माध्यमिक शिक्षा आयोग या मुदालियर कमीशन: (1952-1953) SECONDARY EDUCATION COMMISSION

SECONDARY EDUCATION COMMISSION OR MUDALIAR COMMISSION- (1952-1953) :


प्रस्तावना -

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त विभिन्न स्तरों प्राथमिक, माध्यमिक एवं विश्वविद्यालय-की शिक्षा में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में 'केन्द्रीय शिक्षा कमीशन' (Central Education Commission) ने सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव एवं सिफारिशें प्रस्तुत की थी। किन्तु देश के शिक्षा-विशेषज्ञों ने इस बात का अनुभव किया कि जब तक माध्यमिक शिक्षा में सुधार नहीं किये जायेंगे तब तक विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार सम्भव नहीं है। इस स्थिति को सामने रखते हुये सन् 1948 में केन्द्रीय सलाहाकार बोर्ड' (Central Advisory Board of Education) ने माध्यमिक शिक्षा की जाँच करने के लिए आयोग की नियुक्त करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत किया। सन् 1951 में बोर्ड ने पुनः उक्त प्रस्ताव को बलपूर्वक दोहराते हुए कहा कि माध्यमिक शिक्षा "एकमार्गीय" (Unilateral) हो चुकी है। अतः उसे पुनर्गठन (Reconstruction) की अत्यधिक आवश्यकता है। बोर्ड के इस सुझाव को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 23 दिसम्बर सन् 1952 में माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission) की नियुक्ति की। इस आयोग के अध्यक्ष पद पर मद्रास विश्वविद्यालय के कुलपति (Vice Chancellor) डॉ० ए० लक्ष्मण स्वामी-मुदालियर' (Dr. A. Lakhshman Swami Mudaliar) को नियुक्त किया गया। अतः इस आयोग को मुदालियर कमीशन' (Mudaliar Commission) के नाम से भी पुकारा जाता है इस आयोग के अध्यक्ष सहित 10 सदस्य थे-अध्यक्ष (Chairman) डा० ए० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर, (Secretary) श्री एस०एन० बसु, सचिव (Assistant Secretary) डा० एस०एम०एस० धारी, (Members) श्री जॉन क्रिस्टी, डा0 केनेथ रस्ट विलियम, श्री के०जी० सैयदीन, डा० के०एल० श्रीमाली, श्रीमती हसा मेहता, श्री जे०ए० तारापुरवाला, श्री एम०टी० व्यास। इनके अतिरिक्त आयोग में 17 सहकारी सदस्य (Co-operative Members) और थे।



आयोग का कार्य क्षेत्र एवं रिपोर्ट
(Terms of Reference and Report of the Commission) 


आयोग का कार्य क्षेत्र (Terms of Reference) -


मुदालियर आयोग ने जिन बातों की जाँच की वे निम्नलिखित है-


(1) भारत की तत्कालिन माध्यमिक शिक्षा के वर्तमान स्वरूप की परीक्षा करना और उसके सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रदान करना।

 (2) माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन एवं सुधार (Reconstruction and Improvement) के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करना।

  • (i) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims), संगठन (Organization) एवं विषय-वस्तु (Content) |
  • (ii) माध्यमिक शिक्षा का प्राथमिक (Primary) बेसिक तथा उच्च-शिक्षा (Higher Education) से सम्बन्ध ।
  • (iii) विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का पारस्परिक सम्बन्ध ।
  • (iv) माध्यमिक शिक्षा से सम्बन्धित अन्य समस्यायें।


आयोग की रिपोर्ट 
(Report of the Commission) -


उपर्युक्त विषयों को ध्यान में रखते हुये आयोग ने एक विस्तृत प्रश्नावली' (Questionnaire) तैयार कर उसे विचारार्थ देश के विभिन्न भागों में शिक्षा विशेषज्ञों, शिक्षकों एवं शिक्षा-संस्थाओं के पास भेज दिया। उनसे प्राप्त हुए उत्तरों के आधार पर आयोग ने 14 अध्यायों में विभाजित 244 पृष्ठों की रिपोर्ट तैयार कर उसे 29 अगस्त सन् 1953 को सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया।


