बौद्ध शिक्षा प्रणाली (Buddhist Education System)

प्रस्तावना (Introduction) —

बौद्ध काल: भारतीय संस्कृति संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति रही है। आरम्भ में यह समावेशी एवं सर्वजन हिताय की अवधारणा पर आधारित थी। वर्ग विभाजन कर्म आधारित था अतः सबको शिक्षा के समान अवसर प्राप्त थे किंतु कालांतर में वर्ग विभाजन का आधार कर्म के स्थान पर जन्म आधारित हो गया। शिक्षा पर ब्राह्मण वर्ग का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया, स्त्रियों और शूद्र वर्ग को पूर्ण रूप से शिक्षा से वंचित कर दिया गया। इस कारण वे सरकारी कार्यों व अन्य व्यवसायों से वंचित हो गये। जब उत्तर वैदिक काल में कठोर वर्ण व्यवस्था और कर्मकाण्ड की अति हुई तो इसका विरोध प्रारम्भ हुआ। यूँ तो यह विरोध बहुत पहले चार्वाक और आजीवकों ने शुरू कर दिया था परन्तु उनके अपने विचारों के पीछे कोई ठोस दर्शन नहीं था इसलिए उनका प्रभाव जिस तेजी से बढ़ा उसी तेजी से समाप्त हो गया। 563 ई० पू० में भारत भूमि पर महात्मा बुद्ध का अवतरण हुआ। बुद्ध राजघराने में पैदा हुए थे और उन्हें सभी सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं परन्तु उन्होंने लोगों के सांसारिक दुःखों की अनुभूति की। उन्होंने इन दुःखों से छुटकारा पाने के उपाय खोजने के लिए कठोर तपस्या की और कर्मकाण्ड प्रधान वैदिक धर्म के स्थान पर करुणाप्रधान मानवतावादी बौद्ध धर्म की स्थापना की। भारत में इस धर्म का प्रभाव 500 ई0पू0 से 1200 ई0 तक रहा। इतिहासकार इस काल को बौद्ध काल कहते हैं।

महात्मा बुद्ध ने अपना यह धर्मोपदेश सर्वप्रथम वाराणसी से लगभग 8 किमी दूर सारनाथ नामक स्थान पर दिया था। यहाँ से चार शिष्यों के साथ उन्होंने यह कार्य आगे बढ़ाया। इनके इस कार्य में तत्कालीन राजा-महाराजाओं का बड़ा सहयोग रहा। शीघ्र ही देश के विभिन्न भागों में बौद्ध मठों और बिहारों का निर्माण हो गया। प्रारम्भ में तो ये बौद्ध मठ एवं विहार महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के केन्द्र के रूप में विकसित हुए थे पर आगे चलकर ये जन शिक्षा की व्यवस्था भी करने लगे। इस काल में बौद्ध भिक्षुओं (बौद्ध धर्म प्रचारकों) द्वारा एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया जिसे बौद्ध शिक्षा प्रणाली कहते हैं। बौद्ध शिक्षा प्रणाली इसलिए क्योंकि इसका विकास बौद्ध काल में हुआ और यह बौद्ध धर्म एवं दर्शन पर आधारित थी, वैदिक धर्म की कठोर वर्ण व्यवस्था और कर्मकाण्ड के प्रतिकूल बौद्ध धर्म का आधार समानता, प्रेम और करूणा थी।

बौद्ध शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षण
(Main Feature of Buddhist Education System) —

बौद्ध काल में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे बौद्ध शिक्षा प्रणाली कहते हैं। यहाँ बौद्ध शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षणों (Main Features) का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है-

शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त 
(Administration and Finance of Education)

बौद्ध शिक्षा प्रणाली के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में तीन तथ्य उल्लेखनीय है-

1. शिक्षा पर बौद्ध संघों का नियन्त्रण- बौद्ध भिक्षुओं द्वारा विकसित बौद्ध शिक्षा प्रणाली सीधी बौद्ध संघों के नियन्त्रण में थी, इस पर व्यक्ति विशेष का नहीं, संघ का नियन्त्रण था। संघ ही सभी शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रण व संचालित करता था।

2. शासन का संरक्षण प्राप्त- बौद्ध काल में शिक्षा संस्थाओं को शासन का सहयोग वैदिक काल की अपेक्षा बहुत अधिक प्राप्त हुआ। तत्कालीन राजाओं ने इनके भवन निर्माण के लिए धन उपलब्ध कराया और इनके संचालन के लिए गाँव के गाँव दान में दिए, क्योंकि बौद्ध काल में शिक्षा के द्वार सभी के लिए खोल दिये गए थे। इसलिए शिक्षा का विकास इस समय बहुत तेजी से हुआ।

3. प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और उच्च शिक्षा सशुल्क- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में बच्चों की प्राथमिक एवं उच्च दोनों स्तरों की शिक्षा की व्यवस्था की गई पर प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था निःशुल्क थी और उच्च शिक्षा के लिए छात्रों से शुल्क लिया जाता था।

शिक्षा की संरचना एवं संगठन 
(Structure and Organization of Education)

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षा को तीन स्तरों में बाँटा गया था-

