अधिगम के सिद्धांत (Theory Of learning) (Gestalt - Kohler)

प्रस्तावना -

सीखना या अधिगम एक बहुत ही व्यापक एवं महत्वपूर्ण शब्द है। मानव के प्रत्येक क्षेत्र में सीखना जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक पाया जाता है। दैनिक जीवन में सीखने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। सीखना मनुष्य की एक जन्मजात प्रकृति है। प्रतिदिन प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में नये अनुभवों को एकत्र करता रहता है, ये नवीन अनुभव, व्यक्ति के व्यवहार में वृद्धि तथा संशोधन हैं। इसलिए यह अनुभव तथा इनका उपयोग ही सिखना या अधिगम करना कहलाता है।

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अधिगम या सीखना एक बहुत ही सामान्य और आम प्रचलित प्रक्रिया है। जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है और फिर जीवनपर्यन्त कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। सामान्य अर्थ में ‘सीखना ' व्यवहार में परिवर्तन को कहा जाता है। (Learning refers to change in behavior) परन्तु सभी तरह के व्यवहार में हुए परिवर्तन को सीखना या अधिगम नहीं कहा जा सकता। इस इकाई में आप अधिगम के विभिन्न सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे तथा उनके शैक्षिक निहितार्थों को जान पायेंगे।




अधिगम के सिद्धान्त
(Theories of learning)

सीखने के आधुनिक सिद्धान्तों को निम्नलिखित दो मुख्य श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है -

1. व्यवहारवादी साहचर्य सिद्धान्त 
    (Behavioural Associationist Theories)

2. ज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धान्त
    (Cognitive Organisational Theory) 

विभिन्न उद्दीपनों के प्रति सीखने वाले की विशेष अनुक्रियायें होती हैं। इन उद्दीपनों तथा अनुक्रियाओं के साहचर्य से उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या करना ही पहले प्रकार के सिद्धान्तों का उद्देश्य है। इस प्रकार के सिद्धान्तों के प्रमुख प्रवर्तकों में थोर्नडाइक, वाटसन और पैवलोव तथा स्किनर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जहाँ थोर्नडाइक द्वारा प्रतिपादित विचार प्रणाली को संयोजनवाद (Connectionism) के नाम से जाना जाता है, वहाँ वाटसन और पैवलोव तथा स्किनर की प्रणाली को अनुबन्धन या प्रतिबद्धता (Conditioning) का नाम दिया गया है। 

दूसरे प्रकार के सिद्धान्त सीखने को उस क्षेत्र में, जिसमें सीखने वाला और उसका परिवेश शामिल होता है, आये हुये परिवर्तनों तथा सीखने वाले द्वारा इस क्षेत्र के प्रत्यक्षीकरण किये जाने के रूप में देखते हैं। ये सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया में उद्देश्य (Purpose), अन्तर्दृष्टि (Insight) और सूझबूझ (Understanding) के महत्व को प्रदर्शित करते हैं। इस प्रकार के सिद्धान्तों के मुख्य प्रवर्तकों में वर्देमीअर (Werthemier), कोहलर (Kohler), और लेविन (Lewin) के नाम उल्लेखनीय है।


[1]
व्यवहारवादी अधिगम सिद्धांत
(Behavioristic Theory Of Learning)
(S-R)

पिछले पोस्ट में हमने व्यवहारवादी अधिगम सिद्धांत के अंतर्गत निम्न विद्वानों के सिद्धांतों का अध्ययन किया -

1. थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत
     (Thorndike's Trial & Error Theory) 

2. पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत
    (Pavlov's Theory Of Clasical                
       Conditioning)

3. स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुकूलन सिद्धांत
    (Skinners's Theory Of Operant)


इस सिद्धांत को विस्तार से पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें - Click Hear






[2]
ज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धान्त
(Cognitive Organisational Theory) 



