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विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधाकृष्णन कमीशन (1948-49) University Education Commission

University Education Commission Or Radhakrishnan Commission (1948-1949): प्रस्तावना - स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त विश्वविद्यालय शिक्षा का निरन्तर विकास हो रहा था, किन्तु प्रचलित शिक्षा प्रणाली किसी भी तरह से स्वतन्त्र व जनतांत्रिक देश के लिए उपयुक्त नहीं थी। इसका मुख्य कारण स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय विश्वविद्यालयों में अध्ययनरत छात्रों की संख्या में हो रही निरन्तर वृद्धि व उनकी शिक्षा का निम्न स्तर था। अतः भारतीय जनता उच्च शिक्षा के स्तर से असन्तुष्ट थी, क्योंकि यह शिक्षा देश की तत्कालीन आवश्यकताओं को पूरा करने में भी असफल थी। इसका उद्देश्य छान्नों द्वारा परीक्षाएँ उत्तीर्ण करके उपाधियाँ प्राप्त करना रह गया था। अतः उपर्युक्त दोषों का निवारण करने हेतु तथा स्वतन्त्र भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप उच्च शिक्षा का पुनर्संगठन (Reorganization) करने के लिये अन्तर्विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद् (I U B E-Inter University Board of Education) तथा केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (CABE-Central Advisory Board of Education) ने भारत सरकार के समक्ष एक अखिल भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (Al

माध्यमिक शिक्षा आयोग या मुदालियर कमीशन: (1952-1953) SECONDARY EDUCATION COMMISSION

SECONDARY EDUCATION COMMISSION OR MUDALIAR COMMISSION- (1952-1953) : प्रस्तावना - स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त विभिन्न स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय-की शिक्षा में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 'केन्द्रीय शिक्षा कमीशन ' (Central Education Commission) ने सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव एवं सिफारिशें प्रस्तुत की थी। किन्तु देश के शिक्षा-विशेषज्ञों ने इस बात का अनुभव किया कि जब तक माध्यमिक शिक्षा में सुधार नहीं किये जायेंगे तब तक विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार सम्भव नहीं है। इस स्थिति को सामने रखते हुये सन् 1948 में केन्द्रीय सलाहाकार बोर्ड' (Central Advisory Board of Education) ने माध्यमिक शिक्षा की जाँच करने के लिए आयोग की नियुक्त करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया। सन् 1951 में बोर्ड ने पुनः उक्त प्रस्ताव को बलपूर्वक दोहराते हुए कहा कि माध्यमिक शिक्षा "एकमार्गीय" (Unilateral) हो चुकी है। अतः उसे पुनर्गठन (Reconstruction) की अत्यधिक आवश्यकता है। बोर्ड के इस सुझाव को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 23 दिसम्बर सन् 1952 में माध्यमि

रचनावाद और उदार दृष्टिकोण (Constructivism and Eclectic approach)

प्रस्तावना - शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान और सीखने की प्रकृति को समझने के लिए, दो प्रमुख दृष्टिकोण व्यापक रूप से स्वीकार किए जाते हैं: रचनावाद (Constructivism) और उदार दृष्टिकोण (Eclectic Approach). ये दोनों दृष्टिकोण सीखने की प्रक्रिया को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं और उनमें निहित ताकत और कमजोरियों का अपना सेट होता है।

स्कूली जीवन में लोकतंत्र (Democracy in School life)

प्रस्तावना - कक्षाओं और स्कूल प्रांगणों के हॉल में अक्सर केवल पाठ और खेल के समय के अलावा और भी बहुत कुछ होता है। वे एक लोकतांत्रिक समाज में पनपने के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण कौशल और मूल्यों के लिए प्रशिक्षण आधार के रूप में भी काम कर सकते हैं। स्कूली जीवन में लोकतांत्रिक सिद्धांतों को लागू करने से छात्रों को कई लाभ मिलते हैं, न केवल जिम्मेदार नागरिकों को बढ़ावा मिलता है बल्कि आवश्यक जीवन कौशल से लैस पूर्ण व्यक्तियों को भी बढ़ावा मिलता है।

शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा (Concept of Education and Culture)

