सन् 1813 का आज्ञा-पत्र (Charter Act of 1813)

प्रस्तावना (Introduction) - 

कम्पनी का आज्ञा पत्र प्रति 20 वर्ष बाद पुनरावर्तन हेतु ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में प्रस्तुत होता था। अतः सन् 1813 में कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन के लिये ब्रिटिश पर्लियामेन्ट में प्रस्तुत हुआ। सन् 1813 में शिक्षा के प्रति कम्पनी के उत्तरदायित्वों को निश्चित करने की दिशा में एक निश्चित कदम उठाया गया। ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को भारत पर शासन करने सम्बन्धी आज्ञापत्र का नवीनीकरण किया। सन् 1793 में जब कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन के लिये ब्रिटिश पर्लियामेन्ट में प्रस्तुत हुआ था तब उसके सदस्य रॉबर्ट विल्वरफोर्स ने चार्ल्स ग्राण्ट और ईसाई मिशनरियों के विचारों का समर्थन करते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि आज्ञा पत्र में एक धारा इस आशय की जोड़ दी जाये कि भारत में यूरोपीय ईसाई धर्म एवं शिक्षा के प्रसार की उन्मुन्ति प्राप्त हो। पार्लियामेन्ट के एक दूसरे सदस्य रैडल जैक्सन ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। वाद-विवाद के बाद रॉबर्ट विल्वरफोर्स का प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया गया। पर इंग्लैण्ड की मिशनरियां चार्ल्स ग्राण्ट के नेतृत्व में यह माँग निरन्तर करती रहीं कि मिशनरियों को भारत जाने और वह ईसाई धर्म और शिक्षा का प्रसार करने की खुली छूट दी जाए। सन् 1793 के 20 वर्ष बाद जब सन् 1813 में कम्पनी का आज्ञा पत्र पुनरावर्तन हेतु ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में प्रस्तुत हुआ तो इस बार अधिकतर सदस्यों ने मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन का समर्थन किया। परिणामतः इस आज्ञा पत्र (Charter Act 1813) में तत्सम्बन्धी तीन धारायें जोड़ी गई।


1. यूरोपीय देश की मिशनरियों को भारत में प्रवेश करने और वहाँ ईसाई धर्म एवं शिक्षा के प्रसार की पूरी छूट दी गई। 

2. ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर अपने शासित प्रदेशों में शिक्षा की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व होगा। 

3. प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख रुपयों की धनराशि का प्रयोग साहित्य के रखरखाव एवं विकास तथा भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन और भारत में ब्रिटिश शासित क्षेत्र में रहने वालों को विज्ञान का ज्ञान कराने में किया जाए।

इसके अंतर्गत अधिनियम (Charter Act of 1813) की धारा 43 में प्रावधान किया गया कि कम्पनी द्वारा-

"प्रतिवर्ष कम से कम एक लाख रुपये भारत के विद्वान निवासियों के उत्साहवर्धन एवं साहित्य के संरक्षण व विकास के लिए तथा ब्रिटिश भारत की सीमाओं के अन्दर निवास करने वालों में विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान के पुनरुत्थान व प्रवर्धन हेतु पृथक से व्यय किये जायें।"

"It shall be lawful for the Governor General in Council to direct that--a sum of not less than one lac of rupees in each year shall be set apart and applied to the revival and improvement of literature and the encouragement of the learned natives of India and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories of India."

इस आज्ञा पत्र ने भारतीयों की शिक्षा के प्रति ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उत्तरदायित्व को निश्चित कर दिया जिसके फलस्वरूप भारतीय शिक्षा को एक नवीन दिशा मिली। अतः 1813 के चार्टर एक्ट को भारत में ब्रिटिश शिक्षा पद्धति का शिलालेख (Foundation Stone of British Education in India) भी कहा जाता है।

आज्ञा पत्र की धारा 43 से भारतीयों को लगा कि इस धारा के जुड़ जाने के फलस्वरूप उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था हो सकेगी परन्तु उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया क्योंकि आज्ञापत्र में एक लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने का ढंग तथा साहित्य शब्द के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया गया था जिसके कारण कम्पनी के संचालको में विवाद उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप 1813 से 1833 की अवधि के दौरान कोई विशेष शैक्षिक प्रगति हो नहीं सकी।

