दर्शन का अर्थ और अवधारणा (Meaning & Concept Of Philosophy)

अवधारणा -

  • मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है? 
  • विश्व में उसकी स्थिति क्या है? 
  • किस सत्ता से प्रेरित होकर सारा संसार नियमानुसार कार्य करने में रत है ? 
  • विश्व के सृजन तथा संहार के पीछे कौन - सी शक्ति अपने ऐश्वर्य का परिचय दे रही है? 
  • क्यों प्रकृति अपने नियमों का उल्लंघन कभी नहीं करती है?
  • इस वसुन्धरा के प्राणियों में क्यों सुख है? 
  • क्यों दुःख है? 
  • इनके सुख - दुःख में इतनी विषमता क्यों है? 
  • क्या दुःख की इस स्थिति एवं विषमता को पार करने का कोई उपाय भी है? 
  • क्या पाप है? 
  • क्या पुण्य है?
  • उत्तम समाज की कौन - सी ऐसी व्यवस्था हो सकती है जो मनुष्य के लिए श्रेयस्कर हो? 
  • मनुष्य के वास्तविक कल्याण का क्या साधन है?

ये सभी ऐसे प्रश्न हैं, जिनके उत्तर को मानवता अनादि काल से संपूर्ण विश्व में किसी न किसी प्रकार से खोजती आई है और इस अन्वेषण के फलस्वरूप जिस साहित्य की रचना हुई है, उसे दर्शन शास्त्र कहा जाता है। 


कौटिल्य के शब्दों में -

दर्शनशास्त्र सभी विद्याओं का दीपक है, वह सभी कर्मों को सिद्ध करने का साधन है, वह सभी धर्मों का अधिष्ठान है।”

अतः दर्शन प्रेम की उच्चतम सीमा है। इसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप, सृष्टि - सृष्टा, आत्मा - परमात्मा, जीव - जगत, ज्ञान - अज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने के साधन तथा मनुष्य के करणीय तथा अकरणीय कर्मो का तार्किक विवेचन किया जाता है। इस दृष्टि से दर्शन जीवन का आवश्यक पक्ष है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का कोई न कोई दर्शन अवश्य होता है। चाहे उसके संबंध में व्यक्ति सचेतन हो अथवा न हो। इस प्रकार सभी व्यक्ति अपने जीवन दर्शन के अनुरूप तथा संसार के विषय में अपनी धारणा के अनुरूप जीवन व्यतीत करते हैं।


दर्शन का अर्थ

पश्चिमी परिवेश में दर्शन का अर्थ -

दर्शनशास्त्र (Philosophy) शब्द ग्रीक भाषा के शब्द "Philos" (प्रेम) तथा "Sophia" (ज्ञान) से बना है, जिसका अर्थ "ज्ञान से प्रेम" (love Of Wisdom) है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम इसे “ज्ञान के प्रति अनुराग” भी कह सकते हैं। 

भारतीय परिवेश में दर्शन का अर्थ -

‘दर्शन’ शब्द संस्कृत के ‘दृश्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘देखना’। इसलिए 'दर्शन' का अर्थ हुआ ‘जिसके द्वारा देखा जाये’। यहाँ देखने का मतलब आँखों से देखना नहीं है। अपितु , तार्किक एवं अंतर्दृष्टि से देखना है। व्यापक अर्थ में “दृश्यते यथार्थ तत्वमनेन” अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ तत्व की अनुभूति हो वही दर्शन है। उपनिषद में कहा गया है “दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम्” अर्थात् असत् एवं सत् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है। 


दर्शन की परिभाषा 

पाश्चात्य दार्शनिकों द्वारा दी गई परिभाषाएं - 

1. अरस्तु(Aristotle) के अनुसार -

“दर्शन ऐसा विज्ञान है , जो चरम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जांच करता है । " 

"Philosophy is the science which investigates the nature of being as it is in itself.”


2. प्लेटो के अनुसार -

“पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान ही दर्शन है।”

“Philosophy aims at the knowledge of the eternal nature of things.”


3. फिक्टे (Fichte) के अनुसार - 

 “ज्ञान का विज्ञान ही दर्शन है।”

 "Philosophy is the science of knowledge.”


4. कामटे (Comte) के अनुसार - 

“ दर्शन विज्ञानों का विज्ञान है । ” 

“Philosophy is the science of Science.”


