महात्मा गाँधी का शिक्षा दर्शन (Education Philosophy of Mahatma Gandhi)

"गाँधी जी ने उन महान शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में स्थान प्राप्त किया है जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नवज्योति दी है।" 

"Gandhiji has secured a unique place in the galaxy of the great teachers who have brought fresh light in the field of education."



जीवन-परिचय (LIFE SKETCH) —


महात्मा गाँधी का पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। इनका जन्म 2 अक्टूबर, सन् 1869 को काठियावाड़ की एक छोटी-सी रियासत पोरबन्दर में हुआ था। इनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट के दीवान थे। इनकी माता अत्यन्त धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। माता के धार्मिक विचारों का गाँधीजी पर अमिट प्रभाव पड़ा। तेरह वर्ष की आयु में गाँधीजी का विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ। प्रारम्भ में गाँधीजी साधारण कोटि के विद्यार्थी थे। सन् 1887 ई० में उन्होंने मैट्रीकुलेशन की परीक्षा पास की, उसी वर्ष 4 सितम्बर को उन्हें कानून का अध्ययन करने के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। इंग्लैण्ड में वे लगभग चार वर्ष तक कानून के छात्र के रूप में रहे और 10 जून, सन् 1891 ई० को बैरिस्टर बनकर भारत वापस आये। वे काठियावाड़ तथा बम्बई में कुछ दिनों तक वकालत करते रहे, किन्तु इस व्यवसाय में उन्हें अधिक सफलता नहीं मिली। सन् 1893 ई० में एक मुसलमान व्यापारी की ओर से एक मुकदमे की पैरवी करने उन्हें दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। यद्यपि गाँधीजी वहाँ केवल एक वर्ष के लिए ही गये थे, परन्तु वहाँ पर अपने देशवासियों की दुर्दशा और उनके साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों ने उन्हें इतना विचलित किया कि उनकी दशा को सुधारने तथा अंग्रेजों द्वारा उन पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए वहाँ उन्हें 20 वर्ष तक रहना पड़ा। इस अवधि में उन्हें गुलामी के कष्टों और वर्गभेद के जुल्मों का कटु अनुभव हुआ। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में रहकर स्वतन्त्रता का मूल्य मालूम हुआ और वहीं पर भारत को स्वतन्त्र कराने का दृढ़ निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अहिंसा रूपी आध्यात्मिक अस्त्र को अपनाया और जीवन भर इसी अस्त्र के सहारे बुराइयों और अत्याचारों के विरुद्ध लड़ते रहे।


सन् 1914 में स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण वे भारत वापस आ गये। सन् 1915 में वह भारत के राजनीतिक क्षेत्र में कूद पड़े और ब्रिटिश शासन का विरोध किया। सन् 1917 में उन्होंने साबरमती आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम का उद्देश्य हरिजन उद्धार ग्रामोद्योग तथा अन्य सामाजिक सुधार तथा रचनात्मक कार्य करना था। सन् 1921 में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा योजना के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किये। सन् 1930 में कांग्रेस ने पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास किया और स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया। यह आन्दोलन काफी उग्र हो गया और ब्रिटिश सरकार को गाँधीजी के साथ समझौता करना पड़ा। यह समझौता 6 मार्च, सन् 1931 को हुआ जो 'गाँधी-इरविन समझौता' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस समझौते के बावजूद अंग्रेजों ने अपनी दमनात्मक नीति को नहीं छोड़ा, जिसके परिणामस्वरूप सन् 1942 में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन की आग भड़क उठी। देश में क्रान्ति हुई। महात्मा गाँधी सहित तमाम स्वतन्त्रता सेनानी जेल में बन्द कर दिये गये। धीरे-धीरे परिस्थितियों में कुछ सुधार आया और सन् 1944 में सभी को जेल से मुक्त कर दिया गया। 15 अगस्त, सन् 1947 के दिन भारत को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। स्वतन्त्रता के साथ ही साथ देश का विभाजन हुआ। साम्प्रदायिक झगड़े उठ खड़े हुए। इन झगड़ों को शान्त करने के लिए गाँधीजी ने अपनी जान की बाजी लगा दी। उनकी साम्प्रदायिक नीति से असन्तुष्ट होकर एक संकीर्ण मन वाले युवक नाथूराम गोडसे ने शुक्रवार के दिन 30 जनवरी, सन् 1948 को उन्हें अपनी गोली का शिकार बनाया। उसी क्षण विश्व की यह महान विभूति तथा मानवता और स्वतन्त्रता का अमर पुजारी हमारे बीच से उठकर चला गया।



गाँधीजी का जीवन-दर्शन
(GANDHI'S PHILOSOPHY OF LIFE)-

गाँधीजी आदर्शवादी और प्रयोजनवादी दोनों ही थे। उनकी धर्म में बहुत आस्था थी। वे भगवान, आत्मा, मानवीय और सामाजिक मूल्यों तथा समानता और भाईचारे एवं मानववाद में विश्वास रखते थे। वे चरित्र निर्माण, सहयोग, एकता, सादगी, उच्च विचार, सत्य, प्रेम और राष्ट्रीय उत्थान पर निरन्तर बल देते थे। उनके दर्शन के चार स्तम्भ थे।


गाँधी दर्शन के चार स्तंभ —


  • सत्य — (सर्वोच्च मानव मूल्य का  मनसा, वाचा,कर्मणा पालन करना)


  • अहिंसा — (हिंसा का सहारा ना लेना)


  • निर्भयता — (दमन के विरुद्ध आवाज उठाना)


  • सत्याग्रह— (सत्य का दृढ़तापूर्वक पालन करके अहिंसात्मक ढंग से अपनी माँगों को पूरा करवाना)


