लॉर्ड मैकॉले का विवरण पत्र (Mecaulay's Minutes)-1835

इस लेख में निम्न बिंदुओं को स्पष्ट किया गया है -

  • लॉर्ड मैकॉले का विवरण पत्र 
  • मैकॉले और उसके विवरण पत्र का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन
  • अधोगामी निस्यन्दन अथवा छनाई का सिद्धान्त 


परिचय (Introduction)

सन् 1835 से पूर्व भारतीयों की शिक्षा के सम्बन्ध में कम्पनियों के अधिकारी प्राच्यवादी और पाश्चात्यवादी दो दलों में बंट गये थे। 10 जून, 1834 को लार्ड मैकॉले की भारत में गवर्नर जनरल की कौंसिल के कानूनी सदस्य के रुप में नियुक्ति हुई। उस समय विवाद अपनी चरम सीमा पर था। लार्ड लॉर्ड विलियम बैंटिक का विश्वास था कि मैकॉले जैसा विद्वान ही इस विवाद को हल कर सकता है। अतः उसे बंगाल की 'लोक शिक्षा समिति' का सभापति बना दिया गया। उसने लार्ड मैकॉले से अनुरोध किया कि 1813 ई0 के आज्ञा पत्र की 43वीं धारा में अंकित 1 लाख रुपये की धनराशि को व्यय करने के प्राच्य-पाश्चात्य विवाद को सुलझाए। मैकॉले ने सर्वप्रथम आज्ञा पत्र की 43वीं धारा और दोनों के कर्तव्य का अध्ययन करके अपनी तर्कपूर्ण सलाह दी। जिसे उसने अपने विवरण पत्र में लेखबद्ध करके 2 फरवरी, 1935 को लार्ड लॉर्ड विलियम बैंटिक के पास भेज दिया।


1813 के आज्ञा पत्र की 43 वीं धारा की व्याख्या -

इस आज्ञा पत्र के तीन मुद्दे विवाद के विषय थे- आवंटित धनराशि का कैसे और कहाँ व्यय हो, 'साहित्य' शब्द से क्या अर्थ लिया जाए और भारतीय विद्वान' की सीमा में कौन से विद्वान लिये जाएं। मैकॉले ने इन तीनों मदों को स्पष्ट किया।

1. धनराशि के व्यय की व्यख्या-  मैकॉले ने स्पष्ट किया कि इस धनराशि को व्यय करने के सम्बन्ध में किसी प्रकार का बन्धन नही है। शिक्षा समिति इसे जिस मद पर जिस तरह व्यय करना चाहे कर सकती है।

2. साहित्य शब्द की व्याख्या-  मैकॉले ने स्पष्ट किया कि साहित्य शब्द से तात्पर्य केवल भारतीय साहित्य संस्कृत, अरबी आदि के साहित्य से ही नही है अपितु इसकी सीमा में पाश्चात्य साहित्य (अंग्रेजी साहित्य) भी आता है। 

3. भारतीय विद्वान की व्याख्या-  भारतीय विद्वान की सीमा के सम्बन्ध में मैकॉले ने कहा कि इसमें केवल भारतीय भाषाओं (संस्कृत और अरबी) के विद्वान ही नही अपितु अंग्रेजी साहित्य के विद्वान भी आते हैं, लॉक के दर्शन और मिल्टन की कविताएं भी आती हैं।


MECAULAY MINUTES - 1935

लॉर्ड मैकॉले के सुझाव - 

    1813 के आज्ञा पत्र की तत्सबन्धी धारा 43 की व्याख्या करने के बाद लार्ड मैकॉले ने भारतीयों की शिक्षा के स्वरुप के सम्बन्ध में अपने सुझाव प्रस्तुत किए। मैकॉले के उन सुझाव को निम्नलिखित रुप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

A. प्राच्य साहित्य एवं ज्ञान की शिक्षा निरर्थक-  भारतीय साहित्य (संस्कृत और अरबी) के विषय में मैकॉले ने लिखा कि भारतीय धर्म ग्रन्थ अन्धविश्वासों और मूर्खतापूर्ण तथ्यों के भी भण्डार हैं। इसके इतिहास में 30 फीट लम्बे राजाओं का वर्णन है और उसके भूगोल में शीरे और मक्खन के समुद्रों का वर्णन है। इसका चिकित्साशास्त्र ऐसा है जिस पर अंग्रेज पशु चिकित्सक को भी शर्म आएगी और ज्योतिषशास्त्र ऐसा है जिस पर अंग्रेज स्कूली लड़कियां हँसेंगी। अब इनका पढ़ना-पढ़ाना निरर्थक है। उसने यह भी सुझाव दिया कि संस्कृत और अरबी स्कूल तथा कॉलेजों पर सरकारी धन व्यय करना व्यर्थ है, उन्हें तुरन्त बन्द कर दिया जाए। साथ ही उसने यह भी सुझाव दिया कि प्राच्य साहित्य के मुद्रण और प्रकाशन पर सरकारी धन को व्यय नहीं किया जाए।

