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शारीरिक दृष्टि से अक्षम या विकलांग बालक (Physically Handicapped Or Disabled Children)

शारीरिक दृष्टि से  अक्षम या विकलांग बालक  (Physically Handicapped Or Disabled Children) ऐसे व्यक्ति जिनमें ऐसा शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे साधारण क्रियाओं में भाग देने से रोकता है या उसे सीमित रखता है ऐसे व्यक्ति को हम साजिक रूप से अक्षम या विकलांग व्यक्ति कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में, विकलांग बालक शब्द से तात्पर्य किसी स्थायी शारीरिक दोष से युक्त बालकों से है। स्थायी शारीरिक दोष के कारण बालक सामान्य बालकों की सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से वंचित रह जाते हैं। अपंग, अन्धे, बहरे तथा वाणी दोष से युक्त बालक विकलांग बालकों की श्रेणी में आते हैं। विकलांग बालकों में शारीरिक दोष अवश्य होता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे मानसिक दृष्टि से भी अयोग्य हों। विकलांग बालकों की मानसिक योग्यता प्रायः साधारण अथवा तीव्र होती है परन्तु शारीरिक दोष के कारण उनमें हीन भावना आ जाती है। इसलिए ऐसे बालकों की शिक्षा की उचित व्यवस्था की अत्यन्त आवश्यकता होती है। 

अधिगम अक्षमता (learning Disabled)

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अधिगम अक्षमता (learning Disabled) अधिगम अक्षमता का अर्थ - “अधिगम अक्षमता” पद दो अलग-अलग पदों  “अधिगम” और “अक्षमता” से मिलकर बना है। अधिगम शब्द का आशय “सीखने” से है तथा “अक्षमता” का तात्पर्य “क्षमता के अभाव” या “क्षमता की अनुपस्थिति” से है। अर्थात्‌ सामान्य भाषा में “अधिगम अक्षमता” का तात्पर्य “सीखने की क्षमता अथवा योग्यता” की कमी या अनुपस्थिति से है।  सीखने में कठिनाइयों को समझने के लिए हमें एक बच्चे की सीखने की क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों का आकलन करना चाहिए। प्रभावी अधिगम के लिए मजबूत अभिप्रेरण, सकारात्मक आत्म छवि, और उचित अध्ययन प्रथाएँ एवं रणनीतियाँ आवश्यक शर्ते हैं।

मानसिक मंदता और मानसिक रूग्णता (Mental Retardation And Mental illnesses)

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मानसिक मंदता और मानसिक रूग्णता (Mental Retardation And Mental illnesses) सामान्य अंधविश्वास और सच्चाई - यद्यपि कि विगत दशकों में मानसिक मंदता के प्रति लोगों में जारुकता आयी है, परन्तु अभी भी प्रायः मानसिक मंदता को 'मानसिक रोग' समझा जाता है। मानसिक मंदता और मानसिक रोग दो भिन्न संकल्पनायें /अवस्था है। इस सन्दर्भ में, भारत में कानूनी विकास का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। भारत में आजादी से पूर्व इंडियन लूनासी ऐक्ट, 1912 (Indian Lunacy Act 1912) में आया। इस कानून के तहत मानसिक मंदता और मानसिक रोग दोनों को समान माना गया और समान प्रावधान किये गये। यह कानून स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग चार दशकों बाद भी लागू रहा। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत सारे परिवर्त्तन हुए, मानसिक मंदता को मानसिक रोग से इतर मानकर दोनों के लिये अलग-अलग प्रावधान किये गये परन्तु भारत में 1986 तक दोनों में कोई कानूनी अंतर नहीं किया गया है। 1987 में पहली बार मानसिक रोग को मानसिक मंदता से अलग माना गया और मंटल हेल्थ ऐक्ट 1987 के तहत मानसिक रूग्णता के लिये अलग प्रावधान बनाये गये। यहाँ पर भी, मानसिक मंदता और मानसिक रूग

मंद बुद्धि बालक (Mentally Retarded Children)

