यदि इन बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ पढने का अवसर दिया जाएगा तो ये बालक अपने आयु वर्ग के दूसरे बच्चों के साथ शिक्षा ग्रहण कर उनके साथ सामंजस्य स्थापित कर पाएंगें। यदि ये बालक वहाँ सामंजस्य नहीं बिठा पाते तब उनके लिए वैकल्पिक अनुदेशनात्मक प्रतिमान का प्रयोग किया जाता है। इसमें सही एवं प्रभावी अनुदेशन के लिए पाठूक्रम का प्रयोगात्मक और सृजनात्मक अथवा कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है। शिक्षक छात्रों के स्तर की अनुदेशन और विषय सामग्री उपलब्ध कराकर उनकी सफलता सुनिश्चित कर सकतें है। इसके अन्तर्गत कार्यपुस्तिका एवं अभ्यास पुस्तिका के आकर्षक तथा सूचनाओं का एक तार्किकता एवं क्रमबद्धता के साथ पेश किया जाना चाहिए| शिक्षक अधिगम अक्षम छात्रों के लिए अनुदेशन को कई बार दुहरा सकता है। इसके अन्तर्गत कार्य को पूरा करने हेतु अधिक समय देना, अनुदेशन के लिए कार्यो को छोटी-छोटी इकाईयों में तोड़ना अधिन्यास को सरल बनाने के लिए छोट-छोटे भागों में विभक्त करना और कार्य का सम्पूर्ण विश्लेषण करना आदि शामिल है। सामान्य अनुदेशनात्मक सुधार के अन्तर्गत- दैनिक अधिन्यास, चार्ट और ग्राफिक का व्यवस्थापन एवं रंगीन विषय सामग्री, जो कार्यों के निर्देश को रेखांकित करती है, को शामिल किया जा सकता है।


सहपाठी सहयोग निर्देशन —


यह एक परखी हुई प्रतिक्रिया है जिसमें विद्यार्थी ही दूसरे विद्यार्थियों के लिए निर्देश एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। सफल कार्यक्रम सदैव तार्किक रूप से व्यवस्थित व प्रभावी अनुदेशनात्मक अभ्यास के नियमों का सतत्‌ रूप से पालन करते हैं। सफल होने के लिए सहपाठी-शिक्षक अपने शिक्षकों की भांति ही सूचनाओं को व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत करते हैं। सहयोगी सहपाठियों का निरीक्षण भी करते हैं, प्रतिक्रियाओं की सार्थकता पर नियन्त्रण रखते है और तत्काल प्रतिपृष्टि प्रदान करते हैं। सहपाठी सहयोगात्मक निर्देशन का प्रयोग एक वैकल्पिक अभ्यास क्रिया के रूप में किया जा सकता है। इसका प्रयोग समूह में नई चीजों को पढाने के लिए किया जा सकता है। वे दो सहयोगी कार्यक्रम जिनको इस क्षेत्र में बढावा दिया गया है, वे इस प्रकार है- पीयर ट्यूटोरिंग एवं क्लास वाइज पीयर ट्यूटोरिंग टीम (सीडब्लूपीटी)।


 


 


संगणक निर्देशित अनुदेशन —


संगणक निर्देशित अनुदेशन संगणक तथा साफ्टवेयर का ऐसा प्रयोग है जो व्यापक और विविध अनुदेशन प्रदान कर सके जैसे शैक्षिक खेल, समस्या हल अनुभव, शब्द कार्य प्रक्रिया, उच्चारण और व्याकरण जाँच अनुदेशन तथा इनका अभ्यास। संगणक निर्देशित अनुदेशन एक आकर्षक और प्रोत्साहित करने वाला अनुदेशन है जो छात्रों को सफल अनुभव अधिगम की ओर अग्रसरित करता है। यह छात्रों को तुरन्त प्रतिपुष्टि देता है, साथ ही विषयों को खण्डों में बाँटकर गलतियों की सम्भावना को कम करता है। शिक्षको को बच्चों के विकास के निरीक्षण हेतु पूरा अवसर प्रदान करता है। यदि छात्र किसी पाठ को सस्वर पढना चाहे तो वह संगणक वाचक या ध्वनि यंत्र का प्रयोग कर अभ्यास कर सकतें है। इस प्रकार संगणक ध्वनि मिश्रक समस्या वाले बालकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह बच्चों के हस्तलेखन की आवश्यकता को कम करता है, इससे समय की बचत होती है। किन्तु यही संगणक निर्देशित अनुदेशन की एक सीमा भी है।