इस प्रकार के सिद्धान्त सीखने को उस क्षेत्र में (जिसमें सीखने वाला और उसका परिवेश शामिल होता है) आए हुए परिवर्तनों तथा अधिगमकर्ता द्वारा इस क्षेत्र का प्रत्यक्षीकरण किये जाने के रूप में देखते हैं। ये सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया में उद्देश्य (purpose), अन्तर्दृष्टि (Insight) और सूझबूझ (understanding) के महत्त्व को प्रदर्शित करते है।  
इस प्रकार सिद्धान्तों के मुख्य प्रवर्त्तको में वर्दैमीअर (Werthemier), कोहलर (Kohler) और लेविन (Lewin) के नाम उल्लेखनीय हैं।

ज्ञानात्मक एवं क्षेत्र संगठनात्मक सिद्धान्त के अंतर्गत आने वाले प्रमुख विद्वानों के सिद्धांत इस प्रकार हैं -

1. कोहलर का अन्तर्दृष्टि या सूझ द्वारा सीखने का सिद्धान्त (गेस्टाल्ट सिद्धांत)

2. ब्रूनर का अनुदेशनात्मक सिद्धान्त 









[1]
अंतर्दृष्टि अधिगम सिद्धांत
(Insight Theory Of Learning)

सीखने के इस सिद्धान्त को गेस्टाल्ट सिद्धान्त, पूर्णाकार सिद्धान्त, समग्र सिद्धान्त, पूर्णाकृति सिद्धान्त, अंतर्दृष्टि सिद्धांत या सुझ सिद्धांत आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

इस सिद्धान्त का उद्भव बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जर्मनी में हुआ था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में चार जर्मन मनोवैज्ञानिक- मैक्स वरथीमर (Max Wertheimer) , बोल्फगैंग कोहलर (Wolfgang Kohler), कुर्ट कोफ्का (Kurt Koffka ) तथा कुटे लेविन ( Kurt Lewin ) प्रमुख थे। ये चारों मनोवैज्ञानिक बाद में अमेरिका चले गये थे। वस्तुतः व्यवहारवादियों के द्वारा प्रस्तुत की गई अवधारणाओं से असंतुष्ट होकर संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के द्वारा अधिगम को यांत्रिक क्रिया के स्थान पर जानबूझकर व इरादतन (Deliberate) तथा चेतन प्रयास (Conscious Effort) वाली प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया। इनके विचार में सीखना उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करना मात्र नहीं है वरन एक प्रक्रिया है। प्राणी अपनी परिस्थिति में विद्यमान उद्दीपकों के साथ अंतरक्रिया करता है तथा अंतरक्रिया के इस प्रक्रिया के द्वारा ही उसेके द्वारा की जाने वाली अनुक्रिया निर्धारित होती है। अंतरक्रिया करने की इस प्रक्रिया में प्राणी की बुद्धि तथा अन्य संज्ञानात्मक योग्यताओं की विशेष भूमिका रहती है।

गेस्टाल्ट (Gestalt) जर्मन शब्द का एक शब्द है जिसका आंग्ल भाषा में कोई पूर्ण समतुल्य पर्यायवाची शब्द ना होने के कारण इसे यथावत स्वीकार कर लिया गया है। गेस्टाल्ट शब्द से तात्पर्य संगठित व पूर्ण अथवा पूर्णकृतिक संरचना से है। बात करें इसके शाब्दिक अर्थ की तो इसे प्रतिमान, रूप, संरचना, संस्थान भी कह सकते हैं। इनके अनुसार व्यक्ति अपनी मानसिक क्षमता से संपूर्ण परिस्थिति को समझकर ही अधिगम प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गेस्टाल्ट एक ऐसा समग्र अथवा पूर्ण संरचना है जिसकी विशेषता का पता उसके संपूर्ण गुणों से चलता है ना कि उसके अवयवो (Constituents) के अवलोकन से उसका पता लगता है।