मंद बुद्धि बालक (Mentally Retarded Children) मंद बुद्धि बालकों से तात्पर्य उन बालकों से होता है जिनकी मानसिक योग्यता सामान्य बालकों से कम होती है। मंद बुद्धि अथवा मानसिक मंदता (Mental Retardation) को प्रायः बुद्धि परीक्षणों पर बालकों के द्वारा किये गये कार्यों (Performance) के आधार पर परिभाषित किया जाता है। वे बालक जिनकी बुद्धिलब्धि 80 या 85 से कम होती है, प्रायः मंद बुद्धि बालक कहलाते हैं। मंदबुद्धि अथवा मानसिक मंदता का संबंध व्यक्ति के मस्तिष्क के अपूर्ण विकास से है। ऐसे बालकों के समायोजन का स्तर सामान्य बालकों की अपेक्षा निम्न स्तर का होता है। मंदबुद्धि बालकों की बुद्धि लब्धि साधारण बालकों की तुलना में कम होती है और उनमें सोचने समझने व विचार करने की क्षमता भी निम्न स्तर की होती है। मानसिक मंदता, अल्प बुद्धि धीमी गति से सीखने वाले, विकल बुद्धि एवं पिछड़े बालक भी मंद बुद्धि के पर्यायवाची शब्दों के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं।

प्रतिभाशाली बालक (Gifted Children)

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  प्रतिभाशाली बालक  (Gifted Children) जिन बालकों की बुद्धि या मानसिक क्षमता सामान्य बालकों से अधिक होती है, उन्हें प्रतिभाशाली बालक कहा जाता है। किसी भी राष्ट्र अथवा समाज की प्रगति काफी हद तक उस राष्ट्र अथवा समाज के प्रतिभाशाली बालकों के ऊपर ही निर्भर करती है। प्रतिभाशाली बालकों में विकास की संभावनायें अधिक होती हैं। उच्च मानसिक योग्यता वाले बालकों को इंगित करने के लिए अनेक शब्दों जैसे - प्रतिभाशाली बालक (Gifted Children), श्रेष्ठ बालक (Superior Children),निपुण बालक (Talented Children), तीव्र सीखने वाले (Rapid Learners), होशियार छात्र (Brilliant Students) तथा तीव्र छात्र (Bright Students) आदि का भी प्रयोग किया जाता है। ये सभी शब्द लगभग एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में योग्यता, उपलब्धि, क्षमता आदि में सामान्य बालकों से सार्थक रूप से अधिक योग्यता वाले बालकों के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।

अधिगम का स्थानान्तरण (Transfer of Learning)

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अधिगम के स्थानान्तरण की अवधारणा (Concept Of Transfer Of Learning) - प्रशिक्षण या अधिगम स्थानान्तरण एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय (Concept) है जिस पर प्रयोगात्मक मनोवैज्ञानिकों ने बहुत सारे शोध किये है। प्रशिक्षण या अधिगम स्थानान्तरण से तात्पर्य से पहले सीखे गए कौशल का वर्तमान कौशल को सीखने पर पड़ने वाले प्रभाव से होता है। शिक्षा का लक्ष्य एक पाठ्यक्रम या स्तर से दूसरे तक या विद्यालय वातावरण से जीवन के वातावरण तक ले जाना होता है। सीखने के या प्रशिक्षण के स्थानान्तरण से अभिप्राय किसी सीखी हुई क्रिया या विषय का अन्य परिस्थितयों में उपयोग करने से है । इसे यूं भी स्पष्ट किया जा सकता है कि अर्जित ज्ञान का अन्य विषयों तथा क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factor Affecting Learning)

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अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक (Factor Affecting Learning) अधिगम को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है - 1. शिक्षार्थी के आधार पर      (On The Basis Of Learner) – शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) सीखने वाले की रुचि (Learner Interest) प्रेरणा (Motivation) थकान (Fatigue) भाषा (Language) पूर्वाग्रह (Prejudice) परिपक्वता (Maturity) संवेदना और प्रत्यक्षीकरण (Sensation And Perception)

