विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधाकृष्णन कमीशन (1948-49) University Education Commission

University Education Commission Or Radhakrishnan Commission (1948-1949):

प्रस्तावना -

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त विश्वविद्यालय शिक्षा का निरन्तर विकास हो रहा था, किन्तु प्रचलित शिक्षा प्रणाली किसी भी तरह से स्वतन्त्र व जनतांत्रिक देश के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसका मुख्य कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत छात्रों की संख्या में हो रही निरन्तर वृद्धि व उनकी शिक्षा का निम्न स्तर था। अतः भारतीय जनता उच्च शिक्षा के स्तर से असन्तुष्ट थी, क्योंकि यह शिक्षा देश की तत्कालीन आवश्यकताओं को पूरा करने में भी असफल थी। इसका उद्देश्य छान्नों द्वारा परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके उपाधियाँ प्राप्त करना रह गया था। अतः उपर्युक्त दोषों का निवारण करने हेतु तथा स्वतन्त्र भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप उच्च शिक्षा का पुनर्संगठन (Reorganization) करने के लिये अन्तर्विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद् (I U B E-Inter University Board of Education) तथा केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE-Central Advisory Board of Education) ने भारत सरकार के समक्ष एक अखिल भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (All India University Education Commission) नियुक्त करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। सरकार ने इस प्रस्ताव को मान्यता प्रदान करके 4 नवम्बर, 1948 को विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति की जिसके अध्यक्ष डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् (Chairman Sarvapalli Radhakrishnan) थे तथा सचिव श्री निर्मल कुमार सिद्धान्त (Secretary-Nirmal Kumar Siddhant) थे, जो (प्रोफेसर ऑफ इग्लिश एण्ड डीन फैकल्टी ऑफ आर्ट्स, लखनऊ विश्वविद्यालय) से सम्बन्धित थे। आयोग के अन्य मुख्य सदस्य थे डा० जाकिर हुसैन (Dr. Zakir Hussain), उपकुलपति मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़, डा० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर (Dr. Lakshaman Swami Mudaliyar), उपकुलपति मद्रास विश्वविद्यालय, डा० आर्थर मार्गन (Dr. Arthur Morgan), प्रेसीडेन्ट कम्यूनिटी सर्विस और डा० जेम्स एफ डफ (Dr. James F. Duff), उपकुलपति, डरहम विश्वविद्यालय, डा० मेघनाद साहा (Dr. Meghnad Saha), प्रोफेसर ऑफ फिजिक्स, डीन फैकल्टी ऑफ साइन्स, कलकत्ता विश्वविद्यालय, डा० कर्म नारायण बहल (Dr. Karma Narayan Bahl) व डा० तारा चन्द्र (Dr. Tara Chand).


आयोग का उद्देश्य एवं कार्य क्षेत्र
Objective and Terms of Reference of the Commission


आयोग की नियुक्ति का उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रस्तुत करना तथा देश की तत्कालीन एवं भावी आवश्यकताओं के अनुरूप, उपयुक्त उच्च शिक्षा के निर्माण एवं विस्तार के सम्बन्ध में सुझाव देना था।

"To report on Indian universities and suggest improvement and extension that may be desirable to suit present and future requirements of the country."

- Report of the University Education Commission in p.1


आयोग का कार्य क्षेत्र भारतीय विश्वविद्यालयों की तत्कालीन स्थिति का अध्ययन करना और उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने हेतु सुझाव देना था।


1. तत्कालीन भारतीय विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करके उसमे व्याप्त कमियो (दोषों) का पता लगाना।

2. विश्वविद्यालयों के प्रशासन व वित्त के बारे में सुझाव देना।

3. सम्बद्ध महाविद्यालयो के प्रशासन एवं वित्त के बारे में तथा इनमे शिक्षा एव परीक्षा के स्तरों में उन्नयन (Uprade) हेतु सुझाव देना।

4. विश्वविद्यालयों के संगठन, नियन्त्रण, कार्यक्षेत्र (Work area) एवं विधान (Legislation) के सम्बन्ध में पुनर्गठन हेतु इनमें आवश्यक परिवर्तन लाना।

5. उच्च शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करना तथा पाठ्यचर्या में सुधार हेतु सुझाव देकर शिक्षण स्तर को ऊँचा उठाने के उपाय बताना।

6. उच्च शिक्षा में शिक्षा की अवधि, माध्यम की समस्या व पाठ्यक्रम पर अपनी सहमति देना।

7. उच्च शिक्षा के प्राध्यापकों की नियुक्ति, वेतनमान और सेवा शर्तों के सम्बन्ध में सुझाव देना।

8. छात्रों में फैली अनुशासनहीनता को दूर करने के उपाय खोजना।

9. छात्रों के कल्याण (Students welfare) हेतु योजना प्रस्तुत करना।

10. छात्रों के अनुशासन, छात्रावासों, उपकक्षाकार्य (Tutorial Work) आदि का समायोजन करना।