 प्रस्तावना - संस्कृति और शिक्षा एक-दूसरे के पर्याय हैं। संस्कृति का काम है- संस्करण अर्थात् परिष्कार करना। यही काम शिक्षा भी करती है। समाज की रचना में भी संस्कृति का विशेष योग रहता है। किसी भी सामाजिक संरचना को समझने के लिए संस्कृति एक आवश्यक तत्व है। संस्कृति समाज को संगठित रखती है। जीवन शैली के स्वरूप को प्रस्तुत करने का कार्य संस्कृति करती है। संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति सम् उपसर्ग कृ-धातु स्तिन प्रत्यय से हुई है। इसमें जीवन के सभी पक्षों का समन्वय है।

शिक्षा के लिए सामाजिक मांग (Social Demand for Education)

शिक्षा के लिए सामाजिक मांग - भारतीय समाज एक बहुआयामी और विविधतापूर्ण समाज है, जहाँ विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक समूहों का समावेश है। शिक्षा, इस समाज का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो सामाजिक विकास और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। शिक्षा, मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो व्यक्तिगत और सामाजिक विकास दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

शिक्षा एवं भारतीय सामाजिक संरचना से संबंध (Education and relationship with Indian Social Structure)

शिक्षा एवं भारतीय सामाजिक संरचना से संबंध: एक विश्लेषण शिक्षा, मानव जीवन का अभिन्न अंग है। यह न केवल ज्ञान प्रदान करती है, बल्कि सामाजिक विकास और परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा और भारतीय सामाजिक संरचना के बीच गहरा संबंध है। शिक्षा समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है, जैसे कि सामाजिक स्तरीकरण, जाति व्यवस्था, लिंगभेद, और सामाजिक न्याय।

भारतीय समाज की एक उप-प्रणाली के रूप में शिक्षा (Education as a sub-system of Indian Society)

प्रस्तावना — शिक्षा , भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग है। यह समाज के विकास और परिवर्तन के लिए एक महत्वपूर्ण उप-प्रणाली के रूप में कार्य करती है। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान का प्रसार करना नहीं, बल्कि व्यक्तित्व का समग्र विकास करना भी है। यह व्यक्ति को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से सक्षम बनाता है।

लेव वैगोत्स्की का सामाजिक का विकास का सिद्धांत (Lev Vygotsky's Sociocultural Theory of Development:)

सामाजिक विकास का सिद्धांत (वैगोत्स्की) - लेव वाइगोत्स्की, 20वीं सदी के प्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत प्रस्तुत किया। यह सिद्धांत बाल विकास, खासकर संज्ञानात्मक विकास को समझने का एक नया दृष्टिकोण था। वाइगोत्स्की का मानना था कि व्यक्तिगत विकास सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ में होता है, न कि किसी बच्चे के भीतर अलग-थलग होकर। इस सिद्धांत को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं:

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत (Jean Piaget's Theory of Cognitive Developmen)

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत - जीन पियाजे, एक स्विस विकासात्मक मनोवैज्ञानिक, ने संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि बच्चों का ज्ञान उनके अनुभवों के माध्यम से धीरे-धीरे बनता है, और यह विकास कुछ विशिष्ट चरणों में होता है। इन चरणों में संक्रमण होते रहते हैं, जहां बच्चे पुरानी सोच को त्यागकर नई सीख प्राप्त करते हैं।

अल्लामा मुहम्मद इकबाल का शैक्षिक दर्शन (Educational Philosophy Of Allamah Muhammad Iqbal)

अल्लामा इक़बाल का शैक्षिक दर्शन: एक विस्तृत विवरण प्रस्तावना: मुहम्मद इकबाल (1877-1938), जिन्हें अल्लामा इकबाल के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध भारतीय कवि, दार्शनिक और राजनीतिक विचारक थे। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका शैक्षिक दर्शन आदर्शवादी और प्रगतिवादी विचारों का मिश्रण है।

रूसो का शैक्षिक दर्शन (Educational Philosophy Of J.J. Roussea)

रूसो का शैक्षिक दर्शन: एक विस्तृत विवरण प्रस्तावना: जीन-जैक्स रूसो (1712-1778) एक फ्रांसीसी दार्शनिक, लेखक और शिक्षाशास्त्री थे। वे अपने प्रकृतिवादी विचारों के लिए प्रसिद्ध हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में भी परिलक्षित होते हैं।