उपरोक्त आज्ञा पत्र में कुछ कमियां थी-

1. आज्ञा पत्र में शिक्षा के स्वरुप और माध्यम के विषय में कोई संकेत नही था।

2. धारा 43 के सम्बन्ध में भी बड़ी भ्रान्ति थी। कुछ विद्वान साहित्य से अर्थ भारतीय साहित्य से ले रहे थे, कुछ पाश्चात्य साहित्य थे।

3. भारतीय साहित्य के विषय में भी भिन्न-भिन्न मत थे- कुछ संस्कृत, हिन्दी, अरबी और फारसी साहित्य से ले रहे थे और कुछ सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यों से ले रहे थे।

4. कुछ सदस्य साहित्य से अर्थ लैटिन और अंग्रेजी साहित्य से ले रहे थे।

उपरोक्त भ्रान्तियों के परिणामस्वरुप कम्पनी एक लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने के सम्बन्ध में कोई निश्चित नीति नही बना पाई और प्रतिवर्ष यह धनराशि भिन्न-भिन्न रुप में व्यय होती रही।


दो विचारधारायें (Two ideologies)- 

भारतीयों की शिक्षा का स्वरुप क्या हो, इसका माध्यम क्या हो और यह किस प्रकार व्यवस्थित की जाए इस सन्दर्भ में दो विचारधाराएं उभरी एक प्राच्यवादी और दूसरी पाश्चात्यवादी।

इस सम्बन्ध में भारतीय भी दो खेमों में बँट गये एक प्राच्यवादी और दूसरे पाश्चात्यवादी। इस प्रकार भारत और ब्रिटेन दोनों स्थानों पर प्राच्य पाश्चात्य विवाद खड़ा हो गया।


प्राच्य विवाद 
(Oriental-Occidental Controversy) -

इस विवाद का जन्म ईस्ट इण्डिया कम्पनी के 1813 के आज्ञा पत्र ( Charter Act 1813) से हुआ। इस सम्बन्ध में निम्न दो कारक प्रमुख थे-

(1) प्रथम — इस आज्ञा पत्र में यह कम्पनी को यह निर्देश दिया गया था कि ब्रिटिश कम्पनी शासित क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था करना कम्पनी का उत्तरदायित्व होगा परन्तु इसमें यह स्पष्ट नही किया गया था कि शिक्षा का स्वरुप क्या होगा?

(2) द्वितीय — धारा 43 में जो एक लाख रुपये की धनराशि प्रतिवर्ष साहित्य के रख रखाव और भारतीय विद्वानों के प्रोत्साहन और भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान कराने के लिए निश्चित की गई थी उसमें साहित्य और भारतीय विद्वान की व्याख्या नही की गई थी।

परिणामतः कम्पनी के लोगों ने इन दोनों शब्दों का अर्थ अलग-अलग लिया जिसके कारण दो वर्ग बन गये एक प्राच्यवादी और पाश्चात्यवादी।


प्राच्यवादी वर्ग (Oriental Class) —

 प्राच्यवादी वर्ग में अधिकतर कम्पनी के वरिष्ठ एवं अनुभवी अधिकारी थे। ये 1813 के आज्ञा पत्र के साहित्य शब्द का तात्पर्य भारतीय साहित्यों से लगाते थे और भारतीय विद्वान का अर्थ भारतीय साहित्यों के विद्वानों से लेते थे। ये चाहते थे कि भारत में-

(1) भारतीय भाषाओं अर्थात् संस्कृत, हिन्दी, अरबी आदि के माध्यम से शिक्षा दी जाए।

(2) भारतीय साहित्यों एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाए।

(3) भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का सामान्य ज्ञान कराया जाए परन्तु इस सम्बन्ध में इनके 
      अपने अपने तर्क थे -

