दृष्टिबाधित बालक (Visually Impaired Child)

दृष्टिबाधित बालक

(Visually Impaired Child)


प्रस्तावना —


हम जानते हैं कि हम अपने आस-पास के परिवेश के बारे में जानकारी अपनी ज्ञानेन्दियों के माध्यम से उनके साथ सम्पर्क स्थापित कर करते हैं इसलिये ज्ञानेन्द्रियों को 'ज्ञान का द्वार' भी कहा जाता है मुख्यतः ज्ञानेन्द्रियां पांच प्रकार की होती है। ये पांच ज्ञानेन्द्रियां  क्रमशः आंख, कान, नाक, जिह्ना तथा त्वचा है। इन पाँचो इन्द्रियों का अपना महत्व है। परन्तु आंखों का महत्व जीवन में अतिविशेष है क्योंकि सबसे अधिक अनुभव हम आंखों से ही प्राप्त करते हैं।  यह एक प्रमाणित तथ्य है कि मनुष्य वातावरण से प्राप्त सभी सूचनाओं का लगभग 80 प्रतिशत आंखों के माध्यम से प्राप्त करता है। इसी कारण आंख को मस्तिष्क का बाह्य विस्तार भी कहा जाता है। ऐसे में यदि आंखों की कार्यक्षमता में रूकाबट उत्पन्न हो जाए या इसका शरीर में अभाव हो तो मानव दृष्टि जैसे प्राकृतिक उपहार से वंचित हो जाता है। प्रस्तुत इकाई में विस्तार से दृष्टिबाधिता का अर्थ, प्रकार, कारण एवं रोकथाम के साथ है दृष्टिबाधित व्यक्तियों के लक्षणों सम्बन्धित जानकारियाँ प्रस्तुत हैं —

 


इस इकाई के अध्ययन के पश्चात आप दृष्टि की सामान्य क्रियात्मक में रूकावट अर्थात दृष्टि विकारता/ दृष्टि विकलांगता सम्प्रत्यय से परिचय प्राप्त कर सकेंगे।



 दृष्टिबाधिता का अर्थ 

(Meaning of Visual Impairments) —


सामान्य शब्दों में ठीक प्रकार से देख पाने में असमर्थता दृष्टिबाधिता कहलाती है। दृष्टि की अपनी सामान्य क्रियात्मकता से विचलन की स्थिति दृष्टिबाधिता की श्रेणी में आता है। दृष्टिबाधिता का अर्थ है कि दृष्टि में सभी उपचारात्मक प्रयासों एवं सुधारात्मक लेसों के प्रयोग के बावजूद दृष्टिक्षति का मौजूद होना। इस क्षति के कारण व्यक्ति को देखने में परेशानी होती है।


सभी दृष्टिहीन व्यक्तियों में दृष्टि का पूर्ण अभाव नहीं होता। अधिकतर दृष्टिबाधिता की श्रेणी में आने वाले व्यक्तियों में दृष्टि की कुछ न कुछ अवशिष्ट या शेष दृष्टि होती है। जब व्यक्ति में अवशिष्ट दृष्टि एक स्तर से अधिक या ऊपर होती है तब ऐसी स्थिति कमदृष्टि या अल्पदृष्टि कहलाती है परन्तु अवशिष्ट दृष्टि का एक स्तर से कम होना या दृष्टि का पूर्णतः अभाव होना नेत्रहीनता या दृष्टिहीनता की श्रेणी में आता है। अधिकतर व्यक्ति

पूर्ण रूप से नेत्रहीन/दृष्टिहीन न होकर अल्पदृष्टि से ग्रसित होते हैं। दृष्टिबाधिता की परिभाषा जानने से पूर्व निम्न सम्प्रत्ययों को जानना आवश्यक है।


  1. दृष्टि तीक्ष्णता  (Visual Impairment) —


दृष्टि तीक्षणता का अर्थ है आँख की देखने की क्षमता। यह व्यक्ति की निर्धारित दूरी से स्पष्ट देख पाने की योग्यता है। यह दुर व पास दोनों दूरियों के लिए मापी जाती है। दृष्टि तीक्षणता को मापने के लिए सामान्यतः स्नेलेन आई चार्ट (Snellen Eye Chart) का प्रयोग किया जाता है। 

इस भिन्न के रूप में लिखा जाता है। जैसे 20/60 (फीट) दृष्टितीक्ष्णता का अर्थ है कि सामान्य दृष्टि से जिस वस्तु को 60 फीट की दूरी से देखा जा सकता है। एक प्रभावित या क्षतिग्रस्त दृष्टि उस वस्तु को 20 फीट की दूरी से देख सकती है अर्थात यदि कोई वस्तु को 60 फीट की दरी पर रखी है तो 20/60 दृष्टि तीक्ष्णता वाले व्यक्ति को भली प्रकार से देखने के लिए उस वस्तु को 20 फीट की दूरी पर लाना होगा।



  1. दृष्टि क्षेत्र (Field Of Vision) —


दृष्टि क्षेत्र से तात्पर्य है कि व्यक्ति द्वारा सीधे देखने पर उसके द्वारा प्रत्यक्षित कुल क्षेत्र। व्यक्ति ठीक सामने की वस्तु को देख सकने के साथ ही एक निश्चित परिधि में आने वाले सभी वस्तुओं को देख सकता है। दृष्टि को बिल्कुल सीध में रखने पर एक सामान्य दृष्टिवाला व्यक्ति लगभग 180 डिग्री तक की परिधि में आने वाली सभी वस्तुओं के देख पाने में सक्षम होता है।


 


 


दृष्टि बाधित का वर्गीकरण एवं परिभाषा —


दृष्टिबाधिता दो प्रकार की होती है-


1. आंशिक/अल्पदृष्टि दोष अर्थात कम दिखायी पड़ना

2. पूर्णतः दृष्टि अभाव/दृष्टिहीन


 


व्यक्ति दृष्टिहीन है या अल्पदृष्टिहीन वाला यह व्यक्ति की अवशिष्ट या शेष दृष्टि पर निर्भर करता है। जब व्यक्ति में अवशिष्ट दृष्टि एक स्तर से अधिक होती है तो वह अल्पदृष्टि की श्रेणी में आता है। एक निर्धारित स्तर से कम अवशिष्ट होने पर या दृष्टि का पूर्णतः अभाव होने पर व्यक्ति दृष्टिहीनता की श्रेणी में आता है।


  1. आंशिक या अल्प दृष्टि दोष —


कानूनी परिभाषा के अनुसार सुधारात्मक उपायों के बावजूद अल्प दृष्टि व्यक्ति की दृष्टि तीक्ष्णता 20/70 (फीट) से कम या दृष्टि क्षेत्र 20 डिग्री से कम होता है अर्थात सामान्य दृष्टि वाला जिस वस्तु को 70 फीट की दूरी से देख सकता है, उसे अल्पदृष्टि दोष वाला व्यक्ति 20 फीट की दूरी से देख पायेगा तथा दृष्टि के बिल्कुल सीध में रखने पर व्यक्ति मात्र 20 डिग्री या कम की परिधि में आने वाली वस्तुओं को देख सके में सक्षम होगा।


  • निःशक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण तथा पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 के अनुसार —


अल्पदृष्टि वाले व्यक्ति से अभिप्राय उन व्यक्तियों से है जिनकी दृष्टि क्रियाशीलता (Visual Functioning) में, उपचार या सर्वोत्तम सुधार के बाद भी दोष होता है किन्तु वे उपयुक्त सहायक उपकरणों के साथ कार्यों को करने या उसकी योजना बनाने के लिए दृष्टि का प्रयोग करते हों या इसकी सम्भावना हो कि वे दृष्टि का प्रयोग कर सकेंगे।