1. सत्य (Truth)-  गाँधी के जीवन दर्शन में सत्य का सर्वश्रेष्ठ स्थान था। गाँधीजी की मान्यता थी कि व्यक्ति के विचार, वाणी व कार्य सत्य के प्रतीक होने चाहिए अर्थात् उसे हर पल स्वयं को सत्य के घेरे में केन्द्रित करना चाहिए। उनकी मान्यता थी कि सत्य व्यक्ति को अनेक समस्याओं से बचाता है व व्यक्ति में आत्मविश्वास जाग्रत करता है। उन्होंने सत्य को ही पूजा व ईश्वर के रूप में स्वीकार किया है।



2. अहिंसा (Non-violence)-  सत्य के समान ही गाँधीजी अहिंसा की अवधारणा को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार अहिंसा की अवधारणा में निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं- 

(1) अहिंसा परम श्रेष्ठ धर्म है।

(2) अहिंसा पशुबल से अनेक अर्थों में उच्च है।

(3) अहिंसा परम प्रेम व श्रद्धा पर निर्भर है।

(4) अहिंसा से त्याग-वृत्ति आती है।

(5) अहिंसा आध्यात्मिक अस्त्र है।

(6) अहिंसा के लिए सदाचरण एवं आत्मा पर नियन्त्रण आवश्यक है।



3. निर्भयता (Fearlessness)-  गाँधी के जीवन दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है- निर्भयता। गाँधीजी के अनुसार निर्भयता का अभिप्राय है- जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्ति निर्भीकता के साथ कार्य कर सके और किसी भी विपत्ति के आने पर निर्भीकता के साथ उसका सामना कर सके।


4. सत्याग्रह (Satyagraha)- गाँधी के जीवन दर्शन का एक पक्ष था उनका सत्य के लिए आग्रह अर्थात् सत्याग्रह। सत्याग्रह का तात्पर्य है- जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में व्यक्ति सत्य की दिशा में किये गये निर्णय पर अडिग रह सके। जो व्यक्ति सत्य पर अडिग रहता है वह जीवन में सफलता की ओर उन्मुख होता है। उन्होंने सत्याग्रह के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है- "सत्य का अर्थ है-झूठ के परे और सत्याग्रह का अर्थ है- सत्य के लिए किया गया हठ या आग्रह।"



शिक्षा-दर्शन
(EDUCATIONAL PHILOSOPHY) —


गाँधीजी ने राजनीति, समाज-सुधार, सत्य और अहिंसा के क्षेत्रों में अति महान सफलताएँ प्राप्त कीं। इनके कारण शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार को दी जाने वाली उनकी देन बहुत ही कम याद आती है। वास्तव में शैक्षिक विचारकों में उनका स्थान अति श्रेष्ठ है। उन्होंने अपने जीवन के प्रारम्भ में ही यह अनुभव कर लिया था कि सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और नैतिक प्रगति का आधार 'शिक्षा' है।


डॉ० एम० एस० पटेल का कथन है-

 "गाँधीजी ने उन महान शिक्षकों और उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नवज्योति दी है।" ग्रीन का कथन था कि "पेस्टालॉजी आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार का प्रारम्भिक बिन्दु था। जहाँ तक पाश्चात्य शिक्षा का सम्बन्ध है, यह बात सत्य हो सकती है। गाँधीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्ध करता है कि वे धर्म में शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार के प्रारम्भिक बिन्दु हैं।"



गाँधीजी के शिक्षा दर्शन के आवश्यक तत्त्व
(ESSENTIAL ELEMENTS OF GANDHIJI'S PHILOSOPHY OF EDUCATION) —


गाँधीजी के शिक्षा दर्शन के आधार पर हम जिन महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को प्राप्त करते हैं, वे निम्नलिखित हैं-


(1) गाँधीजी शिक्षा द्वारा व्यक्ति के मन, शरीर व आत्मा का पूर्ण विकास करना आवश्यक समझते थे।

(2) गाँधीजी ने उस शिक्षा को अच्छा बताया जो हमें सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक क्षमता भी दे सके।

(3) सम्पूर्ण देश में 7 से 14 वर्ष तक के बालकों की शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होनी चाहिए। 

(4) वह यह भी मानते थे कि शिक्षा अक्षर ज्ञान नहीं है, वरन् वह व्यवहार का परिमार्जन करने की प्रक्रिया है।

(5) शिक्षा के द्वारा उत्तम नागरिकों का निर्माण होना चाहिए।

(6) शिक्षा का माध्यम मातृ‌भाषा होनी चाहिए।

(7) शिक्षा का सम्बन्ध जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से होना चाहिए।

(8) शिक्षा सत्य व अहिंसा के मूल्यों को विकसित करने में सहायक होनी चाहिए। 

(9) शिक्षा के द्वारा बालक में आर्थिक क्षमता अथवा उत्पादन क्षमता का विकास किया जाना चाहिए।

(10) शिक्षा द्वारा बालक की क्षमताओं का पूर्ण रूप से विकास किया जाना चाहिए।

(11) शिक्षा योजना में कम से कम मैट्रिकुलेशन तक अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(12) शिक्षा को बालक के शरीर, हृदय, मस्तिष्क और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण विकास करना चाहिए।



शिक्षा का अर्थ
(MEANING OF EDUCATION) —


“गाँधीजी ने साक्षरता या लिखने-पढ़ने के साधारण ज्ञान को शिक्षा नहीं माना है। उनके विचार से "साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न शिक्षा का प्रारम्भ, यह तो केवल स्त्री-पुरुष को शिक्षित करने का साधन है।"


"Literacy is not the end of education or even the beginning. It is only of the means where by man and woman can be educated."


गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का रूप अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत है। शिक्षा बालक में सभी प्रकार की क्षमताओं का विकास करती है। गाँधीजी ने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है कि,

 "सच्ची शिक्षा वह है जो बालकों की आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं को उनके अन्दर से बाहर प्रकट एवं उत्तेजित करती है।" 

"The true education is that which draws out and stimulates the spiritual, intellectual and physical faculties of the children."