अतः गेस्टाल्टवादियों के अनुसार नवीन सूझ की क्षमता विकसित करने की अथवा पुरानी सूझ का सुधारने की प्रक्रिया को सीखना कहा जाता है। इसके अन्तर्गत प्राणी सम्पूर्ण परिस्थिति (Gastalt) के प्रत्यक्षीकरण के प्रति अनुक्रिया करता है, अतः इस सिद्धान्त को सीखने का गेस्टाल्ट सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त क्योंकि प्राणी सूझ द्वारा सीखता है इसलिए इस सिद्धान्त को सीखने के सूझ सिद्धान्त के नाम से भी पुकारा जाता है। गेस्टाल्टवादियों ने सूझ की प्रक्रिया (Process of Insight) को किसी परिस्थिति में आये परिवर्तनों या घटित घटनाओं को ऐसे क्रमबद्ध व तार्किक रूप से व्यवस्थित करने के रूप में स्वीकारं किया है जिससे परिस्थिति के विभिन्न अंगों के बीच संरचनागत सम्बन्ध (Structural Relationship) ज्ञात हो सके। निःसन्देह सूझ की प्रक्रिया एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया (Cognitive Process) है जो समस्या का संज्ञानात्मक समाधान (Cognitive Solution) प्रस्तुत करके सीखने की प्रक्रिया को अत्यधिक सरल, सहज तथा उद्देश्यपूर्ण बनाती है। सूझ का परिणाम प्रायः सम्बन्धों की अचानक पहचान (Familiarity), स्पष्टता (Clarity), समझ (Understanding), तथा सफलता (Solution) के रूप में होता है जिसे गोस्टाल्टवादी प्रचलन में ‘अहा अनुभव’ (Aha Experience) अथवा सूझ (Insight) कहते हैं। कोहलर के द्वारा किये गये प्रयोगों से इस सिद्धान्त को अच्छी तरह से समझा जा सकता है।



कोहलर का प्रयोग
(Kohlar's Experiments)

कोहलर के प्रयोग ( Kohlar's Experiments ) कोहलर के द्वारा अधिगम प्रक्रिया के अध्ययन के लिए चिम्पांजियों (Apes) पर अनेक प्रयोग किये गये। वस्तुतः सीखने की प्रक्रिया में सूझ शब्द का सबसे पहले प्रयोग कोहलर के द्वारा चिम्पांजियों पर किये गये प्रयोगों के दौरान उनके द्वारा सीखे व्यवहार का वर्णन करने के लिए ही किया गया था। यद्यपि उसने अनेक चिम्पांजियों पर प्रयोग किये परन्तु सुल्तान नाम का चिम्पांजी अन्य चिम्पांजियों से अधिक बुद्धिमान था, इसलिए उस पर कोहलर द्वारा किये गये कई प्रयोग अधिक प्रसिद्ध हैं। आगे सुल्तान पर कोहलर द्वारा किये गये चार प्रयोगों का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है -

प्रयोग 1 - 

एक प्रयोग में कोहलर ने सुल्तान को एक ऐसे पिंजरे (Cage) में बन्द कर दिया। जिसकी छत से एक केला लटका हुआ था तथा पिंजरे में एक बक्सा भी रखा हुआ था । चिंम्पांजी उछलकूद करके केला नहीं प्राप्त कर सकता था परन्त बक्से को पिंजरे के बीच में रखकर तथा उस पर खड़ा कर उछलने पर केला पा सकता था। सुल्तान ने पहले उछल - उछलकर केला प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु वह केला प्राप्त करने में असफल रहा। अचानक उसे कुछ सूझा तथा उसने बक्से को उछल प्लेटफार्म (Jumping Platform) के रूप में केले के ठीक नीचे रखा तथा उस पर से उछलकर केला प्राप्त कर लिया। कोहलर ने सुल्तान के इस व्यवहार की व्याख्या करते हुए कहा कि पिंजरे से लटके केले तथा पिंजरे में मौजूद बक्से ने एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी कि सुल्तान को केले तक पहुंचने के लिए बक्से का उपयोग करने की सोच अचानक मिल गई।

प्रयोग 2 - 

एक अन्य प्रयोग में कोहलर ने समस्या को कुछ अधिक जटिल बनाते हुए केले को प्राप्त करने के लिए दो-तीन बक्सों की आवश्यकता वाली परिस्थिति सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत की। कुछ देर की असफल उछल कूद के बाद अचानक आए विचार के आधार पर सुल्तान ने बक्सों को एक दूसरे के ऊपर व्यवस्थित करके केला प्राप्त कर लिया। सुल्तान के द्वारा केला प्राप्त हेतु किए गए इस व्यवहार को स्पष्ट करते हुए कोहलर ने कहा कि पिंजरे से लटके केले तथा पिंजरे में इधर उधर पड़े कई बक्सों की वजह से एक ऐसी परिस्थिति बन गई जिससे सुल्तान को बक्सों को एक के ऊपर एक रखकर तथा फिर उन पर चढ़कर केला प्राप्त करने की सोच अचानक आ गई।