आयोग का प्रतिवेदन (Report of Commission) -

आयोग ने तत्कालीन विश्वविद्यालयी शिक्षा की स्थिति, उसकी समस्याओं और अन्य पहलुओं का विस्तृत अध्ययन करके गहन विचार विमर्श किया व इन समस्याओं को दूर करने के उपायों के सम्बन्ध में एक प्रश्नावली तैयार कर शिक्षा से जुड़े लगभग 1000 व्यक्तियों के पास भेजा। इनमें से उत्तर प्राप्त 600 प्रश्नावली से आँकडे एकत्र कर उनका सांख्यिकीय विवरण तैयार किया व स्वयं भारतीय विश्वविद्यालयों का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन करके, विश्वविद्यालयो के कुलपतियो, प्राध्यापको और छात्रों से भेट करके उनकी कठिनाइयो को समझा व उनकी माँगो को सुनकर, उनके सुधार सम्बन्धी विचारों को जानकर पूरा विवरण तैयार किया जिसके आधार पर प्रथम खण्ड में 747 पृष्ठों तथा द्वितीय खण्ड के 1356 पृष्ठों वाले सम्पूर्ण प्रतिवेदन को तैयार करके 25 अगस्त 1949 को भारत सरकार को प्रेषित कर दिया। इस प्रतिवेदन में उच्च शिक्षा के स्तर को उन्नत बनाने हेतु उच्च शिक्षा के लगभग समस्त पहलुओं पर बहुमूल्य सुझाव दिये गये है।


विश्वविद्यालय आयोग (1948-49) की संस्तुतियाँ एवं सुझाव
(Suggestions & Recommendation of University Commission 1948-49)


इस आयोग ने विश्वविद्यालय शिक्षा की समस्याओं का गहन अध्ययन किया और सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया तथा शिक्षकों एवं छात्रों का साक्षात्कार करके अपना प्रतिवेदन तैयार किया। इस प्रतिवेदन के प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित है-


1. विश्वविद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य 
    (Aims of University Education) -

राधाकृष्णन् आयोग ने भारतीय परम्पराओं वर्तमान परिस्थितियों एवं राष्ट्र की भावी सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्यो को निर्धारित किया है। ये उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


(i) विश्वविद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य नवीन विचारधाराओं को जन्म देना तथा नवीन मान्यताओं और पुरानी मर्यादाओं के मध्य समन्वय स्थापित कर विकास की ओर बढ़ते रहने की प्रेरणा देना है।

(ii) विश्वविद्यालयों को ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करना चाहिए जो राजनीति, प्रशासन, व्यवसाय व उद्योग आदि क्षेत्रों में नेतृत्व कर सकें।

(iii) विश्वविद्यालयी शिक्षा द्वारा उन गुणों का विकास करना चाहिए, जिनसे कि छात्र भविष्य में उत्तम नागरिक बनकर देश में प्रजातन्त्रात्मक शासन को सफल बनाने में योगदान दे सकें।

(iv) विश्वविद्यालयों को विद्यार्थियों के मानसिक एवं शारीरिक विकास दोनों पर ही समान रूप से ध्यान देना चाहिए।

(v) विद्यार्थियों में आध्यात्मिक जीवन का विकास करना भी विश्वविद्यालयों का प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिए।

(vi) विश्वविद्यालय शिक्षा का लक्ष्य न्याय, स्वतन्त्रता, समानता (Universal), विश्वबन्धुत्व (Brotherhood) व दूरदर्शिता (Vision) की भावना का विकास करना व आदर्शों का संरक्षण करना होना चाहिए।


2. विश्वविद्यालयी शिक्षा का प्रशासन व वित्तीय प्रबन्ध 
(Administration and Finance of University Education) -


(i) उच्च शिक्षा की व्यवस्था का उत्तरदायित्व केन्द्र व राज्य सरकार दोनों का होना चाहिए। अतः उच्च शिक्षा को समवर्ती सूची (Concurrent list) में रखा जाए। उच्च शिक्षा सम्बन्धी राष्ट्रीय नीति का निर्धारण केन्द्र सरकार करे, प्रान्तीय सरकारें उस नीति के अनुसार अपने क्षेत्र में उच्च शिक्षा की व्यवस्था करें।

(ii) विश्वविद्यालयों के आन्तरिक प्रशासन हेतु प्रत्येक विश्वविद्यालय में विभिन्न समितियों का गठन नियमित रूप से किया जाए, जिसमें सम्बद्ध उनके अधिकार व कर्त्तव्य क्षेत्र सुनिश्चित हों।

(iii) महाविद्यालयों के प्रशासन का दायित्व कॉलेजों की प्रबन्ध समितियों को सौंपा जाए।

(iv) उच्च शिक्षा का वित्तीय भार केन्द्र व प्रान्तीय सरकारें संयुक्त रूप से वहन करें।

(v) विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को विभिन्न मदो भवन निर्माण प्रयोगशाला, पुस्तकालय, वाचनालय एवं खेलकूद आदि की व्यवस्था के लिए अनुदान दिया जाए।

(vi) शिक्षकों के वेतन तथा अन्य कार्यों के लिए अनुदान देने एवं महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में समरूपता स्थापित करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grant Commission) की स्थापना की जाए।

(vii) शिक्षण सस्थाओं को आर्थिक मदद करने वालो को आयकर (Income Tax) मे रियायते (Rebate) दी जायें।

(viii) आवर्तक (Recurring) और अनावर्तक (Non Recurring) अनुदान गैर-सरकारी कॉलेजों को भी दिया जाए। आवर्तक (Recurring) अनुदान के लिए कुछ नियम बनाए जायें ओर केवल उन्ही कॉलेजो को इस कोटि का अनुदान (aid) दिया जाए, जो नियमों का पालन करें।


 3. उच्च शिक्षा का संरचनात्मक संगठन 
(Structural Organization of Higher Education) -