इस प्रकार गाँधी जी शिक्षा का अर्थ, शरीर, बुद्धि, भावना और आत्मा के पूर्ण विकास को मानते हैं अर्थात् व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास हो सके।



शिक्षा के उद्देश्य
(AIMS OF EDUCATION) —


गाँधीजी ने शिक्षा को विभिन्न समयों में विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है और समय-समय पर शिक्षा के अनेक उद्देश्य बताये हैं। गाँधीजी के उद्देश्य दो वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं-

 तात्कालिक (Immediate) व अन्तिम (Ultimate) 


(1) तात्कालिक उद्देश्य (Immediate Aims)- इसके अन्तर्गत गाँधीजी ने उन उद्देश्यों को रखा है, जिनसे विद्यार्थी को तुरन्त लाभ हो सके। गाँधीजी की शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं-


1. शारीरिक विकास (Physical Development)— मानव को अपने जीवन में किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति तभी सम्भव हो सकती है, जब उसका शरीर ठीक प्रकार से विकसित हो। शारीरिक विकास आत्मिक विकास के लिए भी आवश्यक है।


2. नैतिक अथवा चारित्रिक विकास (Moral or Character Development) - शिक्षा के इस उद्देश्य के विषय में बताते हुए गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- "मैंने सदैव हृदय की संस्कृति अथवा चरित्र निर्माण को प्रथम स्थान दिया है तथा चरित्र निर्माण को शिक्षा का उचित आधार माना है।" एक उत्तम चरित्र में वे सत्य, अहिंसा, निर्भयता, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय और अपरिग्रह आदि गुणों का होना आवश्यक समझते थे।


3.मानसिक एवं बौद्धिक विकास (Mental and Intellectual Development)-  गाँधीजी के अनुसार, शरीर के साथ-साथ मन एवं बुद्धि का विकास करना भी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक होता है, उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है।


4. जीविकोपार्जन का उद्देश्य (Vocational Aims) - 

गाँधीजी के अनुसार, 

"शिक्षा को बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा होना चाहिए।"

"Education ought to be a kind of insurance against unemployment."


शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आजीविका उपार्जन के योग्य बनाना है, जिससे वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके। शिक्षा के इस उद्देश्य के अनुसार गाँधीजी का तात्पर्य यह था कि प्रत्येक बालक कमाते हुए कुछ सीखे और सीखते हुए कमाये।


5. सांस्कृतिक उद्देश्य (Cultural Aims) - गाँधीजी का कहना था कि मैं शिक्षा के साहित्यिक पक्ष के स्थान पर सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति शिक्षा का आधार तथा विशेष अंग है। अतः मानव के प्रत्येक व्यवहार पर संस्कृति की छाप होनी चाहिए। गाँधीजी चाहते थे कि शिक्षा द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास होना चाहिए।


6. पूर्ण विकास का उद्देश्य (Full Development Aims) — 

गाँधीजी के अनुसार,

 "शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा का उत्कृष्ट एवं सर्वांगीण विकास करे।" 

"By education, I mean an all round drawing out of the best in child and man,body, mind and spirit."


वे मानते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास होना चाहिए।


7. मुक्ति का उद्देश्य (Liberation Aims)- 

'सा विद्या या विमुक्तये' गाँधीजी के इस आदर्श के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सांसारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाना है और उसकी आत्मा को उन्नत जीवन की ओर ले जाना है। गाँधीजी शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को आध्यात्मिक स्वतन्त्रता देना चाहते थे, जिससे उसकी आत्मा का विकास हो सके।



(II) अन्तिम उद्देश्य (Ultimate Aims) - गाँधीजी शिक्षा का चरम उद्देश्य वास्तविकता का अनुभव, ईश्वर एवं आत्मज्ञान मानते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चरित्र निर्माण को आवश्यक माना।



वर्धा योजना
(WARDHA SCHEME) —


अंग्रेजों की द्वैध शासन प्रणाली से भारतीय सन्तुष्ट नहीं थे, वे उसकी समाप्ति की माँग कर रहे थे। समय की नब्ज पहचानते हुए ब्रिटिश संसद ने 1935 में 'भारत सरकार अधिनियम' (Government of India Act, 1935) पास किया। यह अधिनियम 1937 में लागू किया गया। इस अधिनियम से भारत में द्वैध शासन की समाप्ति हुई और प्रान्तों में स्वशासन स्थापित हुआ। उस समय भारत 11 प्रान्तों में विभाजित था। इन 11 प्रान्तों में से 7 प्रान्तों में कांग्रेस मन्त्रिमण्डल बने और एक नये युग की शुरुआत हुई।


उस समय राष्ट्र का नेतृत्व गाँधीजी के हाथों में था। उन्होंने 11 अगस्त, 1937 के अखबार में प्रान्तीय सरकारों को 7 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा का भार अपने ऊपर लाने का सुझाव दिया। उसके बाद उन्होंने 2 अक्टूबर, 1937 के 'हरिजन' में लिखा कि प्राथमिक शिक्षा 7 वर्ष या इससे अधिक समय की हो और इसमें अंग्रेजी को छोड़कर वे सब विषय पढ़ाये जायें जिन्हें मैट्रीकुलेशन (हाईस्कूल) परीक्षा के लिए पढ़ाया जाता है। साथ ही किसी हस्तशिल्प अथवा उद्योग को अनिवार्य रूप से पढ़ाया व सिखाया जाये। गाँधीजी के इन विचारों से देश में एक नई शैक्षिक क्रान्ति का शुभारम्भ हुआ।


अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन, वर्धा —


22-23 अक्टूबर, 1937 को वर्धा में 'मारवाड़ी शिक्षा मण्डल' की रजत जयन्ती मनायी जाने वाली थी। श्रीमन्नारायण अग्रवाल इसके आयोजक थे। गाँधीजी ने उन्हें इस अवसर पर एक शिक्षा सम्मेलन का आयोजन करने का सुझाव दिया। अग्रवाल साहब ने इस अवसर पर भारत के सातों कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों के शिक्षामन्त्रियों और देश के चोटी के शिक्षाशास्त्रियों, विचारकों और राष्ट्रीय नेताओं को आमन्त्रित किया और 'अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन' का आयोजन किया। इसे 'वर्धा शिक्षा सम्मेलन' भी कहा जाता है। इस सम्मेलन का सभापतित्व स्वयं गाँधीजी ने किया था।



बेसिक शिक्षा (BASIC EDUCATION) —


डॉ० जाकिर हुसैन द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार जो बेसिक शिक्षा हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में स्वीकार की गई, यहाँ उसका क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है-


बेसिक शिक्षा की रूपरेखा —


(1) 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।

(2) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

(3) सम्पूर्ण शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प अथवा उद्योग पर आधारित हो।

(4) शिल्प का चुनाव बच्चों की योग्यता और क्षेत्रीय आवश्यकताओं के आधार पर किया जाये। (5) बच्चों द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग हो और उनसे आर्थिक लाभ लिया जाये, स्कूलों का व्यय पूरा किया जाये।

(6) शिल्पों की शिक्षा इस प्रकार दी जाये कि उससे बच्चे जीविकोपार्जन कर सकें।

(7) शिल्पों की शिक्षा में आर्थिक महत्त्व के साथ-साथ उसके सामाजिक एवं वैज्ञानिक महत्त्व को स्थान दिया जाये।



बेसिक शिक्षा के सिद्धान्त 
(Principles of Basic Education) —


बेसिक शिक्षा निम्नलिखित आधारभूत सिद्धान्तों पर विकसित की गयी थी-


1. शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने का सिद्धान्त- गाँधीजी शिक्षा को मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि किसी भी बच्चे को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखना उसके अधिकार का हनन है। यह कार्य असत्य है और मानवीय कसौटी पर हिंसा है। उन्होंने सर्वप्रथम इस बात पर ही बल दिया कि राज्य को 7 से 14 आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए।


2. शिक्षा को आत्मनिर्भर अर्थात् सैल्फ सपोर्टिंग बनाने का सिद्धान्त — गाँधीजी के सामने सार्वभौमिक, अनिवार्य और निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का प्रश्न था और उस समय राज्य के पास इसकी व्यवस्था करने के साधन नहीं थे। अतः उन्होंने स्कूलों में हस्तशिल्पों की शिक्षा अनिवार्य करने पर बल दिया। उनका अनुमान था कि बच्चों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से स्कूलों का व्यय निकल सकेगा।


3. सत्य, अहिंसा और सर्वोदय का सिद्धान्त — गाँधीजी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे समाज में होने वाले किसी भी प्रकार के शोषण को हिंसा मानते थे और उस समय अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति सामान्य व्यक्तियों का शोषण कर रहे थे। तभी गाँधीजी ने सबके लिए समान शिक्षा के सिद्धान्त को स्वीकार किया। इसमें छोटे-बड़े का भेद नहीं होगा, कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सबको अपने उत्थान के समान अवसर प्राप्त होंगे।


4. शिक्षा को जीवन से जोड़ने का सिद्धान्त- उस समय अंग्रेजी शिक्षा का भारतीयों के वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं था। गाँधीजी ने शिक्षा को बच्चों के वास्तविक जीवन, उनके प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण और घरेलू एवं क्षेत्रीय उद्योग-धन्धों पर आधारित कर उसे उनके वास्तविक जीवन से जोड़ने पर बल दिया।


5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा बनाने का सिद्धान्त—  गाँधीजी ने स्पष्ट किया कि मातृभाषा पर बच्चों का स्वाभाविक अधिकार होता है। उसी के माध्यम से जनशिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है। यही कारण है कि बेसिक शिक्षा में अभिव्यक्ति के आधारभूत माध्यम मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का सिद्धान्त स्वीकार किया गया।


6. शिक्षा को हस्तकौशलों पर केन्द्रित करने का सिद्धान्त— शिक्षा को किसी हस्तकौशल अथवा उद्योग पर केन्द्रित करने के पीछे गाँधीजी के कई विचार थे। पहला यह कि वे बच्चों को कायिक श्रम का महत्त्व बताना चाहते थे। दूसरा यह कि वे बच्चों को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे, उन्हें जीविकोपार्जन करने योग्य बनाना चाहते थे। तीसरा यह कि वे सबका उदय करना चाहते थे। चौथा यह कि वे शिक्षा को गाँवों के जीवन से जोड़ना चाहते थे और पाँचवाँ एवं अन्तिम यह कि वे शिक्षा को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे, स्कूलों में होने वाले उत्पादन से स्कूलों का व्यय निकालना चाहते थे।


7. ज्ञान को एक इकाई के रूप में विकसित करने का सिद्धान्त— यदि भौतिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा का एक ही लक्ष्य होता है- मनुष्य को वास्तविक जीवन के लिए तैयार करना। तब पाठ्यचर्या के समस्त विषयों एवं क्रियाओं का सम्बन्ध मनुष्य के वास्तविक जीवन से होना चाहिए। इसी दृष्टि से गाँधीजी ने ज्ञान को पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने पर बल दिया था। उनके इसी विचार ने शिक्षण की सहसम्बन्ध विधि को जन्म दिया। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी ज्ञान पूर्ण इकाई का होता है, उसे पूर्ण इकाई के रूप में ही विकसित करना चाहिए।