इस अधिनियम में दी गयी परिभाषा में दृष्टि तीक्षणता पर जोर ना देकर सहायक उपकरणों की सहायता से दृष्टि के उपयोग की क्षमता को आधार बनाया गया है।


  • शैक्षणिक परिभाषा के अनुसार,


अल्पदृष्टि वाले वे व्यक्ति हैं, जो कि छपे हुए अक्षर पढ़ तो सकते हैं परन्तु उनके लिए मोटी छपाई वाली पुस्तकों या लिखे हुए अक्षरों के बड़ा करके दिखाने वाले उपकरणों की आवश्यकता होती है। शैक्षणिक परिभाषा शिक्षकों को बच्चे से सम्बन्धित शैक्षणिक निर्णय लेने में सहायता करती है।


इस प्रकार हमने देखा कि अल्प दृष्टि की श्रेणी में वे बच्चे या व्यक्ति आते हैं जिनमें अवशिष्ट की मात्रा सामान्य दृष्टि वाले तथा पूर्ण अन्धत्व के बीच की होती है। इनकों पढ़ने-लिखने, चलने-फिरने अथवा सामान्य काम-काज करने में समस्या का सामना करना पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों के दृष्टिमूलक कार्य प्रभावित हो सकते हैं तथा दृष्टिमूलक कार्य का सम्पादन करने के लिए इन्हे सहायक उपकरणों की सहायता लेनी पड़ती है।


 

  1. दृष्टिहीनता या पूर्णता या दृष्टि अंधता —

वैधानिक रूप से दृष्टिहीनता वह स्थिति है जब किसी व्यक्ति की दृष्टितीक्ष्णता, स्वस्थ/अच्छे नेत्र में, चश्मे या कॉन्टेक्ट लेंस के साथ सर्वोत्तम सम्भव सुधार करने के बाद 20/200 या उससे कम हो अथवा वे व्यक्ति जिनका दृष्टिक्षेत्र 20 डिग्री से कम होता है।


  • निःशक्त व्यक्ति (सामान्य अवसर, अधिकारों का संरक्षण तथा पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 के अनुसार —


दृष्टिहीनता अथवा पूर्णतः दृष्टि अभाव उस स्थिति को कहते हैं जब व्यक्ति निम्नलिखित में से किसी भी एक स्थिति से ग्रस्त होता है।


  • दृष्टि का पूर्ण अभाव

  • अच्छी आँख में, चश्में या कॉन्टेक्ट लेंस से सर्वोत्तम सुधार के बाद भी दृष्टि तीक्ष्णता 6/60 (मीटर) या 20/200 (फीट) (स्नेलेन) से अधिक न होना

  • 20 डिग्री से अधिक का दृष्टिक्षेत्र न होना।


  • शैक्षणिक परिभाषा के अनुसार,


दृष्टिहीन व्यक्ति वे व्यक्ति हैं जिनकी आँखे इतनी गम्भीर रूप से प्रभावित है कि उनको शैक्षिक उद्देश्यों के लिए ब्रेल लिपि या श्रवण प्रणाली (श्रव्यटेप और रिकार्ड) का प्रयोग करना पड़ता है।


दृष्टिहीनता के शैक्षणिक परिभाषा जो कि शिक्षकों को यह निर्णय लेने में सहायता करती है कि बच्चे को किस प्रकार से शिक्षित किया जाए।




दृष्टिबाधिता के कारण —


दृष्टिबाधिता के कारणों को अनेक प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे जन्म के

आधार पर, आनुवंशिक या अर्जित, नेत्र में प्रभावित स्थान इत्यादि अनेकों ऐसे आधार है जिस पर कारणों का वर्गीकरण किया जाता है। कुछ आधार का विवरण निम्नवत्‌ है—



जन्म के आधार पर —


  1. जन्म से पूर्व के कारण (Prenatal Causes)

  2. जन्म के दौरान के कारण (Perinatal Causes)

  3. जन्म के बाद के कारण (Postnatal Causes)


  1. जन्म से पूर्व के कारण (Prenatal Causes) —


  1. परिवार में दृष्टिदोष के इतिहास का होना

  2.  नजदीकी/खून के रिश्तें में शादी

  3. गर्भवती माता का कुपोषित या स्वास्थ्य खराब होना

  4.  रक्त समूह की जटिलताएं या आर0एच0 असंगति

  5. डॉक्टर की सलाह के बिना गर्भवती महिला का एंटीबायटिक या कोई अन्य दवा लेना

  6. गर्भावस्‍था के दौरान, विशेष रूप से प्रथम महीनों में किसी संक्रामक रोग या बीमारियों (जैसे सिफलिस) या जर्मन खसरा (रूबैला) का होना

  7. गर्भावस्‍था के दौरान एक्स-रे करवाना


  1. जन्म के दौरान के कारण (Perinatal causes) —


  1. जन्म के समय शिशु के वजन का कम होना

  2. समयपूर्व प्रसव

  3. प्रसव के दौरान शिशु को मिलने वाले ऑक्सीजन में कमी

  4. प्रसव में प्रयुक्त उपकरणों के गलत प्रयोग के कारण



  1. जन्म के बाद के कारण (Postnatal causes) —


  1. बाल्यावस्था में संक्रामक रोग का होना

  2. आंख में  हुए संक्रमण के प्रति लापरवाही

  3. नेत्र या मस्तिष्क पर चोट लगना

  4. विटामिन ए की कमी

  5. नेत्र में ट्यूमर का होना





दृष्टि अक्षमता की रोकथाम एवं आँखों की देखाभाल —


सहीं जानकारी तथा थोड़ी सावधानी से अधिकतर बच्चों में दृष्टि अक्षमता की रोकथाम की जा सकती है। दृष्टिअक्षमता रोकने तथा नेत्रों के उचित देखभाल के लिए निम्नलिखित उपाय किये जा सकते है —


  • बच्चों को सुरक्षित, स्वच्छ, स्वस्थ रखना और पौष्टिक आहार देना दृष्टिदोष की रोकथाम का सर्वोत्तम उपाय है गर्भवती माताओं एवं बच्चों का आहार विटामिन ए से परिपूरित होना चाहिए।

  • गर्भावसथा के दौरान जर्मन मीज़ल्स (खसरा) या किसी अन्य संक्रामक रोग से संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में नहीं आना चाहिए।

  • शिशुओं को संक्रामक बीमारियों से बचने के लिए टीकाकृत किया जाना चाहिए

  • जब तक संभव हो बच्चे को माँ का दूध मिलना चाहिए।

  • गर्भावस्‍था के दौरान महिलाओं को डॉक्टर के परामर्श के बिना कोई दवा नहीं लेनी चाहिए।

  • खसेरे से पीड़ित बच्चे को बिटामिन 'ए' से परिपूरित खाद्य पदार्थ देना चाहिए क्योंकि खसरे के साथ “शुष्क नेत्र” होने का खतरा बढ़ जाता है।

  • नजदीकी रिश्तेदारों में विवाह संबंध न करना बच्चे में दृष्टिबाधिता के रोकथाम का पूर्वोपाय है।

  • आँखों की समस्याओं या देखने में कठिनाइयों के प्रारंभिक लक्षणों के लिए जाँच कराया जाना चाहिए।

  • गंदे पानी में तैरने या स्नान करने से बच कर नेत्रों के संक्रमण को रोका जा     सकता है।

  • सिर की चोट से बचाव नेत्र की क्षति के खतरे को कम करता है।

  • घर व बच्चे को साफ-सुथरा रखा जाना चाहिए।

  • रोहे (ट्रायकोमा) वाले व्यक्ति के लक्षण पता चलते ही तुरन्त उपचार किया जाना चाहिए

  • नोक दारतीर, गोलियों, ज्वलनशील पदार्थ, पटाखों, अम्ल आदि को बच्चों की पहुँच से दूर रखना चाहिए।