वाद विवाद विधि (Discussion Method)

वाद विवाद विधि  (Discussion Method)  इस विधि को तर्क विधि एवं चर्चा विधि के नाम से भी जाना जात है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली बाल केंद्रित है। आज यह आवश्यक है कि विद्यार्थी कक्षा में अधिक से अधिक सक्रिय रहे अर्थात् विद्यार्थी को कक्षा शिक्षण के समय अपने शिक्षक के साथ तथा अन्य साथियों के साथ विषय से सम्बन्धित परस्पर बातचीत करनी चाहिए। विद्यार्थी कक्षा में मात्र एक निष्क्रिय श्रोता नहीं है। इसलिए कक्षा में विषय से सम्बन्धित बातचीत या वाद विवाद अब शिक्षा का एक आवश्यक और लोकतान्त्रिक अंग माना जाने लगा है। यह विधि छात्रों को अपने विचारों को कहने, सुनने, शंकाओ का निवारण करने एवं प्रश्न पूछने आदि का पूरा अवसर प्रदान करती है। जिससे वे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग ले सके। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वाद - विवाद विधि शिक्षण की वह विधि है। जिसमे शिक्षक और शिक्षार्थी परस्पर मिलकर किसी प्रकरण, प्रश्न या समस्या के सम्बन्ध में स्वतंत्रता पूर्वक सामूहिक वातावरण में विचारों का आदान प्रदान करते हैं।

व्याख्यान विधि (Lecture Method)

अभिप्राय (Meaning) - व्याख्यान का अभिप्राय पाठ को भाषण के रूप में पढ़ाने से है इसमें शिक्षक अपने मुख से बात कर कर पढ़ाता है। इसको कथन विधि (Telling Method) भी कहते हैं। इस विधि में शिक्षक द्वारा छात्रों को जो ज्ञान दिया जाता है उसका मुख्य स्रोत तथा केंद्र बिंदु स्वयं शिक्षक ही होता है। इस विधि में मुख्य भूमिका शिक्षक की ही होती है। इस विधि में शिक्षक, संबंधित विषय वस्तु को पहले से तैयार करके कक्षा में छात्रों के समक्ष भाषण के रूप में प्रस्तुत करता है। छात्रों का कार्य शिक्षक द्वारा प्रस्तुत की गई विषय वस्तु को अच्छे श्रोता के रूप में सुनना और समझना होता है। इसके अतिरिक्त वह शिक्षण के बीच-बीच में अपनी शंकाओं के समाधान हेतु प्रश्नों को भी पूछ सकता है। इस विधि में शिक्षक पाठ संबंधित तथ्यों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करके छात्रों के समक्ष भाषण के रूप में प्रस्तुत करता है। यह सब कार्य शिक्षक की दक्षता एवं कुशलता पर निर्भर करता है। प्रायः सभी कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है तथा यह शिक्षक के अनुभव योग्यता अध्ययन एवं कौशल पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार से अपने व्याख्यान को सार्थ

निरीक्षण या अवलोकन विधि (Observation Method)

अवधारणा - यह विधि भूगोल अध्यापन के सभी स्तरों पर उपयोगी है। किंतु प्राथमिक कक्षाओं में विशेष रूप से उपयोगी है। इन कक्षाओं का बालक प्रारंभिक अवस्था में अपने घरेलू, ग्रामीण तथा नागरिक वातावरण के संपर्क में आता है। वह उनका स्वयं निरीक्षण कर अपने तथा वातावरण के संबंधों का अनुभव कर उनके विषय में सोचता है और उनसे अधिक संपर्क स्थापित कर अपने अनुभव बढ़ाता है। भौगोलिक तथ्यों का संग्रह निरीक्षण द्वारा सरलता से किया जा सकता है। प्रत्यक्ष दर्शन, ज्ञान तथा अनुभव से बालक का ज्ञान निरंतर बढ़ता जाएगा और इसके आधार पर वह अन्य स्थानों की समान परिस्थितियों की कल्पना कर सकेगा। शिक्षक को चाहिए कि वह सावधानीपूर्वक बालक का उचित मार्ग-निर्देशन करें, जिससे बालक के मस्तिष्क में मिथ्या धारणाएं ना बनने पाएं। निरीक्षण क्रिया मे आकर्षण और मनोरंजन होना चाहिए। बड़े होने पर बालक का निरीक्षण अधिक स्वच्छ, बुद्धिगम्य और तर्क युक्त होकर अंत मे कार्य कारण के संबंधों को स्थापित करने की ओर उन्मुख होता है।

