शिक्षा और संस्कृति की अवधारणा (Concept of Education and Culture)

 प्रस्तावना -

संस्कृति और शिक्षा एक-दूसरे के पर्याय हैं। संस्कृति का काम है- संस्करण अर्थात् परिष्कार करना। यही काम शिक्षा भी करती है। समाज की रचना में भी संस्कृति का विशेष योग रहता है। किसी भी सामाजिक संरचना को समझने के लिए संस्कृति एक आवश्यक तत्व है। संस्कृति समाज को संगठित रखती है। जीवन शैली के स्वरूप को प्रस्तुत करने का कार्य संस्कृति करती है। संस्कृति शब्द की व्युत्पत्ति सम् उपसर्ग कृ-धातु स्तिन प्रत्यय से हुई है। इसमें जीवन के सभी पक्षों का समन्वय है।


राल्फ लिंटन के अनुसार- 

“संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों तथा उनके परिणामों का वह समग्र रूप है, जिसके निर्माणकारी तत्व किसी विशिष्ट समाज के सदस्यों द्वारा प्रयुक्त और संचरित होते हैं।"

संस्कृति का सम्पूर्ण जीवन शैली से सम्बन्ध होता है। सभ्यता संस्कृति का भौतिक पक्ष है। भौतिक तथा अभौतिक है संस्कृति को क्रमशः सभ्यता तथा संस्कृति कहा जाता है।



संस्कृति का अर्थ (Meaning of Culture) -

संस्कृत भाषा में "सम्" उपसर्ग पूर्वक ‘कृ’ धातु में "ति" प्रत्यय के योग से संस्कृति शब्द उत्पन्न होता है। संस्कृति = सम + कृति अर्थात "अच्छी प्रकार से सोच समझकर किये गए कार्य"। व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृति शब्द ‘परिष्कृत कार्य’ अथवा उत्तम स्थिति का बोध कराता है, किन्तु इस शब्द का भावार्थ अत्यन्त व्यापक है। अंग्रेजी में वस्तुत: संस्कृति के लिए (Culture) शब्द का प्रयोग किया जाता है। वस्तुत: संस्कृति शब्द मनुष्य की सहज प्रवृत्ति, नैसर्गिक शक्तियों और उनके परिष्कार का द्योतक है। किसी देश की संस्कृति अपने को विचार, धर्म, दर्शन काव्य संगीत, नृत्य कला आदि के रूप में अभिव्यक्त करती है। मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग करके इन क्षेत्रों में जो सृजन करता है और अपने सामूहिक जीवन को हितकर तथा सुखी बनाने हेतु जिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रथाओं को विकसित करता है उन सब का समावेश ही हम ‘संस्कृति’ में पाते हैं। इससे स्पष्ट होता है संस्कृति की प्रक्रिया एक साथ ही आदर्श को वास्तविक तथा वास्तविक को आदर्श बनाने की प्रक्रिया है।




संस्कृति की परिभाषा 
(Definition of Culture) -

संस्कृति समाज का मानव को श्रेष्ठतम वरदान है संस्कृति का अर्थ उस सब कुछ से होता है, जिसे मानव अपने सामाजिक जीवन में सीखता है या समझ पाता है. संस्कृति की कतिपय परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-

 

ओटावे (Ottaway) के अनुसार- 

"किसी समाज की संस्कृति का अर्थ समाज के संपूर्ण जीवन पद्धति से होता है"
"The culture of society means the total way of life of a society."



टायलर (Tylor) के अनुसार- 

"संस्कृति बहुत जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है, जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है



मैकाइवर (MacIver) के अनुसार- 

"संस्कृति हमारे जीवन के दैनिक व्यवहारों, कला, साहित्य, धर्म, मनोरंजन व आमोद-प्रमोद, रहन-सहन और विचार की विधियों में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है"



मैकआइवर एवं पेज ने कहा भी है- 

“हम जो हैं, वह संस्कृति है, हम जो इस्तेमाल करते हैं वह हमारी सभ्यता है।”



क्यूबर (Cuber) के अनुसार- 

"मानव विज्ञान के शब्दों में संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों और सिखे हुए व्यवहारों के परिणाम के सतत परिवर्तनशील रुप को कहते हैं. इन सीखे व्यवहारों में अभिवृत्ति, आदर्श, ज्ञान एवं भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं. जिन्हें समाज के सदस्य परस्पर एक दूसरे को प्रदान कर देते हैं"



महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के अनुसार- 

"संस्कृति नींव है, प्रारंभिक वस्तु है, तुम्हारे सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्यवहारों से इसे प्रकट होना चाहिए"



सदरलैण्ड एवं वुडवर्थ- 

संस्कृति में वह प्रत्येक वस्तु सम्मिलित होती है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती है। किसी जन समुदाय की संस्कृति उसकी विरासत होती है। संस्कृति, व्यक्ति तथा समाज के व्यवहारों का समग्र रूप है। समाज के नवीन सदस्य इसी समग्रता के कारण ही समाज के पूर्व प्रचलित व्यवहार को सीखते हैं। 


प्रत्येक समाज ने अपनी-अपनी भाषाएं विकसित की हैं, अपने-अपने रहन-सहन एवं खानपान की विधियाँ, व्यवहार प्रतिमान, रीति-रिवाज, भाषा-साहित्य, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्य विकसित किए हुए हैं और यह एक-दूसरे से भिन्न हैं और यही इनकी अपनी अलग पहचान है. तब संस्कृति को निम्लिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए


"किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उस समाज के व्यक्तियों के रहन-सहन एवं खानपान की विधियों, व्यवहार, प्रतिमानों, आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूलों के उस विशिष्ट रूप से होता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं
"

सभ्यता और संस्कृति 
(Civilization and Culture) -

सभ्यता और संस्कृति सर्वथा एक ही नहीं है लेकिन दोनों का अंतर इस प्रकार है कि बहुदा पर्यायवाची माने जाते हैं. प्रकृति ने हमको जो कुछ दिया है उसे काम में लेकर मनुष्य ने जो अधिभौतिक प्रगति की है उसको हम सभ्यता (Civilization) कहते हैं तथा बुद्धि का प्रयोग कर मनुष्य जो सर्जन करता है वह संस्कृति (Culture) है. संस्कृति का संबंध अतरंग से है और सभ्यता का बहिरंग से. संस्कृति आत्मा है और सभ्यता देह. संस्कृति आध्यात्मिक स्तर है और सभ्यता अधिभौतिक. संस्कृति का विकास निसर्ग द्वारा ना होकर मानव के द्वारा होता है अतः संस्कृति नैसर्गिक वस्तु ना होकर मानवकृत कृत्रिम चीज है. संस्कृति एक व्यक्ति के उद्योग का फल ना होकर सामूहिक फल है. सभ्यता और संस्कृति को निम्न  प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • सभ्यता का मूल्य निर्धारण किया जा सकता है लेकिन संस्कृति का नही।
  • सभ्यता की उन्नति दिखाई देती है लेकिन संस्कृति की नही।
  • सभ्यता में विस्तार की गति तीव्र होती है लेकिन संस्कृति के संबंध में बात नहीं कही जा सकती ।
  • सभ्यता को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी द्वारा आसानी से अपनाया जाता है लेकिन संस्कृति को नही।


 

संस्कृति के प्रकार
(Form of culture) —

(1) भौतिक संस्कृति:- भौतिक संस्कृति के अंतर्गत संस्कृति का बाह्य रूप सम्मिलित होता है. समाज के व्यक्तियों की वेशभूषा, खान-पान, उद्योग-व्यवसाय, धन-संपत्ति आदि भौतिक संस्कृति के अंग होते हैं 

(2) अभौतिक संस्कृति:- अभौतिक संस्कृति का संबंध व्यक्ति के विचारों, विश्वासों, मूल्यों, धर्म, भाषा, साहित्य आदि से होता है. इस प्रकार भौतिक संस्कृति में मूर्त वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं जबकि अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती हैं 



संस्कृति की प्रकृति एवं विशेषताएं
(Nature and Characteristics of Culture)-

यद्यपि सैद्धांतिक रूप में संस्कृति के संप्रत्यय के संबंध में सभी विद्वान एकमत नहीं है परंतु उसके व्यावहारिक पक्ष के संबंध में सब एकमत हैं यहां हम उसी को उसकी प्रकृति एवं विशेषताओं के रूप में प्रस्तुत करेंगे-