1. प्राथमिक शिक्षा-  बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा के द्वार सभी वर्गों के लिए खुलने पर समाज के वंचित वर्ग अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने को उत्साहित दिखे क्योंकि वैदिक कालीन व्यवस्था में शिक्षा के द्वार सभी वर्गों के लिये नहीं खुले थे। जिनके लिए खुले थे वे भी अपने व्यवसाय की ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। शिक्षा की व्यवस्था भी बौद्ध मठों एवं विहारों में की जाती थी। यह 6 वर्ष की आयु से 12 वर्ष की आयु तक चलती थी। प्रवेश के समय बच्चों का पवज्जा संस्कार होता था। बौद्ध ग्रन्थ महावग्ग में इस विधि का सविस्तार वर्णन है। पबज्जा का अर्थ है- बाहर जाना। क्योंकि उस समय बच्चे शिक्षा हेतु परिवार छोड़कर मठ अथवा विहार में जाते थे इसलिए प्रवेश के समय होने वाले संस्कार को पबज्जा संस्कार कहा जाता था। इस संस्कार में सर्वप्रथम बच्चे का सिर मुंडाया जाता था। फिर उसके घर के वस्र उतार कर पीले वस्त्र पहनाए जाते थे और हाथ में दण्ड दिया जाता था। अब उसे मठ अथवा विहार के प्रवेश अधिकारी भिक्षु (शिक्षक) के सम्मुख उपस्थित किया जाता था। वह अपने मस्तक से भिक्षु के चरण स्पर्श करता था। इसके बाद उसके सम्मुख पालथी मार कर जमीन पर बैठता था। भिक्षु उससे निम्नलिखित तीन प्रणों को ऊँचे स्वर में उच्चारित कराता था। इन तीन प्रणों को सरणत्रय (शरणत्रयी) कहा जाता था। ये तीन प्रण थे-

बुद्धं शरणम् गच्छामि।

धम्मं शरणम् गच्छामि।

संघ शरणम् गच्छामि।

इसके बाद गुरू शिष्य को दस उपदेश देता था। इसे दस सिक्खा पदानि कहते थे। ये दस उपदेश थे

(1) अहिंसा का पालन करना, 
(2) शुद्ध आचरण करना, 
(3) असत्य न बोलना, 
(4) सत आहार लेना, 
(5) मादक वस्तुओं का प्रयोग न करना, 
(6) परनिन्दा न करना, 
(7) श्रृंगार की वस्तुओं का प्रयोग न करना, 
(8) नृत्य एवं संगीत आदि से दूर रहना, 
(9) पराई वस्तु ग्रहण न करना। 
(10) सोना, चाँदी, हीरा-जवाहरात आदि कीमती दान न लेना।

बालक इनके पालन का प्रण लेता था और इसके बाद उसे मठ अथवा विहार में प्रवेश दिया जाता था और अब उसे श्रमण अथवा सामनेर कहा जाता था।

2. उच्च शिक्षा-  उच्च शिक्षा में प्रवेश हेतु एक प्रवेश परीक्षा सम्पन्न होती थी और योग्य छात्रों को उच्च शिक्षा में प्रवेश दिया जाता था। यह शिक्षा सामान्यतः 12 वर्ष की आयु पर शुरू होती थी और 20-25 वर्ष की आयु तक चलती थी।

3. उपसम्पदा संस्कार एवं भिक्षु शिक्षा-  बौद्ध काल में उच्च शिक्षा की समाप्ति के बाद कुछ छात्र (श्रमण अथवा सामनेर) तो गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते थे और कुछ भिक्षु शिक्षा में प्रवेश करते थे। भिक्षु शिक्षा में प्रवेश से पहले उनकी पुनः परीक्षा होती थी और परीक्षा में उत्तीर्ण छात्र श्रमण को दस प्रतिज्ञाओं के अतिरिक्त आठ प्रतिज्ञाएँ और लेनी होती थीं, तब उसे भिक्षु शिक्षा में प्रवेश मिलता था। इसे उपसम्पदा संस्कार कहा जाता था।

यह संस्कार दस भिक्षुओं (उपाध्यायों) की उपस्थिति में होता था। सर्वप्रथम श्रमण भिक्षु का वेश (हाथ में कमण्डल और कन्धे पर चीवर) धारण करता था फिर इन दस भिक्षुओं के सम्मुख उपस्थित होता था, उन्हें प्रणाम करता था और आज्ञा मिलने पर हाथ जोड़कर बैठ जाता था। एक भिक्षु श्रमण का परिचय कराता था और अन्य भिक्षु उससे प्रश्न पूछते थे।

परीक्षा में सफल श्रमण अब आठ प्रतिज्ञाएं करता था (1) वृक्ष के नीचे निवास करना (2) भिक्षा मांगकर भिक्षा पात्र में भोजन करना (3) भिक्षा द्वारा प्राप्त साधारण वस्त्र पहनना (4) चोरी न करना (5) हत्या न करनी (6) मैथुन न करना और (7) अलौकिक शक्तियों का दावा न करना।