 5. स्पेंसर (Spencer) के अनुसार - 

“दर्शनशास्त्र विश्वव्यापी विज्ञान तथा सभी विज्ञानों के संकलन का नाम है।”

 “Philosophy is the synthesis of the science and universal science.”



भारतीय दार्शनिकों एवं शैक्षिक चिन्तकों द्वारा दी गई परिभाषाएं-


1. कौटिल्य के अनुसार -

“दर्शन एक ऐसा दीपक है, जो सभी विधाओं को प्रकाशित करता है। “आन्वीक्षिकी विद्या " ही दर्शन है। 


2. डॉ . बलदेव उपाध्याय के अनुसार –

“दर्शन एक ठोस सिद्धान्त है, न कि अनुमान या कल्पना, इसे

व्यवहार में लाकर व्यक्ति निर्धारित लक्ष्य या मार्ग प्रशस्त कर लेता है।”


 3डॉ . उमेश मिश्र के अनुसार –

“दर्शन के द्वारा प्रत्यक्षीकरण होता है। अर्थात् चाहे जितना ही सूक्ष्म क्यों न हो उसे दर्शन (दिव्य चक्षुओं) से अनुकूल किया जा सकता है।”


 4. डॉ . राधाकृष्णन के अनुसार -

“यथार्थता के स्वरूप का तार्किक विवेचन ही दर्शन है।” 


5. महात्मा गांधी के अनुसार -

“दर्शन एक प्रयोग है जिसमें मानव व्यक्तित्व एवं सत्य उसकी विषय वस्तु होती है और उसको जानने के लिए हम प्रमाण एकत्रित करते हैं।”


इन परिभाषा तथा दूसरे दर्शन शास्त्रियों के मतों के आधार पर हम कह सकते हैं कि “दर्शन उचित ढंग से अनवरत विचारने की एक कला है जो मानव जीवन के संबंध में किसी भी रूप में आने वाली सभी वस्तुओं के संबंध में तर्कपूर्ण ढंग से विचार करता है।” दर्शन ईश्वर का स्वरूप, जीव का उससे संबंध, संसार की व्याख्या तथा आत्मा के रहस्य के संबंध में विचार करता है।



दर्शन के क्षेत्र या शाखाएं -

दर्शन शास्त्र का विषय क्षेत्र बहुत व्यापक है। यह एक ऐसा अध्ययन है, जिसमें अनुकूल सत्य या प्रत्यक्ष अनुभव, लोक - परलोक और आध्यात्म का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। यह ज्ञान, विज्ञान और कला सभी कुछ है। प्राचीन दर्शन में तो साहित्य, कला, धर्म, इतिहास, विज्ञान आदि सभी विषय इसके अंतर्गत आते हैं । 

दर्शन को निम्न तीन प्रमुख अंगों में विभाजित किया गया है -

  1. तत्व मीमांसा (Metaphysics) 
  2. ज्ञान मीमांसा (Epistemology)  
  3. मूल्य मीमांसा (Axiology) 

1. तत्व मीमांसा (Metaphysics)

तत्व मीमांसा जिसे हम अंग्रेजी में (Metaphysics) कहते हैं, यह दो शब्दों का मिश्रण है - मेटा (Meta) अर्थात परे (Beyond), और फिजिक्स (Physics) अर्थात प्रकृति (Nature)। इस प्रकार तत्व मीमांसा या (Metaphysics) का अभिप्राय हुआ प्रकृति के परे (What is real)। तत्व मीमांसा सदैव ही इस प्रश्न के प्रत्युत्तर की खोज में लगा रहता है कि इस संसार में वास्तविकता क्या है अर्थात् तत्व मीमांसा दर्शन शास्त्र की वह शाखा है जो वास्तविकता की प्रकृति की खोज करती है और साथ ही यह इस बात की खोज करती है कि वास्तविकता किन - किन तत्वों का परिणाम है अथवा उसमें कौन - कौन से तत्व समाजित होते हैं । इस वास्तविकता की खोज के लिए तत्व मीमांसा प्रकृति, ईश्वर, मनुष्य, विश्व, शक्ति, ऊर्जा आदि से संबंधित तत्वों की वास्तविकता की खोज करने का प्रयास करती है। तत्व मीमांसा के अंतर्गत ईश्वर के संबंध में विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार मत को विभाजित किया है।
  1. आस्तिकवाद (Theism)
  2. नास्तिकवाद (Atheism)  
  3. बहुवाद (Poly-Theism)                                   
  4. एकवाद (Oneism)                                           
  5. द्वैतवाद (Dualism)                                    
  6. विश्वद्वेतवाद (Pantheism)
  7. ईश्वरवाद (Deism) 