प्रयोग 3 - 

अपेक्षाकृत अधिक जटिल परिस्थिति वाले एक अन्य प्रयोग में कोहलर ने सुल्तान को एक पिंजरे में बंद कर दिया तथा पिंजरे के अंदर एक छोटी छड़ी डाल दी। पिंजड़े के बाहर एक बड़ी छड़ी व एक केला इस तरह से रखा की सुल्तान छोटी छड़ी से बड़ी छड़ी को तो खींच सके किंतु छोटी छड़ी से केले को ना खींच सके। बड़ी छड़ी से केले को पिंजरे में खींचा जा सकता था। सुल्तान ने केला खाने के लिए पिंजरे से बाहर आना चाहा। असफल होने पर बाहर हाथ निकालकर केला उठाना चाहा, इसमें भी असफल होने पर उसने पिंजरे में उछल कूद करना प्रारंभ कर दिया। फिर उसने छोटी छड़ी की सहायता से केले को अपने पास खींचना चाहा। इस बार भी असफल होने पर वह पिंजरे में बैठ गया। अचानक वह उठा तथा उसने छोटी छोटी से बड़ी छड़ी को अपने पास खींच लिया तथा फिर बड़ी छड़ी से केले को अपने पास खींच कर केला प्राप्त कर लिया। कोहलर ने इस प्रक्रिया की विवेचना करते हुए कहा कि छड़ी के संबंध में सुल्तान के पूर्व अनुभव तथा छोटी छड़ी, बड़ी छड़ी व केले को रखने के ढंग ने एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी कि सुल्तान को छड़ी व केले के बीच संबंध स्थापित करने के लिए सूझ मिल गई। अपने प्रयोगों के आधार पर कोहलर ने माना कि सीखना वास्तव में विचारों की पुनर्व्यवस्था करना है जो कि नए संबंधों के प्रत्यक्षीकरण के द्वारा प्राप्त सुझ की सहायता से संपन्न होती है।

प्रयोग 4 -

 उत्तरोत्तर जटिल एक अन्य प्रयोग में कोहलर ने सुल्तान को पिंजरे में बन्द करके पिंजरे के बाहर एक केला इतनी दूरी पर रखा कि दो छड़ियों (sticks) को जोड़कर बनी छड़ी की सहायता से केले को पिंजरे में खींचा जा सकता था। कोहलर ने दोनों छड़ी, जिसकी बनावट इस प्रकार की थी कि वे एक दूसरे से सरलता से जुड़ सकें , पिंजरे में रख दी। वस्तुतः इन छड़ियों में से एक पतली ठोस छड़ी थी जबकि दूसरी छड़ी के एक ओर एक ऐसा छेद था जिसमें पतली छड़ी फंस जाती थी। केले को बाहर रखा देखकर सुल्तान ने पहले हाथ से , फिर पैर से तथा फिर बारी - बारी से दोनों छड़ियों से केले को पिंजरे के अन्दर खींचने का प्रयास किया। परन्तु पिंजरे से केले की दूरी अधिक होने से वह केला पाने में असफल रहा। निराश होकर उसने पिंजरे में बैठकर छड़ियों को गौर से देखना प्रारम्भ कर दिया तथा एक छड़ी में छेद देखकर अचानक सुल्तान ने छड़ियों को एक दूसरे में फंसा दिया तथा इस लम्बी छड़ी की सहायता से केला पिंजरे के अन्दर खींच लिया। केला प्राप्त करने में सुल्तान द्वारा किये व्यवहार की व्याख्या करते हुए कोहलर ने कहा कि एक छड़ी में छेद तथा उस छेद के बराबर दूसरी छड़ी की मोटाई के होने की सम्पूर्ण परिस्थिति ने सुल्तान को छड़ियों को जोड़कर बड़ी छड़ी बनाने की सूझ प्रदान कर दी। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि केले से सुल्तान की दूरी अधिक होने के कारण उसे एक बड़ी छड़ी की भी आवश्यकता थी। वस्तुतः कोहलर तथा अन्य गेस्टाल्टवादियों के द्वारा किए गए प्रयोगों ने समस्या समाधान जैसे उच्च स्तरीय अधिगम में बुद्धि तथा अन्य संज्ञानात्मक योग्यताओं की भूमिका को सिद्ध कर दिया था।