  • संस्कृति मानव की विशेषता है
  • संस्कृति मानव समाज के युग-युग की साधना का परिणाम है
  • संस्कृति, सांस्कृतिक तत्वों का एक विशेष संगठन है
  • भिन्न-भिन्न समाजों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियाँ होती हैं
  • संस्कृति समाज विशेष के लिए आदर्श होती है
  • संस्कृति समाज के व्यक्तियों को एक सूत्र में बांधती है
  • संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करती है
  • संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती है
  • संस्कृति परिवर्तन एवं विकासशील होती है
  • संस्कृति के प्रति प्रतिमान शिक्षात्मक होते हैं
  • संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता हैं


संस्कृति का महत्त्व (Importance of Culture) -

संस्कृति के महत्व को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

(1). जीवन यापन की कला सीखने में सहायक- संस्कृति व्यक्ति के जीवन संघर्षों को कम करती है और उसमें वातावरण के प्रति समायोजित होने की क्षमता प्रदान करती है और इस प्रकार व्यक्ति सुख पूर्वक जीवन यापन करने में सफल होता है 

(2). सामाजिक व्यवहार की दिशा निर्धारित करने में सहायक-  अपनी संस्कृति से परिचित होने के उपरांत व्यक्ति सामाजिक आदर्शों, मान्यताओं, परंपराओं, मूल्यों, आदर्शों के अनुसार कार्य करना प्रारंभ कर देता है और इस प्रकार वह संस्कृति से सामाजिक व्यवहार करने की दिशा ग्रहण करता है 

(3). व्यक्तित्व निर्माण में सहायक-  बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे उसके समाज का क्षेत्र व्यापक होता जाता है. वह पहले परिवार, फिर पडोस, फिर गांव, नगर, प्रदेश, देश और विश्व के संपर्क में आता है. संपर्क बढ़ने के साथ-साथ उसे विशिष्ट अनुभव प्राप्त होते हैं जिन्हें वह अपने जीवन का अंग बना लेता है. यह अनुभव उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालते हैं और इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है 


(4). समाजीकरण में सहायक- एक समाज की संस्कृति उसके आचार-विचारों, व्यवहारों, मान्यताओं, परंपराओं और विश्वासों में निहित होती है जो समाजीकरण के भी आधार होते हैं. इस प्रकार संस्कृति व्यक्ति को सामाजिकृत करती है।


(5). अनुकूलन करने में सहायक-
भौगोलिक दशाएं, समाज की रचना आदि संस्कृति के निर्माण में बहुत योग देती हैं. व्यक्ति अपने सुख के लिए प्रकृति को अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करता है और इस प्रकार उसे इस वातावरण से अपने को व्यवस्थित करने में संस्कृति से बहुत सहायता मिलती है.

(6). राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में सहायक-  सांस्कृतिक एकता राष्ट्रीय एकता स्थापित करने में बहुत सहायक होती है. एक संस्कृति वाले समाज के सदस्य अपनी परंपराओं, विश्वासों, मूल्यों और आदर्शों आदि पर बहुत आस्था रखते हैं, उनसे उनका लगाव होता है और उनकी रक्षा करने तथा प्रचार और प्रसार करने में संलग्न में रहते हैं इससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है.


(7). राष्ट्रभाषा का स्वरूप निर्धारित करने में सहायक- संस्कृति का आधार भाषा होती है. मुस्लिम काल में इस्लामी संस्कृति के विकास के लिए अरबी, फारसी और उर्दू को महत्व दिया गया. उर्दू को काम-काज की भाषा बनाया गया अंग्रेजों द्वारा पाश्चात्य संस्कृति के विकास के लिए अंग्रेजी को प्रोत्साहन दिया गया. स्वतंत्र भारत में भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है.


(8). नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों के प्रति निष्ठावान बनाने में सहायक- नई पीढ़ी के सदस्य अपने संस्कृति के विकास का अध्ययन करने के बाद यह जान जाते हैं की उनकी संस्कृति के विकास में उनके पूर्वजों ने क्या योगदान दिया है. इससे अपने पूर्वजों के प्रति उनके मन में श्रद्धा और निष्ठा पैदा होती है और वे पुरानी पीढ़ी द्वारा सौंपी गई विरासत को सुरक्षित रखते हैं तथा नई पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं



सांस्कृतिक विलम्बन 
(Cultural Lag) —

सांस्कृतिक विलम्बन (Cultural Lag) एक सामाजिक अवधारणा है जो संस्कृति के विभिन्न पहलुओं में बदलाव की असमान गति का वर्णन करती है। यह तब होता है जब एक पहलू, जैसे कि तकनीकी विकास, तेजी से बदलता है, जबकि अन्य पहलू, जैसे कि सामाजिक मानदंड और मूल्य, धीरे-धीरे बदलते हैं।