2. ज्ञान मीमांसा (Epistemology) - 

इसे अंग्रेजी में (Epistemology) कहते हैं जो दो शब्दों से मिलकर बना है एपिसटीम (Episteme) यानि ज्ञान (Knowledge ) + लॉजी ( Logy ) यानि विज्ञान (Science) इस प्रकार ज्ञान मीमांसा , ज्ञान का विज्ञान (Science of Knowledge) है। यह इस प्रश्न की प्रतिउत्तर की खोज करता है कि संसार में सत्य क्या है? (What is True)। इसके अंतर्गत ज्ञान की प्रकृति, सीमाएं, विशेषताएं व उनका प्रादुर्भाव आदि का अध्ययन किया जाता है। इसमें ज्ञान के विभिन्न पहलुओं के संबंध में अध्ययन कर सत्य की खोज का प्रयास किया जाता है। ज्ञान की उत्पत्ति के संबंध में इसमें तीन विद्धान्तों का उदय हुआ है -

A. बुद्धिवाद (Relationalism) - 

इसके प्रवर्तक डेकॉर्ट (Descartes) थे। इस विचारधारा के अनुयायियों का मानना है कि ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन बुद्धि है। यथार्थ ज्ञान सार्वभौमिक व अनिवार्य होता है और इसकी खोज बुद्धि द्वारा ही संभव है।

B. अनुभववाद (Empiricism) - 

इसके प्रवर्तक जॉन लॉक (John Lock) थे । इनका कहना है कि ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन अनुभव है। जन्म के समय बालक का मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है। इसमें बुद्धि का कोई स्थान नहीं है। अनुभव प्राप्त करने के दो साधन हैं - 

  1.  संवेदना ( Sensation) 
  2.  विचार प्रत्यावर्तन (Reflection)


C. आलोचनावाद (Critical Theory) - 

उपरोक्त दोनों की आलोचना के फलस्वरूप प्रसिद्ध दार्शनिक काण्ट ने इसका प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि बुद्धिवाद व अनुभववाद स्वयं में अपूर्ण हैं । इन दोनों के द्वारा स्वीकार किये गये तथ्य तो सही हैं परन्तु दोनों के द्वारा अस्वीकार किये गये तथ्य गलत हैं। हम न तो बुद्धि की सहायता से ज्ञान की व्याख्या कर सकते हैं और न ही अनुभव की सहायता से हमें इन दोनों के सहयोग की आवश्यकता है। इन दोनों विचारधाराओं का समन्वय करते हुए काण्ट ने ज्ञान के दो पक्ष बताए है-

I. ज्ञान की विषय वस्तु 

II. ज्ञान का रूप 

ज्ञान की विषय वस्तु को हम सिर्फ अनुभव के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं व ज्ञान के रूप की यथार्थता हम बुद्धि के द्वारा ही परख सकते हैं। 



3. मूल्य मीमांसा (Axiology) -

मूल्य मीमांसा जिसे अंग्रेजी में Axiology कहते हैं , दो शब्दों का मिश्रण है - एक्सिऑस (Axios ) ( मूल्य, Value ) + लॉजी ( Logy ) (विज्ञान,Science ) मूल्य मीमांसा के अंतर्गत जीवन के बौद्धिक, नैतिक, सौन्दर्यपरक व आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की जाती है । इसमें इस प्रश्न के प्रत्युत्तर की खोज की जाती है कि इस संसार में अच्छा क्या है। मूल्य विषयगत होते हैं। इनकी व्याख्या नहीं की जा सकती है वरन् इनकी अनुभूति की जा सकती है । मूल्य दो प्रकार के होते हैं - 

I. आंतरिक मूल्य (Intrinsic Value) 

II. बाह्य मूल्य (Extrinsic Value) 


यही मूल्य हमारी विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का निर्धारण व मूल्यांकन करते हैं । मूल्य शास्त्र को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त किया जाता है - 