इन प्रतिज्ञाओं के लेने के बाद श्रमण को भिक्षु शिक्षा में प्रवेश मिलता था। उस काल में भिक्षु शिक्षा का छात्र अपने गुरू का चुनाव स्वयं करता था। यह शिक्षा 8 वर्ष तक चलती थी। इस शिक्षा को प्राप्त करने के बाद भिक्षु पूर्ण भिक्षु कहलाते थे और अध्यापन एवं धर्म शिक्षा के लिए योग्य माने जाते थे। पर इन कार्यों के सम्पादन के लिए उन्हें आजीवन अविवाहित रहना होता था और संघ के नियमों का कठोरता से पालन करना होता था। असमर्थता प्रकट करने पर ये पूर्ण भिक्षु संघ से अलग हो सकते थे।

शिक्षा के उद्देश्य 
(Aims of Education) —

बौद्ध काल में जिस बौद्ध शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ उसके उद्देश्य एवं आदर्श अति व्यापक थे। यूँ तो ये सामान्यतः वही थे जो वैदिक शिक्षा प्रणाली के थे परन्तु इनका स्वरूप कुछ भिन्न था। यहाँ उन सबका क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत है-

1. मानव संस्कृति का संरक्षण एवं विकास- बौद्ध धर्म मानव जाति विशेष की नहीं, मानवमात्र की संस्कृति के संरक्षण एवं विकास का पोषक है। यही कारण है कि बौद्ध मठों एवं विहारों में बौद्ध धर्म एवं दर्शन के साथ-साथ अन्य धर्मों, दर्शनों और संस्कृतियों के अध्ययन की व्यवस्था थी। उस काल में सैकड़ों विद्वान प्राचीन साहित्य के संरक्षण और नवीन साहित्य के निर्माण कार्य में लगे थे। ये प्राचीन ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करते थे और उनका भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद करते थे। इसके साथ-साथ कुछ विद्वान मौलिक साहित्य सृजन भी करते थे और इन संब साहित्य के संरक्षण के लिए उस काल में बड़े-बड़े पुस्तकालयों का निर्माण किया गया था।

2. समाजिक आचरण की शिक्षा- बौद्ध धर्म सामाजिक कल्याण की भावना का पक्षधर रहा है। उस समय व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना बहुत बलवती थी, गरीब वर्गों पर अत्याचार किया जाता था। बौद्ध धर्म में सबसे अधिक बल करूणा और दया पर दिया गया है। बिना करूणा भाव के एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के दुःखों को नहीं समझ सकता। यदि ईमानदारी से सोचें समझें तो मनुष्य के दुखों का कारण स्वयं मनुष्य ही अधिक होते हैं।

3. ज्ञान का विकास- महात्मा बुद्ध के अनुसार इस संसार के समस्त दुःखों का कारण अज्ञान है अतः उन्होंने निर्वाण की प्राप्ति के लिए सच्चे ज्ञान के विकास पर बल दिया। बौद्ध शिक्षा का यह प्रमुख उद्देश्य एवं आदर्श था। वैदिक काल में वेद ग्रन्थों के ज्ञान को सच्चा ज्ञान माना जाता था, परन्तु बौद्ध धर्म एवं दर्शन में चार सत्यों का ही वर्णन किया गया है।

4. चरित्र निर्माण- बौद्ध धर्म में आत्मसंयम, करूणा और दया का सबसे अधिक महत्व है। बौद्धों की दृष्टि से जो इनका पालन करता है, बही चरित्रवान है। इस चरित्र निर्माण के लिए बौद्ध मठों एवं विहारों में छात्रों को प्रारम्भ से ही 10 नियमों का पालन कराया जाता था, उन्हें सादा जीवन जीने और विनयपूर्ण व्यवहार करने में प्रशिक्षित किया जाता था और बुरे कर्मों से दूर रखा जाता था।

5. कला-कौशल एवं व्यवसायों की शिक्षा- बौद्ध धर्म मनुष्यों को संसार से विमुख होने का उपदेश नही देता, वह तो मनुष्यों को संसार के दुःखों से बचने का उपदेश देता है। तब भूख के दुःख से बचने के लिए कला-कौशल और व्यवसाय कि शिक्षा आवश्यक है। बौद्ध काल तक हमारे देश में कृषि पशुपालन, कला-कौशल और वाणिज्य के क्षेत्र में काफी प्रगति हो चुकी थी। उत्तर वैदिक काल में व्यवसाय की शिक्षा वर्णानुसार दी जाती थी, बौद्धों ने इसे छात्रों की योग्यता और क्षमता के आधार पर देना शुरू किया। परिणाम यह हुआ कि इस काल में पशुपालन, कला- कौशल, कृषि और वाणिज्य के क्षेत्र में और अधिक प्रगति हुई।

6. बौद्ध धर्म की शिक्षा- यूँ तो बौद्ध शिक्षा प्रणाली में उस समय तक विकसित समस्त मुख्य धर्म एवं दर्शनों की शिक्षा की व्यवस्था की गई थी परन्तु सर्वाधिक बल बौद्ध धर्म की शिक्षा पर ही दिया जाता था और यह पाठ्यचर्या का अनिवार्य अंग थी। छात्रों को सर्वप्रथम महात्मा बुद्ध द्वारा खोजे गए चार सत्यों (संसार दुःखमय है, इन दुःखों से छुटकारा सम्भव है, सांसारिक दुःखों से छुटकारा ही निर्वाण है और निर्वाण प्राप्ति के लिए जप तप नहीं, मानवमात्र के प्रति कल्याण की भावना आवश्यक है) का ज्ञान कराया जाता था और इसके बाद उन्हें निर्वाण की प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक वाक्, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक समाधि) में प्रशिक्षित किया जाता था।