सांस्कृतिक विलम्बन के कुछ उदाहरण हैं:

  • तकनीकी विकास और सामाजिक मानदंड: सोशल मीडिया और इंटरनेट जैसे तकनीकी विकास तेजी से हुए हैं, लेकिन सामाजिक मानदंड और मूल्य इन परिवर्तनों के साथ तालमेल बिठाने में धीमे रहे हैं।

  • वैश्वीकरण और सांस्कृतिक पहचान: वैश्वीकरण ने विभिन्न संस्कृतियों को एक दूसरे के करीब ला दिया है, लेकिन इसने सांस्कृतिक पहचान को लेकर भी चिंता पैदा कर दी है।

  • पर्यावरणीय परिवर्तन और सामाजिक व्यवहार: जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय परिवर्तनों के लिए सामाजिक व्यवहार और नीति में तेजी से बदलाव की आवश्यकता है, लेकिन यह धीरे-धीरे हो रहा है।


सांस्कृतिक विलम्बन कई तरह की समस्याएं पैदा कर सकता है, जैसे:

  • सामाजिक तनाव: जब सामाजिक मानदंड और मूल्य तेजी से बदलते हैं, तो यह सामाजिक तनाव और संघर्ष पैदा कर सकता है।

  • सांस्कृतिक टकराव: जब विभिन्न संस्कृतियां एक दूसरे के संपर्क में आती हैं, तो यह सांस्कृतिक टकराव पैदा कर सकता है।

  • अनुकूलन में कठिनाई: जब लोग तेजी से बदलते परिवेश के अनुकूल नहीं होते हैं, तो यह उन्हें हाशिए पर धकेल सकता है।
शिक्षा सांस्कृतिक विलम्बन को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह लोगों को विभिन्न संस्कृतियों, सामाजिक परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियों के बारे में शिक्षित कर सकती है। शिक्षा लोगों को महत्वपूर्ण सोच, समस्या समाधान और अनुकूलन कौशल भी प्रदान कर सकती है।

सांस्कृतिक विलम्बन से निपटने के लिए कुछ रणनीतियाँ:

  • शिक्षा और जागरूकता: लोगों को सांस्कृतिक विलम्बन की अवधारणा और इसके प्रभावों के बारे में शिक्षित करना।

  • संवाद और समझ: विभिन्न संस्कृतियों और सामाजिक समूहों के बीच संवाद और समझ को बढ़ावा देना।

  • नीति और प्रथाओं में बदलाव: सामाजिक परिवर्तन और पर्यावरणीय चुनौतियों के अनुकूल नीति और प्रथाओं को विकसित करना।

सांस्कृतिक विलम्बन एक जटिल अवधारणा है जो कई तरह की समस्याएं पैदा कर सकती है। शिक्षा और अन्य रणनीतियों के माध्यम से, हम सांस्कृतिक विलम्बन के प्रभावों को कम करने और एक अधिक न्यायपूर्ण और टिकाऊ समाज बनाने के लिए काम कर सकते हैं।


शिक्षा एवं संस्कृति
(Education and Culture) -

शिक्षा और संस्कृति परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं,
इस संबंध में ब्रामेल्ड (Brameld) कहते हैं -

"संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और यही सामग्री शिक्षा को न केवल उसके स्वयं के उपकरण वरन उसके अस्तित्व का कारण भी प्रदान करती है"

शिक्षा अपने रूप-रेखा का निर्माण समाज की संस्कृति के अनुसार ही करती है और संस्कृति का निर्माण समाज के उपकरणों, विचार और मूल्यों के आधार पर ही होता है. यदि किसी समाज की संस्कृति में आध्यात्मिकता का प्रमुख स्थान है तो वहां की शिक्षा व्यवस्था में नैतिकता चारित्रिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर विशेष बल दिया जाता है. इसके साथ-साथ किसी समाज की संस्कृति का संरक्षण समाज के माध्यम से ही होता है. इस प्रकार संस्कृति शिक्षा को और शिक्षा संस्कृति को प्रभावित करते हैं-