B. पाश्चात्य साहित्य एवं ज्ञान की शिक्षा महत्वपूर्ण-  मैकॉले अंग्रेजी साहित्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ साहित्य मानता था। संस्कृत और अरबी साहित्य को तो वह उसके आगे निम्न मानता था। उसने अपने विवरण पत्र में लिखा, 

    "एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक आलमारी की पुस्तकें भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है।"

    ("a single shelf of good European library worth the whole native literature of India and Arabia. ") 

उसने सुझाव दिया कि भारतीयों को अंग्रेजी भाषा और साहित्य का ज्ञान अनिवार्य रुप से कराया जाए।

C. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाना आवश्यक-  प्राच्यवादी भारतीय भाषाओं (संस्कृत और अरबी आदि) को शिक्षा का माध्यम बनाना चाहते थे और पाश्चात्यवादी अंग्रेजी को। मैकॉले ने अपने विवरण पत्र में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने का सुझाव दिया। अपने सुझाव के पक्ष में उसने अग्रलिखित तर्क प्रस्तुत किये-

  • 1. भारत में प्रचालित देशी भाषायें अविकसित और गँवारु हैं। इन का शब्दकोष बहुत सीमित है। इनके माध्यम से भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से परिचित नही कराया जा सकता।
  • 2. अंग्रेजी भाषा में संसार का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान भण्डार है, जो अंग्रेजी भाषा को जानता है वह उस ज्ञान भण्डार को जान सकता है जिसे विश्व की सबसे बुद्धिमान जातियों ने रचा है। भारतीयों को पाश्चात्य ज्ञान से परिचित अंग्रेजी के माध्यम से ही कराया जा सकता है।
  • 3. संस्कृत और अरबी भारत की सर्वसाधारण की भाषा नही है और इन्हें सीखने में भारतीयों की रुचि भी नही है।
  • 4. वैसे भी इनकी अपेक्षा अंग्रेजी भाषा सीखना सरल है इसलिये इसे ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। 4. अंग्रेजी शासकों की भाषा है, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है और अब भारत के उच्च वर्ग के लोगों की भाषा है। अतः इसे ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए।
  • 5. अब प्रबुद्ध भारतीय राजा राममोहन राय आदि भी यह स्वीकार कर रहें है कि भारत के विकास और उत्थान के लिये अंग्रेजी सीखना आवश्यक है और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान सीखना आवश्यक है। अतः अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिये।
  • 6. मैकॉले ने भारतीय कानून की शिक्षा के लिये अरबी और फारसी को माध्यम बनाए रखने का भी विरोध किया और सुझाव दिया कि भारतीय कानून का अंग्रेजी में अनुवाद किया जाए और उसकी शिक्षा भी अंग्रेजी के माध्यम से दी जाए।

D. उच्च वर्ग के लिये उच्च शिक्षा संस्थाओं की व्यवस्था-     मैकॉले ने अपने विवरण पत्र में यह भी स्पष्ट किया कि सरकार के पास इतना धन नही है कि वह भारत में जन शिक्षा की व्यवस्था करे। अपने इस सुझाव के पक्ष में उसने निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये-

  • 1. इससे भारत में एक ऐसे वर्ग का निर्माण होगा उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग और शासित (भारत की आम जनता ) के बीच सन्देशवाहक का कार्य करेगा।
  • 2. इससे भारत में दो वर्गों का निर्माण होगा- उच्च शिक्षा प्राप्त उच्च वर्ग और उच्च शिक्षा से वंचित निम्न वर्ग।
  • 3. इससे उच्च वर्ग में पड़े पाश्चात्य संस्कार धीरे-धीरे उनके सम्पर्क में आने वाले निम्न वर्ग के लोगों पर पड़ेंगे।
  • 4. इससे कम्पनी को कनिष्ठ पदों पर कार्य करने वाले भारतीय सरलता से मिल सकेंगे।
  • 5. उच्च वर्ग के शिक्षित लोगों के द्वारा शिक्षा निम्न वर्ग के लोगों तक स्वयं पहुँच जाएगी।

E. शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक तटस्थता की नीति आवश्यक-  मैकॉले पाश्चात्य ईसाई धर्म, पाश्चात्य यूरोपियन संस्कृति और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार कर भारतीयों को पाश्चात्य जामा पहनाने का प्रबल समर्थन था परन्तु वह सब कार्य बहुत चतुराई से करना चाहता था। वह जान रहा था कि यदि इस सबके लिये सीधे और जबरन प्रयास किया जाए तो उससे एक ओर भारतीय अपने धर्मों की रक्षा और उनके प्रसार के लिये क्रियाशील हो जाएगें और दूसरी ओर वे अंग्रेजी शासन का विरोध करने लगेंगे।
 इसलिये उसने विद्यालयों में किसी भी धर्म की शिक्षा अनिवार्य रुप से न दिये जाने का सुझाव दिया।



गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक की स्वीकृति-

2 फरवरी, 1835 को गवर्नर बैंटिक को मैकॉले का विवरण पत्र प्राप्त हुआ। इस नीति पर उसने गम्भीरता से विचार किया और 7 मार्च, 183.5 को उसकी मुख्य सिफारिशों को स्वीकार करते हुए ब्रिटिश सरकार की नई शिक्षा नीति की घोषणा की इस नीति की मुख्य घोषणाएं इस प्रकार थी-

1. शिक्षा के लिये निर्धारित धनराशि का सर्वोत्कृष्ट प्रयोग केवल अंग्रेजी शिक्षा के लिये ही किया जा सकेगा। 
(all government fund appropriated for the purpose of the education would be best employed of English an education alone- Charter Act of 1835)

2. संस्कृत, अरबी और फारसी की शिक्षण संस्थाओं को बन्द नही किया जाएगा। उनके अध्यापकों के वेतन और छात्रों की छात्रवृत्तियों के लिये आर्थिक अनुदान यथावत् रहेगा।

3. भविष्य में प्राच्य साहित्य के मुद्रण और प्रकाशन पर कोई व्यय नही किया जाएगा।

4. मद से बचने वाली धनराशि को अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा पर व्यय किया जाएगा।



लॉर्ड मैकॉले के विवरण पत्र और लॉर्ड विलियम बैंटिक की शिक्षा नीति के परिणाम- 
    
लॉर्ड मैकॉले के विवरण पत्र के आधार पर घोषित लॉर्ड विलियम बैंटिक की शिक्षा नीति के परिणामों को
निम्नलिखित रुप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-

1. भारत में अंग्रेजी माध्यम की अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली की शुरुआत।

II. विद्यालयी पाठ्चर्या में प्राच्य भाषा और साहित्यों और ज्ञान विज्ञान के स्थान पाश्चात्य भाषा अंग्रेजी और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान को स्थान।



मैकॉले और उसके विवरण पत्र का मूल्यांकन अथवा गुण-दोष विवेचन 
(Evaluation of Mecaulay's Minutes) -

    मैकॉले की मत था कि प्राच्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान बहुत निम्न कोटि का है इसलिए भारतीयों की दशा सुधारने के लिए उन्हें अंग्रेजी साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देना आवश्यक है और यह शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही दी जा सकती है, परन्तु वास्तविकता यह है कि वह हमारे देश में एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहता था जो जन्म से तो भारतीय हो परन्तु आचार विचार से अंग्रेज हो। 

उसके अपने शब्दों में,   

  "हमें भारत में एक ऐसा वर्ग विकसित करना चाहिए जो हमारे और उनके बीच जिन पर हम राज्य करते हैं. सन्देश वाहक का कार्य करे। एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग में भारतीय हो परन्तु विचार, आदर्श और बुद्धि में अंग्रेज हो।

    ("we must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions which we govern. A class of persons Indian in blood and the color but English in opinion morals and in intellect. ") 

इतना ही नही अपितु उसका इरादा भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति को जडमूल से समाप्त करने का था। उसने बंगाल से अपने पिता को लिखे पत्र में स्वयं लिखा था-

     "यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा योजना को लागू किया जाता है। तो 30 वर्ष वर्ष पश्चात बंगाल के उच्च वर्ग में कोई भी मूर्ति उपासक शेष नही बचेगा।" 

    ("It is my believe that if our plans of education are followed up there will not be a single Idolator among the respectable classes in Bengal thirty years hence.")

