रवीन्द्रनाथ टैगोर का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy Of Rabindranath Tagore)
टैगोर का आदर्शवाद भारत के स्वयं के अतीत की वास्तविक उपज है तथा उनका दर्शन, जन्म एवं विकास दोनों दृष्टियों से भारतीय है।
Tagore's idealism is a true child of India's own past and his philosophy is Indian both in origin and development.
- डॉ० एस० राधाकृष्णन्
जीवन-परिचय (Life History) -
परम यशस्वी व्यक्तित्व के धनी और साहित्य, संगीत, कला और शिक्षा के समन्वित मूर्तिमान रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 6 मई सन् 1861 ई० बंगाल के एक शिक्षित, धनी तथा सम्पन्न परिवार में हुआ था। वे महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा 'ओरिएण्टल सेमेनरी स्कूल' में हुई, बाद में उन्होंने 'नार्मल स्कूल' में शिक्षा प्राप्त की। वैसे घर पर उनके लिये विभिन्न विषयों एवं कला तथा संगीत की शिक्षा के लिये अलग-अलग शिक्षक नियुक्त किये गये थे 1878 में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये इंग्लैण्ड गये, लेकिन विद्यालयी शिक्षा में मन न लगने के कारण वे 1880 ई० में स्वदेश लौट आए। सन् 1881 में कानून की शिक्षा प्राप्त करने के लिये वे पुनः इंग्लैण्ड गए किन्तु विचार परिवर्तन के कारण पुनः भारत लौट आए। सन् 1901 में टैगोर ने बोलपुर के समीप 'शान्ति निकेतन' की उत्कृष्ट रचना 'गीतांजली' पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। 1920 से 1930 तक उन्होंने अनेक देशों का भ्रमण किया तथा अनेक व्याख्यान भी दिए। सन् 1941 में इस महान एवं परम यशस्वी शिक्षाविद, साहित्यकार एवं महाकवि की जीवन-लीला समाप्त हो गई।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन दर्शन पर उनके धार्मिक, दर्शनयुक्त तथा सुसंस्कृत परिवार का गहरा प्रभाव पड़ा। उनके जीवन-दर्शन को हम निम्नलिखित प्रकार से वर्णित कर सकते हैं-
1. वे ईश्वर को 'सर्वोच्च मानव' (Supreme Man) के रूप में मानते थे।
2. वे अद्वैतवादी थे।
3. वे ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते थे, वे कभी उसे साकार तो कभी निराकर के रूप में मानते थे।
4. वे सृष्टि को ईश्वर की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करते थे।
5. वे आदर्शवादी दर्शन तथा सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम जैसे आध्यात्मिक मूल्यों को मानते थे।
6. वे महान् क्रान्तिकारी थे तथा मानव-मानव की बीच पाये जाने वाले विभेदों की निन्दा करते थे।
7. वे मानव को सम्मान एवं स्वतन्त्रता दिलाकर उसकी आत्मा को ऊँचा उठाना चाहते थे।
8. वे दार्शनिक एवं समाज सुधारक होने के साथ-साथ प्रखर राष्ट्रवादी भी थे।
9. उन्होंने निर्धनता एवं अस्पृश्यता को हटाने पर भी अधिक बल दिया।
10. उन्होंने मनुष्य-मनुष्य की बीच और मनुष्य और प्रकृति के बीच एकता पर बल दिया।
टैगोर महान् मानवीय गुणों से परिपूर्ण थे। उन्हें विज्ञानों तथा मानव-शास्त्रों का वृहत ज्ञान प्राप्त था। टैगोर का विश्वास था कि प्रकृति, मानव तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में परस्पर मेल एंव प्रेम है। अतः सच्ची शिक्षा के द्वारा वर्तमान की सभी वस्तुओं में प्रेम और मेल की भावना विकसित होनी चाहिए। टैगोर के समय को क्रमबद्ध तथा निष्क्रिय शिक्षा का समाज की आवश्यकताओं से मेल नहीं था। अतः उन्होंने अपने समय की शिक्षा का घोर विरोध किया। वे शिक्षा में क्रान्तिकारी परिवर्तन चाहते थे. इसलिये उन्होंने शान्ति निकेतन नामक शैक्षणिक संस्था की स्थापना कर अपने स्वप्नों को मूर्त रूप दिया।
उनका विश्वास था कि शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतन्त्र वातावरण मिलना परम आवश्यक है वे चाहते थे कि बालक प्रकृति तथा समाज दोनों से सीखे। वे विश्व बन्धुत्व में विश्वास करते थे तथा चाहते थे कि बालक में इसी दृष्टिकोण का विकास हो। वे मूल रूप से चाहते थे कि बालकों को वास्तविक जीवन की शिक्षा प्राप्त हो तथा उनका दृष्टिकोण संकीर्णता से ऊपर उठकर राष्ट्रीय तथा साथ ही साथ अन्तर्राष्ट्रीय भी बने।
वे कहते थे कि शिक्षा जीवन के फलस्वरूप होनी चाहिए। यदि शिक्षा वास्तविक जीवन से अलग हो जायेगी तो समाज को इससे कोई लाभ नहीं मिल सकेगा। अतः शिक्षा को प्रकृति तथा मनुष्य से निरन्तर सम्बन्धित होना चाहिए तथा उसकी व्यवस्था इन दोनों की संगत में ही होनी चाहिए।
टैगोर ने लिखा है,
प्रकृति के पश्चात् बालक को सामाजिक व्यवहार की धारा के सम्पर्क में लाना चाहिए।
Next to nature the child should be brought into touch with the stream of social behavior.