जॉन डीवी का शैक्षिक दर्शन (Educational Philosophyh Of John Dewey)

  जॉन डीवी  का शैक्षिक दर्शन: एक विस्तृत विवरण प्रस्तावना: जॉन डीवी (1859-1952) बीसवीं सदी के अमेरिकी दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री थे, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके विचारों को "प्रगतिवादी शिक्षा" के रूप में जाना जाता है।

कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग (सैडलर कमीशन) 1917-19 Calcutta University Commission (Sadler Commission) 1917-19

प्रस्तावना (Introduction)- भारत में शिक्षा के सुधार हेतु समय-समय पर अनेक आयोगों की नियुक्ति की गयी। जिनका मूल उद्देश्य भारतीय  शिक्षा पद्धति में संख्यात्मक व गुणात्मक सुधार करना था। जिसका लाभ भारत के लोगों को प्राप्त हो सका। भारतीयों  ने शिक्षा प्राप्त कर सरकारी नौकरियों में अपनी भागीदारी बढ़ाकर भारत के विकास में अपना योगदान दिया। शिक्षा  के विकास हेतु सन 1882 में लॉर्ड रिपन ने भारतीय शिक्षा आयोग का गठन किया था। यूँ इस आयोग का गठन प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में किया गया था, परन्तु इसने समस्त स्तरों की शिक्षा का अध्ययन किया था और उनके  सुधार के लिए सुझाव दिए थे, उच्च शिक्षा के प्रसार व उन्नयन के लिए भी। उसके बाद लॉर्ड कर्जन ने 1902 में  भारतीय विश्वविद्यालय आयोग' का गठन किया और इसकी सिफारिशों के आधार पर भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम-1904 पारित कर प्रकाशित किया। इस अधिनियम के लागू होने से भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक ढाँचे का पुनर्गठन हुआ और कुछ विश्वविद्यालयों में शिक्षण कार्य आरम्भ हुआ। सुधार के इसी क्रम में सरकार ने 1913 में शिक्षा नीति सम्बन्धी नया प्रस्ताव प्रकाशित किया। इ

भारतीय शिक्षा आयोग (हंटर आयोग) India Education Commission (Hunter Commission)-1882

प्रस्तावना (Introduction)- वुड घोषणा पत्र-1854 के तहत भारतीय शिक्षा के इतिहास में क्रान्तिकारी परिवर्तन एवं एक नए अध्याय का आरम्भ हुआ। सन् 1855 के अन्त तक प्रत्येक प्रान्त में लोक शिक्षा आयोग की स्थापना हो गई तथा सहायता अनुदान प्रणाली (Grant in Aid System) प्रचलित की गयी।

वुड का घोषणा पत्र (Wood's Despatch)-1854

प्रस्तावना (Introduction) - ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार व शासन को सुदृढ़ बनाने का था यद्यपि कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण था तथापि ब्रिटिश सरकार प्रत्येक 20 वर्ष बाद कम्पनी के लिए नया घोषणा पत्र जारी करती थी। जब नया घोषणा पत्र जारी करने का अवसर आया तब ब्रिटेन के राजनीतिक क्षेत्रों में यह महसूस किया जाने लगा था कि भारतीयों की शिक्षा की अवेहलना अब नही की जा सकती है। अतः ब्रिटिश संसद ने एक संसदीय समिति की नियुक्ति की। समिति ने भारतीय शिक्षा से सम्बन्धित एक शिक्षा नीति तैयार कर संसद के सम्मुख पेश किया। इस पर चर्चा हुई और उसके आधार पर भारत के लिये शिक्षा नीति निश्चित की गई। उस समय सर चार्ल्स वुड (Charls wood) कम्पनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रधान थे। उन्होने 19 जुलाई, 1854 को इस नीति की घोषणा की इसलिये उन्ही के नाम पर इसे वुड का घोषणा पत्र कहा जाता है। यह घोषणा पत्र 100 अनुच्छेदों का एक लम्बा अभिलेख है। इस घोषणा पत्र के नाम पर लिखा है कि इतिहास में एक नये उपकाल की शुरुआत हुई। यही कारण है कि इस घोषणा पत्र को भारतीय शिक्षा का 'महाधिकार पत्र' (Mag