बन्डुरा का सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory of Bandura)

परिचय - अल्बर्ट बन्डुरा का जन्म 4 दिसंबर 1925 में हुआ। बन्डुरा एक प्रभावशाली सामाजिक संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक था। बन्डुरा द्वारा सामाजिक अधिगम सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। इस सिद्धांत में स्वनिर्देशित अधिगम के प्रत्यय को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है। एक बालक / किशोर के रूप में बॅण्डुरा को अपने पिता के रूप में एक ऐसे प्रेरक का सानिध्य प्राप्त हुआ था जो विद्यालयी शिक्षा से वंचित रहने पर भी तीन भाषाओं को अपने स्वयं के प्रयास से पढ़ाना सीखने में सफल हुए थे।

गैग्ने का सीखने का पदानुक्रम (Gagne's Hierarchy Of Learning) (Basic Condition Of Learning)

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गेने ने अधिगम को इस रूप में परिभाषित किया है,  “अधिगम मानव - संस्कार एवं क्षमता में परिवर्तन है जो कुछ समय तक धारण किया जाता है तथा जो केवल वृद्धि की प्रक्रियाओं के ऊपर ही आरोप्य नहीं है।” गेने की इस परिभाषा में चार बिंदु स्पष्ट होते हैं जो निम्न है– सीखना व्यवहार में परिवर्तन है।  व्यवहार परिवर्तन संभाव्य हो सकते हैं।  व्यवहार व क्षमता में होने वाले परिवर्तन दीर्घकालिक नहीं होते हैं।  अधिगम शब्द का प्रयोग क्षमताओं में होने वाले उन परिवर्तनों के लिए नहीं होता जो परिपक्वता के कारण होते हैं।

मैसलों का मानवतावादी अधिगम सिद्धांत (Humanistic Learning Theory Of Maslow)

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मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम सिद्धांत (Need Hierarchy Theory Of Maslow) मैसलों के आवश्यकता पदानुक्रम सिद्धान्त का प्रतिपादन 1954 में खुद मैस्लो के द्वारा किया गया। वे सर्वप्रथम ऐसे मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने स्वः यथार्थो या आत्मसिद्धि (Self Actualization) के महत्व को स्वीकार किया तथा वैज्ञानिक अध्ययन किया। इन प्रत्यय पर एवं इसे मुख्य अभिप्रेरक मान कर एक सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे आवश्यकता पदानुक्रम सिद्धांत कहा जाता है। मैस्लो एक मानवतावादी प्रोफेसर थे।

अधिगम के सिद्धांत (Theory Of learning) (Gestalt - Kohler)

प्रस्तावना - सीखना या अधिगम एक बहुत ही व्यापक एवं महत्वपूर्ण शब्द है। मानव के प्रत्येक क्षेत्र में सीखना जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक पाया जाता है। दैनिक जीवन में सीखने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। सीखना मनुष्य की एक जन्मजात प्रकृति है। प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में नये अनुभवों को एकत्र करता रहता है, ये नवीन अनुभव, व्यक्ति के व्यवहार में वृद्धि तथा संशोधन हैं। इसलिए यह अनुभव तथा इनका उपयोग ही सिखना या अधिगम करना कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवनपर्यन्त कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। सामान्य अर्थ में ‘सीखना ' व्यवहार में परिवर्तन को कहा जाता है। (Learning refers to change in behavior) परन्तु सभी तरह के व्यवहार में हुए परिवर्तन को सीखना या अधिगम नहीं कहा जा सकता। इस इकाई में आप अधिगम के विभिन्न सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे तथा उनके शैक्षिक निहितार्थों को जान पायेंगे।