(Basic Principles of Tagore's Educational Philosophy) -
सुनील चन्द सरकार के अनुसार,
उन्होंने शिक्षा के उन सभी सिद्धान्तों की खोज स्वयं ही की, जिनका प्रतिपादन उन्हें आगे चलकर अपने ही लिये करना था तथा जिन्हें शान्ति निकेतन में व्यावहारिक रूप देना था।'
He discovered for himself all the theories and principles of education which he was later to formulate for himself and use in his Shanti Niketan Experiment.
रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान् दार्शनिक एवं शिक्षा-शास्त्री थे। उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जो प्रगतिशील, विचारधारा, सामाजिक तथा सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र-बिन्दु था। इस परिवार में कविता, संगीत, नाटक, कला, विज्ञान तथा दर्शन आदि के विशेषज्ञ मौजूद थे। टैगोर की ग्रहण-शक्ति इतनी तीव्र थी कि उन्होंने सभी बातों को स्वयं ही ग्रहण कर लिया। उन्होंने पश्चिमी देशों के शिक्षा-शास्त्रियों का भी अध्ययन किया और अपनी नवीन शिक्षा-पद्धति का प्रयोग उन्होंने अपने शिक्षा संस्थान में किया।
टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. शिक्षा को सजीव एवं गतिशील होना चाहिए।
2. बालक की शिक्षा का माध्यम उसकी मातृभाषा होना चाहिए।
3. शिक्षा का सामुदायिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होना चाहिए।
4. बालकों की शिक्षा नगर से दूर प्रकृति के प्रांगण में होनी चाहिए।
5. प्रकृति के सम्पर्क में रहने के साथ-साथ बालक को सामाजिक सम्पर्क स्थापित करने के अधिक से अधिक अवसर दिये जाने चाहिए। जिससे उनमें स्व-शासन तथा समाज-सेवा के भाव विकसित हो सके।
6. बालकों में संगीत अभिनय तथा चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए।
7. उन्हें भारतीय समाज एवं संस्कृति का स्पष्ट ज्ञान कराया जाना चाहिए।
8. शिक्षा बालकों की जन्मजात शक्ति का विकास करके उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण और सामंजस्य पूर्ण विकास करे।
9. जन-साधारण को शिक्षा देने हेतु देशी प्राथमिक पाठशालाओं को पुनः जीवित किया जाना चाहिए।
10. शिक्षा बालक को एक पूर्ण मानव के रूप में विकसित करें।
11. शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए।
12. रचनात्मक प्रवृत्तियों के विकास हेतु बालक की आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
13. भारतीय बालक को भारतीय शिक्षा मिलनी चाहिए।
14. पाठ्यक्रम में भारतीय दर्शन तथा सामाजिक आदर्शों को स्थान मिलना चाहिए।
15. बालक को पाठ्य पुस्तकों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के लिये बाध्य न किया जाये अपितु उसे प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने के अवसर प्रदान किये जाए।
शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education) -
टैगोर ने 'शिक्षा' शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। उनके शब्दों मे,
सर्वोच्च शिक्षा वही है जो सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।
The highest education is that which makes our life in harmony with all existence.
टैगोर उस शिक्षा को महत्त्वपूर्ण मानते थे जो हमें सूचना तथा ज्ञान ही प्रदान नहीं करती अपितु हमारे जीवन का विश्व के समस्त जीवनों के साथ मेल उत्पन्न करती है। वे प्रचलित शिक्षा के घोर विरोधी थे। प्रचलित शिक्षा बालक को समय से पूर्व ही प्रकृति की गोद से छीनकर उसे कक्षा की चार दीवारी में तथा कुछ दिन पश्चात् ऑफिस अथवा फैक्ट्री में बन्द कर देती थी। टैगोर का मानना था कि बालक की शिक्षा प्रकृति की गोद में होनी चाहिए।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education) -
यद्यपि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शिक्षा के उद्देश्यों की किसी भी स्थान पर पृथक रुप से चर्चा नहीं की है, तथापि उनके लेखों में शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी उनके विचार प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
1. शारीरिक विकास (Physical Development)-
टैगोर का विश्वास था कि स्वस्थ मन के लिये स्वस्थ शरीर परम आवश्यक है। अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि बालक का शारीरिक विकास करना शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है। उनका कहना था कि शारीरिक विकास के लिये यदि आवश्यक हो तो अध्ययन को कुछ समय के लिये छोड़ देना चाहिए, शारीरिक विकास के लिये टैगोर ने पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में गोता लगाने, फूलों को तोड़ने तथा प्रकृति माता के साथ अनेक प्रकार की शैतानियाँ करके खेल-कूद तथा व्यायाम को आवश्यक बताते हुये पौष्टिक भोजन पर बल दिया।
2. मानसिक विकास (Mental Development)-
टैगोर ने एक स्थान पर लिखा है, 'पुस्तकों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप से जीवित व्यक्ति को जानने का प्रयास करना ही सच्ची शिक्षा है। उसे कुछ ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता अपितु जानने की शक्ति का इतना विकास हो जाता है, जितना कक्षा में दिये जाने वाले व्याख्यानों द्वारा होना असम्भव है।' उनका विश्वास था कि मानसिक विकास तभी सम्भव है जब वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त किया जाए। इसके लिये बालक को प्राकृतिक क्रियायें करने के लिये अधिक से अधिक अवसर मिलने चाहिए।
In comparison with book learning, knowing the real living directly is true education. It not only promotes the acquiring of some knowledge but develops the curiosity and faculty of knowing and learning so powerfully that no class room teaching can match it.