आयोग के सुझाव एवं सिफारिशें
(Suggestions and Recommendation of the Commission)


माध्यमिक शिक्षा के दोष 
(Defects of Secondary Education) -


(1) माध्यमिक शिक्षा केवल पुस्तकीय (Bookish) नीरस (Boring), रूढिबद्ध (Stereotyped) है। इसका जीवन से काई सम्बन्ध नहीं है।

(2) माध्यमिक शिक्षा सकुचित (Narrow) और एकमार्गीय (Unilateral) होने के कारण विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास करने में असमर्थ है।

(3) माध्यमिक शिक्षा विद्यार्थियों में सहयोग, चरित्र, अनुशासन तथा नेतृत्व के गुणों का विकास करने में असमर्थ है। यह शिक्षा अमनोवैज्ञानिक (Non Psychological) है क्योंकि उसमे विद्यार्थियो की रुचियो,

(4)अभिरुचियो आदि पर कोई ध्यान नही दिया जाता है। 

(5) शिक्षण परम्परागत (Traditional) होने के कारण विद्यार्थियों को बहुत कम प्रभावित करपाती है।

(6) माध्यमिक शिक्षा में अंग्रेजी भाषा का अत्यधिक प्रभुत्व है। विद्यार्थियों का बहुत अधिक समय इस विदेशी भाषा के सीखने में लग जाता है। अतः वे अन्य विषयों का समुचित ज्ञान प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं।

 (7) कक्षाओं में विद्यार्थियों की संख्या अधिक होने के कारण अध्यापकों का छात्रों से व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता।

(8) परीक्षा-प्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण है।

(9) माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम विद्यार्थियों की रुचियों के अनुकूल न होने के कारण उन्हें भार-स्वरूप प्रतीत होता है।

(10) विद्यार्थियों के समय तालिका (Time Table) में लचीलेपन का अभाव है। इससे विद्यार्थियों तथा अध्यापकों को कार्य की स्वतन्त्रता नहीं रहती है।


(1) माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य 
(Aims of Secondary Education) -


जनतांन्त्रिक राष्ट्र की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य प्रस्तावित किए हैं-


(i) जनतान्त्रिक नागरिकता का विकास 
(Development of Democratic Citizenship) - 

भारत एक स्वतन्त्र तथा जनतान्त्रिक राष्ट्र (Independent Democratic Country) है। माध्यमिक शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों में ऐसे गुणों का विकास करना चाहिए जो भारत के इस नवीन जनतन्त्रवादी वातावरण के अनुकूल हो अर्थात् उन विद्यार्थियो मे जनतान्त्रिक नागारिकता का विकास करना चाहिये। एक जनतान्त्रिक नागरिक में अग्रलिखित गुणो का विकास होना चाहिए (1) विचारों में स्पष्टता तथा स्वच्छता (Clarity of Thoughts), (2) अपनी सांस्कृतिक परम्परा का ज्ञान (Knowledge of its cultural tradition), (3) भाषण में तथा लेखन में स्पष्टता (Clarity of speech and writing), (4) सामूहिक भावना (Collective spirit), (5) सहयोग (Co-operation), (6) सहिष्णुता (Tolerance), (7) सहजगुण सम्पन्नता तथा (8) अनुशासन। इसके अतिरिक्त आयोग विद्यार्थियो मे 'राष्ट्र-प्रेम'' (Patrotism) को जागृत करने पर जोर दिया है। माध्यमिक शिक्षा कमीशन के अनुसार "राष्ट्र-प्रेम" के अन्तर्गत तीन बातों का समावेश होता है (1) छान्न अपने देश की सामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओ की उचित प्रशंसा करें। (2) अपने दोषों को स्वीकार करके उन्हें दूर करने के प्रयास करे और (3) देश के हित के सामने अपने व्यक्तिगत हित को तुच्छ समझे।