साफ जाहिर है कि भारतीयों के सम्बंध में मैकॉले का इरादा नेक नही था। वह भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति को नष्ट करना चाहता था और उसके स्थान पर यहाँ पाश्चात्य धर्म, दर्शन और संस्कृति का विकास करना चाहता था, साथ ही भारत में अपने देश के शासन की नींव सुदृढ़ करना चाहता था। इस दृष्टि से मैकॉले और उसका विवरण पत्र दोनों ही आलोचना के विषय है उनकी जितनी भर्त्सना की जाए थोड़ी है।




अधोगामी निस्यन्दन अथवा छनाई का सिद्धान्त 
(Downward Filtration theory of Education) 


A. सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation of Theory)- 
    
    निस्यन्दन या छनाई अंग्रेजी शब्द 'Filter' का रुपान्तर है, जिसका अर्थ "छानना" होता है। इसका तात्पर्य यह था कि उच्च वर्ग से शिक्षा छन छन कर निम्न वर्ग तक पहुँचे। असल में कम्पनी शिक्षा पर अधिक धन व्यय नही करना चाहती थी। जितना पैसा कम्पनी खर्च कर रही थी उससे व्यापक रुप में शिक्षा का प्रचार-प्रसार नही किया जा सकता था। इस कारण इस सिद्धान्त का जन्म हुआ कि शिक्षा का व्यय उच्च वर्ग के लोगों पर किया जाए। उच्च वर्ग को दिया गया ज्ञान छन छन कर निम्न वर्ग तक अपने आप पहुँच जाएगा।Matheu Artherb ने The Education in Indian में लिखा है,
  
  "जन समूह में शिक्षा ऊपर से टपकाई जाए। बूंद- बूंद करके भारतीय जीवन के हिमालय से लाभदायक शिक्षा नीचे बहे जो समय पाकर एक चौड़ी व विशाल धारा में परिवर्तित हो जाए। "


B. सिद्धान्त के समर्थक- 

    वैसे छनाई सिद्धान्त का जन्मदाता मैकॉले को माना जाता है परन्तु मैकॉले से पूर्व भी कम्पनी के अधिकारी तथा संचालक इस विचार से प्रभावित थे तथा समय-समय उन्होंने अपने विचार इस सम्बन्ध में व्यक्त किये थे।

1. ईसाई मिशनरियों का विचार था कि उच्च वर्ग के लोगों को शिक्षा देकर उन्हें ईसाई बनाया जाए, जिससे निम्न वर्ग के लोग उनसे प्रेरणा लेकर ईसाई धर्म स्वीकार कर सकें।

2. बम्बई के गवर्नर की कौंसिल के सदस्य फ्रांसिस वार्ड ने 23 दिसम्बर, 1823 के अपने विवरण पत्र में लिखा था बहुत से व्यक्तियों को थोड़ा सा ज्ञान देने के बजाय थोड़े से व्यक्तियों को बहुत सा ज्ञान देना अधिक लाभदायक है।

3. कम्पनी के संचालकों ने अपने आदेश पत्र में 29 दिसम्बर, 1830 के अपने विवरण पत्र में लिखा था-

    "शिक्षा की प्रगति उसी समय हो सकती है जब उच्च वर्ग के उन व्यक्तियों को शिक्षा दी जाए जिनके पास अवकाश है तथा जिनका अपने देश के निवासियों पर प्रभाव है।"

4. मैकॉले ने तो मात्र अपने विचारों से इस सिद्धान्त को व्यावहारिक स्वरुप प्रदान किया तथा सरकार द्वारा उसे स्वीकृति भी प्रदान करायी। उसने अपने विवरण पत्र में लिखा था, 

    "हमारा उद्देश्य एक ऐसे वर्ग का निर्माण है जो इसके उपरान्त अपने देश वासियों को उस शिक्षा के, जो हमने उसे दी है. कुछ अंशों को वितरित कर सकें।" 

5. बंगाल लोक शिक्षा समिति ने सन् 1839 में कहा था- 

    "हमारे प्रयास सर्वप्रथम उच्च तथा मध्यम वर्ग की शिक्षा पर केंद्रित रहने चाहिए।"



(C) आकलैण्ड द्वारा सिद्धान्त को स्वीकृति-

    तत्कालीन गर्वनर जनरल आकलैण्ड ने छनाई के सिद्धान्त को शिक्षा की सरकारी नीति के रुप में स्वीकार कर लिया। उन्होने 24 अक्टूबर, सन् 1830 के अपने विवरण पत्र में घोषित किया, 