(Moral and Spiritual Development)-
आदर्शवादी होने के नाते टैगोर ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा का उद्देश्य नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। अपने लेखों में उन्होंने अनेक नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की चर्चा की है ओर उनकी प्राप्ति के लिये आन्तरिक स्वतन्त्रता, आन्तरिक शक्ति, आत्मानुशासन, धैर्य एवं ज्ञान को परम आवश्यक बताया है।
(Development of All the Faculties)-
टैगोर यह मानते थे कि बालक के अन्दर सभी सुषुप्त शक्तियों का विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। टैगोर एक महान् व्यक्तिवादी थे। अतः वे व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास को विशेष महत्त्व देते थे। वे व्यक्ति को सम्मान तथा स्वतन्त्र्ता देने के पक्षपाती थे। इसके अतिरिक्त वे शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के मस्तिष्क को स्वतन्त्रता प्रदान करना मानते थे। जिससे कि वह पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त अन्य साधनों द्वारा भी स्वतन्त्र रूप से अपना विकास कर सके।
5. सामाजिक विकास (Social Development)-
टैगोर व्यक्तिवादी होने के साथ-साथ समाजवादी भी थे। वे जितना महत्व व्यक्ति तथा उसके व्यक्तित्व के विकास को देते थे उतना ही महत्त्व वे समाज तथ सामाजिक सेवा को भी देते थे। वे व्यक्ति की आध्यात्मिक पूर्णता के लिये उसका सामाजिक विकास आवश्यक मानते थे। अतः वे शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को ऐसे सामाजिक बन्धन में बाँधना चाहते थे जिससे कि व्यक्ति सामाजिक विकास करने के लिये प्रयत्न शील रहे। अतः उन्होंने अपनी संस्था, सामूहिक कायों एवं जनसेवा को अधिक महत्त्व दिया।
(Development of Nationalism)-
रवीन्द्रनाथ टैगोर राष्ट्रवादी होने के नाते शिक्षा को राष्ट्रीय जागृति का उत्तम एवं सफल साधन मानते थे। उन्होंने अपने विचारों, लेखों और कविताओं के द्वारा व्यक्तियों को राष्ट्र-प्रेम की ओर आकर्षित किया और उन्हें राष्ट्रीय एकता की अनुभूति कराई।
(Development of International Attitude)-
टैगोर के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य बालक में अन्तर्राष्ट्रीय की भावना का विकास करना है। वे अन्तर्राष्ट्रीय समाज के समर्थक थे और विश्व में एकता स्थाापित करना चाहते थे। अतः वे चाहते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक को अन्तर्राष्ट्रीय समाज के बन्धन में बाँधा जाये जिससे वह अन्तर्राष्ट्रीय समाज के विकास हेतु प्रयास करता रहे।
यद्यपि शिक्षा के उद्देश्यों की भाँति टैगोर ने शिक्षा के पाठ्यक्रम की भी कोई निश्चित योजना प्रस्तुत नहीं की परन्तु पाठ्यक्रम सम्बन्धी सामान्य विचार उनके लेखों में मिलते हैं।
टैगोर पूर्ण मानव (Whole man) को विकसित करना चाहते थे। इस महान् उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये उन्होंने भारतीय विद्यालयों के पाठ्यक्रमों को दोषपूर्ण बताया और एक व्यापक पाठ्यक्रम बनाने का सुझाव दिया। उनके अनुसार पाठ्यक्रम इतना व्यापक होना चाहिए कि वह बालक के जीवन के सभी पक्षों का. विकास कर सके और पूर्ण जीवन की प्राप्ति में सहायक हो सके।
अतः इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने पाठ्यक्रम में विभिन्न प्रकार के विषयों तथा क्रियाओं को सम्मिलित किया। उनके अनुसार पाठ्यक्रम कुछ विषय तथा क्रियायें इस प्रकार हैं-
1. विषय इतिहास, भूगोल, साहित्य, विज्ञान, प्रकृति-अध्ययन आदि।
2. क्रियायें- नाटक, भ्रमण, बागवानी, क्षेत्रीय अध्ययन, प्रयोगशाला कार्य, ड्राइंग, मौलिक रचना, अयाजबघर के लिये विभिन्न वस्तुओं का संग्रह आदि।
3. अतिरिक्त पाठ्यक्रम क्रियायें खेल-कूद, समाज-सेवा, छात्र-स्वशासन आदि।
डॉ० मुखर्जी के अनुसार,
'इस दृष्टिकोण से टैगोर की शिक्षा-संस्थाओं में लागू किया जाने वाला पाठ्यक्रम 'क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम' रहा है।'
शिक्षण-पद्धति (Method of Teaching) -
