अधिगम के सिद्धांत (Theories Of learning) ( Behaviorist - Thorndike, Pavlov, Skinner)

इस लेख में निम्न बिंदुओं को स्पष्ट किया गया है -

  • थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत
  • पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत
  • स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत
  • थार्नडाइक, पावलोव और स्किनर के सीखने के सिद्धांतों पर चर्चा करें। मुख्य अंतर को इंगित करें।




प्रस्तावना -

सीखना या अधिगम एक बहुत ही व्यापक एवं महत्वपूर्ण शब्द है। मानव के प्रत्येक क्षेत्र में सीखना जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक पाया जाता है। दैनिक जीवन में सीखने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। सीखना मनुष्य की एक जन्मजात प्रकृति है। प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में नये अनुभवों को एकत्र करता रहता है, ये नवीन अनुभव, व्यक्ति के व्यवहार में वृद्धि तथा संशोधन हैं। इसलिए यह अनुभव तथा इनका उपयोग ही सिखना या अधिगम करना कहलाता है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवनपर्यन्त कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। सामान्य अर्थ में ‘सीखना ' व्यवहार में परिवर्तन को कहा जाता है। (Learning refers to change in behaviour) परन्तु सभी तरह के व्यवहार में हुए परिवर्तन को सीखना या अधिगम नहीं कहा जा सकता। इस इकाई में आप अधिगम के विभिन्न सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे तथा उनके शैक्षिक निहितार्थों को जान पायेंगे।




अधिगम के सिद्धान्त
(Theories of learning)

सीखने के आधुनिक सिद्धान्तों को निम्नलिखित दो मुख्य श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है -

1. व्यवहारवादी साहचर्य सिद्धान्त 
     (Behavioural Associationist Theories)

2. ज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धान्त
    (Cognitive Organisational Theory) 

विभिन्न उद्दीपनों के प्रति सीखने वाले की विशेष अनुक्रियायें होती हैं। इन उद्दीपनों तथा अनुक्रियाओं के साहचर्य से उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या करना ही पहले प्रकार के सिद्धान्तों का उद्देश्य है। इस प्रकार के सिद्धान्तों के प्रमुख प्रवर्तकों में थोर्नडाइक, वाटसन और पैवलोव तथा स्किनर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जहाँ थोर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित विचार प्रणाली को संयोजनवाद (Connectionism) के नाम से जाना जाता है, वहाँ वाटसन और पैवलोव तथा स्किनर की प्रणाली को अनुबन्धन या प्रतिबद्धता (Conditioning) का नाम दिया गया है। 

दूसरे प्रकार के सिद्धान्त सीखने को उस क्षेत्र में, जिसमें सीखने वाला और उसका परिवेश शामिल होता है, आये हुये परिवर्तनों तथा सीखने वाले द्वारा इस क्षेत्र के प्रत्यक्षीकरण किये जाने के रूप में देखते हैं। ये सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया में उद्देश्य (Purpose), अन्तर्दृष्टि (Insight) और सूझबूझ (Understanding) के महत्व को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार के सिद्धान्तों के मुख्य प्रवर्तकों में वर्देमीअर (Werthemier), कोहलर (Kohler), और लेविन (Lewin) के नाम उल्लेखनीय है।



व्यवहारवादी अधिगम सिद्धांत
(Behavioristic Theory Of Learning)

विभिन्न उद्दीपनों के प्रति सीखने वाले की विशेष अनुक्रिया होती है उद्दीपनों तथा अनुक्रियाओं के साहचर्य से उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या करना ही पहले प्रकार के सिद्धांतों का उद्देश्य है। इसलिए इसे उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के सिद्धांतों के प्रमुख प्रवृत्तियों में थार्नडाइक, वाटसन और पाॅवलव तथा स्किनर नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

व्यवहारवादी अधिगम सिद्धांत के अंतर्गत आने वाले प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित है - 


1. थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत
(Thorndike's Trial & Error Theory) 

2. पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत
(Pavlov's Theory Of Clasical Conditioning)

3. स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत
(Skinners's Operant Conditioning Theory)



[1]
थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत
(Thorndike's Trial & Error Theory) 

थार्नडाइक (Thorndike) को प्रयोगात्मक पशु मनोविज्ञान (Experimental Psychology) के क्षेत्र में एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक माना गया है। उन्होंने सीखने के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन (1898)में अपने पीएच0 डी0 शोध प्रबन्धन (Ph.D. thesis) जिसका नाम 'एनिमल इन्टेलिजेन्स' (Animal Intelligence) था, में किया। टॉलमैन (Tolman, 1938) ने थार्नडाइक के इस सिद्धान्त पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि उनका यह सिद्धान्त इतना पूर्ण तथा वैज्ञानिक था कि उस समय के अन्य सभी मनोवैज्ञानिकों ने थॉर्नडाइक को अपना प्रारम्भ बिन्दु (Starting Point) माना था। 

थॉर्नडाइक ने सीखना की व्याख्या करते हुए कहा है कि जब कोई उद्दीपक (Stimulus) व्यक्ति के सामने दिया जाता है तो उसके प्रति वह अनुक्रिया (Response) करता है। अनुक्रिया सही होने से उसका संबंध (Connection) उसी विशेष उद्दीपक (Stimulus) के साथ हो जाता है। इस संबंध को सीखना (Learning) कहा जाता है तथा इस तरह की विचारधारा को संबंधवाद (Connectionism) की संज्ञा दी गयी है। थार्नडाइक के अधिगम के सिद्धांत को प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत तथा सबन्धवाद के नाम से जाना जाता है।