बेसिक शिक्षा के उद्देश्य
(Aims of Basic Education) —


बेसिक शिक्षा का अर्थ है- बच्चों को आधारभूत ज्ञान एवं कौशल प्रदान करना, उन्हें सामान्य जीवन के लिए तैयार करना। इस हेतु बेसिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निश्चित किये गये-


1. शारीरिक एवं मानसिक विकास- गाँधीजी इस तथ्य से अवगत थे कि मनुष्य एक मनो- शारीरिक प्राणी है, इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल दिया और तनुकूल शिक्षा की पाठ्यचर्या का निर्माण करने पर बल दिया।


2. सर्वोदय समाज की स्थापना- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः शिक्षा द्वारा मनुष्य का सामाजिक विकास होना चाहिए, परन्तु गाँधीजी का सामाजिक विकास से एक विशिष्ट अर्थ था। वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे, जिसमें कोई किसी का शोषण नहीं करेगा, सब एक- दूसरे से प्रेम करेंगे, सब एक-दूसरे का सहयोग करेंगे, सब एक-दूसरे की उन्नति में सहायक बनेंगे, सबका उदय होगा।


3. सांस्कृतिक विकास- उस काल में उच्च वर्ग के भारतीय पाश्चात्य संस्कृति के प्रशंसक होते जा रहे थे। तब गाँधीजी ने बड़े बलपूर्वक लिखा था कि यदि किसी स्थिति में पहुँचकर कोई पीढ़ी अपने पूर्वजों के प्रयासों से पूर्णतया अनभिज्ञ हो जाती है या उसे अपनी संस्कृति पर लज्जा आने लगती है तो वह नष्ट हो जाती है। इसलिए उन्होंने अपनी भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए बेसिक शिक्षा का विधान किया था।


4. चारित्रिक एवं नैतिक विकास- गाँधीजी चरित्र बल के महत्त्व को जानते थे। उनके साथियों ने भी शिक्षा द्वारा बच्चों के चरित्र निर्माण पर बल दिया। यह बेसिक शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य


5. व्यावसायिक विकास- गाँधीजी ने इस सम्बन्ध में दो बातें कहीं-


(I) बच्चों को जो भी हस्तकौशल सिखाये जायें उनसे स्कूलों में इतना उत्पादन हो कि इसके विक्रय लाभ से स्कूलों का व्यय निकाला जा सके।

(II) इन हस्तकौशलों अथवा उद्योगों को सीखने के बाद बच्चे अपनी जीविका कमा सकें। गाँधीजी ने आर्थिक अभावों से मुक्ति पाने के लिए इसे सबसे अधिक महत्त्व दिया। उनके सभी साथी उनके तर्क से सहमत थे।



6. नागरिकता का विकास- राष्ट्र की दृष्टि से व्यक्ति नागरिक कहा जाता है। किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के लिए यह आवश्यक होता है कि वे राष्ट्र के नियमों का पालन करें। किसी भी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का यह प्रमुख उद्देश्य होता है। बेसिक शिक्षा एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना है। इसका यह उद्देश्य होना स्वाभाविक है।


7. आध्यात्मिक विकास- गाँधीजी के अपने शब्दों में "शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा के सर्वांगीण और सर्वोत्कृष्ट विकास से है।" तब स्पष्ट है कि गाँधीजी शिक्षा द्वारा मनुष्य का आध्यात्मिक विकास भी करना चाहते थे। परन्तु इसके लिए वे किसी धर्म की शिक्षा दिये जाने के पक्ष में नहीं थे। वे सर्वधर्म समभाव द्वारा इसकी प्राप्ति पर बल देते थे।




गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम 
(CURRICULUM ACCORDING TO GANDHI JI) —


पाठ्यक्रम के निर्धारण में गाँधीजी ने निम्नलिखित सिद्धान्तों को ध्यान में रखा है- 

1. उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)- गाँधीजी वर्तमान शिक्षा प्रणाली से सन्तुष्ट न थे, क्योंकि इस शिक्षा को वे बालक के जीवन में उपयोगिता की दृष्टि से निरर्थक ही नहीं वरन् हानिकारक भी समझते थे। उनके मतानुसार यह शिक्षा व्यर्थ है, क्योंकि यह बालक को नागरिक बनाने की अपेक्षा उसे आदर्श नागरिकता के गुणों से दूर ले जाती है। छात्र अपने पारिवारिक वातावरण से दूर हो जाते हैं और फिर वे अपने घरेलू काम-धन्धे को उपेक्षा अथवा हीनता की दृष्टि से देखते हैं। वे सादे और उच्च विचार वाले ग्रामीण जीवन के स्थान पर नगर की आधुनिकतम बुराइयों से भरी जिन्दगी में रम जाते हैं और विभिन्न प्रकार की गन्दगियों और बुराइ‌यों के शिकार हो जाते हैं। वास्तविक शिक्षा के स्थान पर वे दुर्गुणों का भण्डार अपने अन्दर भर लेते हैं। अतएव गाँधीजी ने ऐसी शिक्षा पर बल दिया है जो बालक के जीवन में उपयोगी हो। इसी दृष्टिकोण से उन्होंने व्यवसाय और शारीरिक श्रम से सम्बन्धित शिक्षा का समर्थन किया है। इसके लिए उन्होंने बताया कि सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को बालक के जीवन में उपयोगी किसी स्थानीय हस्तकला पर आधारित होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि गाँधीजी ने क्रियाप्रधान अथवा हस्तकला केन्द्रित पाठ्यक्रम पर बल दिया है।


2. सहसम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Co-relation)- गाँधीजी का विचार था कि समस्त पाठ्य-विषयों की शिक्षा सानुबन्धित ढंग से दी जाये अर्थात् एक विषय का ज्ञान प्रदान करते समय अन्य प्रासंगिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसीलिए उन्होंने हस्तकला को पाठ्यक्रम का केन्द्र बनाया।


3. लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)- गाँधीजी ने पाठ्यक्रम के निर्धारण में लचीलेपन के सिद्धान्त का भी ध्यान रखा है। उनकी बेसिक शिक्षा योजना में बालक को अपनी रुचि के अनुसार किसी भी हस्तकला को चुनने की स्वतन्त्रता है। पाठ्यक्रम में अनेक हस्तकलाएँ और विषय सम्मिलित हैं। ये विषय निम्नलिखित हैं-

(1) हस्तकलाएँ- कताई-बुनाई, कृषि, बागवानी, दफ्ती, कागज, लकड़ी, चमड़ा, मिट्टी आदि का काम।

(2) भाषा - राष्ट्रभाषा, मातृभाषा (स्थानीय भाषा), हिन्दुस्तानी भाषा (हिन्दी और उर्दू का मिश्रित रूप) ।

(3) गणित- अंकगणित, रेखागणित, नाप-जोख।

(4) सामाजिक अध्ययन- इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र और अर्थशास्त्र का सम्मिलित पाठ्यक्रम ।

(5) ललित कलाएँ- संगीत, चित्रकला।

(6) सामान्य विज्ञान- प्रकृति अध्ययन, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, रसायन विज्ञान, शरीर तथा स्वास्थ्य विज्ञान, गृह विज्ञान (केवल बालिकाओं के लिए)।

(7) शरीर शिक्षा- व्यायाम, ड्रिल, खेलकूद।

(8) नैतिक और धार्मिक शिक्षा- प्रतिदिन प्रार्थना, उपदेश तथा समाज-सेवा कार्य।





शिक्षण विधि (TEACHING METHOD) —

गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं-

1. क्रियाविधि-  गाँधीजी का विश्वास था कि बालक के मानसिक विकास के लिए शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का विकास और प्रशिक्षण आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने कार्य करके सीखने के सिद्धान्त पर अधिक बल दिया है। अतः हम उनकी शिक्षण पद्धति को क्रियाप्रधान कह सकते हैं। इसके लिए गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा को हस्तकला केन्द्रित (Craft Centered) बनाया है। इस पद्धति के अनुसार विभिन्न विषयों की शिक्षा किसी हस्तकला को केन्द्र मानकर सानुबन्धित रूप से दी जाती है।

2. सानुबन्धित विधि-  गाँधीजी ने शिक्षा की सानुबन्धित अथवा समन्वय की विधि को बहुत महत्त्वपूर्ण बतलाया है। उनका विचार है कि बालक को विभिन्न विषयों की शिक्षा एक-दूसरे से सम्बन्धित रूप से दी जाये। उदाहरण के लिए, किसी हस्तकला की शिक्षा देते समय प्रासंगिक रूप से इतिहास, भूगोल, विज्ञान, व्यापार पद्धति आदि का समुचित ज्ञान कराया जा सकता है।

3. स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि-  गाँधीजी ने स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि पर भी जोर दिया है। उनका विचार है कि बालक विद्यालय के वातावरण में रहकर और विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने से जो अनुभव प्राप्त करता है वह स्थायी स्वरूप का होता है और यही उसके व्यावहारिक जीवन में बहुत अधिक काम आता है।

4. सहयोगी विधि-  गाँधीजी ने हस्तकला की शिक्षा में सहयोगी विधि को बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण माना है। इस विधि में छात्र अपने शिक्षक तथा सहपाठियों के पारस्परिक सहयोग से कार्य करता है और ज्ञान प्राप्त करता है।

5. मौखिक विधि-  इसके अन्तर्गत प्रश्नोत्तर विधि, तर्क विधि, व्याख्यान विधि और कहानी विधि को रखा है। गाँधीजी भाषा, इतिहास और गणित आदि के ज्ञान के लिए इस विधि को महत्त्वपूर्ण मानते थे।

6. चिन्तन एवं मनन विधि-  गाँधीजी ने भारतीय शिक्षण पद्धति मनन और निदिध्यासन विधि पर भी ध्यान रखा और कहा- "विचार करने की कला सच्ची कला है।" इस विचार में मनन की भी आवश्यकता पड़ती है जो अर्जित ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करती है।

7. संगीत विधि-  गाँधीजी ने संगीत को शिक्षण की एक प्रभावशाली विधि माना और कहा कि इसका प्रयोग व्यायाम तथा हस्तकौशल की शिक्षा प्रदान करते समय किया जाना चाहिए, जिससे बालकों में अपने कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होगी। धार्मिक शिक्षा के लिए भी संगीत से बालकों में नैतिक विकास के साथ ही साथ अनुशासन की भावना भी जागृत होगी।




अनुशासन (DISCIPLINE) -

गाँधीजी ने अपना जीवन पूर्णतया अनुशासित रूप से व्यतीत किया। अतः उन्होंने छात्र जीवन में भी अनुशासन के महत्त्व को स्वीकार किया है। परन्तु वह दमनात्मक अनुशासन या शारीरिक दण्ड के रूप में अनुशासन के विरोधी थे। उन्होंने प्रभावात्मक तथा मुक्त्यात्मक अनुशासन के मिश्रित स्वरूप के पक्ष में विचार व्यक्त किये। वैसे गाँधीजी का विचार था कि थोपा हुआ अनुशासन क्षणिक होता है। अच्छा हो यदि अनुशासित आत्मा के ऊपर आधारित हो, साथ ही छात्रों को अनुशासन में लाने हेतु यह भी आवश्यक है कि अध्यापक का व्यवहार संयमित व अनुशासित होना चाहिए।




शिक्षक का स्थान (PLACE OF TEACHER) -

गाँधीजी ने अपनी शिक्षा योजना में शिक्षक की जो स्थिति बतायी है, वह अन्य दार्शनिक से भिन्न है। वह शिक्षक को छात्रों का मित्र, पथ-प्रदर्शक व सहायक मानते हैं। उन्होंने शिक्षक के व्यक्तित्व के अन्तर्गत निम्न गुणों की कल्पना की है-