 इस तरह गेस्टाल्टवादियों के द्वारा अधिगम को एक उद्देश्यपूर्ण (Purposive), खोजपरक (Exploratory) तथा सृजनात्मक (Creative) प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया। उनके अनुसार सीखते समय प्राणी परिस्थिति को पूर्ण रूप में देखता है तथा उसमें विद्यमान विभिन्न संबंधों को समझकर व उनका मूल्यांकन करके ही वह बुद्धिमत्तापूर्ण उचित निर्णय लेता है। दूसरे शब्दों में प्राणी विशिष्ट उद्दीपकों के प्रति अनुक्रिया ना करके संपूर्ण परिस्थिति में विद्यमान उचित संबंधों के प्रति अनुक्रिया करता है। कोहलर ने सुझ शब्द का प्रयोग सीखने वालों के द्वारा संपूर्ण परिस्थिति के प्रत्यक्षीकरण तथा उचित संबंधों के प्रति अनुक्रिया करने में बुद्धि के उपयोग करने के लिए किया था।


अंतर्दृष्टि या सुझ सिद्धांत की विशेषताएं
(Characteristics Of Insight Theory) 

इस सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं -

  1. सीखने की प्रकृति संज्ञानात्मक (Cognitive) होती है।
  2. सीखना धीरे-धीरे ना होकर अचानक होता है।
  3. सीखने की प्रकृति लगभग स्थाई (Enduring) होती है।
  4. सीखने की प्रक्रिया यंत्रवत (Mechanical) नहीं होती है।
  5. सीखने के संज्ञानात्मक स्थर पर संरचनाएं बनने की प्रक्रिया होती रहती है।
  6. सीखने की प्रक्रिया में प्राप्त सुझ अचानक व स्वस्फूर्त (Spontaneous) होती है।
  7. सूझ द्वारा किए गए अधिगम में प्राणी का प्रारंभिक व्यवहार अन्वेषणात्मक प्रकृति का होता है।
  8. सूझ के लिए समस्यात्मक परिस्थिति का होना आवश्यक है।
  9. सूझ प्राणी के लक्ष्य तथा समाधान के बीच एक स्पष्ट संबंध है।
  10. इस सिद्धांत में पूर्व अनुभव सहायक होते हैं।
  11. अंतर्दृष्टि द्वारा प्रत्यक्षीकरण में सहायता मिलती है। जब तक किसी समस्या का पूर्ण प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं होता अंतर्दृष्टि भी नहीं होती है।
  12. सुझ का आयु और अनुभव के साथ घनिष्ठ संबंध होता है। बालकों की अपेक्षा प्रौढ़ो में सुझ अधिक होती है।
  13. इसमें सीखने में निपुणता प्राप्त करने की अपेक्षा सूझ का अधिक महत्व रहता है।
  14. अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानव की बौद्धिक क्षमता अधिक होती है इसलिए मानव में सूझ भी अधिक होती है।
  15. इस सिद्धांत के मूल में प्रयास एवं त्रुटि रहती है।





शैक्षिक निहितार्थ
 (Educational Implications)


अंतर्दृष्टि सिद्धांत की शिक्षा में उपादेयता 
(Educational Implications Of Insight Theory) - 

जैसा कि स्पष्ट किया जा चुका है कि सीखने का गेस्टाल्ट सिद्धान्त अनुभवों की सम्पूर्णता पर बल देता है। इस सिद्धान्त का प्रयोग करके बालकों का मानसिक विकास किया जा सकता है। क्योंकि यह सिद्धांत शिक्षण प्रक्रिया में उत्पन्न समस्याओं का समाधान उसकी संपूर्णता के परिपेक्ष में करता है।