    ''सरकार का प्रयास समाज के उच्च वर्गों में उच्च शिक्षा का प्रसार करने तक सीमित रहना चाहिये जिनके पास अध्ययन का अवकाश है, जिनकी संस्कृति छन छन कर जन साधारण तक पहुंचेगी।"

("Attempt of government should be restricted to the extension of high education to the upper classes of society who have leisure for study wholes filter could would down to the masses." -Auckland's Minute 1829)



मैकॉले के विवरण पत्र की अच्छाईयां अथवा गुण 
(Merits of Mecaulay's Minutes)-

1. प्राच्य-पाश्चात्य विवाद के विषय में तर्क पूर्ण निर्णय- वस्तुतः मैकॉले ने पाश्चात्यवादियों का ही समर्थन किया था और बहुत पक्षपातपूर्ण ढंग से लिया था परन्तु जिस चतुराई के साथ किया था वह उसकी कुशलता ही कही जाएगी। बहरहाल विवाद का हल तो प्रस्तुत हुआ ही।

2. पाश्चात्य भाषा, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की वकालत- ज्ञान अपने में प्रकाश अमृत है, वह कहीं से भी प्राप्त हो उसे लेना चाहिए। मैकॉले ने पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की श्रेष्ठता को स्पष्ट किया और उससे भारतीयों को परिचित कराने पर बल दिया।

3. प्रगतिशील शिक्षा की वकालत- मैकॉले के समय भारत में जो शिक्षा चल रह थी वह रुढिवादी थी, प्राचीन साहित्य प्रधान थी। मैकॉले ने उसे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान प्रधान बनाने पर बल दिया, उसे आवश्यक बनाने पर बल दिया।

4. शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक तटस्थता की नीति- मैकॉले के समय हिन्दू पाठशालाओं में हिन्दू धर्म, मुस्लिम मकतब और मदरसों में इस्लाम और मिशनरियों के स्कूलों में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य रुप से दी रही थीं। मैकॉले ने सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त स्कूलों में किसी भी धर्म की शिक्षा न दिये जाने की सिफारिश की। भारतीय सन्दर्भ में उसका यह अति उत्तम सुझाव था।



मैकॉले के विवरण पत्र की कमियां अथवा दोष 
(Demerits of Mecaulay's Minutes)-


1. 1813 के आज्ञा पत्र की धारा 43 की पक्षपातपूर्ण व्याख्या-  मैकॉले का शिक्षा के लिये स्वीकृत धनराशि को व्यय किए जाने के सम्बन्ध में कहना कि उसे किसी भी रुप में व्यय किया जा सकता है तथा साहित्य से तात्पर्य प्राच्य और पाश्चात्य साहित्य से है और भारतीय विद्वान से अर्थ भारतीय साहित्य के विद्धानों के साथ-साथ लॉक के दर्शन और मिल्टन की कविता को जानने वाले भारतीय विद्धानों से भी है, पक्षपातपूर्ण था। यह बात दूसरी है कि वह उसे अपने तर्क से उचित सिद्ध कर सका।

2. प्राच्य साहित्य की आलोचना द्वेषपूर्ण-  मैकॉले ने प्राच्य साहित्य को अति निम्न स्तर का बताया और उसका मखौल उड़ाया। यह उसकी द्वेषपूर्ण अभिव्यक्ति थी। अगर उसने ऋग्वेद और उपनिषदों के आध्यात्मिक ज्ञान, अथर्ववेद के भौतिक ज्ञान और चरक संहिता के आयुर्वेद विज्ञान आदि का अध्ययन किया होता तो वह ऐसा कहने का दुस्साहस कभी न कर पाता।

3. अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने का सझाव अनुचित-  किसी भी देश की शिक्षा का माध्यम उस देश के नागरिकों की मातृभाषा अथवा मातृभाषाएं होती हैं। मैकॉले ने भारत की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अंग्रेजी को बनाने का सुझाव देकर न जाने कितने भारतीयों को शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया था। इससे जन शिक्षा को बड़ा धक्का लगा।

4. केवल उच्च वर्ग के लिये शिक्षा की व्यवस्था का सुझाव अनुचित-  शिक्षा प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे किसी वर्ग विशेष तक सीमित रखना मानवीय अधिकारों का हनन है।