  • आंख की चोटें प्रायः बच्चों में दृष्टिहिनता का करण बन जाती है इसलिए बच्चों को चोटों से बचाकर रखना चाहिए।



 दृष्टिबाधित बच्चों के लक्षण/विशेषताएं —


दृष्टिबाधित बच्चों अथवा व्यक्तियों के लक्षण अथवा विशेषताएं बहुत सारे कारकों से प्रभावित होती है जैसे दृष्टिबाधिता का प्रकार एवं उसकी गंभीरता, किस उम्र में दृष्टिबाधिता आयी जन्म से या जन्म के बाद किस अवस्था में, अवशिष्ट दृष्टि की मात्रा कितनी है तथा कितनी कुशलता से उसका प्रयोग किया जा रहा है, संसाधनों तथा उपकरणों की उपलब्धता, उनकी परिवार के सदस्यों द्वारा स्वीकृति सामंजस्य, दृष्टिबाधिता के साथ किसी अन्य विकलांगता की मौजूदगी, दृष्टिबाधिता के प्रति सांस्कृतिक तथा सामाजिक अभिवृत्ति/दृष्टिकोण इत्यादि तथा सबसे महत्वपूर्ण उनके लिए उपलब्ध हस्तक्षेपण तकनीकियों की प्रकृति तथा उनका  प्रयोग।


इन सभी कारकों के बावजूद दृष्टिबाधिता समूह के अन्तर्गत आने वाले बच्चों एवं व्यक्तियों में कुछ सामान्य विशेषताएं/लक्षण पाये जाते हैं जो कि निम्नवत्‌ हैं —



  1. संज्ञानात्मक विकास तथा सम्प्रत्यय सम्बन्धित विशेषताएं–


सामान्यतः दृष्टिहीन एवं अल्पदृष्टिदोष वाले बच्चे संज्ञानात्मक विकास एवं प्रत्यय निर्माण में दृष्टिवान बच्चों से पीछे रहते हैं परन्तु पर्याप्त प्रशिक्षण, शीघ्र हस्तक्षेप एवं पर्याप्त वास्तविक अनुभव देकर उनको प्रत्यय निर्माण एवं संज्ञानात्मक विकास में सहायता की जा सकती है। दृष्टिबाधित बच्चे बौद्धिक परीक्षणों में प्रप्तांकों में लगभग दृष्टिवान बच्चों जैसे ही समान वितरण का प्रदर्शन करते हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सभी दृष्टिबाधित बच्चों में सम्प्रत्यय विकास विलम्ब से नहीं होता है खास कर उन बच्चों में जिसमें दृष्टिक्षय अल्पमात्रा (Mild) में हो या फिर वे बच्चें जिनमें दृष्टिबाधिता से जीवनकाल में बाद में ग्रसित हुए हों दृष्टिबाधिता बच्चों में सम्प्रत्यय विकास में अवशिष्ट दृष्टि बहुत ही सहायक होती है।


  1. भाषा विकास सम्बन्धित विशेषताएं —


बच्चे का भाषा विकास जन्म के कुछ माह के पश्चात्‌ ही बच्चे द्वारा बस्तुओं व क्रियाओं के पहचानने तथा खोज की योग्यता तथा अवसर पर निर्भर करती है। यह दृष्टिबाधित बच्चों के लिए कठिन हो जाती है। ये बच्चे स्पर्श या श्रवण पर निर्भर करते हैं जो की उनके सीखने के अनुभवों को कम करता है। वस्तुओं तथा क्रियाओं के वास्तविक अनुभवों की अनुपलब्धता की वजह से दृष्टिबाधित व्यक्ति बहुत सारे ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनका वे सही-सही, सार्थक एवं सटीक अर्थ नहीं जानते हैं। शब्दों का सार्थक एवं सटीक अर्थ जाने बिना प्रयोग करना मौखिकता कहलाती है। मौखिकता को कम करने के लिए दृष्टिबाधित बच्चों को प्रारम्भ से ही अनुभवों को मूर्त रूप में प्रदान किया जाना चाहिए। इन बच्चों में भाषा के साथ-साथ संवेगों के उतार-चढ़ाव, मुख मुद्राओं के प्रदर्शन इत्यादि का अभाव होता है।


  1. सामाजिक विकास सम्बन्धित विशेषताएं —


दृष्टिबाधिता के कारण इन बच्चों को मिलने वाले सामाजिक अनुभव तथा प्रायः अन्तः क्रिया में सहभागिता में कमी की वजह से उचित सामाजिक कौशलों को सीखने में कठिनाई महसूस करते हैं जिससे इन्हें अन्तः व्यक्तिगत रिश्तों को बनाने में कठिनाई होती है। सामाजिक व्यवहारों का अनुभव दृष्य अनुकरण पर अधिक निर्भर करती है। बच्चे बहुत सारे सामाजिक व्यवहार व कौशलों के बारे में दूसरों को देखकर सीख जाते है दृष्टिबाधित बच्चों को सांकेतिक भाषाओं शारीरिक भाषाओं, एवं भावभंगिमाओं को समझने में समस्या आती है जिसे दृष्टिवान बच्चे सामान्य आसानी से दूसरों का अनुकरण करके सीख जाते है। अतः बहुत सारे दृष्टिबाधित बच्चे अपने हम उम्र बच्चों से सामाजिक अपरिपक्वता, तथा अकेलापन का प्रदर्शन करते हैं।


टटल तथा टटल (Tuttle & Tuttle, 1996) ने अपने शोध में पाया कि दृष्टिहीन बच्चों के लिए स्व-सम्मान को प्राप्त करना कठिन होता है क्योंकि विद्यालय के सामाजिक पृष्ठभूमि के अन्तर्गत स्वजानकारी प्रायः सामाजिक अकेलापन, कम अपेक्षाएं तथा अति सुरक्षा से प्रभावित होती है।


दृष्टिबाधित बच्चों का सामाजिक विकास उनके हम उम्र बच्चों से धीमे होता है। इनका सामाजिक विकास इनके माता-पिता तथा अन्य लोगों की इनसे अपेक्षाओं से भी गम्भीरता से प्रभावित होती है इनसे की गयी अपेक्षाएं उचित तथा प्राप्त होने योग्य होनी चाहिए। यह बच्चे के स्वच्छ छवि (Self Respect) तथा आत्म सम्मान (Self Esteem) के साथ उनके स्वयं की समाजिक योग्यता की ओर सकारात्मक दृष्टि को बढ़ायेगा। जोकि बच्चे के सामाजिक कौशलों के कुशलता को समृद्ध करेगा। ऐसे बच्चों की सामाजिक उत्सवों में दृष्टिवान बच्चों जैसी ही सहभागिता सुनिश्चित की जानी चाहिए।



  1. शैक्षणिक उपलब्धि सम्बन्धित विशेषताएं —


बहुत से शोधों द्वारा यह पाया गया है कि दृष्टिबाधित बच्चे की बौद्धिक क्षमता दृष्टिवान बच्चों जैसे ही होती है परन्तु दृष्टिदोष वाले बच्चों की शैक्षणिक अथवा विद्यालयी उपलब्धि कम होती है।


(Pierangelo & Giuliani 2007) के अनुसार,

“दृष्टि में क्षतिग्रस्तता, सुधार के साथ भी बच्चे को शैक्षणिक प्रदर्शन को विपरीत तरीके से प्रभावित करती है।” 