(1) शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सके। 

(2) शिक्षक को छात्रों की मनोवैज्ञानिक समस्याओं से पूर्णतया परिचित होना चाहिए व उनका समाधान धैर्य के साथ करना चाहिए।

(3) शिक्षक के द्वारा छात्रों को स्व-अध्ययन हेतु अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(4) शिक्षक के ऊपर छात्रों को इतना विश्वास होना चाहिए कि वह उसके समक्ष स्वयं की स्वतन्त्रता अभिव्यक्त कर सकें।

(5) शिक्षक की कार्यप्रणाली व व्यवहार चारित्रिक व नैतिक गुणों की परिधि में होना चाहिए।

(6) शिक्षक को अपने छात्रों के व्यक्तित्व के सभी गुणों की पूर्ण जानकारी हो, साथ ही साथ उसे छात्रों की कमियों का भी ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह उन्हें उचित मार्ग निर्देशन दे सके।

(7) छात्रों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर शिक्षक के द्वारा दिये जाने चाहिए, जिससे छात्रों की जिज्ञासा सन्तुष्ट हो सके।




विद्यार्थी (STUDENT) -

छात्र के स्थान के सम्बन्ध में गाँधीजी के विचार अंधोलिखित हैं-

(1) विद्यार्थी को ब्रह्मचारी होना चाहिए, जिससे वह नियम, संयम व सदाचारी बनकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सके।

(2) गाँधीजी का मानना था कि छात्र के अन्तर्गत शारीरिक बल, आत्मबल, चरित्र बल व बुद्धि बल होना आवश्यक है। अतः छात्र को इन सभी के विकास की ओर उन्मुख होना चाहिए।

(3) शिक्षा के द्वारा छात्र की वैयक्तिकता का यथासम्भव विकास होना चाहिए। इसी कारण छात्र को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र छोड़ना उचित है, परन्तु स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता कदापि नहीं है।

(4) वह छात्र की एक अनुशासित, विनयी, देशसेवी, त्यागी, शान्त व सहिष्णु व्यक्ति के रूप में कल्पना करते हैं।

(5) शिक्षा के द्वारा छात्र को आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी बनाया जाना चाहिए।

(6) शिक्षा के द्वारा विद्यार्थी को इतना जागरूक बनाया जाना चाहिए कि वह अपने अन्तःश्रम की खोज कर सके।



विद्यालय (SCHOOL) -

गाँधीजी के अनुसार विद्यालय का वातावरण प्रभावात्मक तथा प्रेरणादायक होना चाहिए। इस वातावरण का निर्माण सच्चरित्र अध्यापकों तथा विद्यार्थियों के द्वारा होता है। उनका विचार है कि विद्यालय निर्जन स्थानों में स्थित न होकर बस्तियों में होना चाहिए। विद्यालयों में हर प्रकार के साधन भी उपलब्ध हों, जिससे हस्तकलाओं से सम्बन्धित उत्पादन कार्य ठीक ढंग से हो सकें और छात्रों और विद्यालयों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायता मिले। गाँधीजी विद्यालय को पाठशाला के रूप में नहीं वरन् कर्मशाला के रूप में देखना चाहते थे। इसके साथ ही साथ गाँधीजी ने विद्यालय को समुदाय-केन्द्रित बनाना चाहा है, जहाँ पर विद्यार्थियों की वैयक्तिकता बनी रहे और उन्हें सामाजिक सम्पर्कों और सेवा के अवसरों की प्राप्ति हो।




विभिन्न प्रकार की शिक्षा पर गाँधीजी के विचार 
(GANDHIJI'S VIEWS ON DIFFERENT TYPES OF EDUCATION) -

1. स्त्री शिक्षा (Women Education) - गाँधीजी अपने समय में भारत में स्त्री शिक्षा की उपेक्षा के कारण अत्यन्त चिन्तित थे। उन्होंने सम्पूर्ण स्त्री जाति को सम्मान की दृष्टि से देखा है। उन्होंने स्त्री और पुरुष को एक समान एक-दूसरे का पूरक तथा प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना माना है। अतः वे अन्य क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अवसर देने का समर्थन करते थे। किन्तु उनके विचार में दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न होने के कारण उनके पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन किया जाना चाहिए। यही कारण है कि उन्होंने अपनी बेसिक शिक्षा योजना में चौथी कक्षा में वालिकाओं के लिए गृह विज्ञान का विकल्प रखा और छठी तथा सातवीं कक्षा में वे व्यवसाय के स्थान पर उच्च गृह विज्ञान विषय ले सकती हैं।

2. प्रौढ़ शिक्षा (Adult Education)- गाँधीजी वयस्कों को अक्षर ज्ञान देने की अपेक्षा इस बात पर बल देते थे कि शिक्षा के द्वारा उनकी अज्ञानता को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। शिक्षा का प्रयास यह होना चाहिए कि वह अशिक्षितों के मस्तिष्क में विद्यमान अन्धकार व अन्धविश्वासों को दूर करे। गाँधीजी का मानना यह भी था कि प्रजातन्त्र की सफलता यदि हम चाहते हैं तो यहाँ के नागरिकों का शिक्षित होना परमावश्यक है, क्योंकि इसके द्वारा हम जनसाधारण की कूपमण्डूकता चमन कर सकते हैं। गाँधीजी यह मानते हैं कि मेरे विचार में दुःखी होने का तथा शर्म करने का कारण निरक्षरता नहीं वरन् अज्ञानता है। इस कारण वह प्रौढ़ शिक्षा के लिए ऐसा पाठ्यक्रम चाहते थे जो उनकी अज्ञानता को तो दूर करे ही, साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी मदद करे।