शिक्षा की पाठ्यचर्या
(Curriculum of Education) —

बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक, उच्च और भिक्षु, सभी प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों एवं विहारों में होती थी। उस समय बौद्ध शिक्षा बौद्ध संघों के नियन्त्रण में थी। बौद्ध शिक्षा की पाठ्यचर्या को हम दो आधारों पर देख समझ सकते हैं। एक उसके स्तरों (प्राथमिक, उच्च और भिक्षु) के आधार पर और दूसरे उसकी प्रकृति (लौकिक एवं धार्मिक) के आधार पर।

1. प्राथमिक स्तर की पाठ्यचर्या - बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा की अवधि 6 वर्ष थी। इस स्तर पर सर्वप्रथम सिद्धरस्त नामक पोथी के द्वारा पाली भाषा के 49 अक्षरों का ज्ञान कराया जाता था और इसके बाद भाषा को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था। तत्पश्चात् शब्द विद्या, शिल्प विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या और अध्यात्म विद्या नामक 5 विज्ञान पढ़ाए जाते थे। इस स्तर पर बच्चों को बौद्ध धर्म की सामान्य शिक्षाओं का ज्ञान भी कराया जाता था। साथ ही कुछ कला-कौशलों की सामान्य शिक्षा का शुभारम्भ कर दिया जाता था।

2. उच्च स्तर की पाठ्यचर्या- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में उच्च शिक्षा की अवधि सामान्यतः 8 वर्ष थी। इस अवधि में छात्रों को सर्वप्रथम व्याकरण, धर्म, ज्योतिष, आयुर्विज्ञान और दर्शन का सामान्य ज्ञान कराया जाता था और उसके बाद विशिष्ट शिक्षा शुरू की जाती थी। विशिष्ट शिक्षा की पाठ्यचर्या में पाली, प्राकृत और संस्कृत भाषा तथा इन भाषाओं के व्याकरण एवं साहित्य, खगोलशास्त्र, नक्षत्रशास्त्र न्यायशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कला (चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत), कौशल (कताई, बुनाई और रंगाई आदि), व्यवसाय (कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य आदि), भवन निर्माण विज्ञान, आयुर्विज्ञान, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैदिक धर्म, ईश्वरशास्त्र, तर्क, दर्शन और ज्योतिष, इन सब विषयों एवं क्रियाओं को स्थान दिया गया था।

3. भिक्षु शिक्षा की पाठ्यचर्या- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में भिक्षु शिक्षा की अवधि सामान्यतः 8 वर्ष थी परन्तु जो भिक्षु बौद्ध धर्म-दर्शन का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, वे अपना अध्ययन आगे भी जारी रख सकते थे। यूँ तो इन्हें केवल बौद्ध धर्म एवं दर्शन का ही ज्ञान कराया जाता था और उसके लिए इनकी पाठ्यचर्या में बौद्ध साहित्य (त्रिपटक, सुवन्त, विनय और धम्म) को रखा गया था, परन्तु धर्म के तुलनात्मक अध्ययन हेतु वैदिक धर्म का भी ज्ञान कराया जाता था। साथ ही उन्हें भवन निर्माण और मठों एव विहारों की सम्पत्ति का लेखा-जोखा रखना सिखाया जाता था।

1. लौकिक पाठ्यचर्या- इसके अन्तर्गत पठन, लेखन, गणित, कला-कौशल और व्यवसायिक शिक्षा (कृषि, पशुपालन, चिकित्सा और वाणिज्य आदि) दी जाती थी।

2. धार्मिक पाठ्यचर्या- धार्मिक पाठ्यचर्या को हम दो भागों में बाँट सकते हैं- सामान्य छात्रों की और भिक्षुओं की।

सामान्य छात्रों के लिए बौद्ध, जैन और वैदिक धर्मों के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध थी। भिक्षुओं की धार्मिक शिक्षा थोड़ी विस्तृत थी। उन्हें बौद्ध साहित्य- त्रिपटक, सुवन्त, विनय और धम्म का विशेष अध्ययन करना होता था, बौद्ध धर्म की तुलना हेतु वैदिक धर्म का अध्ययन करना होता था, मठों के निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करना होता था और मठों एवं विहारों की सम्पत्ति का लेखा-जोखा रखना सीखना होता था।

शिक्षण विधियाँ 
(Education Techniques/Methods) —

बौद्ध काल में बोलचाल की भाषा पाली थी, बौद्धों ने इसी को शिक्षा का माध्यम बनाया। इस काल में मुद्रण कला का तो विकास नहीं हुआ था परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने मुख्य ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार कर दी थीं। उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों के पाली भाषा में अनुवाद भी कर दिए थे और इन सबको पुस्तकालयों में सुरक्षित रखा था। इन परिस्थितियों में शिक्षण प्रायः मौखिक रूप (व्याख्यान, प्रश्नोत्तर, तर्क, शास्त्रार्थ और सम्मेलनों) से ही होता था। प्रायोगिक विषयों के शिक्षण के लिए प्रदर्शन, अनुकरण एवं अभ्यास विधियों का प्रयोग किया जाता था।

यहाँ इन सब विधियों के बौद्धकालीन स्वरूप का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