इस सम्बन्ध में आयोग ने जो सुझाव दिए हैं उनमें मुख्य हैं-


(i) उच्च शिक्षा का संगठन तीन स्तरों पर किया जाए-स्नातक (U.G.), स्नातकोत्तर (P.G.) और अनुसंधान (Research)

(ii) स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष और परास्नातक पाठ्यक्रम 2 वर्ष का हो और शोध कार्य के लिए निम्नतम कार्यकाल 2 वर्ष हो।

(iii) उच्च शिक्षा का वर्गीकरण तीन वर्गों में-कला, विज्ञान व व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा में किया जाए व इन वर्गों की शिक्षा हेतु कला, विज्ञान और व्यावसायिक व तकनीकी शिक्षा के अलग-अलग विभाग (Departments) खोले जाये।

(iv) व्यवसायिक व तकनीकी शिक्षा को 6 वर्गों में विभाजित किया जाए कृषि, वाणिज्य इंजीनियरिंग एवं तकनीकी, चिकित्सा, कानून और शिक्षक प्रशिक्षण (Teaching Training)

(v) कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग एवं तकनीकी, विकित्सा और शिक्षक प्रशिक्षण के लिए स्वतन्त्र सम्बद्ध महाविद्यालय खोले जाएँ।

(vi) कृषि की उच्च शिक्षा व शोध कार्य हेतु अलग से कृषि विश्वविद्यालय स्थापित किए जाएँ।

(vii) ग्रामीणो की उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्रो में ग्रामीण विश्वविद्यालय (Rural Universities) स्थापित किए जाएँ और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालय स्थापित किए जाएँ।

(viii) उच्च शिक्षा की व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन हेतु महाविद्यालयों के शिक्षकों के लिए भिन्न-भिन्न पदनामों के साथ भिन्न-भिन्न वेतनमान निश्चित किया जाना चाहिए।


4. शिक्षा का माध्यम 
(Medium of Instruction)-


शिक्षा के माध्यम के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये है


(i) हिन्दी भाषा का सघीय भाषा (Federal Official Language) के रूप में विकास किया जाय और देश के सभी भागों में उसे उच्चतर माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर अनिवार्य विषय बना दिया जाय।

 (ii) राज्य सरकारों द्वारा उच्चतर माध्यमिक स्कूलों, डिग्री कालेजों एवं विश्वविद्यालयों की समस्त कक्षाओं में संघीय भाषा (Federal Language) की शिक्षा की व्यवस्था की जाय।

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय प्रावैधिक और वैज्ञानिक परिभाषित शब्दों (Intemational Technical & Scientific Terminology) को अपनाया जाय।

(iv) विश्व एव ज्ञान के साथ सम्पर्क बनाने रखने के लिये स्कूलो एवं विश्वविद्यालयों मे अंग्रेजी माध्यम से अध्ययन यथा पूर्व चलता रहे।

(v) माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय स्तर पर प्रत्येक छात्र को तीन भाषाओं का ज्ञान कराया जाय-
       (1) क्षेत्रीय भाषा, (2) राष्ट्र भाषा एवं (3) अंग्रेजी भाषा ।


5. पाठ्यक्रम (Curriculum) -


(i) स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का किया जाए तथा इसमे कला एवं विज्ञान सकायों में उन्ही छात्रों को प्रवेश दिया जाना चाहिए, जो 12 वर्ष तक स्कूलों में अथवा इसके समकक्ष शिक्षा प्राप्त कर चुके हों।

(ii) स्नातक स्तर पर सभी वर्गों कला, विज्ञान और व्यावसायिक वर्ग का पाठ्यक्रम विस्तृत किया जाए उनमे छात्रों को अपनी रूचि और आवश्यकतानुसार विषयो के चयन की पर्याप्त छूट हो।

(iii) स्नातकोत्तर स्तर पर प्रवेश अखिल भारतीय स्तर (All India Level) पर होना चाहिए तथा यह पाठ्यक्रम स्नातक उत्तीर्ण (U.G. Pass) छात्रों के लिए 2 वर्ष का और ऑनर्स कोर्स उत्तीर्ण छात्रों के लिए 1 वर्ष का हो।

(iv) स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम में किसी एक विषय का गहन अध्ययन कराया जाये, जिसमें विषय की शोध विधियों का ज्ञान व प्रशिक्षण अनिवार्य हो।

(v) पी.एच.डी. की उपाधि कम से कम दो वर्ष के शोध कार्य के बाद मिलनी चाहिए। शोध कार्य उन्हीं छात्रों से कराए जाए, जिनकी शोध कार्य में रूचि हो और शोध कार्य करने की बौद्धिक क्षमता हो।

(vi) पी०एच०डी० एवं अनुसंधान कार्य (Research work) के लिए विद्यार्थियों के लिए अनुसंधान शिक्षावृत्ति (Research Fellowship) की व्यवस्था होनी चाहिए।


 6. शिक्षा स्तर (Standard of Teaching) -


विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने शिक्षा स्तर के उन्नयन (upgrade) हेतु निम्न सुझाव दिये-


(i) विश्वविद्यालयों व उससे सम्बद्ध महाविद्यालयों में प्रवेश के लिए निम्नतम योग्यता इन्टर पास (12th) और निम्नतम आयु 18 वर्ष हो तथा प्रत्येक प्रान्त में उचित शिक्षण एवं शिक्षक वर्ग से युक्त इन्टरमीडिएट कॉलेज अधिक से अधिक संख्या में खोले जायें।

(ii) विश्वविद्यालयों में छात्रों की अधिकतम संख्या 3000 और सम्बद्ध कॉलेजों में 1500 निर्धारित की जाए।