(ii) जीवन-यापन के कला में दीक्षा 
(Initiation into the Art of Living)- 

माध्यमिक शिक्षा का दूसरा उद्देश्य-छात्रों को समाज में जीवन-यापन की कला में दीक्षित करना है। यह बात स्पष्ट है कि व्यक्ति न तो अकेला रह सकता है और न अकेला रहकर अपना विकास कर सकता है। अपने उत्तम विकास और समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह दूसरों के साथ रहने और सहयोग के महत्व को समझे। यदि शिक्षा यह प्रशिक्षण नहीं दे पाती तो वह शिक्षा कहलाने की अधिकारिणी नहीं है। जीवन-यापन के कला में प्रशिक्षित करने के लिए बालकों में अनुशासन (Discipline), सहयोग (Co-Operation), सामाजिक संवेदनशीलता (Social Sensitiveness) तथा सहिष्णुता (Tolerance) के गुणों का विकास किया जाय।


(iii) व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास 
(Development of whole Personality)- 

आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा का तीसरा उद्देश्य है विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना। इसके लिए इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था होना चाहिए जिससे विद्यार्थियों का साहित्यिक (Literary), सांस्कृतिक (Cultural) एवं कलात्मक (Artistic) विकास हो सके। जिससे वह सांस्कृतिक विरासत (Cultural Heritage) के महत्व को समझ सके, उसकी वृद्धि कर सके और भारत में राष्ट्रीय सस्कृति के पुनरुथान को सम्भव बना सके। कला, हस्तशिल्प, संगीत, नृत्य और रूचियों (Hobbies) को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त हो।


(iv) व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि 
(Improvement of Vocational Efficiency) - 

विद्यार्थियों में व्यवसायिक कुशलता की वृद्धि करना ताकि वे व्यावहारिक जीवन में प्रवेश कर किसी न किसी व्यवसाय की सुविधापूर्वक सम्पादित करने लगे।


(v) नेतृत्व का विकास 
(Development of Leadership)- 

जनतान्त्रिक प्रणाली की सफलता तभी सम्भव है जबकि देश के नव-युवकों में नेतृत्व के गुणों का विकास हो। अतः माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में योग्य नेतृत्व का विकास करना है।


(vi) सच्चे देश-प्रेम की भावना का विकास 
(Development of a Sense of True Patriotism)- 

सच्चे देश प्रेम मे तीन बातें निहित है (1) देश की सामाजिक और सास्कृतिक उपलब्धियो (Achievement) का मूल्याकन करने की क्षमता, (2) देश की निर्बलताओ की निसंकोच स्वीकृति, (3) अपनी सर्वोत्तम योग्यता के अनुसार उसकी सेवा। अतः छात्रों को ऐसी शिक्षा दी जाय, जिससे उनमें इन तीनों का विकास हो।



(2) माध्यमिक शिक्षा का नवीन संगठनात्मक स्वरूप
(New Organization Pattern of Secondary Education) -


(1) माध्यमिक शिक्षा की अवधि 7 वर्ष होनी चाहिये।

(2) यह शिक्षा 12 वर्ष से लेकर 17 वर्ष तक की आयु के बालकों तथा बालिकाओं को दी जानी चाहिये।

(3) शिक्षा की अवधि का विभाजन निम्नलिखित भागों में होना चाहिए।

  • (i) 3 वर्ष की निम्न माध्यमिक (Junior Secondary) शिक्षा । (6, 7, 8)
  •  (ii) 4 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक (Higher Secondary) शिक्षा। (9, 10, 11, 12)

(4) वर्तमान इण्टरमीडिएट कक्षा को हटाकर उसका एक वर्ष माध्यमिक कक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ दिया जाय तथा एक वर्ष विश्वविद्यालय के डिग्री कोर्स में।

(5) डिग्री कोर्स की अवधि 3 वर्ष कर दी जाय। हाईस्कूल से विश्वविद्यालयों में प्रवेश करने वाले छात्रों के लिए एक वर्ष का पूर्व विश्वविद्यालय' (Pre- University) कोर्स रखा जाय।