3. जन शिक्षा (Education for All)- जन शिक्षा का तात्पर्य है कि समाज के हर एक व्यक्ति को शिक्षा की सुविधाएँ प्राप्त हों अथवा सभी लोगों को शिक्षित होने का अवसर मिले। हमारे देश की अधिकांश जनता गाँवों में रहती है, वहाँ पर अधिक संख्या में बालक और प्रौढ़ अशिक्षित रहते हैं। अतएव गाँधीजी ने दोनों की शिक्षा पर ध्यान दिया। 14 वर्ष तक की आयु के बालकों के लिए उन्होंने अनिवार्य शिक्षा की योजना बनायी और जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए जोर दिया।

4. धार्मिक शिक्षा (Religious Education) - गाँधीजी का विचार था कि मेरे लिए धर्म का तात्पर्य सत्य व अहिंसा है। वह धर्म शिक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं बताते थे कि पाठ्यक्रम में हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों को निहित किया जाये। उनका विश्वास था कि धर्म शिक्षा को विभिन्न धर्मों के समन्वय के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, जिससे छात्रों में श्रद्धा, सहिष्णुता, प्रेम, त्याग, सहानुभूति, अपनत्व व नैतिक मूल्यों को समाहित किया जा सके। धार्मिक शिक्षा इस रूप में अवश्य दी जानी चाहिए, जिससे कि उसके द्वारा छात्रों का चारित्रिक निर्माण किया जा सके। वह मानते थे कि धर्म के बिना जीवन उस नौका के समान है जो पतवारविहीन है। पतवारविहीन नौका कभी भी अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकती, उसी प्रकार धर्मविहीन व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता है। परन्तु गाँधीजी धर्म को निष्काम कर्म, मानवीयता व आध्यात्मिकता पर आधारित मानते हैं।

5. राष्ट्रीय शिक्षा (National Education)- गाँधीजी ने सन् 1921 में राष्ट्रीय शिक्षा योजना का विचार प्रस्तुत किया और तभी से उसको कार्यान्वित करने के लिए प्रयत्नशील रहे। उन्होंने ब्रिटिशकालीन शिक्षा को देश के हित में नहीं समझा और राष्ट्रीय शिक्षा का प्रारूप तैयार किया। इसमें गाँधीजी ने राष्ट्रभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर बल दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में उन्होंने कृषि तथा उद्योग-धन्धों को रखा और इसका उद्देश्य शान्तिपूर्ण ढंग से अहिंसात्मक क्रान्ति करना निर्धारित किया।


बेसिक शिक्षा का मूल्यांकन 
(AN EVALUATION OF BASIC EDUCATION) -

बेसिक शिक्षा का मूल्यांकन करने के लिए हमें इसके गुण एवं दोषों पर दृष्टिपात करना होगा। विस्तार में आलोचना और समालोचना करना इस अध्याय के क्षेत्र के बाहर की बात है। बेसिक शिक्षा के गुणों को पूर्ववर्णित इसकी विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है। अतः यहाँ हम बेसिक शिक्षा के गुण एवं दोषों की ओर संकेत करेंगे।


गुण (Merits)

1. आत्मनिर्भर योजना।

2. मनुष्य के सर्वांगीण विकास पर बल।

3. वास्तविक जीवन की तैयारी।

4. भारतीयों के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या।

5. वर्गभेद की समाप्ति ।

6. शारीरिक एवं मानसिक श्रम के अन्तर की समाप्ति।

7. क्रियाप्रधान शिक्षण विधि।

8. समस्त ज्ञान एवं क्रियाओं में एकीकरण ।

9. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा।

10. विद्यालय और समाज में निकट का सम्बन्ध।



दोष (Demerits)

1. अपूर्ण योजना।

2. उच्च शिक्षा से सम्बन्ध का अभाव।

3. नगरीय क्षेत्रों के लिए अनुपयुक्त।

4. हस्तकौशलों पर अत्यधिक बल ।

5. कच्चे माल की बर्बादी।

6. समय और शक्ति का अपव्यय।

7. शिक्षण विधि अस्वाभाविक ।

8. श्रृंखलाबद्ध शिक्षण असम्भव ।

9. धार्मिक शिक्षा का अभाव।



उपसंहार (CONCLUSION) - 

गाँधीजी एक जनसेवक-महामानव के रूप में उच्चकोटि के दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री थे। सत्य, अहिंसा, प्रेम और कर्म ही उनके जीवन दर्शन का आधार था। उन्होंने आजन्म इन्हीं सिद्धान्तों का पालन किया और मानद को सन्देश दिया कि इन्हीं सिद्धान्तों पर चलने में उनकी भलाई है। गाँधीजी ने मानव जीवन में नैतिकता को भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके शैक्षिक विचारों में भी इन्हीं तत्त्वचों की छाप है। वे शिक्षा को पूर्ण विकास की प्रक्रिया मानते हैं। गाँधीजी के शिक्षा दर्शन पर आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रकृतिवाद और प्रयोजनवाद सभी का कुछ न कुछ प्रभाव दिखाई पड़ता है। परन्तु मूल रूप से वे आदर्शवादी विचारधारा से अधिक प्रभावित थे। शिक्षा के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान 'बेसिक शिक्षा योजना' है।






अभ्यासार्थ प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1. "गाँधीजी का शिक्षा दर्शन आदर्शवाद, प्रकृतिवाद एवं प्रयोजनवाद का संश्लेषण है।" इस कथन पर अपने विचार प्रकट कीजिए।

2. बेसिक शिक्षा के गुण एवं दोषों की विवेचना कीजिए। बेसिक शिक्षा हमारे राष्ट्र को क्या सन्देश प्रसारित करती है ?

3. शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, शिक्षण विधि सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालते हुए गाँधीजी के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन कीजिए।

4. "गाँधीजी के शैक्षिक उद्देश्यों में वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्थान का समन्वय है।" समझाइये।




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