संस्कृति का शिक्षा पर प्रभाव 
(Impact of Culture on Education) -

आज किसी भी समाज की शिक्षा उसके धर्म-दर्शन, उसके स्वरूप, उसके शासनतंत्र, उसकी अर्थव्यवस्था, मनोवैज्ञानिक खोजों और वैज्ञानिक आविष्कारों पर निर्भर करती है. इन्हें ही दूसरे शब्दों में शिक्षा के दार्शनिक, समाजशास्त्रीय, राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक आधार कहते हैं. समाजशास्त्रीय आधारों में सबसे अधिक प्रभावशाली तत्व समाज विशेष की संस्कृति होती है. यह प्रभाव निम्न प्रकार है-

(1). शिक्षा के उद्देश्यों पर संस्कृति का प्रभाव-  संस्कृति के अंतर्गत समाज विशेष के रहन-सहन और खान-पान की विधियां, व्यवहार, रिती-रिवाज, परंपराएं, धार्मिक विश्वास, कला, कानून, नैतिकता, साहित्य, संगीत, भाषा, विचार, मान्यताएं, आदर्श और मूल्य आदि वह सब सम्मिलित हैं जिसे सामाजिक धरोहर का जाता है. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसकी आवश्यकताएं तथा आकांक्षाये  समाज के संस्कृति के अनुसार ही होते हैं. जिस समाज की संस्कृति का आधार आध्यात्मिक होता है उस समाज के शिक्षा का उद्देश्य भी बालकों की आध्यात्मिक उन्नति और विकास करना होता है. इस प्रकार कीसी समाज की संस्कृति उस समाज के शिक्षा के उद्देश्यों को गहन रूप में प्रभावित करती है 

(2). शिक्षा के पाठ्यक्रम पर संस्कृति का प्रभाव-  शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षा के उद्देश्यों के अनुरूप ही किया जाता है जब शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति का अनुगमन करता है तो पाठ्यक्रम का निर्माण भी उसी संस्कृति के अनुसार होना स्वभाविक है. समाज विशेष की संस्कृति के प्रमुख तत्व समाज की शिक्षा के पाठ्यक्रम में पूर्ण रुप से समाहित होते हैं. समाज की भौगोलिक स्थिति, जलवायु, वातावरण, रहन-सहन, कला, कौशल, संगीत, नृत्य-साहित्य, आदर्श-विचार, मूल्य सभी को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करके उनकी शिक्षकों बालकों को दी जाती है 

(3). शिक्षण विधियों पर संस्कृति का प्रभाव-  समाज की विचारधारा और संस्कृति के अनुसार शिक्षण विधियों का विकास होता है. जिस समाज की विचारधारा में एकाधिकार का अधिपत्य होता है वहां बालकों के रुचियां और इच्छाओं को विशेष महत्व नहीं दिया जाता और शिक्षण विधियां भी छात्र केंद्रित ना होकर अध्यापक केंद्रित होती हैं. लेकिन जिस समाज की विचारधारा आदर्श और मूल्य प्रजातांत्रिक होते हैं वहां शिक्षण विधियां छात्र केंद्रित होती हैं 

(4). अनुशासन पर संस्कृति का प्रभाव-  समाज की संस्कृति का अनुशासन पर भी प्रभाव पड़ता है व्यक्तियों के रहन-सहन कि शैली, आचार-विचार, आर्थिक स्थिति, नैतिक मूल्य और आदर्श आदि जो संस्कृति के अंग हैं, अनुशासन को प्रभावित करते हैं. धर्म प्रधान संस्कृति वाले समाज में आत्म अनुशासन होता है जबकि भौतिक प्रधान संस्कृति वाले समाज में बाह्य अनुशासन होता है 

(5). विद्यालय पर संस्कृति का प्रभाव- विद्यालय को समाज का लघु रूप कहा जाता है. अतः विद्यालय समाज विशेष की संस्कृति के केंद्र होते हैं. विद्यालय का भवन, विद्यालय की व्यवस्था, विद्यालय की क्रियाएँ और विद्यालय का संपूर्ण वातावरण वहां की संस्कृति के अनुसार ही होता है. उदाहरण के लिए जहां सोफिया, सेंट मेरिज आदि पब्लिक स्कूल ईसाई संस्कृति से प्रभावित हैं, वहां सरस्वती शिशु मंदिर, विवेकानंद विद्यालय, रामतीर्थ संस्थान, और गुरुकुल भारतीय संस्कृति का विकास करते हैं 