1. प्रश्नोत्तर विधि- प्रश्नोत्तर भी सीखने सिखाने की स्वाभाविक विधि है। बच्चे प्रारम्भ से ही यह क्या है, यह ऐसा क्यों है, यह ऐसा कैसे हो रहा है आदि प्रश्न पूछते हैं और बड़े उन्हें इन प्रश्नों के उत्तर देते हैं। बौद्ध काल में इस विधि का प्रयोग इसी रूप में होता था, शिष्य प्रश्न करते थे और भिक्षु (शिक्षक) उत्तर देते थे।

2. अनुकरण विधि- अनुकरण विधि सीखने- सिखाने की स्वाभाविक विधि है। बौद्ध काल में इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर किया जाता था। भाषा की शिक्षा की शुरूआत तो इसी विधि से की जाती थी। शिक्षक अक्षरों का उच्चारण करते थे, छात्र उनका अनुकरण करते थे। क्रियाप्रधान विषयों के शिक्षण में भी इसी विधि का प्रयोग किया जाता था।

3. व्याख्या विधि- चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने भारत यात्रा वर्णन में लिखा है कि शिक्षक छात्रों को पाठ्यवस्तु का अर्थ बताते थे और पाठ्यवस्तु की सविस्तार व्याख्या करते थे। इस विधि का प्रयोग उच्च स्तर पर विशेष रूप से किया जाता था।

4. वाद-विवाद एवं तर्क विधियाँ- उस काल में विवादास्पद विषयों की शिक्षा वाद-विवाद और तर्क विधियों से होता था। अपने-अपने मत की पुष्टि में 8 प्रकार के प्रमाण (सिद्धान्त, हेतु, उदाहरण, साधर्म्य, वैर्धम्य, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम्) प्रस्तुत किए जाते थे।

5. व्याख्यान विधि- बौद्ध काल में उच्च शिक्षा केन्द्रों में विषय के अधिकारी विद्वान बुलाए जाते थे उनके व्याख्यान कराए जाते थे, शंका समाधान होता था और इस प्रकार उच्च शिक्षा के छात्र विषयों का स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे।

6. सम्मेलन एवं शास्त्रार्थ- बौद्ध काल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सम्मेलनों का आयोजन भी होता था। इन सम्मेलनों में विषय विशेषज्ञ आमन्त्रित किए जाते थे। इसे विद्वत सभा भी कहते थे। इन सम्मेलनों में व्याख्यान होते थे और शास्त्रार्थ होता था। उच्च शिक्षा के छात्र इनको सुनते थे और अपनी शंकाओं का समाधान भी करते थे।

7. प्रदर्शन एवं अभ्यास विधि- यह अनुकरण विधि का ही उच्च रूप है। उस काल में इस विधि का प्रयोग विभिन्न कलाओं, शिल्पों, व्यावसायिक विषयों और चिकित्सा विज्ञान आदि के शिक्षण के लिए किया जाता था। उपाध्याय यथा क्रिया को करके दिखाते थे, छात्र उनका अनुकरण करते थे फिर यथा क्रिया को बार-बार करके अभ्यास करते थे और उसमें दक्षता प्राप्त करते थे।

8. देशाटन- इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से भिक्षु शिक्षा में किया जाता था। भिक्षु शिक्षा के भिक्षुओं को देशाटन के अवसर प्रदान किए जाते थे, उन्हें वास्तविक जगत को जानने के अवसर दिए जाते थे, मानव समाज की वास्तविकता को जानने के अवसर दिए जाते थे और धर्म प्रचार का प्रशिक्षण दिया जाता था।

अनुशासन (Discipline) —

बौद्ध काल में गुरू और शिष्य दोनों को बौद्ध मठों के नियमों का कठोरता के साथ पालन करना होता था। सामान्य छात्रों को पबज्जा संस्कार के समय बताए गए 10 नियमों का पालन करना होता था और भिक्षु की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को इनके अतिरिक्त 8 और नियमों का पालन करना होता था। उस काल में इन नियमों के पालन को ही अनुशासन कहा जाता था। बौद्ध काल में मास में सामान्यतः दो बार छात्र और शिक्षक एक स्थान पर एकत्रित होते थे अत्मनिरीक्षण करते थे और अपने दोष स्वीकार करते थे। इससे उनमें आत्मानुशासन का विकास होता था। उस काल में गुरू और शिष्य दोनों एक-दूसरे के आचरण पर दृष्टि रखते थे, दोनों एक-दूसरे को सचेत रखते थे और किसी के द्वारा भी नियम भंग होने पर उन्हें दण्ड दिया जाता था। छात्रों को यह दण्ड भिक्षु देते थे पर शारीरिक दण्ड का इस युग में निषेध था। दण्ड के रूप में प्रायश्चित करने का विधान था। संघ की मर्यादा भंग करने, भिक्षु (शिक्षक) का अपमान करने और शादी करने जैसे अपराध करने वाले छात्रों को मठ एवं विहारों से निकाल दिया जाता था।