(6) बहुउद्देशीय (Multi-purpose) विद्यालयों को स्थापित किया जाय।

(7) पर्याप्त संख्या में प्राविधिक (Polytechnic) तथा तकनीक (Technical) विद्यालय स्थापित किए जाय।

(8) औद्योगिक शिक्षा (Industrial Education) के विकास के लिये बहुत सारे उद्योगो पर 'उद्योग शिक्षा कर' (Industrial Education Cess) लगाया जाय।

(9) छात्रों तथा छात्राओं की शिक्षा में कोई विशेष अन्तर न हो किन्तु छात्राओं के लिए 'गृह विज्ञान' (Domestic Science) के अध्ययन की सुविधा प्रदान की जाय।

(10) ग्रामो में स्थापित माध्यमिक विद्यालयो में कृषि शिक्षा का विशेष प्रबन्ध किया जाय। ग्राम विद्यालयों में पशुपालन (Animal Husbandry), बागवानी (Horticulture) तथा कुटीर उद्योग धन्धों (Cottage Industries) की शिक्षा का भी प्रबन्ध किया जाय।

(11) माध्यमिक शिक्षा की प्रत्येक योजना में प्रत्येक राज्य में निवास विद्यालयों (Residential Schools) की व्यवस्था की जाय।

(12) प्रत्येक राज्य में कुछ ऐसे विद्यालयो की स्थापना की जाय जहाँ पर नेत्रहीन (Blind) व मूक-बधिर (deaf-mute) बच्चों (Handicapped Children) की शिक्षा का प्रबन्ध हो।


(3) भाषाओं का अध्ययन (Study of Language) -


(1) सविधान में हिन्दी को राज भाषा का स्थान दिया जाय ।

(2) जो लोग हिन्दी नहीं पढ़ेगे, उन्हें सरकारी नौकरियाँ नहीं मिल सकेगी।

(3) अंग्रेजी को माध्यमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम से निकाल देगें, तो इसका परिणाम हानिकारक सिद्ध होगा।

(4) अंग्रेजी और हिन्दी की शिक्षा जूनियर बेसिक स्तर के बाद दी जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाय की एक ही वर्ष में दोनों भाषाओं की शिक्षा प्रारम्भ न कर दी जाय।

 (5) माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में संस्कृत को सम्मिलित करना आवश्यक है।

(6) माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम मातृ भाषा या प्रादेशिक भाषा' (Regional Language) होनी चाहिए।

(7) माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक विद्यार्थी को कम से कम दो भाषाओं की शिक्षा प्रदान की जाय। इनमें से एक मातृ भाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए।


(4) माध्यमिक विद्यालयों का पाठ्यक्रम 
(Secondary Schools) -


(1) पाठ्यक्रम का सामाजिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए।

(2) पाठ्यक्रम इस प्रकार का होना चाहिये जो विद्यार्थियों को भिन्न-भिन्न अनुभव में एकता स्थापित कर सकें।

(3) पाठ्यक्रम में लचीलापन तथा विविधता होना चाहिये जिससे कि उसको विद्यार्थियों की आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों के अनुकूल बनाया जा सके।

(4) पाठ्यक्रम में जिन विषयों को स्थान दिया जाय वे एक दूसरे से सम्बन्धित होना चाहिए। जिससे कि उन्हें समन्वित रूप से पढ़ाया जा सकें।

(5) पाठ्यक्रम में इस प्रकार की मनोरंजन क्रियाओ का समावेश होना चाहिए जिनके द्वारा विद्यार्थी अपने अवकाश के समय का दुरुपयोग न कर सके।


(5) पाठ्य-पुस्तकें (Test Books) -


पाठ्य-पुस्तकों के सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

(1) पाठ्य-पुस्तकों के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए एक उच्च-पुस्तक समिति' (High Power Text Book Committee) का निर्माण किया जाय।

(2) किसी भी विषय की एक पाठ्य-पुस्तक की जगह 3-4 अच्छी पाठ्य-पुस्तकों का प्रकाशन किया जाए। जिनमें से विद्यालय एक पुस्तक का चयन करें।