टैगोर ने प्रचलित पाठ्यक्रम की भाँति तत्कालीन नीरस तथा निष्क्रिय शिक्षा पद्धति की कृत्रिमता का विरोध किया तथा इस बात पर बल दिया कि शिक्षा की प्रक्रिया जीवन से पूर्ण होनी चाहिए। बालक का विकासकउसकी रुचियों तथा आवेगों के अनुसार होना चाहिए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा जीवन की वास्तविकताओं पर आधारित होनी चाहिए। बालक को ऐसे अवसर दिये जाने चाहिए कि वह स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान को अर्जित कर सके। टैगोर ने शिक्षण का सरल एवं प्रभापूर्ण बनाने के लिये निम्नलिखित शिक्षण सिद्धान्त प्रस्तुत किये।
(Teaching While Walking)-
(Discussion and Question-Answer Method)-
टैगोर का कथन था कि वास्तविक शिक्षा केवल पुस्तकों के रटने से ही प्राप्त नहीं हो जाती बल्कि बालकों को प्रश्नों तथा उत्तरों के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त वे वाद-विपाद विधि के समर्थक थे। वे कहते थे कि बालकों के समक्ष अनेक प्रकार की समस्यायें रखनी चाहिए और उनसे समस्याओं का हल वाद-विवाद द्वारा निकलवाना चाहिए।
(Learning Through Activity)-
क्रिया सिद्धान्त' उनकी शिक्षण विधि का महत्त्वपूण् 1 सिद्धान्त है। वे मानते थे कि शरीर और मस्तिष्क दोनों को क्रिया से शक्ति मिलती है। टैगोर क्रिया के सिद्धान्त में इतना अधिक विश्वास करते थे कि यदि कोई बालक शिक्षा प्राप्त करते समय भी उनसे पूछे- 'क्या मैं दौड़ आऊँ? तो वे कहते थे 'अवश्य'। उनका विश्वास था कि क्रियाओं से गतिहीन न रहकर गतिशील हो जाती है। उदाहरण के लिये पेड़ पर चढ़ने, फल तोड़ने, कूदने फाँदने, नृत्य करने, ताली बजाने, बिल्ली या कुत्ते के पीछे दौड़ने, हँसने चिल्लाने आदि क्रियाओं से थकावट दूर हो जाती है और बालक ज्ञान प्राप्त करने के लिये अधिक अच्छी दशा में आ जाता है। इसलिए उन्होंने अपनी संस्था में दस्तकारी का सीखना अनिवार्य कर दिया था।
(Learning Through Mother Tongue)-
टैगोर मातृभाषा को शिक्षा का सरलतम माध्यम समझते थे। उन्होंने कहा था विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना अनुचित है इसके अतिरिक्त टैगोर विश्व-बन्धुत्व की भावना के भी समर्थक थे। अतः उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम में सभी संस्कृतियों को स्थान मिलना चाहिए।
5. खेल द्वारा शिक्षण (Learning Through Game)-
टैगोर का कहना था कि बच्चों को शिक्षण खेल द्वारा दिया जाना चाहिए। खेल द्वारा शिक्षण उत्तम होता है क्योंकि खेल में बालक रूचि लेते हैं, आनन्द का अनुभव करते हैं तथा स्वतन्त्रता का भी अनुभव करते हैं इससे शिक्षण मनोरंजक तथा सरल हो जाता है।
(Learning Through Experience)-
टैगोर का विश्वास था कि शिक्षण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि जिससे बालक अपने स्वयं के अनुभवो से कुछ सीखें। इसके लिये आवश्यक है कि शिक्षा को बालक के जीवन पर केन्द्रित किया जाये। जब शिक्षा जीवन से सम्बन्धित हो जाती है तो उनकी कृत्रिमता समाप्त हो जाती है तथा बालक के अपने अनुभवों का महत्त्व बढ़ जाता है।
टैगोर अनुशासन को बाह्य व्यवस्था के रूप में नहीं, वरन् आन्तरिक भावना के रूप में स्वीकार करते थे। वे दण्ड-व्यवस्था के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि यदि शिक्षक ज्ञानी है, चरित्रवान है तथा उसका विद्यार्थियों के साथ व्यवहार प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण है तो बालक स्वंय ही अनुशासन का पालन करेंगे। वे स्वशासन की भावना के विकास हेतु खेल-कूद, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन को आवश्यक मानते थे।
शिक्षक (Teacher) -
टैगोर ने अपनी शिक्षण विधि में शिक्षक को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। उसे शिक्षा का मुख्य आधार माना। वे यह मानते थे कि 'मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।' अतः शिक्षा केवल शिक्षक द्वारा ही दी जा सकती है टैगोर के अनुसार शिक्षक के निम्नलिखित कार्य हैं-
1. ऐसे वातावरण का निर्माण करना, जिसमें बालक स्वानुभव द्वारा सरलतापूर्वक सीख सके।
2. बालक की रचनात्मक शक्तियों को विकसित करने का प्रयत्न करना।