शिक्षक (उपाझयाय, उपाध्याय) Teacher-

बौद्ध काल में प्राथमिक एवं उच्च, दोनों प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था बौद्ध मठों एवं विहारों में होती थी। उस काल में बौद्ध भिक्षु ही शिक्षण कार्य करते थे और जो बौद्ध भिक्षु शिक्षण कार्य करते थे उन्हें उपाझयाय (उपाध्याय) कहा जाता था। उपाध्याय बनने के लिए पहली आनिवार्यता थी उच्च शिक्षा के बाद 8 वर्ष तक बौद्ध धर्म की उच्च शिक्षा प्राप्त करना, दूसरी अनिवार्यता थी बौद्ध धर्मावलम्बी होना, तीसरी अनिवार्यता थी- आजीवन अविवाहित रहना और चौधी अनिवार्यता थी बौद्ध संघ के नियमों का कठोरता से पालन करना। उस समय अति विद्वान, आत्मसंयमी और चरित्रवान भिक्षु ही उपाध्याय हो सकते थे। बौद्ध उपाध्याय अपने शिष्यों श्रमणों के आवास एवं भोजन की व्यवस्था करते थे, उनका ज्ञानवर्द्धन करते थे।


शिक्षार्थी (श्रमण, सामनेर) Student-

बौद्ध काल में शिक्षार्थियों को श्रमण अथवा सामनेर कहा जाता था। इन्हें बौद्ध मठों एवं बिहारों में रहना अनिवार्य था। ये बौद्ध मठों एवं विहारो के नियमों का कठोरता से पालन करते थे। इन्हें मूल रूप से दस आदेशों का पालन करना होता था।


शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध 
(Relationship of Teacher and Student)—

बौद्ध काल में गुरू शिष्यों को पुत्रवत् मानते थे और शिष्य गुरूओं को पिता तुल्य मानते थे। उस समय गुरू प्रायः मठो एवं विहारों के प्रशासन एवं शैक्षणिक कार्य की व्यवस्था देखते थे और शिष्य उनके आदेशानुसार विभिन्न कार्यों का सम्पादन करते थे।


परीक्षाएँ एवं उपाधियाँ 
(Examinations and Degrees)—

बौद्ध काल में आज की तरह परिक्षाएं नहीं होती थीं। प्राथमिक स्तर पर तो अधिकारी शिक्षक सन्तुष्ट होने पर उन्हें सफल घोषित करते थे। इस स्तर पर उत्तीर्ण छात्रों की किसी प्रकार का प्रमाणपत्र नहीं दिया जाता था। उच्च स्तर पर भिक्षुओं (शिक्षकों) का एक पैनल छात्रों की मौखिक रूप से परीक्षा लेता था और सफल छात्रों को उपाधियाँ दी जाती थीं।


शिक्षा के अन्य विशेष पक्ष 
(Other Parts of Education) —

बौद्ध काल में यूँ तो सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी परन्तु उस काल में स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा का स्वरूप आज से कुछ भिन्न था। अतः यहाँ उन सबका वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

 I. स्त्री शिक्षा- बौद्ध काल के प्रारम्भ में तो बौद्ध मठों एवं विहारों में स्त्रियों को प्रवेश नहीं दिया जाता था परन्तु बाद में महात्मा बुद्ध ने अपनी विमाता महाप्रजामति और अपने प्रिय शिष्य आनन्द के आग्रह पर उनके प्रवेश की अनुमति प्रदान की। उस काल में स्त्रियों को भी पुरूषों की भाँति संघ के कठोर नियमों का पालन करना होता था। सहशिक्षा मठों एवं विहारों में स्त्रियों के रहने के लिए अलग व्यवस्था थी और साथ ही कुछ मठ एवं विहारों में केवल स्त्री शिक्षा की ही व्यवस्था की गई थी परन्तु फिर भी बहुत कम बालिकाएं इनमें प्रवेश लेती थी। वस्तुतः संघ के नियमों का पालन करना बालिकाओं के लिए एक कठिन कार्य था। कुछ विद्वान इस युग की कुछ विदुषी महिलाओं शीलभट्टारिका, विजयांका और प्रभुदेवी (कवयित्री), रानी नयनिका और रानी प्रभावती गुप्त (राजनीति की विद्वान), सम्राट अशोक की पुत्री संघमित्रा (धर्म विशेषज्ञ) और सम्राट हर्षवर्धन की बहन (शास्त्रार्थ में निपुण। के नामों का उल्लेख कर यह बताने का असफल प्रयास करते हैं कि उस युग में स्त्री शिक्षा की अच्छी व्यवस्था भी परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं था, इस काल में तो स्री शिक्षा और अधिक पिछड़ गई थी।

II. व्यावसायिक शिक्षा- बौद्ध काल में कला-कौशल और वाणिज्य के क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई। यह काल भारत के इतिहास का स्वर्णकाल माना जाता है। उस काल में बच्चों को अपनी योग्यता एवं क्षमतानुसार विभिन्न कला- कौशलों एवं व्यवसायों की शिक्षा दी जाती थी। बौद्ध ग्रंथ महावग्गा में ऐसा उल्लेख है कि उस काल में बौद्ध भिक्षुओं को कताई, बुनाई और सिलाई का प्रशिक्षण दिया जाता था और अन्य छात्रों को कृषि पशुपालन और वाणिज्य की शिक्षा दी जाती थी। उस काल में चित्रकला मूर्तिकला और भवन निर्माण कला आदि की शिक्षा की भी उत्तम व्यवस्था थी। बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दपन्हो में 18 सिप्पों (शिल्पों) की शिक्षा की व्यवस्था का वर्णन है। उस काल में भिन्न-भिन्न मठों एवं विहारों में भिन्न-भिन्न शिल्पों की शिक्षा दी जाती थी। तक्षशिला विश्वविद्यालय में दस शिल्पों की शिक्षा की व्यवस्था थी। उस काल में आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में भी बहुत विकास हुआ। वैद्यराज धन्वन्तरि और चरक एवं शल्य चिकित्सक जीवक और सुश्रुत इसी काल में हुए थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा का मुख्य केन्द्र था।