गेस्टाल्ट सिद्धान्त का शिक्षा के क्षेत्र में अग्रांकित उपयोग संभव है -

1. यह सिद्धान्त वातावरण की महत्ता को स्थापित करता है। अध्यापकों को बालकों के सम्मुख ऐसा वातावरण अथवा परिस्थिति प्रस्तुत करनी चाहिए कि बालकों में अन्तर्दृष्टि उत्पन्न हो सके। 

2. यह सिद्धान्त वृद्धि , सृजनात्मकता , कल्पना तथा तर्क शक्ति आदि संज्ञानात्मक योग्यताओं का विकास करने में उपयोगी सिद्ध हो सकता है। 

3. यह सिद्धान्त सीखने की प्रक्रिया में यांत्रिकता के संप्रत्यय का खण्डन करता है। अतः यंत्रवत ढंग से विषयवस्तु का स्मरण या अधिगम कराने का यह सिद्धान्त खंडन करता है। 

4. यह सिद्धान्त बालक के द्वारा स्वयं परिस्थितियों का अवलोकन करने तथा सूझ के द्वारा समस्या के समाधान खोज करके सीखने पर बल देता है।

5. यह सिद्धान्त सीखने में उद्देश्य के साथ - साथ नवीन ज्ञान की आवश्यकता , भूमिका , उपयोग तथा सार्थकता पर भी बल देता है।

6. यह सिद्धांत सीखने में रखने की विधि का विरोध करता है। यह बालकों को संज्ञान की खोज करने को प्रेरित करता है।

7. शिक्षा में समस्यात्मक उपागम इसी सिद्धांत की देन है यह सिद्धांत शिक्षण प्रक्रिया में समस्या समाधान विधि की वकालत करता है जो सूझ बढ़ाने में सहायक है।

8. अध्यापक को सर्वप्रथम अधिगम के उद्देश्य स्पष्ट करने चाहिए। जिससे छात्र सीखने का लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित हो सकें। यह सिद्धांत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए उचित व्यवहार की चेतना प्रदान करता है।

9. इस सिद्धांत के अनुसार विषय सामग्री को समग्र रूप से स्पष्ट करना चाहिए। शैक्षिक समस्या को आंसुओं में विभाजित ना कर संपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

10. अध्यापक को अधिगम से पूर्व छात्रों में ज्ञानात्मक एवं संवेगात्मक सक्रियता लाना आवश्यक है। इस सिद्धांत के अनुसार सीखने में प्रेरणा का अधिक महत्व है। सीखने के लिए उपयुक्त वातावरण होना भी जरूरी है।

11. यह सिद्धांत वैयक्तिक विभिन्नता स्वीकार करता है। प्रत्येक बालक में अपनी जैविक की क्षमता के अनुसार ही सुझ का निर्माण होता है। अतः अधिगम प्रदान करते समय उनकी क्षमता को ध्यान में रखना चाहिए।

12. अंतर्दृष्टि सिद्धांत ने प्रत्यक्ष का गहन अध्ययन कर संगठन के नियम का प्रतिपादन किया।



अंतर्दृष्टि सिद्धांत को प्रभावित करने वाले कारक
(Factor Influencing Insight Theory)


सूझ का निर्माण समग्रता के आधार पर होता है। अधिगम की प्रक्रिया के दौरान अन्तर्दृष्टि को निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं - 


1. बुद्धि (Intelligence) -

अन्तर्दृष्टि का सीधा सम्बन्ध बुद्धि से होता है। उच्च बौद्धिक क्षमता वाले प्राणियों में अन्तर्दृष्टि अधिक क्रियाशील रहती है। पशुओं की अपेक्षा मानव की बौद्धिक क्षमता अधिक होती है फलस्वरूप वह समस्याओं का समाधान भी शीघ्र ही खोज लेता है। बुद्धिमान बालक विषय सामग्री को जल्दी सीखता है।

 2प्रत्यक्षीकरण (Perception)- 

अन्तर्दृष्टि अधिगम की कुंजी होती है। किसी भी समस्या के समाधान से पूर्व उसको पूरी तरह जानना आवश्यक है। अन्तर्दृष्टि प्रत्यक्षीकरण के स्थापित होने के बाद ही धारण होती है। सूझ के निर्माण में परिस्थिति का पूर्ण स्पष्टीकरण व सामान्यीकरण होना चाहिए। अन्तर्दृष्टि को समानता , निरन्तरता एवं समीपता जैसे कारक प्रभावित करते हैं।

