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स्वामी विवेकानन्द का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy Of Swami Vivekananda)

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भारत के अतीत में अडिग आस्था रखते हुए और भारत की विरासत पर गर्व करते हुए भी, विवेकानन्द का जीवन की समस्याओं के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण था और वे भारत के अतीत तथा वर्तमान के बीच एक प्रकार के संयोजक थे। Rooted in the past and full of pride in India's prestige, Vivekananda was yet modern in his approach to life's problems and was a kind of bridge between the past of India and his present. - पं. जवाहरलाल नेहरू जीवन-परिचय (Life History) - स्वामी जी का जन्म कलकत्ता, (कोलकाता) में सन् 1863 ई . में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उन्होंने कॉलेज स्तर तक शिक्षा प्राप्त की। वे अत्यन्त प्रखर बुद्धि वाले तेजस्वी छात्र थे। उनके प्रधानाचार्य मिस्टर हैस्टी ने उनके विषय में कहा था, "नरेन्द्रनाथ दत्त वस्तुतः प्रतिभाशाली हैं। मैंने विश्व के विभिन्न देशों की यात्रायें की हैं, किन्तु किशोरावस्था में ही, इसके समान योग्य एवं महान् क्षमताओं वाला युवक मुझे जर्मन विश्वविद्यालयों में भी नहीं मिला।" नरेन्द्रनाथ ने एक बार दक्षिणेश्वर की यात्रा की और वहाँ उनका साक्षात्कार स्वामी रामकृष

रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy Of Rabindranath Tagore)

टैगोर का आदर्शवाद भारत के स्वयं के अतीत की वास्तविक उपज है तथा उनका दर्शन, जन्म एवं विकास दोनों दृष्टियों से भारतीय है। Tagore's idealism is a true child of India's own past and his philosophy is Indian both in origin and development. - डॉ० एस० राधाकृष्णन् जीवन-परिचय (Life History) - परम यशस्वी व्यक्तित्व के धनी और साहित्य, संगीत, कला और शिक्षा के समन्वित मूर्तिमान रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 6 मई सन् 1861 ई० बंगाल के एक शिक्षित, धनी तथा सम्पन्न परिवार में हुआ था। वे महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा 'ओरिएण्टल सेमेनरी स्कूल' में हुई, बाद में उन्होंने 'नार्मल स्कूल' में शिक्षा प्राप्त की। वैसे घर पर उनके लिये विभिन्न विषयों एवं कला तथा संगीत की शिक्षा के लिये अलग-अलग शिक्षक नियुक्त किये गये थे 1878 में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये इंग्लैण्ड गये, लेकिन विद्यालयी शिक्षा में मन न लगने के कारण वे 1880 ई० में स्वदेश लौट आए। सन् 1881 में कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे पुनः इंग्लैण्ड गए किन्तु विचार परिवर्तन के कारण पुनः भारत लौ

महात्मा गाँधी का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy of Mahatma Gandhi)

"गाँधी जी ने उन महान शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में स्थान प्राप्त किया है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नवज्योति दी है।"  "Gandhiji has secured a unique place in the galaxy of the great teachers who have brought fresh light in the field of education." जीवन-परिचय (LIFE SKETCH) — महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनका जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 को काठियावाड़ की एक छोटी-सी रियासत पोरबन्दर में हुआ था। इनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट के दीवान थे। इनकी माता अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। माता के धार्मिक विचारों का गाँधीजी पर अमिट प्रभाव पड़ा। तेरह वर्ष की आयु में गाँधीजी का विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ। प्रारम्भ में गाँधीजी साधारण कोटि के विद्यार्थी थे। सन् 1887 ई० में उन्होंने मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की, उसी वर्ष 4 सितम्बर को उन्हें कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। इंग्लैण्ड में वे लगभग चार वर्ष तक कानून के छात्र के रूप में रहे और 10 जून, सन् 1891 ई० को बैरिस्टर बनकर भारत वापस आये। वे काठियावाड़ तथा बम्बई मे

कोहलर का सूझ या अंतर्दृष्टि का सिद्धांत (गेस्टाल्ट सिद्धान्त) (Kohler's Insight Theory Of Learning)

प्रस्तावना — सीखने के इस सिद्धान्त को गेस्टाल्ट सिद्धान्त , पूर्णाकार सिद्धान्त, समग्र सिद्धान्त, पूर्णाकृति सिद्धान्त, अंतर्दृष्टि सिद्धांत या सुझ सिद्धांत आदि नामों से भी पुकारा जाता है। इस सिद्धान्त का उद्भव बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जर्मनी में हुआ था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों में चार जर्मन मनोवैज्ञानिक- मैक्स वरथीमर (Max Wertheimer),  बोल्फगैंग कोहलर (Wolfgang Kohler), कुर्ट कोफ्का (Kurt Koffka) तथा कुटे लेविन (Kurt Lewin) प्रमुख थे। ये चारों मनोवैज्ञानिक बाद में अमेरिका चले गये थे। वस्तुतः व्यवहारवादियों के द्वारा प्रस्तुत की गई अवधारणाओं से असंतुष्ट होकर संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के द्वारा अधिगम को यांत्रिक क्रिया के स्थान पर जानबूझकर व इरादतन (Deliberate) तथा चेतन प्रयास (Conscious Effort) वाली प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया। इनके विचार में सीखना उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करना मात्र नहीं है वरन एक प्रक्रिया है। प्राणी अपनी परिस्थिति में विद्यमान उद्दीपकों के साथ अंतरक्रिया करता है तथा अंतरक्रिया के इस प्रक्रिया के द्वारा ही उसेके द्वारा की जाने वाली अनुक