मैकॉले और उसके विवरण पत्र का दीर्घकालीन प्रभाव-


1. भारतीयों को पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान- बिज्ञान की जानकारी-  मैकॉल के सुझावों पर भारत में जिस अंग्रेजी माध्यम की यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान प्रधान शिक्षा की व्यवस्था की गई उससे द्वारा भारतीयों को पाश्चात्य साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की जानकारी हुई जिससे अनेक लाभ हुए।

2. भारत में भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त -  मैकॉले के समय भारतीय शिक्षा में सामाजिक व्यवहार और आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल दिया जाता था। मैकॉले के सुझावों के आधार पर जिस शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया उसमें समग्र रुप से देश की उन्नति का ध्यान रखा गया। उससे भारत की भौतिक क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई।


3. भारत में सामाजिक जागरुकता का उदय-  उस समय भारतीय अनेक सामाजिक बुराईयों से ग्रस्त थे। मैकॉले ने जिस शिक्षा प्रणाली की नींव रखी उससे भारतीय उनके प्रति सचेत हुए और उन्हें दूर करने के लिये प्रयत्नशील हुए एवं उनमें अनेक सुधार किए।

4. भारत में राजनैतिक जागरुकता का उदय-  अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों को उनके मानवीय अधिकारों का ज्ञान कराया स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का महत्व बताया और राजनैतिक चेतना जागृत की। 
नरुल्ला और नायक ने ठीक ही लिखा है,    

"यदि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रादुर्भाव न हुआ होता तो कदाचित भारत में स्वतन्त्रता संग्राम ही शुरु न हुआ होता। "

5. भारत में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व-  उपर्युक्त अच्छाइयों के साथ ही इसके कुछ कुप्रभाव भी पड़े। उन कुप्रभावों में सबसे मुख्य प्रभाव विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ना है। इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व इतना बढ़ गया है कि उसे जितना कम करने का प्रयास किया जाता है वह उतना ही बढ़त जाता है।

6. भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश-  किसी भी सभ्यता और संस्कृति के अच्छे तत्वों को स्वीकार कर अपनी सभ्यता एंव संस्कृति में विकास करना अच्छी बात है परन्तु अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को हेय समझकर दूसरी सभ्यता एवं संस्कृति को स्वीकार करना अपनी पहचान को समाप्त करना है, अपनी अस्मिता को समाप्त करना है। मैकॉले द्वारा प्रस्तावित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का भारत के ऊपर कुछ ऐसा ही कुप्रभाव पड़ा।


सारांश (Summary) -

कुछ विद्धानों का मत है कि मैकॉले के इरादे तो नेक थे वह भारतीयों की उन्नति कर चाहता था, यह बात दूसरी है कि उसके द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से हमें हानियाँ हुई हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि मैकॉले के इरादे नेक नहीं थे, वह भारतीय साहित्य, धर्म और दर्शन को समाप्त कर उसके स्थान पर यहाँ पाश्चात्य साहित्य, धर्म और दर्शन का विकास करना चाहता था। यह बात दूसरी है कि उसके सुझावों के आधार पर भारत में जिस अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली को शुरु किया गया उससे हमें लाभ अधिक और हानियाँ अपेक्षाकृत कम हुई हैं। सबसे बड़ा लाभ तो हमें यह हुआ कि देश में रुढ़िवादी शिक्षा के स्थान पर प्रगतिशील शिक्षा की शुरुआत हुई जिसके कारण देश में भौतिक प्रगति हुई, सामाजिक सुधार हुए, राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई, स्वतन्त्रता संग्राम छिड़ा और हम स्वतन्त्र हुए।

    आज भारत ने कृषि, दूर संचार एवं अन्तरिक्ष तकनीकी में जो उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त की हैं ये सब इस अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के ही परिणाम है। आज इसी भाषा के माध्यम से हम देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहें है, विशेषकर विज्ञान और तकनीकी की। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में सफलता का आधार भी यह अंग्रेजी भाषा ही है। रही जन शिक्षा की बात तो हमने स्वतन्त्र होने के बाद अपनी शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा को बनाया है। इससे जन शिक्षा का प्रसार हो रहा है। रही उच्च स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाए रखने की बात यह एक ओर हमारी विवशता है और दूसरी ओर हमारी आवश्यकता है। यह अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है। अतः हमें मैकॉले को उसके नापाक इरादों के लिये क्षमा कर देना चाहिए और उसके द्वारा प्रतिपादित अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से हमें जो लाभ हुए हैं उसके लिए उसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।





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