A. तर्क शास्त्र - 

इसके अंतर्गत दर्शन का युक्तिपूर्ण एवं तर्कपूर्ण विवेचन किया जाता है। तर्क शास्त्र के अंतर्गत आगमन - निगमन विधियां अध्ययन के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। इसके अंतर्गत चिंतन, कल्पना, तर्क की पद्धति इत्यादि के बारे में विचार किया जाता है। दर्शन की अध्ययन पद्धति का तर्कशास्त्र एक महत्वपूर्ण अंग है । 


B. नीति शास्त्र - 

इसके अंतर्गत मानव के आचरण की विवेचना की जाती है। साथ ही उन लक्षणों को भी विचारोपरांत निश्चित किया जाता है जो मनुष्य के कर्म - अकर्म, शुभ - अशुभ, पाप - पुण्य और भद्रता- अभद्रता के अनुसार आचरण को आधार प्रदान करते हैं कि मनुष्य का आचरण क्या हो और उसे कैसा आचरण करना चाहिए।  

C. सौन्दर्य शास्त्र - 

इसके अंतर्गत सौन्दर्य, सौन्दर्य अनुभूति, सौन्दर्य के लक्षण एवं मापदण्ड क्या हैं इत्यादि प्रश्नों से संबंधित समस्याओं का गहन विवेचन किया जाता है।



दर्शन के कार्य (Function Of Philosophy) –

दर्शन  के कार्यो पर दृष्टिपात करने पर हमें निम्नलिखित कार्य महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं - 

1. दर्शन व्यक्ति की जिज्ञासा की तृप्ति करके ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है। 

2. यह ध्यान को केन्द्रित करने में व्यक्ति की सहायता करता है। सांसारिक इच्छाएं एवं इन्द्रियजन्य कामनाएं, संयम, प्राणायाम, धारणा द्वारा चित्तवतियों का निरोध करना संभव है और इस कार्य में दर्शन सहायता करता है। 

3. यह शब्दों और अर्थो का विश्लेषण करके कार्य की सही दिशा निश्चित करता है। 

4. यह वास्तविक सत्य की खोज करने का प्रयत्न करता है। विभिन्न विज्ञानों द्वारा प्राप्त सत्यों में अन्तर्विरोधों को यह दूर करता है।

5. यह मानव जीवन के आदि - अंत पर विचार करके जीवन को सोद्देश्य बनाता है। 

6. जीव  जगत्, सत्, चित्, आनन्द, आत्मन्, परमात्मन्, मनस् आदि से सम्बद्ध प्रश्नो का हल ढूंढने का यह प्रयत्न करता है। 

7. जीवन की विभिन्नताओं और विसंगतियों को सामंजस्य में लाने का यह प्रयास करता है। 

8. यह तथ्यों का मात्र संग्रह न करके उनमें व्याप्त संबंधों को देखता है और प्रत्येक अनुभवगम्य वस्तु की आत्मा को देखने का प्रयास करता है।


सारांश (Summary) -

दर्शन जीवन के प्रति दृष्टिकोण है। दर्शन का अर्थ है 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाय। भारतीय ऋषियों ने जीवन , जगत् , सत्य एवं मूल्य को देखने का प्रयास किया है। उन्होंने चिन्तन , मनन एवं निदिध्यासन द्वारा कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। इन निष्कर्षो को भिन्न - भिन्न दृष्टाओं ने भिन्न भिन्न रीति से बताया है। अत्यन्त प्राचीन काल में वेदों के रूप में दार्शनिक विचारधारा का प्रारम्भ हुआ। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं दर्शन वह ज्ञान है जो परम् सत्य और सिद्धान्तों, और उनके कारणों की विवेचना करता है। दर्शन यथार्थ की परख के लिये एक दृष्टिकोण है। दार्शनिक चिन्तन मूलतः जीवन की अर्थवत्ता की खोज का पर्याय है। वस्तुतः दर्शन स्वत्व, तथा समाज और मानव चिंतन तथा संज्ञान की प्रक्रिया के सामान्य नियमों का विज्ञान है। दर्शनशास्त्र सामाजिक चेतना के रूपों में से एक है। दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है। व्यापक अर्थ में दर्शन, तर्कपूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है। इसका जन्म अनुभव एवं परिस्थिति के अनुसार होता है। यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया।


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