इस सिद्धांत को निम्नलिखित नामों से भी जाना जाता है -

  1. साहचर्य सिद्धांत (Association Theory)
  2. प्रयत्न और भूल का सिद्धांत (Trial And Error Theory)
  3. अणु वादी सिद्धांत (Molecular Theory)
  4. संबंध वाद का सिद्धांत (Connectionist Theory)
  5. सीखने का संबंध सिद्धांत (Bond theory Of Learning)
  6. उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत (Stimulus Response Theory) (S-R)




थार्नडाइक ने उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि अनेक प्रयोग करके किया है। उनके प्रयोग बिल्ली, कुत्ता, मछली तथा बन्दर पर अधिकतर किये गये हैं। इन सभी प्रयोगों में बिल्ली पर किया गया प्रयोग काफी मशहूर है। 



इस प्रयोग में एक भूखी बिल्ली को एक पहेली बॉक्स में बन्द कर के रखा गया। इस बॉक्स के अन्दर एक चिटकिनी (knob) लगी थी, जिसको दबाकर गिरा देने से दरवाजा खुल जाता था। दरवाजे के बाहर भोजन रख दिया गया था। चूँकि बिल्ली भूखी थी, अत : उसने दरवाजा खोलकर भोजन खाने की पूरी कोशिश करना प्रारंभ कर दी। प्रारंभ के प्रयासों (trials) में जब बिल्ली को बॉक्स के अन्दर में रखा गया, तो बहुत सारे अनियमित व्यवहार जैसे उछलना, कूदना, नोचना, खसोटना आदि होते पाये गए। इसी उछल - कूद में अचानक उसका पंजा चिटकिनी पर पड़ गया जिसके दबने से दरवाजा खुल गया और बिल्ली ने बाहर निकलकर भोजन कर लिया। बाद के प्रयासों (trials) में बिल्ली द्वारा किये जाने वाले अनियमित व्यवहार अपने आप कम होते गये तथा बिल्ली सही अनुक्रिया (यानी सिटकिनी दबाकर दरवाजा खोलने अनुक्रिया को बॉक्स में रखने के तुरन्त बाद करते पायी गयी।)

उपरोक्त विवेचन के आधार पर थार्नडाइक के संबंधबाद अधिगम सिद्धांत (Connectionism Learning Theory) के प्रमुख सैद्धांतिक बिंदुओं को निम्नवत प्रस्तुत किया जा सकता है -

 1. अधिगम में प्रयास व त्रुटि समाहित रहती है।
(Learning involves trial and error)

2. अधिगम संबंधों या बंधनों के बनने का परिणाम है।
(Learning is the result of the formation of connections)

3. अधिगम सूझ युक्त ना होकर उत्तरोत्तर होती है।
(Learning is not insightful but is incremental)

4. अधिगम संज्ञान पर आधारित न होकर प्रत्यक्ष होती है।
(Learning is not meditated by idea but is direct)



थॉर्नडाइक ने सीखने के सिद्धान्त में तीन महत्वपूर्ण नियमों का वर्णन किया है जो निम्नांकित है -

  1. अभ्यास का नियम (Law of exercise)
  2. तत्परता का नियम (Law of readiness)
  3. प्रभाव का नियम (Law of effect)

 इन सभी का वर्णन निम्नांकित है -

1. अभ्यास का नियम (Law of Exercise) -

यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि अभ्यास से व्यक्ति में पूर्णता आती है (Practice makes man perfect)। हिलगार्ड तथा बॉअर (Hilgard & Bower,1975) ने इस नियम को परिभाषित करते हुए कहा है, अभ्यास नियम यह बतलाता है कि अभ्यास करने से (उद्दीपक तथा अनुक्रिया का) संबंध मजबूत होता है (उपयोग नियम) तथा अभ्यास रोक देने से संबंध कमजोर पड़ जाता है या विस्मरण हो जाता है (अनुपयोग नियम) इस व्याख्या से बिलकुल ही यह स्पष्ट है कि जब हम किसी पाठ या विषय को बार - बार दुहराते है तो उसे सीख जाते हैं। इसे थॉर्नडाइक ने उपयोग का नियम (law of use) कहा है। दूसरी तरफ जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बन्द कर देते हैं तो उसे भूल जाते हैं। इसे इन्होंने अनुपयोग का नियम (law of disuse) कहा है ।

 2. तत्परता का नियम ( Law of Readiness) -

इस नियम को थॉर्नडाइक ने एक गौण नियम माना है और कहा है कि इस नियम द्वारा हमें सिर्फ यह पता चलता है कि सीखने वाले व्यक्ति किन - किन परिस्थितियों में संतुष्ट होते हैं या उसमें खीझ उत्पन्न होती है। उन्होंने इस तरह की निम्नांकित तीन परिस्थितियों का वर्णन किया है -

  • जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर रहता है और उसे वह कार्य करने दिया जाता है, तो इससे उसमें संतोष होता है।
  • जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर रहता है परन्तु उसे वह कार्य नहीं करने दिया जाता है, तो इससे उसमें खीझ (Annoyance ) होती है। 
  • जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए तत्पर नहीं रहता है परन्तु उसे वह कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है, तो इससे भी व्यक्ति में खीझ (Annoyance) होती है। ऊपर के वर्णन से यह स्पष्ट है कि संतोष या खीझ होना व्यक्ति के तत्परता (readiness) की अवस्था पर निर्भर करता है।