इनकी शैक्षणिक उपलब्धि विशेष कर पढना लिखना तथा भाषा प्रमुख क्षेत्र है। जिनमें इन्हें कठिनाई का सामना करना पड़ता है। यह बहुत से सूचनाएं जैसे पाठयभाग (Text), लिखित/लेखा चित्र (Graphics) चेहरे की भाव भंगिमा तथा सांकेतिक सूचना (Gesture Cues) को प्राप्त करके कुशलतापूर्वक प्रयोग करने तथा प्रदर्शित करने में चुनौती का सामना करते हैं। वैकल्पिक माध्यम (ब्रेल, प्रिंट के आकार इनके दृष्टि क्षमता के अनुसार, श्रव्य सामग्रियों का प्रयोग) सहायक तकनीकीयों को उपलब्ध करके उनकी शैक्षिक उपलब्धि समान दृष्टि वाले बच्चों जैसी की जा सकती है।


 



  1. गामक तथा चलन (Movement) सम्बन्धित विशेषताएं-


दृष्टिबाधित बच्चे चलिष्णुता, कौशल तथा सामक कौशलों में सामान्य मानक से पीछे रहते हैं इसका कारण दृष्टि उद्दीपनों में कमी दृष्य अनुकरणों के माध्यम से न सीख पाना तथा वातावरणीय कारकों (जैसे माता-पिता द्वारा अतिसुरक्षा प्राप्त होना, गामक गतिविधियों में अवसरों की कमी समाज का नकारात्मक दृष्टिकोण इत्यादि) का होना है। इससे इन्हें गामक समन्वय में समस्या आती है। इनमें दिशाबोध, स्थान विभेद की क्षमता तथा सूक्ष्म शामक कौशलों का विकास विलम्ब से होता है। इनको यह पता लगाना कठिन होता है कि ये कहाँ है तथा वातावरण के सन्दर्भ में इनकी शारीरिक स्थिति सम्बन्धी जानकारी भी कम होती है।



  1. दृष्टिक्रियात्मकता सम्बन्धित विशेषताएं (अल्पदृष्टि वाले बच्चों के लिए) —


  1. वस्तुओं को आँख के बहुत नजदीक लाकर देखते हैं।

  2. इन्हें अपने शरीर के सापेक्ष वस्तओं की दूरियों के सम्बन्ध में निर्णय लेने में कठिनाई महसूस होती है।

  3. अपने आप को प्रकाश स्रोत के पास रखने का प्रयास करते है जैसे लैम्प, खिड़की, इत्यादि या कुछ बच्चे प्रकाश से घबराते हैं तथा प्रकाश के प्रति अति संवेदनशील होते हैं।

  4. श्यामपट्ट से लिखते समय साथियों की कापी देखकर लिखवाते हैं।

  5. दूर की वस्तु को देखने के लिए असामान्य रूप से सिर के आगे-पीछे करते हैं।



  1. अन्य इन्द्रियों के प्रयोग सम्बन्धित विशेषताएं —


दृष्टिहीन बच्चे दृष्टि के अतिरिक्त अन्य ज्ञानेन्द्रियों का अधिक उपयोग करते हैं दृष्टिहीन बालक अन्य ज्ञानेन्द्रियों यथा आंख के अतिरिक्त कान, नाक, त्वचा तथा जिह्॒वा का प्रयोग सामान्य दृष्टिवाले से अधिक सजग होकर करते हेक्योंकि वे सूचनाओं तथा वातावरण से सम्पर्क के लिए वे आँख के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर निर्भर रहते हैं।




दृष्टिबाधित बच्चों की पहचान —


जन्म से दृष्टिहीनता की स्थिति सामान्यतः एक वर्ष की आयु के अन्दर ही पहचाना जा सकता है। यह माता-पिता तथा अन्य परिवार के सदस्यों के लिए स्वाभाविक होता है क्योंकि इस स्थिति में नवजात शिशु उनकी तरफ देखता नही है या हिलती हुई वस्तुओं या अन्य वस्तुएं जो बच्चों को आकर्षित करती है। उनके लिए वो किसी प्रकार की किसी प्रतिक्रिया का प्रदर्शन नही करता। बच्चे में अल्पदृष्टि या आंशिक दृष्टि की पहचान से पूर्णतः दृष्टि अभाव से कठिन होता है। प्रायः इन बच्चों की पहचान तब तक नहीं हो पाती जब तक कि ये विद्यालय जाना प्रारम्भ नहीं करते। कई बार इन बच्चों की दृष्टि सम्बन्धी समस्या की पहचान जब तक ये कक्षा 3 या कक्षा 4 में नहीं जाते, जब छापा के अक्षर तथा चित्र छोटे हो जाते हैं तब तक नहीं हो पाता।


दृष्टिबाधिता के औपचारिक पहचान के लिए नेत्र विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है जो कि विविध परिक्षणों के माध्यम से पहचान करता है। जैसे स्नेलेन चार्ट, डेनेवर आई परिक्षण इत्यादि प्रयोग में लाये जाते हैं। जोकि दृष्टितीक्षणता का मापन करते हैं। छोटे बच्चों तथा अनपढ़ लोगों के लिए (Snellen Illiterate) का प्रयोग होता है। यह लगभग 2 वर्ष की अवस्था  से प्रयोग होना प्रारंभ होता है। (Denver Eye Screen Test) उपकरण और अधिक छोटे बच्चों (6 माह तक की उम्र वाले) के नेत्र परीक्षण के लिए उपयोग में लाया जाता है। छोटे बच्चों की नेत्र क्षमता के आंकलन में प्रमुख समस्या यह आती है कि दृष्टिबाधित बच्चों को यह पता नहीं होता कि देखने का तात्पर्य क्या है? दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि वास्तव में वे नही जानते कि जो वह देख रहे है वे ठीक हैं या नही है तथा जो दूसरे सामान्य आँख वाले देख रहे हैं उससे भिन्‍न है या वैसा ही है। माता-पिता तथा प्रारम्भिक विद्यालयी जीवन के अध्यापक की भूमिका इनके शीघ्र पहचान में अति महत्वपूर्ण होती है।


माता-पिता तथा अध्यापक द्वारा अल्पदृष्टि वाले बच्चों या अवशिष्ट दृष्टि वाले बच्चों की पहचान इनके आँखों की वाह्य आकृति, आँखों के प्रयोग के साथ संलग्न शिकायते तथा उनके देखने सम्बन्धी व्यवहारों के अवलोकन के माध्यम से किया जा सकता है। मात्र व्यवहार के आधार पर इनके पहचान सम्बन्धी निर्णय नहीं लिया जा सकता। व्यवहार के साथ आँखों की वाह्य आकृति तथा उनकी दृष्टि सम्बन्धी शिकायतों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। 



राष्ट्रीय दृष्टिहीनता निवारण संस्था (National Society Of The Prevention Of Blindness) नें दृष्टिबाधित बच्चों की व्यवहारिक पहचान के लिए निम्नलिखित लक्षण बताए हैं —



  1. ये बच्चे धुंधलेपन को दूर करने की कोशिश करते हैं और आंखों को बहुत अधिक रगड़ते हैं। इनकी भौहें चढ़ी रहती हैं।


  1. ऐसे बच्चों को पढ़ाते समय कठिनाई होती है तथा ऐसे कार्य करते समय इन्हें भी कठिनाई की अनुभूति होती है। इन्हें अच्छी तरह देखने की अवश्यकता होती है।


  1. ऐसे बच्चे एक आँख को ढक लेते हैं या बन्द कर लेते हैं, तथा नजदीक व दूर की वस्तुओं या पदार्थों को देखते समय या तो वे अपने सिर को झुका लेते हैं या आगे की ओर बढ़ा लेते हैं।


  1. ये बच्चे आँखों को मुलमुलाते (Blinks) रहते हैं। ये प्रायः चिल्लाते हैं और चिड़चिडापन भी रखते हैं, जब भी इन्हें कोई ऐसा कार्य भी करना पड़ता है, जिसमें अच्दी तरह देखने की आवश्यकता पड़ती है।