(iii) विश्वविद्यालयों व उनसे सम्बन्द महाविद्यालयों की दशा में सुधार किया जाए, उनमें प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों और वाचनालयों आदि की उचित व्यवस्था की जाए।

(iv) विश्वविद्यालयों और सम्बद्ध महाविद्यालयों का शिक्षण सन्त्र परीक्षा दिवसों (Examination days) को छोडकर कम से कम 180 कार्य दिवस (Working Days) होने चाहिए।

(v) छात्रों के लिए व्याख्यान कक्षाओं की उपस्थिति के सम्बन्ध में प्रतिशत निर्धारित कर दिया जाना चाहिए। इस निर्धारित प्रतिशत से कम उपस्थिति वाले छात्रों को परीक्षा में सम्मिलित नही होने दिया जाना चाहिए। इस प्रकार स्नातक स्तर पर छात्रों की उपस्थिति अनिवार्य हो।

(vi) शिक्षकों को अपने व्याख्यान ध्यानपूर्वक, परिश्रम व सतर्कता से तैयार करने चाहिए। उप-कक्षाओं (Tutorial Classes) की व्यवस्था की जाय और पुस्तकालय अध्ययन एवं लिखित कार्य पर जोर दिया जाय।

(vii) छात्रों के लिए अच्छे पुस्तकालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए। विज्ञान के छात्रों के लिए सुसम्पन्न प्रयोगशाला उपलब्ध होनी चाहिए।

(viii) स्नातकोत्तर स्तर (P.G. Level) पर विचार गोष्ठियों (Seminars) को प्रोत्साहन दिया जाय।

(ix) स्नातकोत्तर स्तर (P.G. Level) पर छात्रों को व्याख्यानों में उपस्थित होने के लिए बाध्य न किया जाय।

(x) छात्रों को कम से कम 40, 55 एवं 70 प्रतिशत अंको पर क्रमशः तृतीय, द्वितीय एवं प्रथम श्रेणी प्रदान की जाय।

 (xi) विभिन्न व्यवसायों में संलग्न व्यक्तियों के लिए सायंकालीन कक्षाओं (Evening Classes) की व्यवस्था की जाय।


7. शिक्षक वर्ग (Teaching Staff) -


आयोग ने विश्वविद्यालयों के शिक्षको की स्थिति में सुधार हेतु निम्नलिखित सुझाव व सस्तुतियाँ दी है-


(i) विश्वविद्यालय के अध्यापको को चार श्रेणियों में विभाजित किया जाना चाहिए- 
  • (1) प्रोफेसर (2) रीडर (3) लेक्चरर (4) इस्ट्रक्टर या फैलोज (Research Fellows)

(ii) पदोन्नति का आधार शिक्षक की योग्यता (Ability) होनी चाहिए।

(iii) अध्यापकों को उचित सुविधाओं तथा भविष्य निधि (Provident Fund), कार्यकाल, अवकाश आदि के नियम स्पष्ट रूप से बताए जाएँ और इनका पालन किया जाए।

(iv) जूनियर पदो (लेक्चरर एवं इस्ट्रक्टर) का सीनियर पदो (प्रोफेसर व रीडर) मे अनुपात साधारणतया 2 : 1 होना चाहिए।

(v) विश्वविद्यालय के समीप ही शिक्षकों को रहने के लिए कम किराए के आवासों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

(vi) शिक्षकों की सेवानिवृत्ति की आयु सामान्यतया 60 वर्ष होनी चाहिए, अच्छे स्वास्थ्य वाले शिक्षकों को 64 वर्ष की अवस्था तक अपने पदों पर कार्य करने की अनुमति दी जाए।

(vii) शिक्षकों को अध्ययन हेतु एक बार में 1 वर्ष का अवकाश और सम्पूर्ण सेवाकाल अवधि मे 3 वर्ष का अवकाश दिया जाय।

(viii) शिक्षको को एक सप्ताह में अधिक से अधिक 18 घटे (Periods) का शिक्षण कार्य दिया जाना चाहिए। मास्टर डिग्री कक्षाओं और शोध छात्रों के निर्देशन के लिए 12 से 15 घंटे हों।


8. छात्र-कल्याण कार्य 
(Students Welfare Activities) -


आयोग ने छात्रों के सर्वांगीण विकास महत्व स्पष्ट करते हुये लिये निम्नलिखित कल्याण-कार्यों का सुझाव दिया है-


(i) समस्त योग्य छात्रों को समान रूप से विश्वविद्यालय शिक्षा को प्राप्त करने की सुविधा दी जाय।

(ii) प्रवेश के समय एवं इसके बाद वर्ष में कम से कम एक बार प्रत्येक छात्र की निःशुल्क स्वास्थ्य परीक्षण किया जाय।

(iii) प्रत्येक विश्वविद्यालय में छात्रों की चिकित्सा के लिये चिकित्सालय की व्यवस्था की जाय।

(iv) प्रत्येक विश्वविद्यालय और प्रत्येक कॉलेज में एक 'शारीरिक शिक्षा निदेशक (Director of Physical Education) की नियुक्ति की जाय।

(v) प्रत्येक विश्वविद्यालय में छान्त्र कल्याण सलाहकार समिति (Advisory Borad of Student Welfare) का विकास किया जाय।

(vi) छात्रों द्वारा उत्तम प्रशासन में रुचि पैदा की जाय एवं 'प्रोक्टोरिल प्रणाली' (Proctorial System) का विकास किया जाय।