3. प्रभाव नियम (Law of Effect) -

थार्नडाइक के सिद्धान्त का यह सबसे महत्वपूर्ण नियम है। इसकी महत्ता को ध्यान में रखते हुए कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसके सिद्धान्त को प्रभाव नियम सिद्धान्त (Law of Effect Theory) भी कहा है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी अनुक्रिया या कार्य को उसके प्रभाव के आधार पर सीखता है। किसी कार्य या अनुक्रिया का प्रभाव व्यक्ति में या तो संतोषजनक (Satisfying) होता है या खीझ उत्पन्न करने वाला (Annoying) होता है। प्रभाव संतोषजनक होने पर व्यक्ति उस अनुक्रिया को इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि प्रभाव नियम के अनुसार व्यक्ति किसी अनुक्रिया को इसलिए सीख लेता है क्योंकि व्यक्ति में उस अनुक्रिया को करने के बाद संतोषजनक प्रभाव (Satisfying Effect) होता है। सीख लेता है तथा खीझ उत्पन्न करने वाला होने पर व्यक्ति उसी अनुक्रिया को दोहराना नहीं चाहता है। फलतः उसे वह भूल जाता है। इन प्रमुख नियमों के अलावा भी थॉर्नडाइक ने सहायक नियमों (Subordinate Laws) का भी प्रतिपादन किया परन्तु ये सभी नियम बहुत महत्वपूर्ण नहीं हो पाये क्योंकि वे स्पष्ट रूप से प्रमुख नियमों से ही संबंधित थे।

 संक्षेप में , इन सहायक नियमों का वर्णन इस प्रकार है -

1. बहुक्रिया (Multiple Response) - 
इस नियम के अनुसार किसी भी सीखने की परिस्थिति में प्राणी अनेक अनुक्रिया (Response) करता है जिसमें से प्राणी उन अनुक्रिया को सीख लेता है जिससे उसे सफलता मिलती है। 

2. तत्परता या मनोवृत्ति (Set or Attitude) - 
तत्परता या मनोवृत्ति से इस बात का निर्धारण होता है कि प्राणी किस अनुक्रिया को करेगा , किस अनुक्रिया को करने से कम संतुष्टि तथा किस अनुक्रिया को करने से अधिक संतुष्टि आदि मिलेगी। 

3. सादृश्य अनुक्रिया (Response by similarity or analogy)- 
इस नियम के अनुसार प्राणी किसी नयी परिस्थिति में वैसी ही अनुक्रिया को करता है जो उसके गत अनुभव या पहले सीखी गयी अनुक्रिया के सदृश होता है । 

4.साहचर्यात्मक स्थानान्तरण (Associative shifting)- 
इन नियम के अनुसार कोई अनुक्रिया जिसके करने की क्षमता व्यक्ति में है , एक नये उद्दीपक ( stimulus ) से भी उत्पन्न हो सकती है। यदि एक ही अनुक्रिया को लगातार एक ही परिस्थिति में कुछ परिवर्तन के बीच उत्पन्न किया जाता है तो अन्त में वही अनुक्रिया एक बिलकुल ही नये उद्दीपक से भी उत्पन्न हो जाती है।


शैक्षिक निहितार्थ -

1. अध्यापक को इस बात को समझने का प्रयत्न करना चाहिये कि उसके विधार्थी को कौन कौन सी बाते याद रखनी चाहिये। जिन बातो को याद रखना है उनसे सम्बन्धित उद्विपन और अनुक्रियाओ के सहयोग को पुनरावृति, अभ्यास कार्य और प्रशंसा तथा पुरस्कारआदि की सहायता से लेते हुये अधिक दृण बनाने का प्रयत्न करना चाहियें। दूसरी ओर जिन बातो को भुलाना है उनको कष्ट प्रद परिणामो द्वारा कमजोर बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिये। 

2. सीखने से पहले बच्चे को सीखने के लिये तैयार करना अत्यन्त आवश्यक है जिस बात को बच्चा सीखना चाहता है उसमे उसकी पर्याप्त रूचि तथा अभिरूचि का होना आवश्यक है। अतः बच्चे को सीखने के लिये सही प्रकार से अभिप्रेरित किया जाना चाहिये। 

3. अध्यापक को अपने विधार्थीयो को पूर्व ज्ञान और अनुभवो का समुचित उपयोग करना चाहिये। एक परिस्थिति में सीखे गये ज्ञान को दूसरी समान परिस्थितियों मे पूरी तरह उपयोग में लाने का प्रयत्न करना चाहियें। 

4. बच्चे को स्वयं कार्य करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। उसके द्वारा हर सम्भव प्रयत्न करते हुये तथा अपनी त्रुटियो को सुधारते हुये समस्या का सही समाधान ढूढने के लिये प्रेरित करना चाहिये।



 प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त की विशेषताएँ 
(Characteristics Of Trial And Error Theory) -

इस सिद्धान्त के गुणों को निम्नलिखित बिन्दुओं के रूप में अध्ययन किया जा सकता है -

1. यह सिद्धान्त शैक्षिक प्रक्रिया में अभिप्रेरणा को अधिक महत्त्व देता है।

2. सीखने के स्थायीकरण के लिए यह सिद्धान्त ज्ञानात्मक, गत्यात्मक और भावात्मक अंगों के इस्तेमाल पर बल देता है।