  1. ये बच्चे अक्सर छोटी वस्तुओं या पदार्थों से ठोकर खाकर लड़खड़ा जाते हैं।


  1. दृष्टिदोष से पीड़ित बच्चे किताब या छोटे पदार्थों को आँख के बहुत नजदीक लाकर पकड़ते हैं तथा देखने का प्रयास करते हैं।


  1. ऐसे बच्चे खेल-खेलने या उसमें भाग लेने में असमर्थ रहते हैं, जिन्हें कुछ दूर तक देखने की आवश्यकता होती है।


  1. दृष्टिदोष से पीड़ित बच्चे तीव्र प्रकाश से घबराते हैं तथा प्रकाश के प्रति तीव्र संवेदशील रहते हैं।


  1. ऐसे बच्चे की पलके लाल, उभरी हुई मोटी या फूली हुई होती है। इनकी आँखों से अक्सर पानी गिरता रहता है।


  1. ऐसे बच्चे प्रायः यह शिकायत करते रहते हैं कि उन्हें ठीक से देखने में कठिनाई होती है। ये सिर दर्द या चक्कर का भी अनुभव करते हैं। ऐसे बच्चों के नजदीक, जब कोई कार्य करना पड़ता है, तो उन्हें किसी वस्तु के दो चित्र (Double Vision) दिखायी देता है।




दृष्टि संबंधी दोष से ग्रसित बालकों की शिक्षा एवं समायोजन

(Adjustment And Education Of Children With Visual Impairments)

 


दृष्टिबाधिता की पहचान के पश्चात्‌ उन्हें उनकी क्षमता, स्तर, अभिरूचि तथा सामंजस्य क्षमता के अनुसार उनके लिए उपलब्ध शैक्षणिक ब्यवस्था में स्थापन किया जाना चाहिए। वर्तमान में उनके लिए निम्न प्रकार शैक्षिक व्यवस्था उपलब्ध है —



  1. विशेष विद्यालय —


इन विद्यालयों में सभी विद्यार्थी दृष्टिबाधिता की श्रेणी वाले होते हैं। साधारणतया ये विद्यालय आवासीय होते हैं। सामान्य शिक्षा ब्यवस्था से अलग यह एक ऐसी शिक्षा ब्यवस्था है, जो विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों की आवश्यकता की पूर्ति कर सके। विशेष विद्यालयों में किसी एक विशेष वर्ग की आवश्यकतानुरूप संसाधन उपलब्ध होते हैं जिसका उद्देश्य बच्चे की समस्त विशिष्ट शैक्षिक उद्देश्यों की पूर्ति सुनिश्चित करना है। इन विद्यालयों में दृष्टिबाधिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित अध्यापक तथा इनके अनुरूप सामग्रियाँ उपलब्ध होती है। ये विद्यालय दृष्टिबाधित बच्चों को उनके परिवार, समुदाय तथा समाज से दूर रखकर पूरी तरह से देखभाल, शिक्षित तथा प्रशिक्षित तो करती है परन्तु इनक सामाजीकरण समाज के मुख्य धारा से अलग रहकर मात्र दृष्टिबाधित बच्चों के साथ होता है तथा इनका अपने उम्र के सामान्य बच्चों से मेल-जोल न होने के कारण इनका उचित विकास बाधित होता है। जबकि शिक्षा सामाजीकरण की प्रक्रिया है तथा इसका उद्देश्य बच्चे को समाज का अभिन्‍न अंग बनाना है अतः वर्तमान में विशेष विद्यालयों के प्राचीन शिक्षा के व्यवस्था साथ ही विशेष शिक्षा का अंतिम स्तर माना जाता है। परन्तु भारत के संदर्भ में आज भी ये विद्यालय प्रासंगिक है क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद अभी विशेष शिक्षा के क्षेत्र में अपेक्षित विकास नही हो पाया। विशेष कर दृष्टिबाधिता से गंभीर रूप से प्रभावित बच्चों को प्रारम्भिक प्रशिक्षण इन विद्यालयों में दिया जा सकता है तथा ये संसाधित विद्यालय के रूप में भी अपना कार्य कर विशेष शिक्षा को अपने देश और अधिक सुदृढ़ कर सकते हैं।


  1. एकीकृत विद्यालय (Integrates School) —


इस ब्यवस्थ में दृष्टिबाधित विद्यार्थियों को सामान्य विद्यालय में, समान्य विद्यार्थियों के साथ शिक्षा का अवसर प्रदान किया जाता है एकीकृत का अर्थ है पृथक लोगों को पुनः इकट्ठा करना। विशेष विद्यालय की सबसे बडी कमी है कि ये विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को समाज से अलग करती है एकीकृत विद्यालय ने दूर करने का प्रयास किया जिसमें अलग किये गये विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों उनके हम उम्र के सामान्य लोगों के निकट लाकर पूर्ण किया गया। एकीकृत शिक्षा ब्यवस्था के अनेक प्रारूप विकसित किये गये जिसके माध्यम से दृष्टिबाधित बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इस व्यवस्था के अन्तर्गत विशेष आवश्यकता वाले बच्चे सामान्य शिक्षा कार्यक्रमों में सम्मिलित तो किया गया परन्तु उन्हें विशेष शिक्षा के विद्यार्थी के रूप में माना गया और इनका प्रतिदिन कुछ समय या बहुत सारे प्रशिक्षण विशेष शिक्षक की देख-रेख में संसाधन कक्ष में बीतता है व शेष समय सामान्य कक्षाओं में। इस व्यवस्था में छात्र की शैक्षिक उपलब्धता में कमी के कारण विद्यार्थी में कमी को माना जाता है। यह व्यवस्था विशेष विद्यार्थियों को अपने यहा स्वीकार तो करती है पर विद्यार्थियों में पायी जाने वाली विविधताओं के अनुरूप विद्यालय के वातावरणीय विशेषताओं का अनुकूलन नहीं करती तथा विद्यालय तथा विद्यालय की गुणवत्ता पर ध्यान दिये बिना विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को विद्यालय में प्रवेश देती है। यदि विशेष विद्यार्थी अपने आप को सामानय शिक्षक तथा विशेष शिक्षक दोनों की सहायता से सामान्य कक्षा में सीखने योग्य हो जाता है तो सीख सकता है। यह व्यवस्था विद्यार्थी स्वयं को विद्यालय तथा समाज के अनुरूप बनाये तथा ढाले इस बात पर अधिक जोर देती है तथा इस बात पर कम की विद्यालय तथा समाज भी अपने में इन विद्यार्थियों के अनुरूप अनुकूलन लाये। यह विशेष विद्यार्थियों को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं और उनके उपचार के परिप्रेक्ष्य में देखती है। विशेष बल विद्यार्थियों की उपस्थिति पर होता है। विद्यालय का वातावरण लचीला नही होता जिसके कारण बहुत कम विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ऐसी गैर-लचीली व्यवस्था की माँगों की पूर्ति कर पाते हैं।





  1. समावेशी विद्यालय  (Inclusive School) —


यह एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था है जो शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, सांवेगिक, भाषायी, लिंगात्मक या अन्य किसी प्रकार के भेदभाव के बिना सभी बच्चों का स्वागत करती है तथा उन्हें समाज की मुख्यधारा में समाहित करने का प्रयास करती है। समवेशी शिक्षा में, सभी प्रकार के बच्चे एक सामान्य विद्यालय की सामान्य कक्षा में सम्मिलित होते हैं। विशेष आवश्यकता वाले बच्चे किसी भी स्थानीय विद्यालय में प्रवेश ले सकते हैं यह उस विद्यालय की जिम्मेदारी है कि उन्हें प्रभावी तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराये तथा विद्यालय के सभी, घटकों, शैक्षिक ढाँचों, प्रणालियों, पाठ्यचर्या तथा पद्धतियों को सभी प्रकार के बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु तैयार करती है। इस स्वीकृति के साथ की सभी बच्चे सीख सकते हैं। यदि कोई बच्चा नही सीख पा रहा हे तो कमी उस बच्चे में नही, शिक्षा व्यवस्था के किसी न किसी घटक में है। यह व्यवस्था बच्चों की उनके सीखने की विधियों तथा गतियों में आपसी भिन्‍नता के बावजूद सभी बच्चों को एक साथ सीखने का अवसर तैयार करती है।