3. व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर बालकों के लिये शिक्षा की उचित व्यवस्था करना।
4. आदर्श आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना।
5. बालकों के साथ प्रेम और सहानूभूतिपूर्ण व्यवहार करना।
विद्यालय (School) -
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है, 'विद्यालय आत्मबोध के आधार हैं।' वे विद्यालय को एक पवित्र स्थान मानते थे जहाँ पर बालकों में सद्गुणों का विकास हो सकता है। इस प्रकार टैगोर के अनुसार, विद्यालय अत्यन्त आवश्यक है लेकिन ये प्राचीन गुरु आश्रम की भाँति नगर के कोलाहल से दूर सुन्दर एवं प्राकृतिक स्थानों में स्थित होने चाहिए। वे मानते थे कि शिक्षक एवं विद्यार्थी द्वारा शिक्षा की साधना शान्त वातावरण में ही सम्भव हो सकती है।
अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों को व्यावहारिक रूप टैगोर ने सन् 1901 में भोलपुर के निकट सुरम्य शान्त, एकान्त. प्राकृतिक वातावरण में 'शान्ति निकेतन' विद्यालय की स्थापना करके दिया। यहाँ पर कक्षायें प्रकृति की गोद में. खुली हवा में, वृक्षों के नीचे लगती थीं। यहाँ छात्रों को उल्लासपूर्ण जीवन व्यतीत करने तथा आनन्दमय क्रियाओं एवं अन्वेषणों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। यहाँ शिक्षा का कार्यक्रम सवेरे चार बजे से रात के साढ़े नौ बजे तक चलता था। शिक्षा के अन्तर्गत स्वास्थ्य से लेकर स्वाध्याय तक की क्रियायें सम्मिलित थीं। आगे चलकर इस संस्था को विश्व भारती के नाम से विश्वविद्यालय का रूप दिया गया और यह विश्वविद्यालय विविध प्रकार की शिक्षा का केन्द्र बन गया। आज इस विश्वविद्यालय में निम्नलिखित विभाग हैं-
(Faculties in Vishwa Bharti)
1. पठन भवन (प्राइमरी एवं माध्यमिक स्कूल)
2. शिक्षा भवन (महाविद्यालय)
3. विद्या भवन (अनुसन्धान एवं उच्च शिक्षा केन्द्र)
4. विनय भवन (शिक्षण प्रशिक्षण केन्द्र)
5. कला भवन (ललित कला का विद्यालय)
6. श्री निकेतन (ग्रामोत्थान संस्था)
7. शिल्प भवन (कुटीर उद्योग संस्था)
8. संगीत भवन (संगीत की शिक्षा के लिये)
9. हिन्दी भवन (हिन्दी की शिक्षा एवं शोध कार्यों के लिये)
10. चीनी भवन (चीनी एवं भारतीय संस्कृतियों के अध्ययन का विभाग)
(Aims of Vishwa Bharti)
1. भारतीय आदर्श एवं संस्कृति के अनुरूप शिक्षा देना।
2. प्राचीन संस्कृतियों में सामंजस्य स्थापित करना एवं उनका पाश्चात्य विचारधाराओं से समन्वय स्थापित करना।
3. अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना।
4. विश्व शान्ति स्थापित करना।
5. संस्थी को एक ऐसा सांस्कृतिक विश्व केन्द्र माना गया जहाँ विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृतियों, सभ्यताओं, धर्म, इतिहास एवं विज्ञान का अध्ययन सम्भव हो सके।
(Other Educational Views of Tagore) -
1. व्यावसायिक शिक्षा (Vocational Education) -
भारत में अधिकांश जनता कृषि तथा लघु-कुटीर उद्योगों द्वारा आजीविक उपार्जन करती है, अतः लोगों को कृषि तथा उद्योग-धन्धों की शिक्षा दी जानी चाहिए। इससे व्यक्तियों तथा देश की निर्धनता दूर होगी। टैगोर पहले व्यक्ति थे जिन्हेंने कृषि शिक्षा की आवश्यकता के महत्त्व को अनुभव किया।
2. जन शिक्षा (Mass Education)-
गुरुदेव ने जनसाधारण की शिक्षा पर बल दिया। भारत में अत्यधिक निर्धनता है तथा लोगों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसका निवारण अशिक्षा को दूर करके किया जा सकता है। आपका विचार था कि बालकों को अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त आपने ग्रामीण शिक्षा तथा प्रौढ़ो की शिक्षा पर बल दिया। आपका विचार था कि शिक्षा जीवन से जुड़ी होनी चाहिए तथा ग्रामों एवं नगरों की शिक्षा में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। ग्रामोद्धार के लिए शिक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है, आपकी ऐसी धारणा थी।
3. स्त्री शिक्षा (Women Education)-