3. थॉर्नडाइक के अनुसार, अधिगम उदीपक और अनुक्रिया के मध्य एक सम्बन्ध है जिसकी स्थापना मस्तिष्क में होती है।
इस सिद्धांत के अनुसार बार-बार प्रयत्न करने से अधिगम में स्थाईकरण आता है।

4. उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत के आधार पर तीन नए अधिगम सिद्धांत तत्परता का नियम प्रभाव का नियम अभ्यास का नियम प्रतिपादित किए।



प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता 
(Educational Implications of Trial and Error Theory)  -

इस सिद्धान्त के अनुसार ही बालक साइकिल चलाना, टाई की गाँठ बाँधना, विभिन्न खेल खेलना आदि कार्य सीखते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धान्त का बहुत अधिक महत्त्व है। 

क्रो एवं को ने बताया कि यह सिद्धान्त विज्ञान व गणित जैसे कठिन तथा चिंतनशील विषयों के लिए बहुत ही लाभप्रद हैं। 

शिक्षा में इस सिद्धान्त का उपयोग निम्न है -

  • यह सिद्धान्त निरन्तर परिश्रम व प्रयास करने पर बल देता है। 
  • इस सिद्धान्त की सहायता से कार्य की धारणाएँ सरल और स्पष्ट हो जाती है।
  • यह विधि अभ्यास पर अधिक बल देती है जिससे व्यक्ति किसी कार्य में निपुणता प्राप्त कर सकता है। 
  • इस सिद्धान्त के फलस्वरूप बालक में धैर्य एवं आशावादी जैसे गुणों का विकास होता है। 
  • यह सिद्धान्त करके सीखने पर बल देता है। इसमें विषय वस्तु को छोटे - छोटे भागों में विभाजित किया जाता है। 
  • उद्दीपक- अनुकिया सिद्धान्त छात्रों को नवीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्पर रखता है।
  • यह सिद्धान्त पिछड़े एवं मंद बुद्धिं बालकों के लिए बहुत उपयोगी है।
  • इस सिद्धान्त से अनुभवों का लाभ उठाने की क्षमता का विकास होता है।
  • इस सिद्धान्त से बालक में आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता की भावना का विकास होता है। 


प्रयत्न और भूल के सिद्धान्त की आलोचना 
(Criticism of Trial and Error Theory) -

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त के दोष निम्नलिखित हैं -

1. यह सिद्धान्त मनुष्यों की अपेक्षा पशुओं के सीखने की क्रिया को अधिक स्पष्ट करता है।

2. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने के उद्देश्य तक पहुँचने में काफी समय लग जाता है।

3. यह सिद्धान्त सीखने की विधि बताता है परन्तु सीखता क्यों है इस पर प्रकाश नहीं डालता। 

4. उददीपक - अनुक्रिया सिद्धान्त व्यर्थ के प्रयत्नों पर अधिक बल देता है।

5. यह सिद्धान्त मानव विवेक एवं चिंतन की अवहेलना करते हुए रटने की क्रिया पर बल देता है।

6. इस सिद्धान्त से सीखने में यांत्रिकता आ जाती है जो अधिगम के स्थायीकरण के लिए सहायक नहीं है।



[2]
पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत
(Pavlov's Theory Of Clasical Conditioning)


अधिगम के क्लासिकल अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन इवान पी० पावलव (Ivan P. Pavlav) नामक रूसी मनोवैज्ञानिक ने किया था। इस सिद्धान्त को सीखने का अनूकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त या अनुबन्धित - अनुक्रिया सिद्धान्त (Conditional Response Theory) भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति या जीव कुछ जन्मजात प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ (Tedencies) , प्रतिक्रियायें (Reactions) या अनुक्रियायें (Responses) रखता है तथा ये प्रवृत्तियाँ , प्रतिक्रियायें या अनुक्रियायें किसी उपयुक्त प्राकृतिक उद्दीपक (Natural Stimulus) के उपस्थित होने पर प्रकट होती है। जैसे भूखे व्यक्ति के सामने भोजन आने पर मुंह में लार का आना या तेज शोर सुनने पर जीव का डर जाना प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुक्रियायें हैं जिनका उपयुक्त उद्दीपक (भोजन या शोर) के सामने होने पर व्यक्ति के द्वारा व्यक्त करना पूर्णतः स्वाभाविक है। पावलाव ने देखा कि जब किसी अन्य स्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) को किसी स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) के साथ बार - बार प्रस्तुत किया जाता है तो धीरे - धीरे अस्वाभाविक उद्दीपक का स्वाभाविक उद्दीपक की स्वाभाविक अनुक्रिया के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है तथा बाद में केवल अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति या जीव स्वाभाविक उद्दीपक की स्वाभाविक अनुक्रिया, जिसे अनुकूलित अनुक्रिया या अनुबंधित अनुक्रिया (Conditioned Response) कहते हैं, देने लगता है। तब कहा जाता है कि व्यक्ति या जीव के लिए कोई अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) किसी अन्य स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) से अनुकूलित (Conditioned) हो गया है।


पावलव का प्रयोग ( Pavlav's Experiment) -




पाॅवलव ने अनुबंधित अनुक्रिया (Conditional Response) के अपने सिद्धांत को समझाने के लिए कुत्ते के ऊपर प्रयोग किया। उन्होंने कुत्ते की लार ग्रंथि का ऑपरेशन किया और कुत्ते के मुंह से लार एकत्रित करने के लिए एक नली के माध्यम से उसे एक कांच के जार से जोड़ दिया। इस प्रयोग की प्रक्रिया को निम्न तीन चरणों में समझा जा सकता है -