लॉर्ड मैकॉले का विवरण पत्र (Mecaulay's Minutes)-1835

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इस लेख में निम्न बिंदुओं को स्पष्ट किया गया है - लॉर्ड मैकॉले का विवरण पत्र  मैकॉले और उसके विवरण पत्र का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन अधोगामी निस्यन्दन अथवा छनाई का सिद्धान्त   परिचय (Introduction) सन् 1835 से पूर्व भारतीयों की शिक्षा के सम्बन्ध में कम्पनियों के अधिकारी प्राच्यवादी और पाश्चात्यवादी दो दलों में बंट गये थे। 10 जून, 1834 को लार्ड मैकॉले की भारत में गवर्नर जनरल की कौंसिल के कानूनी सदस्य के रुप में नियुक्ति हुई। उस समय विवाद अपनी चरम सीमा पर था। लार्ड लॉर्ड विलियम बैंटिक का विश्वास था कि मैकॉले जैसा विद्वान ही इस विवाद को हल कर सकता है। अतः उसे बंगाल की 'लोक शिक्षा समिति' का सभापति बना दिया गया। उसने लार्ड मैकॉले से अनुरोध किया कि 1813 ई0 के आज्ञा पत्र की 43वीं धारा में अंकित 1 लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने के प्राच्य-पाश्चात्य विवाद को सुलझाए। मैकॉले ने सर्वप्रथम आज्ञा पत्र की 43वीं धारा और दोनों के कर्तव्य का अध्ययन करके अपनी तर्कपूर्ण सलाह दी। जिसे उसने अपने विवरण पत्र में लेखबद्ध करके 2 फरवरी, 1935 को लार्ड लॉर्ड विलियम बैंटिक के पास भेज दिया।

सन् 1813 का आज्ञा-पत्र (Charter Act of 1813)

प्रस्तावना (Introduction) -  कम्पनी का आज्ञा पत्र प्रति 20 वर्ष बाद पुनरावर्तन हेतु ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में प्रस्तुत होता था। अतः सन् 1813 में कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन के लिये ब्रिटिश पर्लियामेन्ट में प्रस्तुत हुआ। सन् 1813 में शिक्षा के प्रति कम्पनी के उत्तरदायित्वों को निश्चित करने की दिशा में एक निश्चित कदम उठाया गया। ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को भारत पर शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का नवीनीकरण किया। सन् 1793 में जब कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन के लिये ब्रिटिश पर्लियामेन्ट में प्रस्तुत हुआ था तब उसके सदस्य रॉबर्ट विल्वरफोर्स ने चार्ल्स ग्राण्ट और ईसाई मिशनरियों के विचारों का समर्थन करते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि आज्ञा पत्र में एक धारा इस आशय की जोड़ दी जाये कि भारत में यूरोपीय ईसाई धर्म एवं शिक्षा के प्रसार की उन्मुन्ति प्राप्त हो। पार्लियामेन्ट के एक दूसरे सदस्य रैडल जैक्सन ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। वाद-विवाद के बाद रॉबर्ट विल्वरफोर्स का प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया गया। पर इंग्लैण्ड की मिशनरियां चार्ल्स ग्राण्ट के नेतृत्व में यह माँग निरन्तर करती रहीं कि मिशनरियों को भार

मुस्लिम शिक्षा प्रणाली (Muslim Education System)

प्रस्तावना (Introduction) हमारे देश में आज भी अन्य देशों का सम्मान उसी प्रकार से बरकरार है जैसा कि प्राचीन काल और मध्य काल में होता था। यहाँ कि भोलीभाली जनता ने दूसरों पर विश्वास किया लेकिन अन्य देशों ने धोखा देकर यहाँ कि अमूल्य संपत्ति सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात को लूटकर अपने देश ले गये, साथ ही यहाँ के कला-सौंदर्य व संस्कृति को भी नष्ट किया। उत्तरी सीमा पार के शासक इस पर सदैव आक्रमण करते रहते थे। इन आक्रमणकारियों में सर्वप्रथम नाम पर्शिया (वर्तमान ईरान) के राजा साइरस (538 ई० पू० 530 ई० पू०) का आता है। उसने इसके उत्तरी सीमावर्ती राज्य गांधार पर आक्रमण कर उसके एक भाग पर कब्जा भी कर लिया था। उसके बाद मैसोडोनिया (यूनान, ग्रीस) के राजा सिकन्दर ने 327 ई0पू0 में आक्रमण किया। वह तक्षशिला के राजा आम्भी के सहयोग से आगे बढ़ा परन्तु कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि उसे अपने देश लौटना पड़ा। 