टैगोर पुरूष तथा स्त्री की समानता के विचार के प्रबल समर्थक थे। स्त्रियाँ अशिक्षा के कारण पुरुषों से पीछे रह जाती हैं। अतः इस पिछड़ेपन को दूर करने के लिये आपने स्त्री शिक्षा का समर्थन किया। आप पुरूष और स्त्री दोनों की शिक्षा में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। अतः आपने बताया कि दोनों को समान रूप से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
4. धार्मिक शिक्षा (Religious Education)-
रवीन्द्रनाथ टैगोर अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति थे। वे 'धर्म को असीम के प्रति तीव्र इच्छा तथा असीम को आन्नदमय अनुभूति मानते थे।' इस प्रकार वे धर्म को एक अनुभूति मानते थे। आप पूजा-पाठ, कर्म-काण्ड, बाहरी दिखावे और आडम्बर के विरूद्ध थे। आपका कहना था कि 'सच्चा धर्म तो मनुष्य को मनुष्य मानने में है' निःस्वार्थ और पवित्र भावना द्वारा मानव की सेवा करने से हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। उनका कथन था कि-
संसार की विभिन्नताओं में जो एकमात्र सत्य है, वही धर्म है। वही ईश्वर है। इसके लिये किसी बाहरी आडम्बर की आवश्यकता नहीं है वरन् इसे केवल जीकर ही सीखा जा सकता है।
(Education for National and International Development)-
टैगोर का विचार था कि शिक्षा के पाठ्यक्रम में अपने देश की भाषा, सभ्यता तथा संस्कृति के साथ-साथ अन्य देशों की भाषा, सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन भी सम्मिलित करना चाहिए। आपका मानना था कि ऐसी शिक्षा से विभिन्न राष्ट्रों की बीच सद्भावना स्थापित होगी। इससे लोगों में समस्त मानव जाति के प्रति प्रेम तथा विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास होगा। इस प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर, संकीर्ण राष्ट्रीयता के समर्थक नहीं थे बल्कि वे व्यक्तियों में राष्ट्रीयता के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय भावना का भी विकास करना चाहते थे। इन विचारों को उन्होंने अपनी संस्था विश्व भारती में कार्य रूप प्रदान किया।
6. शिक्षा में स्वतन्त्रता (Freedom in Education)-
आपका विचार था कि शिक्षा देते समय बालक को स्वतन्त्र वातावरण में समस्त बन्धनों से मुक्त रखना चाहिए। स्वतन्त्रता केवल शारीरिक ही नहीं वरन् हृदय, मस्तिष्क एवं आत्मा की भी होनी चाहिए। स्वतन्त्रता देने से बालक के चरित्र का निर्माण होता है तथा गुरु-शिष्य के बीच सम्बन्ध मधुर बने रहते हैं। यदि बालक को उसके विकास हेतु पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाये तो उसे स्वतन्त्र क्रियायें करने के अधिक अवसर मिल सकेंगे। यद्यपि टैगोर ने बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाने की बात की है तथापि वे यह भी मानते थे कि बालक को स्वछन्दता की हद तक स्वतन्त्रता नहीं दी जानी चाहिए।
(Impact of Other Isms in the Philosophy of Tagore) -
अब हम टैगोर के दर्शन पर अन्य दर्शनों के प्रभाव का अध्ययन करेंगे-
1. प्रकृतिवादी टैगोर (Tagore as a Naturalist)-
रूसो की भाँति टैगोर भी प्रकृतिवादी से प्रभावित थे। वे जन्म से ही प्रकृति उपासक थे। वे प्रकृति को एक शक्ति के रूप में स्वीकार करते थे तथा उनकी यह धारणा थी बालक की शिक्षा प्राकृतिक वातावरण में होनी चाहिए। रूसो तथा टैगोर दोनों ही यह मानते थे कि प्रकृति एक महान् शिक्षक की भाँति है और प्रकृति को बहुत महत्त्व देते थे। वे यह मानते थे कि शिक्षा में विद्यालयों, नियमों, पुस्तकों, शिक्षकों आदि की तुलना में बालकों का महत्त्व अधिक है। अतः शिक्षा की व्यवस्था बालकों की आवश्यकता के अनुसार की जानी चाहिए। इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि उन्हें प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्ति के अवसर प्रदान किए जायें। उन्होंने रूसो की भाँति 'प्रकृति की ओर लौटो' का नारा लगाया।
किन्तु टैगोर का प्रकृतिवाद रूसो के प्रकृतिवाद से कुछ भिन्न है। टैगोर के प्रकृतिवाद का समाज से घनिष्ट सम्बन्ध है, क्योंकि टैगोर बालक की प्रकृति का समाजीकरण करके उसे विकसित करने का सुझाव देते हैं। इसके विपरीत रूसो बालक को समाज से दूर रखकर विकसित करना चाहता था। इसी प्रकार टैगोर प्रकृति में मानव एकता तथा ब्रह्म का दर्शन करते हैं तथा इस प्रकार वे 'अति प्रकृतिवाद' (Super Naturalism) में विश्वास करते हैं, जबकि रूसो प्रकृति को मात्र एक भौतिक शक्ति मानता था।