3. अनुभव (Experience) - 

पूर्व अनुभवों के संगठन से अन्तर्दृष्टि का निर्माण होता है जिसका सीखने में बहुत अधिक योगदान रहता है। इस गुण से अनुभवी व्यक्ति समस्याओं का समाधान शीघ्रता से निकाल लेते हैं। अनुभवों के स्थानान्तरण से एक परिस्थिति के ज्ञान को दूसरी परिस्थिति में इस्तेमाल किया जा सकता है। 

4. समस्या की संरचना (Structure of Problem) -

समस्या की संरचना भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है। सरल समस्या का प्रत्यक्षीकरण सरलता से हो जाता है जिससे उनका समाधान भी शीघ्रता से निकल आता है। अव्यवस्थित एवं जटिल संरचना वाली समस्याएँ अन्तर्दृष्टि के विकास में बाधक होती है अतः ऐसी समस्याओं को समझना भी कठिन होता है।

5. प्रयास एवं भूल (Trial and Error) - 

अन्तर्दृष्टि के निर्माण में प्रयास एवं भूल का भी योगदान रहता है। अन्तर्दृष्टि के विकास से पूर्व व्यक्ति समस्या का समाधान खोजने के प्रयास में निराश एवं निष्क्रिय हो जाता है। ऐसे में व्यक्ति की मानसिक प्रक्रिया मंद हो जाती है और कार्य - कुशलता (Motor Skill) के आधार पर केवल शारीरिक अंग ही कार्य करते हैं। सूझ की स्थापना होने पर व्यक्ति को समस्त परिस्थिति का ज्ञान हो जाता है।



अंतर्दृष्टि सिद्धांत की आलोचना
(Criticism Of Insight Theory) 


अंतर्दृष्टि सिद्धान्त ने शिक्षा में अमूल्य योगदान दिया है फिर भी इसमें कुछ कमियाँ पाई गई हैं, जिनको निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है- 


1. अन्तदृष्टि सिद्धान्त के अनुसार सीखने की प्रक्रिया अचानक होती है। विभिन्न वैज्ञानिकों के मतानुसार प्राणी किसी भी क्रिया को एकाएक न सीखकर अभ्यास द्वारा धीरे - धीरे सीखता है। डंकर ने बताया कि सूझ क्रमिक होती है तथा इसकी मात्रा विभिन्न परिस्थतियों में कम या अधिक हो सकती है।

2. यह सिद्धान्त केवल सूझ पर ही अधिक महत्त्व देता है। अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त अधिगम के अन्य सिद्धान्तों की अनदेखी करता है जो सही नहीं है। 

3. अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त का आधार प्रत्यक्षीकरण है। यदि किसी समस्या का सही प्रकार से प्रत्यक्षीकरण नहीं हुआ तो अन्तर्दृष्टि का विकास संभव नहीं होगा।

4. अन्तर्दृष्टि सिद्धान्त अपूर्ण है क्योंकि यह पूर्व अनुभवों को नकारता है , जो अधिगम में सहायक होते हैं।

5. शरिंगटन का मानना है कि अचानक किसी समस्या का समाधान मिलने में अन्तर्दृष्टि की अपेक्षा संयोग का योगदान अधिक रहता है। 

6. अन्तर्दृष्टि शारीरिक क्षमता , वंशानुक्रम , आयु व वैयक्तिक विभिन्नताओं आदि से प्रभावित होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार बालक को प्रत्येक प्रकार का अधिगम प्रदान नहीं किया जा सकता।

7. यह सिद्धान्त बच्चों एवं पशुओं पर लागू नहीं होता क्योंकि उनमें चिंतन करने की क्षमता का अभाव होता है। 



निष्कर्ष -

अपनी सीमाओं के बावजूद भी यह सिद्धान्त अधिगम में बहुत उपयोगी है। हिलगार्ड के अनुसार यह सिद्धान्त रुचिकर है और उपयोगी व्यवहार की व्याख्या करता है। इसके अतिरिक्त यह मानसिक अवस्थाओं एवं अधिगम में रटने की प्रक्रिया की अनदेखी करता है।





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