(6). शिक्षा पर संस्कृति के रूप में प्रभाव-  संस्कृति का रूप भी शिक्षा की व्यवस्था को प्रभावित करता है और भौतिक संस्कृति के अंतर्गत शिक्षा की व्यवस्था प्रेम, सहयोग, दया, सहानुभूति, करुणा, नैतिकता जैसे गुणों का विकास करने के लिए की जाएगी, जबकि भौतिक संस्कृति के अंतर्गत लोकिकता पर विशेष बल दिया जाएगा. उद्योग प्रधान संस्कृति में उद्योगों पर और कृषि प्रधान संस्कृति में कृषि पर अधिक महत्व दिया जाएगा 


शिक्षा का संस्कृति पर प्रभाव 
(Impact of Education on Culture) -

यदि एक ओर यह बात सत्य है कि किसी समाज की संस्कृति का प्रभाव उसकी शिक्षा पर पड़ता है तो दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि किसी समाज की शिक्षा का प्रभाव उसकी संस्कृति पर पड़ता है. संस्कृति पर शिक्षा के प्रभाव को निम्नलिखित बिंदुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-

(1). शिक्षा संस्कृति का संरक्षण करती है-  शिक्षा के माध्यम से ही किसी समाज की संस्कृति सुरक्षित और जीवित रहती है. किसी समाज की संस्कृति युग-युग की साधना का परिणाम होती है. इसलिए उस समाज का उससे बहुत लगा होता है और वह उसे सुरक्षित रखना चाहता है. और यह कार्य शिक्षा के द्वारा किया जाता है. औपचारिक, अनौपचारिक और निरौपचारिक साधनों के द्वारा शिक्षा संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है. वर्तमान पीढ़ी को अपनी संस्कृति की जानकारी शिक्षा के द्वारा ही होती है 

(2). शिक्षा संस्कृति का स्थानांतरण करती है-  शिक्षा संस्कृति का केवल संरक्षण ही नहीं करती अपितु नई पीढ़ी में उसका स्थानांतरण भी करती है. शिक्षा के कारण ही संस्कृति अपने अस्तित्व को बनाए रखती है. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संस्कृति का स्थानांतरण करके शिक्षा संस्कृति को अमरत्व प्रदान करती है 

(3). शिक्षा संस्कृति का विकास करती है- यद्यपि प्रत्येक समाज अपनी संस्कृति को उसी रूप में सुरक्षित रखना चाहता है जिस रूप में वह उसे प्राप्त करता है. परंतु समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं वह निरंतर विकास की ओर अग्रसर होता है. ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का कार्य है कि वह संस्कृति में वांछित परिवर्तन लाए और उसे विकास की ओर उन्मुख करें. युग और काल के अनुशासन, संस्कृति का विकास करना और उसको उपयोगी बनाना शिक्षा का उत्तरदायित्व है 

(4). शिक्षा संस्कृति का परिमार्जन करती है-  समय के साथ-साथ संस्कृति के अनेक तत्व अनुपयोगी और निरर्थक हो जाते हैं और अपनी उपयोगिता खो देते हैं. इसके अतिरिक्त अशिक्षा, व्यक्तिगत स्वार्थ और अंधविश्वासों आदि के कारण संस्कृति में अनेक बुराइयां पैदा हो जाती हैं. शिक्षा संस्कृति के इन अनुपयोगी और निरर्थक तत्वों तथा उसमें पैदा हुई बुराइयों का निष्क्रमण कर संस्कृति को परिमार्जित करती है और उसके रूप को निकाल कर उसे उपयोगी बनाती है।

(5). शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायता करती हैं- शिक्षा संस्कृति के अनुकूल बालक के व्यक्तित्व का विकास करती है. शिक्षा व्यक्तित्व के विभिन्न अंगों- बौद्धिक, नैतिक, चारित्रिक आदि के विकास के लिए सांस्कृतिक उपकरणों को प्रयोग में लाती है और नित्य-नवीन उपकरणों की रचना करती है. शिक्षा के द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास किया जाता है और ऐसे व्यक्तित्व समाज की संस्कृति को उन्नत करते हैं।


निष्कर्ष -

शिक्षा और संस्कृति, मानव जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं जो एक दूसरे से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। शिक्षा, ज्ञान और कौशल प्राप्त करने की प्रक्रिया है, जबकि संस्कृति, किसी समाज के जीवन जीने का तरीका है। दोनों ही व्यक्ति और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

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