अधिगम अक्षम बालकों का प्रशिक्षण, उनके सीखने की क्षमता व विशेषता, प्रशिक्षण कार्यक्रम की प्रकृति तथा कार्यक्रम के प्रस्तुतिकरण से प्रभावित होती हैं। रेड्डी, रमार एवं कुशमा (2003) ने अधिगम अक्षम बालकों के देखभाल के लिए निम्न पाँच अधिगम के चरणों के आघार पर अलग-अलग कार्यक्रम निर्धारण की बात कही है —


 


  • अधिग्रहण चरण 

  • प्रवीणता चरण

  • अनुरक्षण चरण

  • सामान्यीकरण चरण

  • अनुकूलन चरण


प्रशिक्षण कार्यक्रम के प्रस्तुतिकरण में संबंधित वातावरण का अनुकलित होना बालकों के अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बना देता है। स्मिथ पॉवेल, पैटॉन तथा डॉवडी (20) ने अधिगम अक्षम बालकों की कक्षा में समावेशन के लिए कुछ सुझाव प्रस्तुत किए, जो कक्षीय सुविधाओं से जुड़ी हुई थी। उन्होने सुझाव दिया कि लिखित सामग्री स्पर्शीय हो तथा केवल आवश्यक विषयवस्तु को ही समाहित किया जाना चाहिए जो कक्षीय सुविधाओं से जुड़ी हों। श्यामपट्ट अथवा श्वेत पट्ट पर लिखित निदेशों को पढ़ने के लिए छात्रों को उसके नजदीक बैठाना लाभकारी हो सकता है। छात्रों को लिखित और वाचिक दोनों अनुदेशन एक साथ देना ज्यादा उपयोगी सिद्ध हो सकता है। अधिगम अक्षम बालकों की कक्षा को उनके हेतु सरल एवं बोधगम्य बनाने के लिए शिक्षण के दौरान विषयवस्तु से सम्बन्धित पूर्व-डल्लेखित बातों को भी शामिल करना चाहिए। जिससे बच्चे नये और पुराने विषयवस्तु के मध्य सरलतापूर्वक सम्बन्ध स्थापित कर सकें। शिक्षण के दौरान निश्चित अन्तराल पर विराम, पठित विषयवस्तु की जाँच एवं प्रश्नोत्तर तथा नोट्स बनाने के लिए समय देना इन छात्रों के लिए उपयोगी होता है। शिक्षक को विभिन्‍न प्रकार के नये शब्दों का ज्ञान कराने हेतु नयी-नयी युक्तियों का उपयोग करना चाहिए। कई छात्र रंगीन शीर्षक युक्त पाठ और सहयोगी युगल में काम करने पर कार्य को आसान पाते हैं। अत: उन्हें ऐसा अवसर और सुविधाए प्रदान करनी चाहिए।



निष्कर्ष -


इस इकाई के अध्ययन के बाद आप जान चुकें हैं कि अधिगम अक्षम बालकों के लिए समुचित कार्यक्रम का निर्धारण तब तक नहीं को सकता है, जब तक उन बालकों की पहचान न कर ली जाय। इन बालकों की शीघ्र पहचान अति आवश्यक है तथा इसे कुछ विशिष्ट व्यवहारगत लक्षणों के आधार पर किया जाता है। वास्तविक व्यवहार तथा अपेक्षित व्यवहार में अन्तर से ही अधिगम अक्षम बालक की पहचान की जाती है। ये अपेक्षित व्यवहार प्रत्यक्षीकरण गामक क्रियाएं, पराबौद्धिक कौशल, भावनात्मक गुण संप्रेषणीय क्षमता, स्मृति क्षमता आदि से सम्बन्धित होतें हैं। हम यह भी जान चुके हैं कि चिह्नित अधिगम अक्षम बालकों में कठिनाइयों की तीव्रता को जानने के लिए उनका मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन उपरान्त विशिष्ट क्षेत्र में क्षतिगत एवं क्षमतागत तीव्रता के आधार पर ही इन बालकों के लिए सटीक प्रशिक्षण सेवा तैयार की जाती है।


 


 

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