Ryndak & Alper के अनुसार,


समावेशी शिक्षा में हिस्सा लेने से विकलांग छात्र जीवनपर्यन्त विविध एकीकृत कार्यक्रमों का हिस्सा बने रहेगें, इस बात की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। यह वैयक्तिक भिनताओं तथा विविध बौद्धिक क्षमताओं के सम्प्रत्यय पर आधारित है। समावेशी शिक्षा विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रभावी अधिगम पर जोर देती है तथा आज के शिक्षकों के सामने समावेशी शिक्षा व्यवस्था में सफलतापूर्वक कार्य करने (अर्थात सभी विद्यार्थियों की आवश्यकता की पूर्ति चाहे वो सकलांग हो या विकलांग) के लिए तैयार करने की चुनौति खड़ी करती है। 


झा के अनुसार,


समावेशी शिक्षा विद्यालय को इस बात के लिए सही प्रकार से तैयार करती है ताकि वह निकट के बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताओं पर समुचित ध्यान दे सके। यह स्कूल को समाज के अधिक निकट जाती है।




  1. मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था- 


दृष्टिबाधित या किसी भी विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को औपचारिक विद्यालय में शिक्षा न ग्रहण कर पाने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं —


  • विलम्ब से विकलांगता चिन्हित होने कारण देर से विद्यालयी शिक्षा ग्रहण करना

  • औपचारिक विद्यालय की पाठ्यक्रम तथा व्यवस्था का लचीला न होना। 

  • चिकित्सकीय उपचार या शल्य चिकित्सा के फलस्वरूप प्राय: विद्यालय में नियमित रूप से उपस्थित नहीं हो पाना।

  • उपयुक्त वातावरण के अभाव के कारण विद्यालयी परिवेश में सामंजस्य न कर पाना इत्यादि प्रमुख है।


ऐसी स्थिति में मुक्त एवं दुरस्थ शिक्षा व्यवस्था विशेष विद्यार्थियों के लिए बहुत ही लाभकर है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत विद्यार्थी अपने घर रह कर पत्राचार या अन्य सम्प्रेषण साधनों जैसे रेडियों, टी0वी0 कम्प्यूटर आदि की सहायता से अध्ययन करते हैं। यह एक ऐसी लचीली व्यवस्था है जिसका उद्देश्य आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रमों का विकास कर उन्हें उन लोगों तक पहुँचाना है जो किन्ही कारणों से सामान्य विद्यालय की नियमित कक्षाओं में अध्ययन नही कर सकते। मुक्त विश्वविद्यालयों ने विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों की विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इन विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए पाठ्यक्रमों के आयोजन के साथ विकलांग बच्चों के अभिभावकों अथवा देखभाल करने वाले व्यक्तियों के लिए प्रमाणपत्र कार्यक्रमों का भी आयोजन करता है। विद्यालयी स्तर पर राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संस्थान (National Institute Of Open Schooling ) भूमिका अमुख है यह दृष्टिबाधित विद्यार्थियों को ब्रेल में अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराता है तथा इन विद्यार्थियों को ऐसे अध्ययन केन्द्रों से जोड़ती है जहाँ इनके लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध हों।



  1. विशिष्ट पाठ्यक्रम —


ऐसे बालकों के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इनके पाठ्यक्रम में सामान सामग्री के अलावा कुछ अन्य सामग्री को भी रखने की सिफारिश की है। इन लोगों का मत है कि ऐसे छात्रों को कुछ व्यवसायिक शिक्षा जैसे- कुर्सी बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना आदि की भी शिक्षा देनी चाहिए। ताकि उनमें क्रियात्मक कौशल भी ठीक ढंग से विकसित हो सके और वे अपनी दिन प्रति दिन की जिंदगी में समायोजन शीलता को बढ़ा सकें।


  1. विशिष्ट शिक्षण सामग्री —


ऐसे बालकों के लिए किताब के अक्षरों के आकार बड़े-बड़े हो तो इससे उन्हें शिक्षा ग्रहण करने में काफी आसानी होती है और कम समय में ऐसे छात्र अपना कक्षा कार्य एवं गृह कार्य निपटा लेते हैं। साथ ही साथ ऐसे बालकों को मोटे लीड वाली पेंसिल या कलम से लिखने के लिए कहा जाना चाहिए ताकि लिखे गए अक्षरों को वे स्वयं ठीक से पढ़ सके एवं वाक्यों को ठीक ढंग से लिख सके। जहां तक संभव हो ऐसे बालकों को हल्का पीला रंग के कागज पर काला या बैंगनी स्याही या लीड से लिखने की आदत डालनी चाहिए।



  1. विशिष्ट आधुनिक उपकरण —


आजकल ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए कुछ विशेष इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भी विकसित कर लिए गए हैं। जिससे शिक्षकों को कक्षा में ऐसे बालकों को कुछ विशेष शिक्षा देने में काफी मदद मिलती है। इन उपकरणों में क्रेनमर एबाकस (Cranmer Abacus) स्पीच प्लस केलकुलेटर (Speech Plus Calculator) आपटाकोन (Optacon) एवं कुर्जविल रीडिंग मशीन (Kurzweil Reading Machine) प्रधान है। पहले दो तरह के उपकरणों से ऐसे बालकों को गणित से संबंधित कार्य करने में विशेष मदद मिलती है। आपटाकोन (Optacon) या (Optical Tactile Converter) के द्वारा सामान अक्षरों को स्पर्शी कंपनों में बदला जाता है। यह कंपन छात्रों को सामान्य पुस्तकों की सामग्री को पढ़ने में काफी मदद करता है। उसी तरह कुर्जविल रीडिंग मशीन (Kurzweil Reading Machine) एक ऐसा कंप्यूटर है जो 26 सामग्री को बोल बोलकर पढ़कर सुनाता है। इससे भी दृष्टि बाधित बालकों को शिक्षा ग्रहण करने में काफी मदद मिलती है।







 

 दृष्टिबाधित बच्चों के शिक्षा तथा समायोजन  में माता-पिता की भूमिका —


किसी भी बच्चे के जीवन में सामान्य बच्चे जैसे ही होती है। दृष्टिबाधित बच्चे के देखरेख एवं प्रशिक्षण में उसका परिवार विशेषकर माता-पिता सबसे स्थायी तथा प्रभावी निकाय है दृष्टिबाधित बच्चे के देखरेख व प्रशिक्षण में उनकी भूमिका निम्नलिखित है-


  1. माता-पिता द्वारा सबसे अपेक्षित एवं महत्वपूर्ण व्यवहार उनके द्वारा बच्चे की स्वीकार करना है। उनके द्वारा दृष्टिबाधित बच्चे का स्वीकार किया जाना संसार में समानता के अवसर प्राप्त करने का पहला कदम है। कोई भी अधिनियम प्रावधान तथा योजना इनका पुनर्वास नहीं कर सकती यदि विशेष आवश्यकता वाला व्यक्ति को अपने घर में समान अवसर नहीं प्राप्त है। अतः माता-पिता द्वारा बच्चे का स्वीकार किया जाना तथा बच्चे एवं स्वयं के मनः स्थिति को सकारात्मकता प्रदान करना उनका प्रथम तथा सबसे महत्वपूर्ण कार्य है।