अधिगम के सिद्धांत (Theories Of learning) ( Behaviorist - Thorndike, Pavlov, Skinner)

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इस लेख में निम्न बिंदुओं को स्पष्ट किया गया है - थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत थार्नडाइक, पावलोव और स्किनर के सीखने के सिद्धांतों पर चर्चा करें। मुख्य अंतर को इंगित करें। प्रस्तावना - सीखना या अधिगम एक बहुत ही व्यापक एवं महत्वपूर्ण शब्द है। मानव के प्रत्येक क्षेत्र में सीखना जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक पाया जाता है। दैनिक जीवन में सीखने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। सीखना मनुष्य की एक जन्मजात प्रकृति है। प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में नये अनुभवों को एकत्र करता रहता है, ये नवीन अनुभव, व्यक्ति के व्यवहार में वृद्धि तथा संशोधन हैं। इसलिए यह अनुभव तथा इनका उपयोग ही सिखना या अधिगम करना कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवनपर्यन्त कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। सामान्य अर्थ में ‘सीखना ' व्यवहार में परिवर्तन को कहा जाता है। (Learning refers to change in beha

अधिगम की अवधारणा (Concept of Learning)

प्रस्तावना -  सीखना निरन्तर चलने वाली एक सार्वभौमिक व मानसिक प्रक्रिया है। जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक व्यक्ति के साथ चलती है। सीखने को हम अधिगम के नाम से भी जानते है। सीखने की गति परिस्थितियों एवं आवश्यकतानुसार परिवर्तित होती रहती है। परन्तु इसकी स्थिति में कभी विरामावस्था एवं अस्थिरता नहीं आती है। मनुष्य को सीखने या अधिगम के लिए किसी विशेष परिस्थिति की आवश्यकता नहीं होती है। व्यक्ति कही भी, कभी भी, किसी भी समय किसी से भी, कुछ भी सीख सकता है। वह न केवल शिक्षा संस्थान में बल्कि परिवार, संस्कृति, मित्रमण्डली, पड़ोसियों, राह चलते, सिनेमा, अपरिचित व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों इत्यादि सभी के परोक्ष - अपरोक्ष रूप से कुछ न कुछ अवश्य सीखता है। अधिगम का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। क्योंकि व्यक्ति का अधिकाशयता व्यवहार सीखने से अथवा सीखने की प्रक्रिया से प्रभावित रहता है। सीखना जीवन की सफलता का आधार है। 

शिक्षा, दर्शन और उनकी परस्पर निर्भरता (Philosophy, Education and Their Interdependence)

दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा में अन्तर्सम्बन्ध (Philosophy, Education and Their Interdependence)   दर्शनशास्त्र तथा शिक्षा में पूरक एवं अभिन्न संबंध है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त एवं नियम बार - बार शिक्षा में क्रियान्वित करने हेतु शैक्षिक विमर्शों में विकसित एवं उपयुक्त हुए हैं। यह कहना उचित है कि दर्शनशास्त्र ज्ञान के विकास का सैद्धान्तिक पक्ष है तथा शिक्षा उस ज्ञान का विद्यार्थियों में क्रियान्वयन हेतु व्यावहारिक तथा क्रियान्वयन पक्ष है। दर्शनशास्त्र मानव जीवन के विकास का साधन है। दर्शनशास्त्र मानव जीवन के लक्ष्य का निर्धारक होता है तथा शिक्षा इन लक्ष्यों की प्राप्ति के एक साधन के रूप में भूमिका निर्वाह करती है। दर्शनशास्त्र एवं शिक्षा दोनों एक दूसरे से अभिन्न एवं अंतर्निर्भरता के साथ संबंधित हैं। 

सृजनात्मकता की अवधारणा (Concept Of Creativity)

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  प्रस्तावना ( Introduction ) -