सर्वप्रथम पॉवलव ने कुत्ते को भोजन (प्राकृतिक या स्वाभाविक उद्दीपक) मुँह में लार आ गई। उन्होंने बताया कि भूखे कुत्ते के मुंह में भोजन देखकर लारा जाना स्वाभाविक क्रिया है। स्वाभाविक क्रिया को सहज क्रिया भी कहा जाता है। यह क्रिया उद्दीपक के उपस्थित होने पर होती है। भोजन एक प्राकृतिक उद्दीपक है जिसको देखकर लार टपकना एक स्वाभाविक क्रिया है।

 दूसरे चरण में पॉवलव ने कुत्ते को घंटी (कृत्रिम उद्दीपक) बजाकर भोजन दिया। भोजन को देखकर कुत्ते के मुंह में फिर लार का स्राव हुआ। इस प्रक्रिया में भोजन को देखकर लार आने की स्वाभाविक क्रिया को उन्होंने घंटी बजाने की एक कृत्रिम उद्दीपक से सम्बन्धित किया जिसका परिणाम स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में प्राप्त हुआ। 

पॉवलव ने कुत्ते पर अपने प्रयोग को बार - बार दोहराया श। तीसरे चरण में उन्होंने कुत्ते को भोजन न देकर केवल घंटी बजाई। इस बार घंटी की आवाज सुनते ही कुत्ते के मुँह में लार आ गई। इस प्रकार अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया (लार का टपकना) प्राप्त हुई। 


उपर्युक्त प्रयोग में अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से स्वाभाविक प्रतिक्रिया (लार का टपकना) ही अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धान्त है। जैसे- मिठाई की दुकान को देखकर बच्चों के मुँह से लार टपकना। उपरोक्त प्रयोग में जो क्रिया (लार का टपकना) पहले स्वाभाविक उद्दीपक से हो रही थी वो अब प्रयोग को बार बार दोहराने से अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से होने लग गई।












इस प्रकार कहा जा सकता है कि दो उद्दीपकों को एक साथ प्रस्तुत करने पर कालांतर में नवीन उद्दीपक प्रभावशाली हो जाता है। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक रेनर और वाटसन ने 11 माह के अल्बर्ट नामक बच्चे पर भी ऐसा ही एक प्रयोग किया। यह बालक जंगली जानवरों से भयभीत नहीं होता था लेकिन जब एक दिन जानवर के साथ भयानक तेज ध्वनि (प्राकृतिक उद्दीपक) निकाली गई तो वह डर गया। इसके बाद वह हमेशा जानवरों (कृतिम उद्दीपक) को देख कर ही डर (अनुबंध प्रतिक्रिया) जाता था।



अनुबंधन की दशायें 
(Conditions for Conditioning) -

अधिगम के क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त के अनुसार अस्वाभाविक अनुक्रिया के अनुकूलन के लिए अग्रांकित चार दशायें अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं -

1. स्वाभाविक उद्दीपक व अनुक्रिया का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। पहले अस्वाभाविक उद्दीपक एवं तदुपरान्त स्वाभाविक उद्दीपक प्रस्तुत करना चाहिए तथा इसके उपरान्त अनुक्रिया होनी चाहिए। अस्वाभाविक उद्दीपक की प्रस्तुति के लगभग आधा सेकेण्ड के उपरान्त स्वाभाविक उद्दीपक को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि यह समय अन्तराल कम या अधिक होता है तो सीखना प्रभावशाली नहीं होता है। 

2. स्वाभाविक उद्दीपक को अस्वाभाविक उद्दीपक से अधिक शक्तिशाली होना चाहिए। यदि अस्वाभाविक उद्दीपक अधिक शक्तिशाली होगा तो जीव स्वाभाविक उद्दीपक पर कोई विशेष ध्यान नहीं देगा । 

3. अस्वाभाविक उद्दीपक को स्वाभाविक उद्दीपक के साथ अनेक बार दोहराना होता हैं, तब ही अनुबंधन होगा एवं अस्वाभाविक उद्दीपक में स्वाभाविक उद्दीपक के गुण आ पाते हैं। 

4. अनुबंधन के समय उपयुक्त परिस्थितियाँ होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अनुबन्धन के समय कोई अन्य बाह्य अवरोध उपस्थित नहीं होना चाहिए। 





अनुबन्धन के सिद्धान्त 
(Principles of Conditioning) - 

क्लासिकल अनुबन्धन के सम्बन्ध में किये गये अनेक प्रयोगों ने अनुबंधन के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण संप्रत्ययों तथा सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया । इनमें से कुछ अग्रांकित प्रस्तुत हैं 

1. उत्तेजन (Excitation) – 
अनुबंधित उद्दीपक (CS) को प्राकृतिक उद्दीपक (US) के साथ बार - बार प्रस्तुत करने पर अनुबन्धन के फलस्वरूप प्राणी में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है जो उसे अनुबंधित अनुक्रिया (CR) करने के लिए तत्पर कर देता है। 

2. विलोपन ( Extinction ) – 
अनुबन्धन के उपरान्त जब अनुबंधित उद्दीपक (CS) के उपरान्त प्राणी को प्राकृतिक उद्दीपक (UCS) अनेक बार नहीं दिया जाता है तो धीरे - धीरे प्राणी अनुबन्धित अनुक्रिया (CR) करना बन्द कर देता है। 