स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत (Skinners's Operant Conditioning Theory)

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प्रस्तावना —  इस सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिकी विचारक प्रोफ़ेसर बी.एफ स्किनर ने 1938 में किया। स्किनर क्रिया प्रसूत अनुकूलन का आधार पुनर्बलन को मानते हैं। इस सिद्धांत के मूल में थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत है जिसको इस स्किनर ने पुनर्बलन सिद्धांत में परिवर्तित कर दिया। अधिगम के इस सिद्धांत का अभिप्राय सीखने के उस प्रक्रिया से है जिसमें प्राणी उस प्रतिक्रिया का चयन करना सीखता है जो पुनर्बलन को उत्पन्न करने में साधन का एक काम करती है। इस सिद्धांत के अनुसार यदि किसी अनुक्रिया के करने से सकारात्मक एवम संतोषजनक परिणाम मिलते हैं तो प्राणी व क्रिया बार-बार दोहराता है। असफलता या नकारात्मक परिणाम मिलने पर प्राणी क्रिया को पुनः दोहराने से बचता है जिससे उद्दीपन अनुक्रिया का संबंध कमजोर हो जाता है।

पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत (Pavlov's Theory Of Clasical Conditioning)

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प्रस्तावना — अधिगम  के क्लासिकल अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन इवान पी० पावलव (Ivan P. Pavlav) नामक रूसी मनोवैज्ञानिक ने किया था। इस सिद्धान्त को सीखने का अनूकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त या अनुबन्धित - अनुक्रिया सिद्धान्त (Conditional Response Theory) भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति या जीव कुछ जन्मजात प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ (Tedencies) , प्रतिक्रियायें (Reactions) या अनुक्रियायें (Responses) रखता है तथा ये प्रवृत्तियाँ , प्रतिक्रियायें या अनुक्रियायें किसी उपयुक्त प्राकृतिक उद्दीपक (Natural Stimulus) के उपस्थित होने पर प्रकट होती है। जैसे भूखे व्यक्ति के सामने भोजन आने पर मुंह में लार का आना या तेज शोर सुनने पर जीव का डर जाना प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुक्रियायें हैं जिनका उपयुक्त उद्दीपक (भोजन या शोर) के सामने होने पर व्यक्ति के द्वारा व्यक्त करना पूर्णतः स्वाभाविक है। पावलाव ने देखा कि जब किसी अन्य स्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) को किसी स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) के साथ बार - बार प्रस्तुत किया जाता है तो धीरे-धीरे अस्वाभाविक उद्दीपक का स्वाभाविक उद

थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत (Thorndike's Trial & Error Theory)

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प्रस्तावना - थार्नडाइक (Thorndike) को प्रयोगात्मक पशु मनोविज्ञान (Experimental Psychology) के क्षेत्र में एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक माना गया है। उन्होंने सीखने के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन (1898)में अपने पीएच0 डी0 शोध प्रबन्धन (Ph.D. thesis) जिसका नाम ' एनिमल इन्टेलिजेन्स' (Animal Intelligence) था, में किया। टॉलमैन (Tolman, 1938) ने थार्नडाइक के इस सिद्धान्त पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि उनका यह सिद्धान्त इतना पूर्ण तथा वैज्ञानिक था कि उस समय के अन्य सभी मनोवैज्ञानिकों ने थॉर्नडाइक को अपना प्रारम्भ बिन्दु (Starting Point) माना था। थॉर्नडाइक ने सीखना की व्याख्या करते हुए कहा है कि जब कोई उद्दीपक (Stimulus) व्यक्ति के सामने दिया जाता है तो उसके प्रति वह अनुक्रिया (Response) करता है। अनुक्रिया सही होने से उसका संबंध (Connection) उसी विशेष उद्दीपक (Stimulus) के साथ हो जाता है। इस संबंध को सीखना (Learning) कहा जाता है तथा इस तरह की विचारधारा को संबंधवाद (Connectionism) की संज्ञा दी गयी है। थार्नडाइक के अधिगम के सिद्धांत को प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत तथा सबन्धवाद के नाम से जाना जाता