बौद्धकालीन मुख्य बौद्ध शिक्षा केन्द्र 
(Main Buddhist Education Center of Bodh Period) —

बौद्ध काल में प्रायः सभी मठों एवं विहारों में शिक्षा की व्यवस्था की गई थी, कुछ में केवल प्राथमिक शिक्षा की, कुछ में प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों की और कुछ में केवल उच्च शिक्षा की। इनमें से तक्षशिला, नालन्दा, वल्लभी और विक्रमशिला उस समय के विश्वविख्यात विश्वविद्यालय थे।

बौद्ध शिक्षा प्रणाली के गुण 
(Merits of Buddhist Education System)—

बौद्ध शिक्षा प्रणाली के मुख्य गुण निम्नलिखित रूप में स्पष्ट होते हैं-

1. केन्द्रीय प्रशासन- वैदिक काल में शिक्षा गुरूओं के व्यक्तिगत नियन्त्रण में थी, बौद्ध काल में यह संघों के केन्द्रीय नियन्त्रण में हो गई जिससे शिक्षा के स्वरूप में एकरूपता आई और उसका प्रशासन सुचारू रूप से हुआ।

2. प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और उच्च शिक्षा सशुल्क- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क थी किन्तु उच्च शिक्षा में शुल्क लिया जाता था। बौद्ध काल में उच्च शिक्षा में प्रवेश योग्यता के आधार पर दिया जाता था और इस स्तर के छात्रों से शुल्क लिया जाता था। उच्च शिक्षा सही रूप में योग्य व्यक्ति ही प्राप्त कर सकते थे। 

3. सभी को शिक्षा के समान अवसर- सामान्य शिक्षा मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है अतः बौद्ध शिक्षा प्रणाली में सभी वणों के बच्चों को उनकी योग्यता के आधार पर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया। इस प्रणाली में जाति और लिंग के आधार पर कोई अन्तर नहीं किया जाता था।

4. शिक्षा की विस्तृत पाठ्वर्या और विशिष्टीकरण- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक एवं उच्च, दोनों स्तरों की पाठ्यचर्या अति विस्तृत थी और उच्च स्तर के छात्रों को विशिष्टीकरण की सुविधा थी। छात्र धर्म, दर्शन, कला- कौशल, व्यवसाय और राजनीति आदि में विशिष्ट योग्यता प्राप्त करते थे। इस प्रणाली में चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा की उच्च शिक्षा की भी व्यवस्था थी।

5. शिक्षण की मौखिक विधियों में सुधार और स्वाध्याय विधि का विकास- बौद्ध शिक्षा प्रणाली के विकास के साथ शिक्षण की मौखिक विधियों में सुधार किया गया, उनमें छात्रों की भागीदारी को महत्त्व दिया गया। इस काल में अनेक ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार की गई, उन्हें पुस्तकालयों में स्थान दिया गया और उच्च शिक्षा के छात्रों को स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति के अवसर दिए गए। इस क्षेत्र में हम बौद्ध शिक्षा प्रणाली के ऋणी हैं।


6. शिक्षा का माध्यम लोकभाषा- वैदिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का माध्यम शिष्ट भाषा संस्कृत थी, बौद्ध शिक्षा प्रणाली में उस समय की लोकभाषा पाली को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। इसका लाभ यह हुआ कि सामान्य परिवारों के बच्चों को भी शिक्षा प्राप्त करने में सुविधा हुई।

7. गुरु-शिष्य का अनुशासित जीवन- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में गुरू और शिष्य दोनों संघ के नियमों का कठोरता से पालन करते थे और सबसे बड़ी बात यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के आचरण पर दृष्टि रखते थे। भूल होने पर आम सभा में भूल स्वीकार की जाती थी, प्रायश्चित किया जाता था।

8. गुरू और शिष्यों के बीच पवित्र एवं मधुर सम्बन्ध-  बौद्ध शिक्षा प्रणाली का आधार बौद्ध धर्म था जिसमें मानवमात्र के कल्याण की बात है, करूणा और दयाभाव की बात है। यही कारण है कि बौद्ध शिक्षा केन्द्रों में गुरू और शिष्यों के बीच पवित्र एवं मधुर सम्बन्ध थे, गुरू शिष्यों को पुत्रवत् मानते थे और शिष्य गुरुओं को पितातुल्य मानते थे और दोनों एक-दूसरे के प्रति कत्तयों का पालन पूर्ण निष्ठा से करते थे।