2. आदर्शवादी टैगोर (Tagore as an Idealist)-
टैगोर प्रमुख रूप से आदर्शवादी थे तथा उनका आदर्शवाद सैद्धान्तिक नहीं वरन् व्यावहारिक भी था। उन्होंने अपने आदर्श सम्बन्धी विचारों का अपनी संस्था में क्रियान्वयन करने के लिये उपयुक्त परिस्थितियों का सृजन किया।
आप यह मानते थे कि व्यक्ति विश्व में रहकर ही ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है। यदि मानव पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त कर ले तो वह ईश्वर से साक्षात्कार कर सकता है। आपने बताया कि शिक्षा के कुछ प्रमुख उद्देश्य पूर्ण मनुष्यत्व का विकास, आध्यात्मिक संस्कृति का विकास, शाश्वत सत्य की खोज, सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् आदि मूल्यों की प्राप्ति है। आपके विचार से शिक्षा का कार्य सम्पूर्ण सृष्टि से जीवन का सामंजस्य स्थापित करना है। आप ब्रह्म, ईश्वर एवं मनुष्य की श्रेष्ठता में विश्वास रखते थे तथा अनेकता में एकता के सिद्धान्त के समर्थक थे।
3. प्रयोजनवादी टैगोर (Tagore as a Pragmatist) -
आदर्शवादी होने के साथ-साथ टैगोर प्रयोजनवादी भी थे वे डीवी की भाँति शिक्षा को जीवन से सम्बन्धित करना आवश्यकता समझते थे। उनका विचार था कि किसी आदर्श या भौतिक विचार को बिना जाँचे-परखे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए तथा विद्यालयों का समाज से सम्बन्ध बना रहना चाहिए।
टैगोर ने शिक्षा के आदर्शों तथा उद्देश्यों में अनेक तत्त्वों को सम्मिलित करने की बात कही। जैसे स्वतन्त्रता, रचनात्मक अभिव्यक्ति, व्यक्तित्व का आदर, सामाजिकता, क्रियाशीलता, सामाजिक क्रियायें आदि। प्रयोजनवादियों के समान वे भी यह मानते थे कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति होना चाहिए तथा शिक्षा लक्ष्यहीन नहीं होनी चाहिए।
4. यथार्थवादी टैगोर (Tagore as a Realist)-
टैगोर केवल आदर्शवादी ही नहीं वरन् यथार्थवादी भी थे और उनका यथार्थवाद कोरा भौतिकवाद नहीं था। उन्होंने पश्चिमी यथार्थवाद का भारतीय आदर्शवादी से सामंजस्य स्थापित करके पश्चिमी विज्ञान और पूर्वी संस्कृति में एकता को खोज निकाला। उन्होंने शिक्षा को व्यक्तिगत, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन से सम्बन्धित किया। इस प्रकार उन्होंने शिक्षा को यथार्थ एवं व्यावहारिक बनाने का प्रयत्न किया।
5. मानवतावादी टैगोर (Tagore as a Humanist)-
टैगोर मानवतावादी थे। उन्होंने कहा, 'मैं मानवता के हृदय में वास करने की इच्छा रखता हूँ।' वे मानव जाति से विशेष प्रेम करते थे उनका लक्ष्य मनुष्य का उद्धार करना था। वे मानव को ब्रह्म का अंश मानते थे। वे चाहते थे कि मनुष्य एक-दूसरे से अत्यधिक प्रेम करें, एक-दूसरे को समझें तथा अपने हृदय की बात एक-दूसरे से कहें। ऐसा करने से मानवता का विकास होगा तथा लोगों के दुःख और कष्ट दूर होंगे।
इसी कारण उन्होंने लोक शिक्षा की योजना बनाई तथा अन्तर्रष्ट्रीय एवं विश्व बन्धुत्व की भावना के विकास पर बल दिया। अपनी संस्था विश्वभारती में उन्होंने इसी मानव एकता की भावना को विकसित करने के लिये सभी संस्कृतियों एवं धर्मों का समन्वय किया।
टैगोर के शिक्षा-दर्शन का मूल्यांकन
(An Estimate of Tagore's Philosophy of Education) -
डॉ० एच० बी० मुखर्जी के शब्दों में,
'टैगोर वर्तमान भारत के शैक्षिक पुनरुत्थान के सबसे बड़े पैगम्बर थे। उन्होंने देश के सम्मुख शिक्षा के सर्वोच्च आदर्शों को स्थापित करने के लिये आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्थाओं में ऐसे शैक्षिक प्रयोग किए जिन्होंने उन्हें आदर्श का सजीव प्रतीक बना दिया।'
Tagore was the greatest prophet of educational renaissance in modern India. He waged a ceaseless battle to uphold the highest educational ideals before the country, and conducted educational experiments at his own institutions, which made them living symbols of what an ideal should be.