    (i) कुछ भारत के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे।

    (ii) कुछ अन्य ब्रिटेन के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे।
  •  (क) भारत के हित की दृष्टि से सोचने वालों के अपने तर्क निम्न प्रकार थे-  भारत की अपनी संस्कृति है,उसकी संस्कृति की रक्षा करने के लिये उसकी भाषा और साहित्य की शिक्षा देना आवश्यक है।
  • (ख) ब्रिटेन के हित की दृष्टि से सोचने वालों के तर्क निम्न प्रकार थे-
    • 1. प्रिन्सप तथा अनेक समर्थकों का तर्क था कि भारतीयों में इतनी योग्यता नही है कि वे पाश्चात्य भाषा साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर सकें।
    • II. विल्सन व उनके साथियों आदि का तर्क था कि भारत में पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने से भारत में अंग्रेजों का विराध होने की सम्भावना है।
    • III. कुछ विचारकों का तर्क था कि पाश्चात्य भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर भारतीय उनके अर्थात् यूरोपीयो के समकक्ष हो जाएगे जो की अनुपयुक्त है।
    • IV. कुछ का तर्क था कि पाश्चात्य भाषा ज्ञान-विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर भारतीय जागरुक हो जाएंगे और भारत में ब्रिटेन के शासन का उन्मूलन कर देंगे।
    • V. कुछ की धारणा यह थी कि भारतवासियों को विभाजित रख कर ही उन पर शासन किया जा सकता था। अतः इस देश के निवासियों को अरबी, फारसी और संस्कृत पर अधारित शिक्षा प्रदान करके, विभिन्न धर्मों और जातियों में विभाजित रखा जाए।

अन्य पाश्चात्यवादी विचारकों ने भारतीयों को अंग्रेजी की शिक्षा दिये जाने के विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए-

(क) भारत में पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञानों का प्रसार करने से इस देश की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का लोप हो जाएगा।

(ख) भारत में अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहन देने से उस भारतीय साहित्य का विनाश हो जायेगा जिसमें अनेक युगों का ज्ञान संचित है। 

(ग) जब भारतीयों की अपनी स्वयं की एक प्राचीन भव्य संस्कृति है तब उनको अन्य देश की भाषा और साहित्य
का ज्ञान प्रदान करने के लिये बाध्य करना दोषपूर्ण नीति है।



पाश्चात्यवादी वर्ग (Occidental Group) —

पाश्चात्यवादी दल में कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी और मिशनरी थे। वे सम्पूर्ण देश में यत्र-तत्र बिखरे हुये थे। अतः इस दल का न तो कोई संगाठित स्वरुप था और न उनका कोई नेता ही था। फिर भी उन्होने प्राच्यवादियों की निति का निम्न प्रकार कटु विरोध किया-

(1) उन्होने यह विचार प्रकट किया कि प्राच्य शिक्षा-प्रणाली मरणासन्न अवस्था को प्राप्त कर चुकी है और उसे पुनः जीवन प्रदान करना मानव-प्रयास से बाहर की बात है।

(2) अरबी, फारसी और संस्कृत के साहित्यों में पुरातन और निरर्थक विचारों के सिवा किसी प्रकार का उपयोगी ज्ञान नही मिलता है।

उपरोक्त स्थिति में भारतीयों का मानसिक विकास करने के लिये उनको अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञान से अवगत कराया जाना परम आवश्यक है।

पाश्चात्यवादी सन् 1813 के आज्ञा पत्र के साहित्य' शब्द का अर्थ पाश्चात्य साहित्य से लेते थे। और ये निम्न प्रकार की व्यवस्था चाहते थे-

(1) भारतीयों को प्रदान की जाने वाली शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो।

(2) भारतीयों को पाश्चात्य भाषा और साहित्य का ज्ञान कराया जाए।

(3) कुछ ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य करने के पक्ष में थे। 


इस सम्बन्ध में पाश्चात्यवदियों के प्रमुखतया दो वर्ग थे-


(1) कुछ व्यक्ति भारत के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे हैं।

(2) कुछ व्यक्ति ब्रिटेन के हित की दृष्टि से ऐसा सोच रहे थे।

(क) भारत के हित की दृष्टि से सोचने वालों के अपने तर्क इस प्रकार थे- राजाराम मोहन राय आदि के अनुसार पाश्चात्य शिक्षा से भारतीय अधुनिकतम ज्ञान विज्ञान से परिचित होंगे और अपनी उन्नति करेंगे।

(ख) ब्रिटेन के हित की दृष्टि से सोचने वालो के तर्क निम्न प्रकार थे-

(1) इससे भारत में पश्चिमी संस्कृति को विकसित किया जा सकेगा।

(2) इससे कम्पनी के व्यापार और शासन कार्य के लिये अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू तैयार किये जा सकेंगे।

(3) भारत में अंग्रेजपरस्त लोग तैयार किये जा सकेंगे जो जन्म से भारतीय होने पर भी विचारों से अंग्रेज होगें।

(4) भारत में ब्रिटिश शासन की जड़ें मजबूत होंगी।

उपरोक्त प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के कारण कम्पनी बीस वर्ष तक अपनी कोई निश्चित शिक्षा नीति निर्धारित नहीं
कर सकी।






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