समावेशी शिक्षा के लाभ: सभी बच्चों के लिए बेहतर भविष्य

प्रस्तावना: शिक्षा, मानव जीवन का आधार है। यह न केवल ज्ञान प्रदान करती है, बल्कि सामाजिक, भावनात्मक और बौद्धिक विकास भी करती है। सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार है, चाहे उनकी क्षमताएं, पृष्ठभूमि या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। समावेशी शिक्षा, शिक्षा का एक ऐसा रूप है जो सभी बच्चों को एक साथ शिक्षा प्रदान करता है, चाहे उनकी कोई भी अक्षमता या विशेष आवश्यकताएं हों। दूसरे शब्दों मे, शिक्षा एक ऐसा अधिकार है जो सभी बच्चों को समान रूप से प्राप्त होना चाहिए, चाहे उनकी क्षमता या पृष्ठभूमि कुछ भी हो। समावेशी शिक्षा एक ऐसा दृष्टिकोण है जो सभी बच्चों को एक साथ शिक्षा प्रदान करने पर केंद्रित है, जिसमें वे अपनी क्षमताओं और सीखने की शैलियों के बावजूद एक दूसरे से सीखते और विकसित होते हैं। यह लेख समावेशी शिक्षा के लाभों पर विस्तार से प्रकाश डालेगा, जिसमें यह सभी बच्चों, शिक्षकों और समाज को कैसे लाभान्वित करता है, इस पर प्रकाश डाला जाएगा।

विशेष शिक्षा, एकीकृत शिक्षा और समावेशी शिक्षा में अंतर

प्रस्तावना: शिक्षा का अधिकार सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है, चाहे वह सामान्य हो या विशेष जरूरतों वाला। शिक्षा का उद्देश्य सभी बच्चों को उनकी क्षमता के अनुसार विकसित करने और उन्हें जीवन में सफल बनाने में मदद करना है।  विशेष शिक्षा, एकीकृत शिक्षा और समावेशी शिक्षा, ये तीनों शिक्षा के अलग-अलग तरीके हैं जो विशेष जरूरतों वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं।

विविध आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

प्रस्तावना विविध आवश्यकताओं वाले बच्चे वे बच्चे होते हैं जिनकी शिक्षा और विकास के लिए विशेष सहायता और सुविधाओं की आवश्यकता होती है। इन बच्चों में विभिन्न प्रकार की विकलांगताएं हो सकती हैं, जैसे कि शारीरिक विकलांगता, मानसिक विकलांगता, दृष्टिबाधिता, श्रवणबाधिता, और सीखने की अक्षमता। विविध आवश्यकताओं वाले बच्चों की शिक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है। यह बच्चों को उनकी पूरी क्षमता तक पहुंचने में मदद करता है और उन्हें समाज में एक सक्रिय और उत्पादक सदस्य बनने के लिए तैयार करता है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 का परिचय ( National Education Policy -1986)

NATIONAL POLICY OF EDUCATION-1986 राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 सन् 1964 में भारतीय शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इसने अपना प्रतिवेदन 1966 में प्रस्तुत किया। आयोग ने अपने प्रतिवेदन में भारत सरकार को पूरे देश में समान शिक्षा संरचना के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण करने के लिए कहा। आयोग की सिफारिशों की चर्चा हुई और सन् 1968 में भारत सरकार ने यह स्वीकार किया कि देश के आर्थिक, सास्कृतिक व राष्ट्रीय विकास के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण करना अति आवश्यक है। इसलिए भारतीय शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन को कुछ संशोधनों के पश्चात् इसी के आधार पर भारत सरकार ने 24 जुलाई, 1968 को स्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की तथा इस पर अमल होना प्रारम्भ हो गया। मार्च 1977 में केन्द्र में जनता दल की सरकार बनी। इस सरकार के बनते ही एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण हुआ तथा 1979 में उसे घोषित कर दिया गया। इसे लागू भी नहीं किया गया था कि केन्द्र में दोबारा से सत्ता परिवर्तन हो गया। 1981 में कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गई। श्रीमती इन्दिरा गाँधी पुनः प्रधानमंत्री बनी। उन्होंने दोबारा से

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग या कोठारी कमीशन (1964-1966) NATIONAL EDUCATION COMMISSION (KOTHARI COMMISSION)

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग,  (कोठारी कमीशन)  1964-1966 [NATIONAL EDUCATION COMMISSION,  (KOTHARI COMMISSION)] ( 1964-66) प्रस्तावना - स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने अपने देश की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार उच्च शिक्षा के पुनर्गठन के लिए सर्वप्रथम 1948 ई. में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया, तत्पश्चात् 1952 में माध्यमिक शिक्षा के पुनर्गठन हेतु माध्यमिक शिक्षा आयोग गठित किया। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (राधाकृष्णन आयोग) ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन व स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अपने ठोस सुझाव दिये, जिनमें से कुछ सुझावों के क्रियान्वयन द्वारा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परन्तु वांछित उद्देश्य प्राप्त न हो सके। 1952 में गठित मुदालियर शिक्षा आयोग ने भी तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर करते हुए उसके पुनर्गठन हेतु अनेक ठोस सुझाव दिये, परन्तु इन सबसे भी वांछित आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकी,  अतः ऐसे आयोग के गठन की आवश्यकता अनुभूत की गई जो विविध स्तरों पर शिक्षा के समस्त पहलुओं से सम्बन्धित हो और शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी पर