(vii) विश्वविद्यालय में छात्रावासों की समुचित व्यवस्था की जाय एक छात्रावास में 50 से अधिक विद्यार्थियों न हों।

(viii) समस्त शिक्षा संस्थाओं में एन०सी०सी० (National Cadited Corps) का सगठन किया जाय।

(ix) विद्यार्थियों के लिये खेल-कूद मनोरजन क्रियाओं (Hobbies) एवं जेमनेजियम आदि की व्यवस्था की जाय।

(x) मध्याह्न के समय उचित मूल्य पर छात्रों के लिये पौष्टिक भोजन का प्रबन्ध किया जाय ।


9. व्यावसायिक शिक्षा 
(Professional Education) -


"व्यावसायिक शिक्षा वह प्रक्रिया है, जो पुरुषों एवं स्त्रियों को व्यावसायिक भावना के साथ परिश्रमपूर्ण एवं उत्तरदाई सेवा के लिये तैयार करती है।"

"Professional education is the process by which men and women prepare for exacting responsible service in the professional spirits.

-Report of the University Education Commission p, 174


(i) कृषि शिक्षा (Agriculture Education) - 


भारत एक कृषि प्रधान देश होने के कारण शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर कृषि शिक्षा की आवश्यकता बताते हुए आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(1) शिक्षा के सभी स्तरों पर कृषि शिक्षा को स्थान दिया जाय।

(2) छात्रों को कृषि का ज्ञान प्रदान करने के लिए गाँवों में कृषि शिक्षा संस्थानों की स्थापना की जाए।

(3) स्नातक स्तर पर कृषि शिक्षा का पाठ्यक्रम 3 वर्ष का हो।

(4) वर्तमान कृषि महाविद्यालयों को आर्थिक सहायता देकर उनमें सुधार किया जाए।

(5) केन्द्रीय एवं राजकीय सरकारों के द्वारा कृषि-शिक्षा हेतु प्रयोगात्मक फार्म (Experimental Farm) खोले जाए।

(6) भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (Indian Council of Agricultural Research) समस्त कृषि अनुसंधान केन्द्रों के कार्यों में समन्वय स्थापित करें।


(ii) वाणिज्य (Commerce) -


(1) वाणिज्य विषय में स्नातक कक्षाओं की व्यवस्था महाविद्यालयों में तथा स्नातकोत्तर कक्षाओं का प्रबन्ध विश्वविद्यालयों में किया जाना चाहिए।

(2) स्नातक स्तर पर छात्रो को प्रथम दो वर्षों में बैंकिग (Banking), एकाउन्टेन्सी (Accountancy) और बीमा (Insurance) आदि का सामान्य ज्ञान कराया जाए। तीसरे वर्ष में उन्हें वाणिज्य की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी फर्म अथवा कम्पनी में प्रशिक्षणार्थी (Apprantice) के रूप में कार्य करना अनिवार्य हो।

(3) वाणिज्य में स्नातकोत्तर उपाधि के लिए पुस्तकीय अध्ययन कम व व्यावहारिक ज्ञान के महत्त्व पर अधिक ध्यान देना चाहिए।


(iii) अभियान्त्रिकी व प्रौद्योगिकी 
      (Engineering and Technology) - 


अभियान्त्रिकीय व प्रौद्योगिकीय शिक्षा देने वाली संस्थाओं को किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति न रहने दिया जाए वरन् इन समस्त सस्थाओं को राष्ट्रीय सम्पत्ति समझा जाए।

(1) देश में Engineering and Technology Institute सस्थाओं की सख्या कम है अतः नयी-नयी संस्थाएँ खोली जाए।

(2) इन संस्थाओं में राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रम में विविधता लाई जाए और उसका विस्तार किया जाए। व्यावहारिक ज्ञानार्जन को महत्व दिया जाए।

(3) इन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रो को कारखानों में कार्य करने एवं व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने का पूरा अवसर दिया जाय।

(4) स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा तथा शोध कार्य करने की व्यवस्था भी इन्जीनियरिंग एवं तकनीकी शिक्षा में की जाए।


(iv) चिकित्सकीय शिक्षा (Medical Education) - 


चिकित्सकीय शिक्षा की कमियों को दूर करने और उसकी उन्नति तथा विकास करने के लिए आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(1) मेडिकल कॉलेजों में अधिक छात्रों को प्रवेश न दिया जाए। एक सत्र में 100 से अधिक छात्र न लिए जायें और अध्ययन करने वाले प्रत्येक छात्र के अधीन 10 से अधिक रोगी न हो।

(2) रोगी परिचर्या (Patient Care) और रोगों की रोकथाम (Prevention) को अधिक महत्व दिया जाए।

(3) भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों तथा आयुर्वेदिक तथा हकीमी प्रणालियों का विकास किया जाए। अनुसंधान कार्यों को भी प्रोत्साहित किया जाए।

(4) स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं के छान्नों को ग्रामीण और साधनहीन लोगों की चिकित्सा का प्रशिक्षण विशेष रूप से दिया जाए।

(5) चिकित्सा की स्नातकोत्तर शिक्षा देने वाली संस्थाओं में औजार (Tool), साज-सज्जा (Furnishing), औषधि (Medicine) आदि की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए साथ ही योग्य व अनुभवी चिकित्सा शिक्षक भी उपलब्ध होने चाहिए।