CTET PAPER SECOND COMPLETE PDF NOTES

STRUCTURE AND CONTENT OF SYLLABUS  (CTET Paper II ) I. Child Development and Pedagogy - 30 Questions  (a) Child Development(Primary School Child) -  15 Questions (b) Concept of Inclusive education and understanding children with special needs -  5 Questions (c) Learning and Pedagogy -  10 Questions

CTET PAPER FIRST COMPLETE PDF NOTES

STRUCTURE AND CONTENT OF SYLLABUS  (CTET Paper I ) I. Child Development and Pedagogy - 30 Questions  (a) Child Development(Primary School Child) -  15 Questions (b) Concept of Inclusive education and understanding children with special needs -  5 Questions (c) Learning and Pedagogy -  10 Questions

बौद्ध शिक्षा प्रणाली (Buddhist Education System)

प्रस्तावना (Introduction) — बौद्ध काल: भारतीय संस्कृति संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति रही है। आरम्भ में यह समावेशी एवं सर्वजन हिताय की अवधारणा पर आधारित थी। वर्ग विभाजन कर्म आधारित था अतः सबको शिक्षा के समान अवसर प्राप्त थे किंतु कालांतर में वर्ग विभाजन का आधार कर्म के स्थान पर जन्म आधारित हो गया। शिक्षा पर ब्राह्मण वर्ग का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया, स्त्रियों और शूद्र वर्ग को पूर्ण रूप से शिक्षा से वंचित कर दिया गया। इस कारण वे सरकारी कार्यों व अन्य व्यवसायों से वंचित हो गये। जब उत्तर वैदिक काल में कठोर वर्ण व्यवस्था और कर्मकाण्ड की अति हुई तो इसका विरोध प्रारम्भ हुआ। यूँ तो यह विरोध बहुत पहले चार्वाक और आजीवकों ने शुरू कर दिया था परन्तु उनके अपने विचारों के पीछे कोई ठोस दर्शन नहीं था इसलिए उनका प्रभाव जिस तेजी से बढ़ा उसी तेजी से समाप्त हो गया। 563 ई० पू० में भारत भूमि पर महात्मा बुद्ध का अवतरण हुआ। बुद्ध राजघराने में पैदा हुए थे और उन्हें सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं परन्तु उन्होंने लोगों के सांसारिक दुःखों की अनुभूति की। उन्होंने इन दुःखों से छुटकारा पाने के उपाय खोजने के लिए

वैदिक शिक्षा प्रणाली (Vedic Education System)

प्रस्तावना (Introduction) वैदिक कालः भारतीय वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद) संसार के प्राचीनतम ग्रंथ हैं। सामान्यतः वेदों को धार्मिक ग्रंथों के रूप में देखा समझा जाता है, वेदों की रचना कब और किन विद्वानों ने की इस विषय में विद्वान भी एक मत नहीं हैं। जर्मन विद्वान मैक्समूलर सबसे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत आकर इस में क्षेत्र में शोध कार्य शुरू किया। उनके अनुसार, वेदों में सबसे प्राचीन ऋग्वेद है और इसकी रचना 1200 ई०पू० में हुई थी। लोकमान्य तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित नक्षत्र स्थिति के आधार पर इसका रचना काल 4000 ई०पू० से 2500 ई०पू० सिद्ध किया है। इतिहासकार हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में प्राप्त अवशेषों के आधार पर हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को केवल 3500 वर्ष पुरानी मानते हैं। हमारे देश में संस्कृत भाषा का प्रयोग होता था। वेदों की भाषा संस्कृत इतनी समृद्ध एवं परिमार्जित है और उनकी विषय सामग्री इतनी विविध, विस्तृत एवं उच्च कोटि की है कि उस समय इनके विकास में काफी समय अवश्य लगा होगा।