  1. घर के वातावरण को दृष्टिबाधित बच्चे के अनुकूल अर्थात बाधारहित बनाना जिससे कि चलिष्णुता का अवसर उन्हें अपने घर से ही मिलना प्रारम्भ हो जाए।


  1. इन बच्चों के अनुरूप खिलौनों तथा उपकरणों को इनके लिए उपलब्ध कराना। परिवार के सदस्य दैनिक क्रिया कौशल में प्रशिक्षण देने के लिए सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।


  1. माता-पिता की बच्चे के शिक्षण-प्रशिक्षण में विद्यालय तथा अध्यापकों का सहयोग करना चाहिए।


  1. माता-पिता को दृष्टिबाधित तथा दृष्टवान दोनों बच्चों के साथ एक समान व्यवहार करना चाहिए। दृष्टिबाधित बच्चों को अतिसंरक्षण न दें यह बच्चों को आत्मनिर्भर बनने में कठिनाई उत्पन्न करेगा तथा उसके दृष्टवान भाई-बहन भी उसे असहाय व अनुपयोगी मानने लगेंगे।


  1. दृष्टिबाधित बच्चे को प्रारम्भ से ही वास्तविक अनुभव देने का प्रायास करें तथा उन्हें सार्वजनिक स्थानों जैसे संग्रहालय, डाकघर, उद्यान, दुकान इत्यादि ले जाना चाहिए इससे उनमें सही प्रत्यय के साथ भाषा के विकास में भी सहायता मिलेगी।


  1. दृष्टिबाधित बच्चों को सरकार द्वारा प्रदत्त सभी रिआयतों, प्रावधानों, तथा अधिकारों की जानकारी रखें, उनके प्रति सजग रहें परन्तु सारी जिम्मेदारी सरकार की है तथा सब कुछ निःशुल्क हो इसकी अपेक्षा न करें।


  1. बच्चे के अन्दर सकारात्मक आत्पप्रत्यय और सामाजिक प्रत्यय कर उसे स्वयं वो जैसे है वैसा स्वीकार करने के लिए उत्साहित करें।


  1. बच्चे से माता-पिता की अपेक्षाएं एवं उम्मीदें वास्तविक होनी चाहिए। ना ही उनकी क्षमता से अधिक की अपेक्षा रखें ना तो कम की।


  1. वर्तमान में दृष्टिबाधित बच्चों की देखरेख एवं प्रशिक्षण हेतु बहुत से केन्द्रों तथा विश्वविद्यालयों द्वारा अभिभावकों तथा देख रेख करने वालों (Caregivers) के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम कार्यक्रम का आयोजन होता है। इस प्रकार के पूरा पाठ्यक्रमों को करने के पश्चात्‌ अधिक दक्षता तथा व्यवस्थित ढंग से उनकी देखरेख की जा सकती है।


  1. अभिभावक-शिक्षक संघ में सक्रिय सहयोग प्रदान करना चाहिए।



दृष्टि बाधित बच्चों के शिक्षा तथा समायोजन में समावेशी विद्यालय की भूमिका —



 वर्तमान में समावेशी विद्यालय को सभी को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्रदान करने में सक्षम व्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है। शिक्षा से वंचित वर्ग को भी शिक्षा व्यवस्था में शमिल करने का एक मात्र उपाय समावेशी शिक्षा है। इस व्यवस्था को विद्यालय स्तर पर सफल बनाने में विद्यालय की प्रमुख भूमिका है। दृष्टिबाधिता के प्रति व्याप्त नकारात्मक अभिवृत्तियों के कारण प्रधानाचार्य को इन विद्यार्थियों को विद्यालयों में प्रवेश देने से मना नही करना चाहिए। इनकी क्षमताओं से परिचित होकर या ऑकलन कर इन बच्चों की विशेष आवश्यकताओं के आधार पर विद्यालय में अनुकूलन कर परिवर्तन लाते हुए शैक्षिक अवसर उपलब्ध कराना चाहिए। विद्यालय प्रशासन का सहयोग इनके अधिगम को सुचारू बनाएगा। समावेशित शिक्षा को विद्यालय में लागू करने हेतु निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए —


विद्यालयी परिवेश में अनुकूलन-परिवेश में इन विद्यार्थियों के अनुरूप अनुकूलन में भौतिक मनोसामाजिक के साथ सांगवेगिक परिवेश के अनुकूलन को भी उचित स्थान मिलना चाहिए जिसका विवरण निम्नवत्‌ है —


भौतिक परिवेश का अनुकूलन-


  1. वातावरण में एक स्थान से दूसरे स्थान को जोड़ने के लिए रस्सी या रेलिंग का प्रयोग करें जिससे की इनके आवागमन को आसान किया जा सके, तथा शारीरिक शिक्षा या सृजनात्मक गतिविधियों हेतु अन्य वातावरणीय अनुकूलन जैसे खेल के मैदान की भी व्यवस्था की जानी चाहिए। अल्पदृष्टि वाले बच्चों की सुविधा के लिए सीढ़ियों तथा रेलिंग के आरम्भ व अन्त में रंग विभेद किया जा सकता है।


  1. कक्षा-कक्ष तथा विद्यालय के अन्य स्थानों पर सूचनाओं को ब्रेल में या बोलते हुए उपकरणों द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए।


  1. विद्यालय परिसर में स्थान भेद के लिए विविध प्रकार के फर्श/टाइल्स का प्रयोग किया जाना चाहिए।


  1. विद्यालय का वातावरण बाधा रहित तथा सम्भावित दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए निरन्तर सचेत रहना चाहिए।



मनो सामाजिक एवं सांवेगिक परिवेश का अनुकूलन -


  1. सभी योजनाओं में दृष्टिबाधित बच्चों को शामिल किया जाना चाहिए]


  1. जहाँ तक सम्भव हो दृष्टिबाधित बच्चों को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए। बच्चों को उनकी क्षमता को पहचानने में सहायता की जानी चाहिए तथा सकारात्मक पक्ष के साथ ही सीमाओं को भी स्वीकार करना सीखाया जाना चाहिए।


  1. बच्चे तनाव मुक्त रहें इसके लिए विविध क्रियाओं जैसे व्यायाम, योग, ध्यान, संगीत इत्यादि की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।


  1. सर्वप्रथम दृष्टिबाधित बच्चे को एक सामान्य विद्यार्थी के रूप में स्वीकार करें जिसमें क्षमताएं तथा अक्षमताएं दोनों है। सामान्य विद्यार्थियों के लिए उन बच्चों को सवीकार करे में प्रतिमान होगा।

  2. विद्यार्थी मे उनकी अभिरूचियों को पहचाने तथा उसे विकसित करने में सहायता की जानी चाहिए।


  1. विद्यार्थी के प्रयासों के लिए उनकी सराहना की जानी चाहिए।


  1. स्वस्थ स्व-प्रत्यय विकास में विद्यार्थी की सहायताकी जानी चाहिए।


  1. सामाजिक कौशलों के विकास की उचित व्यवस्था किया जाना चाहिए।


  1. विद्यार्थियों को स्वतन्त्र शिक्षार्थी बनने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए।


  1. दृष्टिबाधित विद्यार्थियों का परिचय किसी अन्य विद्यार्थी जैसे ही कराएं।


  1. सभी विद्यार्थियों के लिए एक जैसी अनुशासन व्यवस्था होनी चाहिए।


  1. दृष्टिक्षम से सम्बन्धित विषयों पर दृष्टिबाधित विद्यार्थियों एवं सामान्य विद्यार्थियों के बीच चर्चा करने तथा सीखने की आज्ञा दी जानी चाहिए।