बुद्धि लब्धि की अवधारणा और बुद्धि का मापन (Concept of I.Q & Measurement of Intelligence)

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आशय - बाह्य व्यवहार द्वारा मानसिक योग्यता, संज्ञानात्मक परिपक्वता और समायोजन की क्षमता का मापन बुद्धि मापन कहलाता है । बुद्धि मापन का कार्य विभिन्न प्रकार के परीक्षणों के माध्यम से किया जाता है। इस परीक्षणों में सम्मिलित पदों की प्रकृति व प्रकार के आधार पर बुद्धि लब्धि सूचकांक तैयार किया जाता है। 

बुद्धि की अवधारणा — अर्थ, परिभाषा, प्रकार व सिद्धांत (Concept Of Intelligence)

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इस लेख में हम निम्न बिंदुओं पर चर्चा करेंगे — बुद्धि की अवधारणा (Concept Of Intelligence) बुद्धि की परिभाषा (Definition Of Intelligence) बुद्धि के सिद्धांत (Principal Of Intelligence) बुद्धि के प्रकार (Type Of Intelligence) बुद्धि की प्रकृति (Nature Of Intelligence) बुद्धि को निर्धारित करने वाले कारक (Factors Determining Intelligence) प्रस्तावना - बुद्धि के कारण ही, मानव अन्य सभी प्राणियों से सर्वश्रेष्ठ है। बुद्धि चाहे मनुष्य की जैसी भी योग्यता हो लेकिन ये मानव की खुद के लिए व अंतोगत्वा राष्ट्र की प्रगति के लिए एक अहम निर्धारक तत्व हैं। अत: इस योग्यता को जानने, जाँचने व परखने के लिए मनुष्य सभ्यता के शुरूआती दौर से ही प्रयासरत व जिज्ञासु रहा है। 

विशिष्ट बालक - बालिका (Exceptional Children)

अवधारणा - व्यक्तियों में परस्पर विभिन्नताओं का होना स्वाभाविक ही है। वस्तुतः इस संसार में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णरूपेण एक समान नहीं होते हैं। यही कारण है कि किसी विद्यालय अथवा कक्षा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो बालक - बालिकाएँ आते हैं, उनमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा संवेगात्मक आदि अनेक दृष्टियों से अनेक अंतर दृष्टिगोचर होते हैं। कुछ बालकों को सामान्य अथवा औसत बालक कहा जा सकता है, जबकि कुछ बालक तीव्र बुद्धि वाले होते हैं, कुछ बालक मंद बुद्धि के होते हैं, कुछ बालक विभिन्न प्रकार के शारीरिक कमियों से युक्त होते हैं तथा कुछ बालक विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त होते हैं। 

दर्शन का अर्थ और अवधारणा (Meaning & Concept Of Philosophy)

अवधारणा - मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है?  विश्व में उसकी स्थिति क्या है?  किस सत्ता से प्रेरित होकर सारा संसार नियमानुसार कार्य करने में रत है ?  विश्व के सृजन तथा संहार के पीछे कौन - सी शक्ति अपने ऐश्वर्य का परिचय दे रही है?  क्यों प्रकृति अपने नियमों का उल्लंघन कभी नहीं करती है? इस वसुन्धरा के प्राणियों में क्यों सुख है?  क्यों दुःख है?  इनके सुख - दुःख में इतनी विषमता क्यों है?  क्या दुःख की इस स्थिति एवं विषमता को पार करने का कोई उपाय भी है?  क्या पाप है?  क्या पुण्य है? उत्तम समाज की कौन - सी ऐसी व्यवस्था हो सकती है जो मनुष्य के लिए श्रेयस्कर हो?  मनुष्य के वास्तविक कल्याण का क्या साधन है? ये सभी ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर को मानवता अनादि काल से संपूर्ण विश्व में किसी न किसी प्रकार से खोजती आई है और इस अन्वेषण के फलस्वरूप जिस साहित्य की रचना हुई है, उसे दर्शन शास्त्र कहा जाता है।