(3) यह समिति कागज, मुद्रण छपाई (Typography), चिन्त्रो आदि के सम्बन्ध मे निश्चित सिद्धान्त प्रतिपादित करें।

(4) कोई भी विषय क्यों न हो सबके लिए पर्याप्त संख्या में पुस्तकें निश्चित की जाँय ।

(5) पाठ्य पुस्तकों का परिवर्तन करने में शीघ्रता न की जाय।


(6) शिक्षण की गतिशील विधियाँ 
(Dynamic Method of Teaching) -


(1) समस्त विषयों के शिक्षण में विद्यार्थियों के आत्म अभिव्यक्ति (Self expression) के कार्य पर विशेष रूप से बल देना चाहिए।

(2) शिक्षण में सामूहिक रूप से कार्य करने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करना चाहिए।

(3) शिक्षण के समय दृश्य-श्रव्य साधनों का उपर्युक्त रूप से प्रयोग करना चाहिए।

(4) शिक्षा में क्रिया-पद्धति (Activity Method) तथा योजना पद्धति (Project Method) पर विशेष बल देना चाहिए।

(5) शिक्षण विधियो का उद्देश्य न केवल कुशलतापूर्वक ज्ञान प्रदान करना होना चाहिए बल्कि इनके द्वारा विद्यार्थियों में उपर्युक्त मूल्यों (Desirable Values) उचित दृष्टिकोण (Proper Attitudes) एवं कार्य करने की आदत्तों का विकास करना भी होना चाहिए।


(7) चरित्र-निर्माण तथा अनुशासन की शिक्षा 
(Education of Character and Discipline)-


(1) शिक्षकों का यह उदरदायित्व है कि वे विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में सहायता प्रदान करे। विद्यालय की सभी क्रियायें इस प्रकार हों कि विद्यार्थियों को चरित्र निर्माण की शिक्षा प्राप्त हो।

(2) विद्यार्थियों में अनुशासन की भावना का विकास करने के लिए शिक्षक तथा विद्यार्थियों में गहरा सम्बन्ध स्थापित किया जाय।

(3) विद्यार्थियों में सामूहिक खेलों तथा 'पाठान्तर क्रियाओं' (Extra-curricular or Co- Curricular Activities) को प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए।

(4) विद्यार्थियों के विभिन्न कार्यक्रमों के संचालन के लिए स्वशासन' (Self- Government) पद्धत्ति का अनुपालन किया जाय।

(5) विद्यार्थियो में स्काउटिंग, एन०सी०सी० फर्स्टएड एव जूनियर रेडकॉस को प्रोत्साहन देना चाहिए।


(8) धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा 
(Religious and Moral Education) -


आयोग के अनुसार विद्यार्थियों को चारित्रिक विकास में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा का बड़ा महत्व है। इस सम्बन्ध में उसने निम्नलिखित सुझाव प्रदान किये हैं-


(1) धार्मिक शिक्षा शिक्षालयों में प्रदान की जा सकती है।

(2) धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा विद्यालय के अध्ययन के समय न दी जाकर उससे पूर्व या उसके उपरान्त दी जाय।

(3) इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी विद्यार्थी को बाध्य न किया जाय।


(9) परामर्श एवं निर्देशन 
(Guidance and Counseling) -


शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् समाज तथा स्वयं विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी रुचियों, क्षमताओं और व्यवसाय के ज्ञान के अनुसार कोई न कोई व्यवसाय ग्रहण कर सके। इसके लिए आवश्यक है कि माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों को समुचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रदान किये है


(1) शिक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों को चाहिए कि वे विद्यार्थियों के लिए 'शैक्षणिक मार्गदर्शन' (Educational Guidance) की व्यवस्था करे।

(2) छात्रों को विभिन्न उद्यागो तथा व्यवसायो (business) के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान की जाय और इन्हें समय-समय में कारखाने में ले जाया जाय।

(3) विद्यालयों में प्रशिक्षण जीविकोपार्जन शिक्षक (Career Master) तथा मार्गदर्शन अधिकारियों (Guidance Officers) की नियुक्ति की जाय।