9. सुसंगठित शिक्षा केन्द्रों की स्थापना- यदि आप भारत की शिक्षा के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होगा कि अपने देश में विद्यालयी शिक्षा और कक्षा शिक्षण का शुभारम्भ बौद्ध शिक्षा प्रणाली में हुआ था। उस काल के मठ और विहार आज के विद्यालयों के रूप में विकसित हए थे और उनमें एक स्तर के छात्रों को बड़े-बड़े कक्षों में एक साथ बैठाकर पढ़ाया जाता था। इतना ही नहीं अपितु इस शिक्षा प्रणाली में उच्च शिक्षा के लिए विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों (तक्षशिला, नालन्दा और विक्रमशिला आदि) का निर्माण भी हुआ था जिनमें देश-विदेश के छात्र उच्च शिक्षा ग्रहण करते थे। 

10. स्त्रियों के लिए समान शिक्षा- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में स्त्रियों को पुरुषों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था, यद्यपि उस समय उन्हें शिक्षा प्राप्त करने की समान सुविधा उपलब्ध नहीं थी।

11. कला-कौशल एवं व्यावसायिक शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में कला-कौशलों व्यवसायों और भवन निर्माण विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था थी। यही कारण है कि उस काल में इन सब क्षेत्रों में बहुत विकास हुआ।


बौद्ध शिक्षा प्रणाली के दोष
(Demerits of Buddhist Education System)-

बौद्ध शिक्षा प्रणाली अपने समय की संसार की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा प्रणाली थी। यदि हम उसे आज की अपनी परिस्थितियों के आधार पर देखें-परखें तो उसमें अनेक दोष पाएंगे। उन दोषों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-

1. आय के अनिश्चित स्रोत- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का प्रशासन बौद्ध संघों के हाथों में था। इन्हें राज्यों का संरक्षण प्राप्त था परन्तु यह राज्यों पर निर्भर करता था कि वे इन्हें कितनी आर्थिक सहायता दें। भोजन आदि की व्यवस्था भिक्षा द्वारा होती थी, गुरु और शिष्य दोनों भिक्षा माँगने जाते थे।

2. शिक्षा के उद्देश्यों में संतुलन का अभाव - बौद्ध शिक्षा प्रणाली में शिक्षा के व्यापक उद्देश्य थे और शिक्षा द्वारा बच्चों के ज्ञान में विकास किया जाता था, उनका चरित्र निर्माण किया जाता था और उन्हें उनकी योग्यतानुसार विभिन्न कला- कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा दी जाती थी परन्तु वास्तविकता यह है कि सबसे आधिक बल धार्मिकता के विकास पर दिया जाता था।

3. बालोचित शिक्षण विधियों का प्रयोग नहीं- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में बालोचित नाटक एवं कहानी विधियों का प्रयोग नहीं किया गया और न ही किन्हीं अन्य बालोचित विधियों का विकास किया गया केवल अनुकरण विधि को अपनाया गया और रटने पर अधिक बल दिया।

4. कठोर अनुशासन- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में पबज्जा संस्कार में स्वीकार किए गए दस नियमों और बौद्ध मठों एवं विहारों के नियमों का पालन करने को ही अनुशासन माना जाता था। ये नियम सचमुच बहुत कठोर थे। ये नियम बालक, किशोर एवं युवा मनोविज्ञान के प्रतिकूल थे।

5. स्त्री शिक्षा में हास- यूँ बौद्ध शिक्षा प्रणाली में स्त्रियों को पुरूषों की भाँति किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था परन्तु उन्हें भी पुरूष छात्रों की भाँति श्रमण जीवन के कठोर नियमों का पालन करना होता था और बौद्ध मठों एवं विहारों के नियमानुसार जीवन जीना होता था। परिणामतः बहुत कम बालिकाएं ही बौद्ध मठों एवं विहारों में प्रवेश लेती थीं।

6. सैनिक शिक्षा का अभाव- बौद्ध अहिंसा के पुजारी थे, युद्धों को अनावश्यक समझते थे इसलिए उन्होंने अपने कुछ शिक्षा केन्द्रों में ही सैनिक शिक्षा की व्यवस्था की थी। बौद्धों ने एक ओर देशवासियों में अहिंसा की भावना का विकास किया और दूसरी ओर सैनिक शक्ति में हास किया परिणामतः आगे चलकर देश को विदेशियों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

6. धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा के नाम पर बौद्ध धर्म की शिक्षा- बौद्ध शिक्षा प्रणाली में बौद्ध धर्म की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी और श्रमणों (छात्रों) के लिए इस धर्म के अनुसार आचरण करना अनिवार्य था। इससे दो हानियां हुई- पहली यह कि अन्य धर्मावलम्बियों ने इन संस्थाओं में प्रवेश नहीं लिया और दूसरी यह कि इन शिक्षण संस्थाओं का विरोध शुरू हो गया।


निष्कर्ष —

अंत में यह कहा जा सकता है कि बौद्ध शिक्षा प्रणाली द्वारा वैदिक शिक्षा प्रणाली में जो कमियां रह गई थी उन्हें दूर करने का प्रयास किया गया और शिक्षा के क्षेत्र में इस काल ने अधिक विकास किया। जिसका प्रभाव वर्तमान भारत के आधुनिक शिक्षा पर दिखाई पड़ता है। शिक्षा जगत में बौद्ध शिक्षा प्रणाली का श्रेष्ठ स्थान है एवं इसमें शिक्षा जगत में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।






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