(v) विधि (कानून) शिक्षा (Law Education)-


(1) कानून शिक्षा में स्नातक उत्तीर्ण छात्रों को ही प्रवेश दिया जाए।

(2) कानून कॉलेजों का पुनर्गठन (Reconstitute) किया जाए। विधि में स्नातक पाठ्यक्रम 3 वर्ष का रखा जाए। जिसमें प्रथम 2 वर्ष सैद्धान्तिक ज्ञान तथा तीसरा वर्ष व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए निर्धारित हो।

(3) छात्रों को सेमिनारों के माध्यम से सैद्धान्तिक ज्ञान दिया जाए।

(4) विधि सभा (Moot Court) द्वारा व्यावहारिक प्रशिक्षण प्रदान किया जाए।

(5) कानूनी शिक्षा में वैधानिक (Constitutional), प्रशासकीय (Administrative), अर्न्तराष्ट्रीय (International) कानून आदि के अनुसंधान की सुविधा दी जाए।

(6) पूर्ण कालीन (Whole Time) शिक्षको द्वारा कानून की आधारभूत विषयों की शिक्षा (Bsic Subjects Education) और अंशकालीन (Part Time) शिक्षकों द्वारा व्यवहारिक (Practical) ज्ञान की शिक्षा दी जाए।


(vi) शिक्षक प्रशिक्षण शिक्षा 
      (Teacher's Training Education)-


शिक्षा के सन्दर्भ में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-

(1) शिक्षकों के प्रशिक्षण (Teacher's Training) के लिए उत्तम व्यवस्था वाले शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों (Teacher Training Colleges) की व्यवस्था की जाए।

(2) प्रशिक्षण महाविद्यालयों (Training Colleges) की पाठ्यचर्या में सुधार (Curriculum Improve) किया जाए, पुस्तकीय ज्ञान (Bookies Knowledge) की अपेक्षा अध्यापन (Practice Teaching) के अभ्यास पर अधिक बल (Practice Teaching) दिया जाए।

(3) प्रशिक्षण महाविद्यालयों में ऐसे शिक्षकों को नियुक्त किया जाए, जो स्कूलों में पढ़ाने का पर्याप्त अनुभव रखते हो।

(4) शिक्षक प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम लचीला एवं स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हो।

(5) छात्रों के वार्षिक कार्य (Annual Work) का मूल्यांकन करते समय उनकी अध्यापन योग्यता (Teaching ability) को विशेष महत्व दिया जाय।

(6) एम०एड० में प्रवेश करने के लिए उन अभ्यर्थियो को अनुमति दी जाय जिन्हे बी०एड० परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कुछ वर्षों का शिक्षण अनुभव हो।


10. धार्मिक नैतिक शिक्षा 
      (Religious and Moral Education) - 


धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-


(i) समस्त शिक्षण संस्थाओं में प्रत्येक दिन शिक्षण कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व सभी शिक्षक और विद्यार्थी कुछ मिनट के लिए मौन चिन्तन (Silent Meditation) के बाद दैनिक कार्य प्रारम्भ करें।

(ii) प्राथमिक (Primary), माध्यमिक (Secondary) और स्नातक (U.G.) स्तर पर धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

(iii) स्नातक प्रथम वर्ष में छात्रों को विश्व के महान धार्मिक गुरूओं (बुद्ध, सुकरात, ईसा, शकर, मुहम्मद, नानक, कबीर, रामानुज, गाँधी) आदि की जीवनियाँ पढाई जाए।

(iv) स्नातक द्वितीय वर्ष में विभिन्न धर्मो के धार्मिक ग्रंथों में से सार्वभौमिक महत्व के चुनें हुये अंशो का अध्ययन कराया जाय।

(v) स्नातक तृतीय वर्ष में धर्म दर्शन (Philosophy of Religion) की प्रमुख समस्याओं का अध्ययन कराया जाए।


11. स्त्री-शिक्षा (Women's Education) -


आयोग ने स्त्री शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व पर बल देते हुये इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-


(i) स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाय जिससे यह कुशलमाता एवं कुशल गृहणी बन सके।

(ii) शिक्षा प्राप्त करने में स्त्रियाँ पुरुषो का अनुकरण न कर स्त्रियोचित शिक्षा प्राप्त करें।

(iii) स्त्रियो की शिक्षा सुविधाओं में विस्तार किया जाय।

(iv) शिक्षण-व्यय को कम करने के लिये उपाधि स्तर उच्च शिक्षा (Higher Education) पर सह-शिक्षा (Co-Education) को प्रोत्साहन प्रदान किया जाय।

(v) शिक्षा संस्थाओं के पाठ्यक्रम में गृह विज्ञान (Home Science), गृहसज्जा (Home Decorate) और पालन-पोषण (Upbringings) की शिक्षा को स्थान दिया जाना चाहिए।

(vi) गृह-प्रबन्ध (Home Mangement) एवं गृह अर्थशास्त्र (Home Economics) की शिक्षा प्राप्त करने के लिये स्त्रियों को प्रोत्साहित किया जाय।


12. परास्नातक प्रशिक्षण और अनुसंधान 
(Post Graduate Training and Research) -


(i) एमए और एम एस सी की उपाधियो के नियमो में एकरूपता (Uniformity) स्थापित की जाए।

(ii) प्रत्येक विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए 'अखिल भारतीय स्तर' (All India Level) की परीक्षा कराई जाए।

(iii) पीएचडी की परीक्षा में 'थीसिस' (शोध प्रबन्ध) के साथ-साथ मौखिक परीक्षा को भी शामिल किया जाए।