3. स्वतः पुनर्लाभ (Spontaneous Recovery)- 
विलोपन के कुछ समयोपरान्त यदि प्राणी के समक्ष अनुबंधित उद्दीपक (CS) को पुनः प्रस्तुत किया जाता है तो कभी - कभी प्राणी अनुबन्धित अनुक्रिया (CR) को देना पुनः प्रारम्भ कर देता है। 

4. उद्दीपक सामान्यीकरण ( Stimulus Generalisation) - 
एक बार अनुबंधन स्थापित होने उपरान्त प्राणी अनुबंधित उद्दीपक (CS) से मिलते - जुलते (Similar) अन्य उद्दीपकों के प्रति भी प्रायः उसी ढंग से अनुक्रिया करता है। 

5. उद्दीपक विभेदन (Stimulus Discrimination)- 
अनुबंधन के प्रयासों की संख्या बढ़ाने पर प्राणी मूल अनुबंधित उद्दीपक (Original CS) तथा अन्य समान उद्दीपकों (Similar Stimulus) में धीरे - धीरे विभेद करने लगता है।

6. बाह्य अवरोध (External Inhibition) - 
अनुबंधन के दौरान यदि कोई नया उद्दीपक अनुबंधित उद्दीपक (CS) के साथ प्रस्तुत किया जाता है तो पूर्व अनुबंधन की प्रक्रिया कुछ धीमी या अवरुद्ध (Inhibited) हो जाती है। 

7. कालिक क्रम ( Temporal Sequence ) - 
अनुबंधन के लिए अनुबंधित उद्दीपक (CS) तथा स्वाभाविक उद्दीपक (NS) के बीच समय अन्तराल के बढ़ाने पर अनुबन्धन कमजोर हो जाता है। 

8. द्वितीय कोटि अनुबन्धन ( Second Order Conditioning ) -
किसी अनुबंधित उद्दीपक के साथ किसी अन्य अस्वाभाविक उद्दीपक (US) को बार - बार प्रस्तुत करने पर नवीन उद्दीपक अनुबंधित अनुक्रिया (CR) के लिए अनुबंधित हो जाता है। 

9. पुनर्बलन ( Reinforcement ) - 
अनुबंधन को पुनर्बलित करने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि अनुबंधित उद्दीपक (CS) के साथ - साथ स्वाभाविक उद्दीपक (NS) भी बीच - बीच में दिया जाता रहे।


शैक्षिक निहितार्थ
(Educational Implications) -

यद्यपि क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त के कुछ प्रयोगों को छोड़कर शेष सभी प्रयोग पशुओं या पक्षियों पर हुए थे, इसलिए ये प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में यथारूप उपयोगी नहीं हो सकते हैं। इसके बावजूद भी इन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों के आधार पर बनाये गये सिद्धान्तों का उपयोग मानवीय व्यवहार को उन्नत करने में किया जा सकता है । इस सिद्धान्त के कुछ शैक्षिक अभिप्रेत निम्नवत् हैं 

1. बालकों में लगभग सभी आदतों का निर्माण क्लासिकल अनुबन्धन सिद्धान्त के आधार पर किया जा सकता है। स्वच्छता व सफाई से रहने की आदत, समय की पाबन्दी , बड़ों का सम्मान करना जैसी अच्छी आदतें इसी सिद्धान्त का व्यावहारिक परिणाम हैं। 

2. बालकों को विभिन्न प्रकरणों को सिखाने में अनुबंधित अनुक्रिया का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। छात्रों को शब्दार्थ , गुणा , भाग , पहाड़े आदि विभिन्न बातों को सिखाते समय अध्यापक इस सिद्धान्त का प्रयोग कर सकता है। 

3. बुरी तथा अवांछित आदतों, भय तथा असामान्य व्यवहार आदि को समाप्त करने के लिए भी अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धान्त का उपयोग किया जा सकता है । 

4. स्कूली पढ़ाई - लिखाई, विद्वानों व अध्यापकों के प्रति छात्रों का उचित दृष्टिकोण विकसित करने के लिए भी अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धान्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यदि अनुकूलन गलत हो गया तब व्यक्ति भय, घृणा, अन्धविश्वास जैसी अप्राकृतिक प्रतिक्रियायें कर सकता है। 

6. मानसिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को पढ़ाने व प्रशिक्षित करने के लिए भी अनुकूलित - अनुक्रिया सिद्धान्त को प्रयोग में लाया जा सकता है।



शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त की आलोचना 
(Criticism Of Classical Conditioning Theory) -

सीखने की प्रक्रिया में अत्यधिक उपादेयी होने के पश्चात भी कई मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त में अनेक कमियाँ निकाली हैं जो निम्न हैं -

1. यह सिद्धान्त मनुष्य को एक मशीन मानकर चलता है। कल्पना, चिंतन एवं तर्क का इस सिद्धान्त में कोई स्थान नहीं है। 

2. शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त जटिल विचारों की व्याख्या करने में असफल रहा है। 

3. इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों एवं पशुओं पर ही किया गया है। परिपक्व एवं अनुभवी लोगों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। 

4. इस सिद्धान्त में स्थायित्व का अभाव पाया जाता है । जो बालक उत्तेजनाओं के सम्बन्धों के फलस्वरूप सीखता है उन्हीं को यदि शून्य कर दिया जाए तो सीखना संभव नहीं होगा। यह उद्दीपकों को लंबे समय तक प्रस्तुत कर सकता है। 

5. पॉवलव ने सीखने की प्रक्रिया में पुनर्बलन को आवश्यक माना है जिसका ब्लौजेट एवं टॉलमैन, हॉनजिक जैसे मनोवैज्ञानिकों ने विरोध किया है। 