(4) इन अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिये केन्द्रीय सरकार व्यवस्था करें।



(10) शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षण 
(Physical and Health Education) -


आयोग ने विद्यार्थियों के शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षण के सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझाव दिये हैं-


(1) समय समय पर छात्रों की पूर्णरूप से स्वास्थ्य परीक्षा की जाय।

(2) प्रत्येक राज्य में शिक्षालय स्वास्थ्य सेवा' (School Medical Service) को संगठित्त किया जाय।

(3) सभी रोगी विद्यार्थियो की 'विद्यालय स्वास्थ्य अधिकारियो' (School health Officer) द्वारा चिकित्सा कराई जाय।

(4) निवास विद्यालयों (Residential Schools) एवं छात्रावासों (Hostels) में पौष्टिक तथा संतुलित आहार की व्यवस्था की जाय।

(5) छात्रों की विभिन्न शारीरिक क्रियाओं का पूरा-पूरा लेखा-जोखा (Record) रखा जाय।



(11) परीक्षा और मूल्यांकन 
(Examination and Evaluations) -


(1) वाह्य परीक्षाओं' (External Examination) की संख्याओं में कमी कर दी जाय।

(2) निबन्धात्मक परीक्षाओं (Essay Type Examination) में सुधार किये जाए, विचार प्रधान प्रश्न पूछे जाय (Though provoking question), और वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं (Objective Type Examination) का भी प्रयोग किया जाए।

(3) अन्तिम मूल्यांकन (Summative Evaluation) के समय 'आन्तरिक परीक्षाओं (Internal Examination) के अतिरिक्त नियत कालीन परीक्षा' (Periodical Tests) तथा विद्यालय अभिलेख (School Records) पर उचित ध्यान दिया जाय।

(4) आन्तरिक (Internal) तथा वाह्य परीक्षाओं (External Examination) में छात्रों के कार्य का मूल्यांकन अंकों (Evaluation Numbers) में न किया जाय बल्कि प्रतीकात्मक' (Symbolic) रूप ग्रेड (Grade) में किया जाय। इसके लिए आयोग ने पाँच बिन्दु मापदण्ड (Five point scale) का सुझाव दिया है।

(5) वाह्य परीक्षा में किसी एक विषय में अनुत्तीर्ण छात्रों के लिए पूरक परीक्षा (Compart Mental Examination) परीक्षा की व्यवस्था की जाए।



[12] विद्यालय भवन (School Building) -


(1) ग्रामीण क्षेत्रों में माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना ऐसे स्थानों पर की जाय, जहाँ ( आस-पास के गाँवों के बालक सरलता से जा सकें।

(2) शहरी क्षेत्रों में विद्यालय ऐसे स्थानों पर स्थापित किये जाय जहाँ शोरगुल और भीड़भाड़ न हो।

(3) भवन में प्रकाश (Light) तथा वायु (air) का विशेष ध्यान रखा जाय।

(4) पाठशालाओं की साज-सज्जा' आधुनिक ढंग की रखी जाय।

(5) पाठशाला के कमरे इतने बड़े हो कि कम से कम 30 छात्र और अधिक से अधिक 40 छात्र बैठ सके।

(6) सब विद्यालयों में सहकारी भण्डारों (Co-operative stores) की स्थापना की जाय, जहाँ छान्त्रों को आवश्यक सामग्री-कापी, पेन्सिल, पुस्तकें आदि उचित मूल्य पर बेची जाय।



(13) कार्य के घण्टे और छुट्टियाँ 
(Hours of work & Vacations) -


(1) विद्यालयों में कार्य करने के घण्टों को निश्चित करते समय स्थानीय परिस्थितियों, व्यवसायिक दशाओं और मौसम आदि को ध्यान में रखा जाय। इस सम्बन्ध में विद्यालय के अधिकारियों को पर्याप्त स्वतंत्रता दी जाय।

(2) विद्यालयों में एक वर्ष में कम से कम 200 दिन और सप्ताह में कम से कम 35 घण्टे (Periods) अध्यापन कार्य किया जाय। घण्टे की अवधि 45 मिनट की रखी जाय।