टैगोर बीसवीं शताब्दी के एक महान् दार्शनिक थे। उन्होंने विदेशी राज्य द्वारा निर्धारित की हुई नीरस तथा निष्क्रिय शिक्षा-दर्शन का विकास किया जिसकी भारत को आवश्यकता थी तथा जिसके द्वारा सम्पूर्ण मानव का विकास हो सकता है। टैगोर मानव और प्रकृति की मौलिक एकता में विश्वास करते थे तथा बालकों को नगर के कृत्रिम वातावरण से दूर प्रकृति के सुरम्य प्रांगण में पढ़ाये जाने के पक्षधर थे। लेकिन इसके साथ ही वे यह भी चाहते थे कि शिक्षा मानवीय आवश्यकताओं के अनुसार हो। बालक आगे चलकर एक श्रेष्ठ मानव बने, वे अपने निर्णय स्वयं लें तथा उनका दृष्टिकोण विशाल हो। उन्होंने शिक्षा में क्रियाओं एवं अनुभवों के समावेश पर बल दिया तथा निष्क्रिय एवं पुस्तकीय शिक्षा का विरोध किया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले भारतीय दार्शनिक हैं जिन्होंने शिक्षा को सामाजिक एवं बहु-उद्देशीय प्रक्रिया में स्वीकार किया। उन्होंने शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप तथा कार्य दोनों को स्पष्ट करने का प्रयास किया उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा देने के विचार पर बल दिया। आज हम देखते है कि पूरे देश में शिक्षा का माध्यम मातृभाषायें हैं।
आपने विभिन्न प्रकार की शिक्षा जैसे धार्मिक शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, जन-शिक्षा आदि पर बल दिया। आपने राष्ट्रीयता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करने के लिये धार्मिक शिक्षा द्वारा धर्म के बाह्य आडम्बरों का विरोध किया। यह विचार आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुरूप हैं। इसी प्रकार आपने स्त्री-शिक्षा का पक्ष लिया। यह भी आधुनिक युग की माँग है कि पुरुष तथा स्त्री को समानता के अधिकार प्राप्त हों। इसी प्रकार व्यावसायिक शिक्षा द्वारा देश की निर्धनता तथा बेरोजगारी की समस्या का समाधान किया जा सकता है। आज के युग की यह एक ज्वलन्त समस्या है। राष्ट्रीयता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास आधुनिक अणु-युग में अत्यधिक अनिवार्य है। विश्व-शान्ति स्थापित करने की दृष्टि से युद्धों की विभीषिका से बचने की दृष्टि से यह परम आवश्यक है कि बालकों में न केवल संकीर्ण राष्ट्रीयता बल्कि विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास किया जाए। इसी के साथ देश को एकता के सूत्र में पिरोये रखने के लिये राष्ट्रीयता की भावना का भी आधुनिक युग में अत्यन्त महत्त्व है।
शिक्षा-शास्त्री के रूप में उन्होंने शिक्षा के अति व्यापक उद्देश्य बताये तथा इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक विस्तृत पाठ्यक्रम की रचना की। आधुनिक युग में हम पाठ्यक्रम को विस्तृत एवं व्यापक बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।उन्होंने शिक्षा में ललित कलाओं तथा विज्ञान को भी स्थान दिया। आधुनिक युग में ये शिक्षा के अंग बन गये हैं। टैगोर का विचार था कि अनुशासन बनाए रखने के लिये बालकों को दण्ड नहीं देना चाहिए। आज इस विचार को सही माना जाता है। बाल-अपराध को रोकने के लिये उन्होंने हमें 'स्वतन्त्र्ता की चिकित्सा' का विचार दिया जो आज भी प्रासंगिक है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने शिक्षा सम्बन्धी आदर्शों तथा विचारों को मूर्त रूप अपनी संस्था 'विश्व भारती' में दिया। विश्व भारती के अतिरिक्त देश की अन्य शिक्षा-संस्थाओं पर टैगोर का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई नहीं देता परन्तु वे अप्रत्यक्ष रूप से किसी मात्रा में अवश्य प्रभावित हैं। उदाहरण के लिये देश के अनेक विश्वविद्यालयों में मातृभाषा के साथ-साथ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाओं का शिक्षण प्रदान किया जाता है। बच्चों को उनके वास्तविक जीवन की क्रियाओं द्वारा सीखने के अवसर प्रदान कर उन्हें समाज सेवा के कार्यों से जोड़ने की ओर भी प्रयत्न हो रहे हैं।
वास्तव में, हमारे देश में आधुनिक काल में जो महान् पुरुष हुये हैं, उनमें सर्वोच्च स्थान पर दो नाम आते हैं- महात्मा गाँधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर। एक शिक्षा शास्त्री के रूप में, शिक्षा के पुननिर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाले के रूप में टैगोर की देन अमूल्य है।
विश्वविद्यालयी प्रश्न (University Questions)
1. 'टैगोर आधुनिक भारत के शैक्षिक पुनुरूत्थान के सबसे महान् पैगम्बर थे।' इस कथन की विवेचना कीजिए? Tagore was the greatest prophet of educational renaissance in modern India. Comment on this statement.
"Tagore's contribution to education presents a practical synthesis between the individual and social ideals in educations. ' Discuss Rabindra's Philosophy in that light.
Tagore was a forecaster of humanity.' Discuss.
Give a critical estimate of the educational philosophy of Tagore, bringing out his views on curriculum and place of teacher.
लघु उत्तरात्मक प्रश्न (Short Answer Type Questions)
1. टैगोर को उनकी किस रचना पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ?
2. टैगोर के जीवन-दर्शन के सम्बन्ध में कोई दो तथ्य बताइए।
3. टैगोर के अनुसार, शिक्षा का क्या अर्थ है?
4. टैगोर के अनुसार, शिक्षा के किन्हीं दो उद्देश्यों का विवेचन कीजिए।
5. टैगोर के अनुसार, पाठ्यक्रम क्या होना चाहिए?
6. टैगोर द्वारा स्थापित विश्व भरती संस्था के उद्देश्य बताओ।
7. धार्मिक शिक्षा के सम्बन्ध में टैगोर के विचारों का विश्लेषण कीजिए।
8. 'मानवतावादी टैगोर' पर 10 पंक्तियाँ लिखिए।
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