6. पॉवलव सीखने की प्रक्रिया में क्रिया को बार - बार दोहराने पर बल देते हैं। परन्तु गरम पानी में हाथ लगाने जैसी अनुभूति से बालक एक बार में ही सीख जाता है। 


[3]
 स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत
(Skinners's Operant Conditioning Theory)


इस सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिकी विचारक प्रोफ़ेसर बी.एफ स्किनर ने 1938 में किया। स्किनर क्रिया प्रसूत अनुकूलन का आधार पुनर्बलन को मानते हैं। इस सिद्धांत के मूल में थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत है जिसको इस स्किनर ने पुनर्बलन सिद्धांत में परिवर्तित कर दिया। अधिगम के इस सिद्धांत का अभिप्राय सीखने के उस प्रक्रिया से है जिसमें प्राणी उस प्रतिक्रिया का चयन करना सीखता है जो पुनर्बलन को उत्पन्न करने में साधन का एक काम करती है। इस सिद्धांत के अनुसार यदि किसी अनुक्रिया के करने से सकारात्मक एवम संतोषजनक परिणाम मिलते हैं तो प्राणी व क्रिया बार-बार दोहराता है। असफलता या नकारात्मक परिणाम मिलने पर प्राणी क्रिया को पुनः दोहराने से बचता है जिससे उद्दीपन अनुक्रिया का संबंध कमजोर हो जाता है।

स्किनर ने इस सिद्धांत की खोज के लिए कबूतर एवं सफेद चूहों पर प्रयोग किए। स्किनर ने व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिए एक समस्यावादी, ध्वनिविहीन लीवर वाला बॉक्स (पिंजरा) बनाया जिसे स्किनर बॉक्स के नाम से जाना जाता है। इसके लिवर को दबाने से भोजन का एक टुकड़ा गिरता है।




स्किनर ने एक भूखे चूहे को इस बॉक्स में बंद कर दिया। भूख की तड़प से चूहा इधर - उधर उछलता है । इस दौरान एक बार उछलने से चूहे के पंजे से लीवर दब जाता कुछ टुकड़े गिरते हैं । ऐसे ही कई बार उछल - कूद करने एवं लीवर के दबने से चूहे को भोजन की प्राप्ति हो जाती है इस प्रकार बार-बार भोजन मिलने से चूहा लीवर को दबाकर भोजन प्राप्त करने की कला को सीख जाता है। इसमें अनुबंध का संबंध सीखने वाले के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से होता है। भोजन चूहे के लिए प्रबलन (Reinforcement) एवं भूख उसके लिए प्रणोदित (Drive) का कार्य करती है।

इस प्रयोग से स्किनर ने निम्न निष्कर्ष निकाले -

  1. पहली बार भोजन की प्राप्ति त्रुटि एवं प्रयास सिद्धान्त का फल था।
  2. भोजन की प्राप्ति ने चूहे के लिए प्रेरणा का कार्य किया।
  3. लीवर दबाने से भोजन की प्राप्ति से अनुक्रिया एवं पुनर्बलन में अनुकूलन स्थापित हो जाता है। 
  4. बार - बार लीवर दबाने से यह क्रिया चूहे के लिए सरल हो गई।
  5. प्रत्येक अगली बार लीवर को दबाने में चूहे ने पहले की तुलना में कम समय लगाया।
  6. लीवर को कई बार दबाने से क्रिया का अभ्यास हो जाता है।
स्किनर ने अपने एक अन्य प्रयोग में भूखे कबूतर को बॉक्स में बन्द किया। बॉक्स में कबूतर शांत बैठा रहता है। कुछ समय बाद बॉक्स में प्रकाश किया गया। प्रकाश के होते ही कबूतर ने चाँच मारना प्रारम्भ कर दिया जिससे उसे भोजन की प्राप्ति हो गई। बार - बार इस क्रिया को दोहराने से कबूतर सिर घुमाकर चोंच मारना सीख जाता है। इस प्रक्रिया में भी क्रिया प्रसूत अनुबंध का विकास होता है।






स्किनर ने बताया कि प्रत्येक प्राणी में अनुक्रिया (respondent) एवं क्रिया प्रसूत (operant) के में दो प्रकार का व्यवहार पाया जाता है। अनुक्रिया का सम्बन्ध उद्दीपकों से होता है और क्रिया प्रसूत का अभिप्राय उस व्यवहार से है जो प्राणी अधिगम प्राप्त करते समय करता है। 

अनुक्रिया भी दो प्रकार की होती है -

  1. प्रकाश में आने वाली अनुक्रिया (Elicited Response) - ये अनुक्रियाएँ ज्ञात उत्प्रेरकों से उत्पन्न होती हैं।
  2. उत्सर्जन अनुक्रिया (Emitted Response) - इन अनुक्रियाओं का सम्बन्ध अज्ञात प्रेरकों से होता है।  इन उत्सर्जन अनुक्रियाओं को क्रिया प्रसूत कहा जाता है। 

स्किनर ने इस सिद्धान्त को क्रिया - प्रसूत ( operant ) अथवा साधक ( instrumental ) अनुबन्धन कहा है। स्किनर के अनुसार क्रिया - प्रसूत अनूकूलन एक प्रकार की अधिगम प्रक्रिया है जिसके द्वारा सीखने को अधिक संभाव्य (probable) और निरन्तर ( frequent ) बनाया जाता है। उन्होंने बताया कि अभिप्रेरणा से उत्पन्न क्रियाशीलता के फलस्वरूप ही व्यक्ति सीखता है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी प्रतिक्रिया के परिणाम को परिचालित ( manipulate ) करके इसके घटित होने की संभावना में परिवर्तन लाया जा सकता है।


सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की विशेषताएँ 
(Characteristics of Operant Conditioning Theory) 

स्किनर के क्रिया - प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं -

  1. यह सिद्धान्त क्रिया के परिणाम को महत्त्व देता है।
  2. क्रिया प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त में पुनर्बलन एक आवश्यक तत्त्व है। 
  3. यह सिद्धान्त सीखने की क्रिया में अभ्यास पर अधिक बल देता है। 
  4. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने की क्रियाओं का संचालन मस्तिष्क से होता है। इसलिए इस प्रकार का अधिगम स्थायी रहता है। 
  5. यह सिद्धान्त मंद बुद्धि बालकों के अधिगम के लिए बहुत उपयुक्त है। 

सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की शिक्षा में उपादेयता
(Educational Implications of Operant Conditioning Theory) 

स्किनर ने बताया कि इस सिद्धान्त से शिक्षण को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। एक अध्यापक को शैक्षिक प्रक्रिया में इस सिद्धान्त का प्रयोग व्यवस्थित रूप से करना चाहिए। क्रिया - प्रसूत सिद्धान के शिक्षा में महत्त्व को निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत समझा जा सकता है -

  1.  इस सिद्धान्त का प्रयोग अध्यापक सीखे जाने वाले व्यवहार को वांछित स्वरूप प्रदान करने में करता है। इस सिद्धान्त का प्रयोग जटिल कार्य सिखाने में किया जाता है। 
  2. इस सिद्धान्त के द्वारा छात्रों को समयानुसार प्रशंसा, पुरस्कार आदि के रूप में पुनर्बलन दिया जाए तो उनके व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन होता है।
  3. यह सिद्धान्त मानसिक बहुत उपयोगी है। इस सिद्धान्त के माध्यम से चिंता, भय आदि का निदानात्मक शिक्षण सम्भव है। स्किनर के अनुसार वैयक्तिक भिन्नता क रोगियों के लिए आधार पर शिक्षण प्रदान करना चाहिए।
  4. यह सिद्धान्त प्रगति एवं परिणाम की जानकारी प्रदान करता है। सीखने वाले को यदि अपने परिणाम की जानकारी हो तो वह शीघ्रता से सीखता है। इससे अधिगम का सतत् मूल्यांकन किया जा सकता है।
  5. इस सिद्धान्त की मदद से अभिक्रमिक अधिगम विधि का विकास हुआ जो शिक्षण में बहुत उपयोगी है।
  6. क्रिया - प्रसूत सिद्धान्त के उपयोग से शब्द भंडार विकसित किया जाता है। इसके सहयोग शब्दों को तार्किक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। 
  7. क्रिया - प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त में पुनर्बलन का बहुत महत्त्व है। इसके अनुसार स्थायी एवम शीघ्र अधिगम के लिए अति आवश्यक है। छात्रों के अवांछनीय आचरण नकारात्मक पुनर्बलन के द्वारा दूर किया जा सकता है।
  8. इस सिद्धान्त के सहयोग से पाठ्यचर्या एवं पाठ्यक्रम को छोटे - छोटे भागों में बाँटकर प्रस्तुत किया जाता है। इससे अधिगम प्रक्रिया को बल मिलता है। 
  9. स्किनर ने अपने प्रयोगों के आधार पर बताया कि है तो वह क्रियाशील होकर सीखने का प्रयत्न करता है। अधिगम से बालक को संतोष प्राप्त होता है तो वह क्रियाशील होकर सीखने का प्रयत्न करता है।

सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त की आलोचना 
(Criticism of Opera Conditioning Theory) 

शिक्षा में उपयोगी होने के बावजूद इस सिद्धान्त में कुछ कमियाँ हैं , जिनको निम्न प्रकार से स किया गया है-

  1. हालमैन ने सीखने की क्रिया में पुनर्बलन को आवश्यक नहीं माना। उन्होंने प्रश्न किया कि यदि पुनर्बलन से ही अधिगम शीघ्र होता है तो कुछ लोग कष्ट की परिस्थिति में कैसे सीखते हैं।
  2. यह सिद्धान्त मानव पर हर परिस्थिति में सीखने के लिए उपयुक्त नहीं है। 
  3. इस सिद्धान्त के अनुसार सीखना एक यांत्रिक प्रक्रिया है, जबकि हम सब जानते हैं कि सीखने के लिए मनुष्य में बुद्धि , विवेक एवं चिंतन का होना आवश्यक है। 
  4. यह सिद्धान्त मनुष्य की सीखने की प्रक्रिया को सही प्रकार से व्यक्त करने में असमर्थ रहा है क्योंकि इस सिद्धान्त का प्रयोग पशु एवं पक्षियों पर अधिक किया गया है। 
  5. यह सिद्धान्त पुनर्बलन पर अत्यधिक जोर देता है जबकि मनुष्य को सीखने के लिए लक्ष्य की आवश्यकता पहले होती है।
  6. क्रिया - प्रसूत अनुकूलन सिद्धान्त विशेषतः मंद बुद्धि या बुद्धिहीन प्राणियों पर लागू होता है। विवेकशील एवं चिंतनशील प्राणियों के लिए यह ज्यादा उपयुक्त नहीं है।




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