(iv) विश्वविद्यालयों द्वारा अनुमोदित महाविद्यालयों (Approved Colleges) में अनुसंधान विभाग खोले जाये।



13. परीक्षाएं व मूल्यांकन 
(Exams and Evaluation) -


आयोग ने विश्वविद्यालय की परीक्षा प्रणाली (Examination System) को दोषपूर्ण बताते हुए उसे दोषमुक्त करने के लिए निम्न संस्तुतियाँ की-


(i) छात्रों की प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए यथाशीघ्र वस्तुनिष्ठ परीक्षा (Object Exam Report) का पत्रक तैयार किया जाए तथा आन्तरिक मूल्यांकन का महत्व बढाने हेतु बाह्य परीक्षाओं की संख्या में कमी की जाए।

 (ii) तीन वर्षीय डिग्री कोर्स की परीक्षा 3 वर्ष बाद न ली जाकर प्रत्येक वर्ष के अन्त में ली जानी चाहिए। छात्रों के लिए प्रत्येक प्रतिवर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण करनी अनिवार्य होनी चाहिए।

(iii) परीक्षाओं के स्तर का उन्नयन करने के लिए प्रथम, द्वितीय एवं तृतीत श्रेणी के न्यूनतम प्राप्ताक 70, 55, 40 प्रतिशत होने चाहिए।

(iv) सभी विश्वविद्यालयो की सभी परीक्षाओं में कृपाक अक या अनुग्रह अक (Grace Marks) देने की पद्धति समाप्त की जानी चाहिए।

(v) विद्यालयों में छात्रों के प्रगति पन्त्रको (Progress Report) को अद्यतन (Upto-date maintained) बनाये रखना चाहिए।

(vi) परीक्षको का चयन 5 वर्ष के शिक्षण अनुभव के बाद ही करना चाहिए।

(vii) प्रायोगिक विषयों की परीक्षाओं में लिखित, प्रयोगात्मक व मौखिक तीनों परीक्षाएँ लेनी चाहिए।

(viii) सभी विश्वविद्यालयो के छात्रों के सफलता मानकों में यथासम्भव समरूपता होनी चाहिए ।


14. ग्रामीण विश्वविद्यालय (Rural Universities) -


ग्रामीण विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में आयोग ने निम्न संस्तुतियाँ की-


(i) प्रत्येक प्रान्त (State) में एक ग्रामीण शिक्षा परिषद्' (Rural Education Council) की स्थापना की जाए और केन्द्र (Central) में 'अखिल भारतीय ग्रामीण शिक्षा परिषद्' (All India Rural Education Council) का गठन किया जाए। केन्द्रीय परिषद् (Central Council ) ग्रामीण शिक्षा सम्बन्धी नीति (Rural Education Relateted Policy) का निर्माण करेगी और प्रान्तीय परिषदें (State Council) उस नीति के अन्तर्गत अपने प्रदेश में आवश्यकतानुसार ग्रामीण शिक्षा की व्यवस्था करेंगी।

(ii) ग्रामीण विश्वविद्यालयों का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र के छात्रों को सामान्य शिक्षा देने के साथ-साथ उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं से अवगत कराना और उन्हें हल करना सिखाना होगा।

(iii) आयोग ने केन्द्र में ग्रामीण विश्वविद्यालय और उसके वृत्तकार स्थिति में अनेक सम्बद्ध स्नातक कॉलेज बनाये जाने की सिफारिश की। जिनमें से प्रत्येक कॉलेज में लगभग 300 छात्र हो सम्पूर्ण विश्वविद्यालय एवं सम्बद्ध महाविद्यालय में 2500 के करीब छान्त्र हों।

(v) ग्रामीण विश्वविद्यालयों और उससे सम्बद्ध महाविद्यालयों के लिए अलग-अलग प्राध्यापकों की नियुक्ति हो पर इन सबके लिए प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयो, चिकित्सालयों और खेल के मैदानों की व्यवस्था एक ही स्थान पर होनी चाहिए।


15. छात्रवृत्ति, छात्रावास और आवास 
(Scholarship, Hostels and Residence) -


(i) ग्रामीण प्रतिभा सम्पन्न परन्तु आर्थिक दृष्टि से अभावग्रस्त छात्रों को उनकी योग्यता के आधार पर छात्रवृत्तियाँ दी जाए।

(ii) विश्वविद्यालयों एवं सम्बद्ध महाविद्यालयों में छात्रों को रहने के लिए छात्रावासों की भी सुविधा दी जानी चाहिए। अच्छे चरित्र और स्वीकृत छात्रवृत्तियों वाले छात्रो को छात्रावासों में और भोजन कक्षों में मॉनीटर के रूप में कार्य करने हेतु प्रयुक्त किया जाना चाहिए।

(iii) कुछ शिक्षकों को छात्रावासों (Hostels) में सामाजिक कार्यकर्त्ता (Social worker) के रूप में रहने की अनुशंसा (Recommendation) की गयी है।

(iv) छात्रावासो को चार पाँच खण्डो में निर्मित किया जाना चाहिए। प्रत्येक खण्ड में छात्रो की सख्या 50 से अधिक नही होनी चाहिए।

(v) छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए खेल का मैदान और सुसंगठित क्रियाएँ (Organize Activites) की सुविधा होनी चाहिए।