(3) विद्यालय सप्ताह में 6 दिन तक लगातार खोले जाय। इनमें से एक दिन आधे समय तक पढ़ाई की जाय और शेष समय में शिक्षको एवं छात्रों द्वारा एक साथ मिलकर अतिरिक्त पाठ्य क्रियाओ (Extra Curricular Activities) का आयोजन किया जाय।

(4) सामान्य रूप से गर्मियों में दो माह की छुट्टी दी जाय। इसके अतिरिक्त एक वर्ष में दो बार उपयुक्त अवसरों पर 10 से 15 दिन की छुट्टियाँ दी जाए।


(14) अध्यापक प्रशिक्षण (Teacher Training) -


(1) सम्पूर्ण देश में अध्यापकों का 'चुनाव' तथा नियुक्ति' (Selection & appointment) एक समान होनी चाहिये।


(2) अध्यापकों को पर्याप्त वेतन नहीं प्राप्त होता है। अतः विशिष्ट समितियों (Special committee) की नियुक्ति की जाय जो इस बात का सुझाव दे कि वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अध्यापकों को कितना वेतन दिया जाना चाहिए ।।


(3) अध्यापकों को अपनी एवं आश्रित सम्बन्धियों की चिन्ताओं से मुक्त रखने के लिये पेन्शन (Pension), प्रॉवीडेन्ट फण्ड (Provident fund) तथा जीवन बीमा (Life Insurance) की सुविधायें दी जानी चाहिए।


(4) प्रशिक्षण विद्यालयों में छात्राध्यापको को निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा दी जाय, उन्हे विद्यालय के समीप निवास स्थान की सुविधा दी जाय और चिकित्सालयों में मुफ्त इलाज की सुविधा दी जाय।


(5) समय-समय पर 'अभिनव पाठ्यक्रमों' (Refresher Courses) तथा लघु गहन पाठ्यक्रमों (Short Intensive Courses) ओर कार्यशाला में व्यवहारिक प्रशिक्षण (Practical Training in Workshops) की व्यवस्था की जाय।


(15) वित्त-व्यवस्था (Finance) -


(1) माध्यमिक शिक्षा के सुधार और पुर्नसंगठन के लिए केन्द्र और राज्यों में घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित किया जाय।

(2) व्यवसायिक शिक्षा (Vocational Education) की उन्नति के लिए केन्द्रीय स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा परिषद् (Board of Vocational Education) का निर्माण किया जाय, जिसमें सम्बन्धित मंत्रालयों और दूसरे व्यवसायों के प्रतिनिधि हो।

(3) माध्यमिक शिक्षा के विकास के लिए दिये जाने वाले धन पर आयकर न लगाया जाय।

(4) शिक्षा संस्थाओं से सम्बन्धित सम्पत्तियो को सम्पत्ति कर से मुक्त किया जाय।

(5) केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों द्वारा जहाँ सम्भव हो वहाँ स्कूलों को खेल के मैदान, कृषि के फार्म, इमारतें आदि मुफ्त दी जाय।

(6) धार्मिक सस्थानों (Religious Institution) और खैरातखानो (Charity) के बचे हुए धन को माध्यमिक शिक्षा पर व्यय किया जाय।


******


निष्कर्ष :


आयोग के मुख्य उद्देश्य -

  • माध्यमिक शिक्षा प्रणाली का मूल्यांकन करना
  • इसमें सुधार के लिए सिफारिशें देना
  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप इसे बनाना



आयोग की प्रमुख सिफारिशें -

  • 10+2 शिक्षा प्रणाली का शुभारंभ
  • व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा देना
  • पाठ्यक्रम में विविधता लाना
  • शिक्षकों की प्रशिक्षण व्यवस्था में सुधार
  • कक्षा 10वीं में बोर्ड परीक्षा



आयोग के प्रभाव -

  • भारत में माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में क्रांतिकारी बदलाव
  • शिक्षा का लोकतंत्रीकरण

  • शिक्षा में गुणवत्ता में सुधार


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