 कक्षा  का अनुकूलन —


  1. कक्षा की भौतिक (Layout) तथा दूसरी (Distinguishing Features) इन विद्यार्थियों को‌समावेशित शैक्षिक अवसर प्रदान करने हेतु आवश्यक है।


  1. कक्षा में उनके बैठने का स्थान ऐसी जगह हों जहाँ से वह अपनी अवशिष्ट दृष्टि तथा श्रवण क्षमता का पूरा प्रयोग कर सके प्रायः इन्हें कक्षा केन्द्र में आगे की सीट के बैठाना इनके लिए लाभकारी होता है।


  1. पर्याप्त प्रकाश की उपलग्धता को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।


  1. भली-भांति सुनने में विक्षोभों को कम करने का प्रयास किया जाना चाहिए।


  1. कुर्सी, मेंजो (Furniture) उपकरणों तथा अनुदेशनात्मक सामग्रियों के निर्धारित रखने का स्थान सुनिश्चित करने सभी खतरनाक तथा चोट पहुँचाने वाली वस्तुओं को बच्चों के सम्पर्क से दूर रखना चाहिये।


  1. अपरिचित मेजों, कुर्सियों तथा दूसरे फर्नीचर के इस्तेमाल करते समय सहायता की जानी चाहिए।


  1. कक्षा में दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त स्थान की व्यवस्था करें जिससे उनके द्वारा प्रयोगित उपकरणों जैसे- ब्रेलर, कम्प्यूटर, टेप रिकार्डर, बड़े छापे के अक्षर की पुस्तकें इत्यादि रखी जानी चाहिए।


  1. विद्यार्थियों को इन्हें ऐसे स्थान पर बैठाये जिससे प्रकाश का स्रोत सीधे इनकी आँखों पर ना पड़े या परावर्तित प्रकाश की चमक से उन्हें कोई असुविधा ना हो।


  1. कक्षा-कक्ष का रंग सफेद अथवा बहुत हल्के रंग का होना चाहिए। अलमारी दरवाजे या खिडकियों इत्यादि से प्रकाश टकराकर चमक उत्पन्न न करे इसके लिए इन पर रंगीन कागज लगाया जाना चाहिए।



अनुदेशनात्मक तथा पाठ्यचर्यात्मक अनुकूलन —


  1. विद्यार्थियों के प्रति सकारात्मक रवैया रखना चाहिए।


  1. विद्यार्थियों को उनके नाम से बुलाया जाना चाहिए।


  1. श्यामपट्ट पर जो भी लिखते हैं शिक्षक को उसे पढ़कर बताना चाहिए।


  1. पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियों में अपेक्षित अनुकूलन करना चाहिए।


  1. नियमित अन्तराल पर विश्राम  लें। दृष्टिबाधित बच्चे चूंकि नोट लेने में या अवशिष्ट दृष्टि के प्रयोग में अधिक थकते हैं।


  1. वर्णात्मक मौखिक अनुदेशनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।


  1. मूल्यांकन प्रक्रिया का उचित अनुकूलन होना चाहिए प्रश्नों के उत्त्र देने हेतु बहु-विधि व्यवस्था, जैसे टेपरिकार्डर, टाइपराइटर, ब्रेलए/बेलस्लेट, श्रुतिलेखक इत्यादि विकल्पों की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे दृष्टिबाधित विद्यार्थी अपने लिए उपयुक्त तरीके का चुनावकर सकें। नियमानुसार अतिरिक्त समय प्रदान किया जाना चाहिए। अल्पदृष्टि वाले विद्यार्थियों के लिए मोटे/बडे छापे के अक्षरों वाले प्रश्नपत्र की व्यवस्था होनी चाहिए।


  1. व्याख्यात्मक शब्द जैसे आगे, पीछे, सीधे इत्यादि का प्रयोग इन बच्चों के शरीर के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए।


  1. अधिगम कराते समय विभिन्‍न अनुदेशों को मौखिक तथा स्पर्शीय माध्यम में परिवर्तित करना चाहिए एवं दृष्टि की अवशेष मात्रा को भी दृष्टिगत रखना चाहिए।


  1. दृष्टिवान बच्चों को उत्साहित किया जाना चाहिए कि वे बच्चों की विभिन्‍न क्रियाकलापों में सहायता करें।


  1. अधिगम कराते समय शुरूआत सरल से करें और धीरे-धीरे जटिलता की ओर जाना चाहिए।


  1. दृष्टिबाधित बच्चे के लिए अनुकूलित शारीरिक शिक्षा व खेल प्रशिक्षण की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए।


  1. स्पर्शीय अधिगम के लिए विविध अवसरों का सृजन किया जाना चाहिए।

  2. देखों (See, Look & Watch) जैसे शब्दों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है।


  1. कक्षा में प्रवेश करते तथा छोड़ते समय या दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के पास जाते समय हमेशा सूचित करना/बताना चाहिए।


  1. कक्षा में होने वाली सभी गतिविधियों में बच्चों को शामिल करना चाहिए।


  1. शिक्षण में वैयक्तिकरण, स्थूलता एवं अनुभवों की एकरूपता के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाना चाहिए।


 


 


दृष्टि बाधित बच्चों शिक्षा तथा समायोजन में  शिक्षकों की भूमिका—


किसी शिक्षण अधिगम व्यवस्था को प्रभावकारी बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि होती है। समावेशी शिक्षा में भी शिक्षकों तथा अन्य विशेषज्ञों की भूमिका अहम मानी जाती है। चूकि समावेशन की प्रक्रिया में सामान्य कक्षाध्यापक तथा विशेष आवश्यकताओं की पूति हेतु विशेष अध्यापक की व्यवस्था होती है। अतः हमलोग दोनों की भूमिका को बारी.बारी से जानेंगे।


कक्षाध्यापक की भूमिका —


समावेशी शिक्षा को प्रभावकारी बनाने के लिए कक्षाध्यापक की दृष्टिबाधित बालकों के प्रति अभिवृत्ति गहरा प्रभाव डालती है। समावेशित शिक्षा में कक्षाध्यापक की कुछ महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निम्नलिखित है —


  1. कक्षा में दृष्टिबाधित बालकों को अन्य बालकों के समतुल्य स्वीकार करना।

  2. दृष्टिबाधित बालकों हेतु मूल्यांकन तथा वैयक्तिक शैक्षिक योजना निर्माण सम्बन्धी विशेष दल का हिस्सा बनना।

  3. दृष्टिबाधित बाधित बालकों के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रहना।

  4. बालक के माता-पिता से समय-समय पर सम्पर्क स्थापित करना उनका मार्गदर्शन करना।

  5. वैयक्तिक बाधाओं को ध्यान में रखते हुए अनुदेशन में आवश्यक बदलाव करना।

  6. विकलांगता सम्बन्धी सरकारी योजनाओं, अधिनियमों की समझ रखना, तथा उनके लाभ को दृष्टिबाधित तक पहुचाने में मदद करना।

  7. कक्षा में सभी छात्रों को समान अवसर प्रदान करना।

  8. विशेष आवश्यकता होने पर विशेष शिक्षक की सेवा प्राप्त करना।

  9. अनुदेशन के प्रभावकारी बनाने के लिए विशेष उपकरणों का उपयोग करना।

  10. अन्य बालकों को सहयोग देने तथा सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना।




निष्कर्ष —


इस तरह हम देखते हैं कि उपयुक्त विधियों को अपनाकर दृष्टिबाधित बालकों की शिक्षा दीक्षा अच्छे ढंग से संपन्न की जा सकती है तथा उनका समुचित विकास भी किया जा सकता है जिससे वह समाज तथा देश हित में अपना योगदान करने में अधिक सक्षम हो सकते हैं।



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