16. विधान संगठन और नियन्त्रण 
(Constitution Organization & Control) -


(i) विश्वविद्यालयों में केन्द्र सरकार के समान सक्षम प्रशासन हेतु न्यूनतम मानकों को सुनिश्चित करने और राष्ट्रीय अनुसंधान प्रयोगशालाओं एवं वैज्ञानिक सर्वेक्षणों आदि की व्यवस्था होनी चाहिए।

(ii) विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए एक केन्द्रीय अनुदान आयोग (Central Grant Commission) की स्थापना की जानी चाहिए।

(iii) महाविद्यालयो की प्रबन्ध समितियाँ (Management Committee) उचित रूप से गठित की जानी चाहिए तथा विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध महाविद्यालयों की संख्या भी सीमित होनी चाहिए।

(iv) विश्वविद्यालयों के लिए निम्नलिखित अधिकारियों की नियुक्ति होनी चाहिए-

  • (a) समस्त विश्वविद्यालयों के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में राष्ट्रपति की आगंतुक (Visitor) के रूप में नियुक्ति। 
  • (b) राज्य के राज्यपाल की कुलाधिपति (Chancellor) के रूप में नियुक्ति। 
  • (c) राज्यपाल द्वारा नियुक्त किसी विश्वविद्यालय के सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी की कुलपति (Vice-Chancellor) के रूप में नियुक्ति। 
  • (d) विश्वविद्यालय की प्रशासनिक व शैक्षिक गतिविधियो (Educational activities) के सम्बन्ध में निर्णय लेने वाले संगठन की सीनेट (Senate) के रूप में गठन जिसमें 100 से अधिक सदस्य न हों। 
  • (e) विश्वविद्यालयों की कार्यकारिणी परिषद् (Extutive council) के रूप में सिण्डीकेट (Syndicate) का गठन, जिसकी सदस्य संख्या 20 से 25 हो सकती है। 
  • (f) विभिन्न संकायों (Faculties) के पाठ्यक्रम, शोध, परीक्षा व अन्य शैक्षिक कार्यक्रमो पर निर्णय लेने हेतु अध्ययन परिषद् (Board of Studies) का गठन । 
  • (g) शैक्षिक विभाग या सकाय (Facilities) विश्वविद्यालयो में विभिन्न विषय वर्गों के शिक्षण हेतु । 
  • (h) विश्वविद्यालय की शैक्षिक गतिविधियों के सम्बन्ध में निर्णय लेने हेतु शैक्षिक परिषद् (Academic Council) का गठन, जिसके लिए 40 से 45 सदस्य संख्या निर्धारित हो।
  • (i) विश्वविद्यालय की वित्तीय आवश्यकताओं तथा आय-व्यय (Income-expenditure) का लेखा-जोखा (Statement of Accounts) रखने हेतु वित्त समिति (Finance Committee) का गठन।



17. अनुशासन व्यवस्था (Discipline Process) -


आयोग ने छात्रों को अनुशासित रखने में बाधक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक तथा अन्य कारणों को दूर करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये थे-


(i) छात्रों में व्याप्त अनुशासनहीनता को दूर करने हेतु सरकार, राजनीति, समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों, अभिभावकों, जनता तथा प्रेस के लोगों से विचार विमर्श करके सम्मिलित प्रयास किये जाने चाहिए।

 (ii) छात्रों की व्यक्तिगत व शैक्षिक समस्याओं का समाधान सहानुभूति और प्रेम के साथ किया जाना चाहिए तथा उनके शारीरिक स्वास्थ्य, मनोरंजन, खेल-कूद तथा सांस्कृतिक विकास का पर्याप्त ध्यान रखा जाना वाहिए।

(iv) विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राओं की कठिनाइयों के निवारण के लिए प्राक्टोरियल बोर्ड को सक्रिय सहयोग करना चाहिए।

(v) कॉलेजो में छान्त्र कल्याण हेतु व उन्हें रोजगार उपलब्ध (Placement Cell) कराने हेतु प्रयास किये जाने चाहिए।


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निष्कर्ष :


उद्देश्य:

* भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन करना।

* शिक्षा के सभी पहलुओं में सुधार के लिए सिफारिशें करना।

* राष्ट्रीय शिक्षा नीति का आधार तैयार करना।



सिफारिशें:

* शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का समग्र विकास होना चाहिए।

* शिक्षा को जीवनपर्यंत शिक्षा बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए।

* शिक्षा को राष्ट्रीय चरित्र निर्माण से जोड़ा जाना चाहिए।

* पाठ्यक्रम को व्यापक और संतुलित बनाया जाना चाहिए।

* परीक्षा प्रणाली को सुधारना चाहिए।

* शिक्षक प्रशिक्षण को बेहतर बनाया जाना चाहिए।

* विश्वविद्यालयों का शासन अधिक लोकतांत्रिक और कुशल बनाया जाना चाहिए।



प्रभाव:

* राधाकृष्णन आयोग की रिपोर्ट ने भारत में शिक्षा प्रणाली को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

* आयोग की सिफारिशों के आधार पर, भारत में कई शिक्षा सुधार किए गए।

* आयोग की रिपोर्ट आज भी शिक्षा नीति निर्माताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ है।



प्रभाव के कुछ विशिष्ट उदाहरण:

* त्रि-स्तरीय शिक्षा प्रणाली (प्राथमिक, माध्यमिक, और उच्च शिक्षा) की स्थापना।

* राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) की स्थापना।

* विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) की स्थापना।

* शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की स्थापना।

* विभिन्न विषयों में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों की शुरुआत।



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