पावलव का शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धांत (Pavlov's Theory Of Clasical Conditioning)

प्रस्तावना —

अधिगम के क्लासिकल अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन इवान पी० पावलव (Ivan P. Pavlav) नामक रूसी मनोवैज्ञानिक ने किया था। इस सिद्धान्त को सीखने का अनूकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त या अनुबन्धित - अनुक्रिया सिद्धान्त (Conditional Response Theory) भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति या जीव कुछ जन्मजात प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ (Tedencies) , प्रतिक्रियायें (Reactions) या अनुक्रियायें (Responses) रखता है तथा ये प्रवृत्तियाँ , प्रतिक्रियायें या अनुक्रियायें किसी उपयुक्त प्राकृतिक उद्दीपक (Natural Stimulus) के उपस्थित होने पर प्रकट होती है। जैसे भूखे व्यक्ति के सामने भोजन आने पर मुंह में लार का आना या तेज शोर सुनने पर जीव का डर जाना प्राकृतिक या स्वाभाविक अनुक्रियायें हैं जिनका उपयुक्त उद्दीपक (भोजन या शोर) के सामने होने पर व्यक्ति के द्वारा व्यक्त करना पूर्णतः स्वाभाविक है। पावलाव ने देखा कि जब किसी अन्य स्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) को किसी स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) के साथ बार - बार प्रस्तुत किया जाता है तो धीरे-धीरे अस्वाभाविक उद्दीपक का स्वाभाविक उद्दीपक की स्वाभाविक अनुक्रिया के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है तथा बाद में केवल अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति या जीव स्वाभाविक उद्दीपक की स्वाभाविक अनुक्रिया, जिसे अनुकूलित अनुक्रिया या अनुबंधित अनुक्रिया (Conditioned Response) कहते हैं, देने लगता है। तब कहा जाता है कि व्यक्ति या जीव के लिए कोई अस्वाभाविक उद्दीपक (Unnatural Stimulus) किसी अन्य स्वाभाविक उद्दीपक (Natural Stimulus) से अनुकूलित (Conditioned) हो गया है।



पावलव का प्रयोग ( Pavlav's Experiment) -




पाॅवलव ने अनुबंधित अनुक्रिया (Conditional Response) के अपने सिद्धांत को समझाने के लिए कुत्ते के ऊपर प्रयोग किया। उन्होंने कुत्ते की लार ग्रंथि का ऑपरेशन किया और कुत्ते के मुंह से लार एकत्रित करने के लिए एक नली के माध्यम से उसे एक कांच के जार से जोड़ दिया। इस प्रयोग की प्रक्रिया को निम्न तीन चरणों में समझा जा सकता है -

सर्वप्रथम पॉवलव ने कुत्ते को भोजन (प्राकृतिक या स्वाभाविक उद्दीपक) मुँह में लार आ गई। उन्होंने बताया कि भूखे कुत्ते के मुंह में भोजन देखकर लारा जाना स्वाभाविक क्रिया है। स्वाभाविक क्रिया को सहज क्रिया भी कहा जाता है। यह क्रिया उद्दीपक के उपस्थित होने पर होती है। भोजन एक प्राकृतिक उद्दीपक है जिसको देखकर लार टपकना एक स्वाभाविक क्रिया है।

 दूसरे चरण में पॉवलव ने कुत्ते को घंटी (कृत्रिम उद्दीपक) बजाकर भोजन दिया। भोजन को देखकर कुत्ते के मुंह में फिर लार का स्राव हुआ। इस प्रक्रिया में भोजन को देखकर लार आने की स्वाभाविक क्रिया को उन्होंने घंटी बजाने की एक कृत्रिम उद्दीपक से सम्बन्धित किया जिसका परिणाम स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में प्राप्त हुआ। 

पॉवलव ने कुत्ते पर अपने प्रयोग को बार - बार दोहराया श। तीसरे चरण में उन्होंने कुत्ते को भोजन न देकर केवल घंटी बजाई। इस बार घंटी की आवाज सुनते ही कुत्ते के मुँह में लार आ गई। इस प्रकार अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से भी स्वाभाविक प्रतिक्रिया (लार का टपकना) प्राप्त हुई। 


उपर्युक्त प्रयोग में अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से स्वाभाविक प्रतिक्रिया (लार का टपकना) ही अनुकूलित-अनुक्रिया सिद्धान्त है। जैसे- मिठाई की दुकान को देखकर बच्चों के मुँह से लार टपकना। उपरोक्त प्रयोग में जो क्रिया (लार का टपकना) पहले स्वाभाविक उद्दीपक से हो रही थी वो अब प्रयोग को बार बार दोहराने से अस्वाभाविक या कृत्रिम उद्दीपक से होने लग गई।












इस प्रकार कहा जा सकता है कि दो उद्दीपकों को एक साथ प्रस्तुत करने पर कालांतर में नवीन उद्दीपक प्रभावशाली हो जाता है। व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक रेनर और वाटसन ने 11 माह के अल्बर्ट नामक बच्चे पर भी ऐसा ही एक प्रयोग किया। यह बालक जंगली जानवरों से भयभीत नहीं होता था लेकिन जब एक दिन जानवर के साथ भयानक तेज ध्वनि (प्राकृतिक उद्दीपक) निकाली गई तो वह डर गया। इसके बाद वह हमेशा जानवरों (कृतिम उद्दीपक) को देख कर ही डर (अनुबंध प्रतिक्रिया) जाता था।



अनुबंधन की दशायें 
(Conditions for Conditioning) -

अधिगम के क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त के अनुसार अस्वाभाविक अनुक्रिया के अनुकूलन के लिए अग्रांकित चार दशायें अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं -

1. स्वाभाविक उद्दीपक व अनुक्रिया का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। पहले अस्वाभाविक उद्दीपक एवं तदुपरान्त स्वाभाविक उद्दीपक प्रस्तुत करना चाहिए तथा इसके उपरान्त अनुक्रिया होनी चाहिए। अस्वाभाविक उद्दीपक की प्रस्तुति के लगभग आधा सेकेण्ड के उपरान्त स्वाभाविक उद्दीपक को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि यह समय अन्तराल कम या अधिक होता है तो सीखना प्रभावशाली नहीं होता है। 

2. स्वाभाविक उद्दीपक को अस्वाभाविक उद्दीपक से अधिक शक्तिशाली होना चाहिए। यदि अस्वाभाविक उद्दीपक अधिक शक्तिशाली होगा तो जीव स्वाभाविक उद्दीपक पर कोई विशेष ध्यान नहीं देगा । 

3. अस्वाभाविक उद्दीपक को स्वाभाविक उद्दीपक के साथ अनेक बार दोहराना होता हैं, तब ही अनुबंधन होगा एवं अस्वाभाविक उद्दीपक में स्वाभाविक उद्दीपक के गुण आ पाते हैं। 

4. अनुबंधन के समय उपयुक्त परिस्थितियाँ होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अनुबन्धन के समय कोई अन्य बाह्य अवरोध उपस्थित नहीं होना चाहिए। 





अनुबन्धन के सिद्धान्त 
(Principles of Conditioning) - 

क्लासिकल अनुबन्धन के सम्बन्ध में किये गये अनेक प्रयोगों ने अनुबंधन के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण संप्रत्ययों तथा सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया । इनमें से कुछ अग्रांकित प्रस्तुत हैं 

1. उत्तेजन (Excitation) – 
अनुबंधित उद्दीपक (CS) को प्राकृतिक उद्दीपक (US) के साथ बार - बार प्रस्तुत करने पर अनुबन्धन के फलस्वरूप प्राणी में उत्तेजना उत्पन्न हो जाती है जो उसे अनुबंधित अनुक्रिया (CR) करने के लिए तत्पर कर देता है। 

2. विलोपन ( Extinction ) – 
अनुबन्धन के उपरान्त जब अनुबंधित उद्दीपक (CS) के उपरान्त प्राणी को प्राकृतिक उद्दीपक (UCS) अनेक बार नहीं दिया जाता है तो धीरे - धीरे प्राणी अनुबन्धित अनुक्रिया (CR) करना बन्द कर देता है। 

3. स्वतः पुनर्लाभ (Spontaneous Recovery)- 
विलोपन के कुछ समयोपरान्त यदि प्राणी के समक्ष अनुबंधित उद्दीपक (CS) को पुनः प्रस्तुत किया जाता है तो कभी - कभी प्राणी अनुबन्धित अनुक्रिया (CR) को देना पुनः प्रारम्भ कर देता है। 

4. उद्दीपक सामान्यीकरण ( Stimulus Generalisation) - 
एक बार अनुबंधन स्थापित होने उपरान्त प्राणी अनुबंधित उद्दीपक (CS) से मिलते - जुलते (Similar) अन्य उद्दीपकों के प्रति भी प्रायः उसी ढंग से अनुक्रिया करता है। 

5. उद्दीपक विभेदन (Stimulus Discrimination)- 
अनुबंधन के प्रयासों की संख्या बढ़ाने पर प्राणी मूल अनुबंधित उद्दीपक (Original CS) तथा अन्य समान उद्दीपकों (Similar Stimulus) में धीरे - धीरे विभेद करने लगता है।

6. बाह्य अवरोध (External Inhibition) - 
अनुबंधन के दौरान यदि कोई नया उद्दीपक अनुबंधित उद्दीपक (CS) के साथ प्रस्तुत किया जाता है तो पूर्व अनुबंधन की प्रक्रिया कुछ धीमी या अवरुद्ध (Inhibited) हो जाती है। 

7. कालिक क्रम ( Temporal Sequence ) - 
अनुबंधन के लिए अनुबंधित उद्दीपक (CS) तथा स्वाभाविक उद्दीपक (NS) के बीच समय अन्तराल के बढ़ाने पर अनुबन्धन कमजोर हो जाता है। 

8. द्वितीय कोटि अनुबन्धन ( Second Order Conditioning ) -
किसी अनुबंधित उद्दीपक के साथ किसी अन्य अस्वाभाविक उद्दीपक (US) को बार - बार प्रस्तुत करने पर नवीन उद्दीपक अनुबंधित अनुक्रिया (CR) के लिए अनुबंधित हो जाता है। 

9. पुनर्बलन ( Reinforcement ) - 
अनुबंधन को पुनर्बलित करने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि अनुबंधित उद्दीपक (CS) के साथ - साथ स्वाभाविक उद्दीपक (NS) भी बीच - बीच में दिया जाता रहे।


शैक्षिक निहितार्थ
(Educational Implications) -

यद्यपि क्लासिकल अनुबंधन सिद्धान्त के कुछ प्रयोगों को छोड़कर शेष सभी प्रयोग पशुओं या पक्षियों पर हुए थे, इसलिए ये प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में यथारूप उपयोगी नहीं हो सकते हैं। इसके बावजूद भी इन प्रयोगों से प्राप्त परिणामों के आधार पर बनाये गये सिद्धान्तों का उपयोग मानवीय व्यवहार को उन्नत करने में किया जा सकता है । इस सिद्धान्त के कुछ शैक्षिक अभिप्रेत निम्नवत् हैं 

1. बालकों में लगभग सभी आदतों का निर्माण क्लासिकल अनुबन्धन सिद्धान्त के आधार पर किया जा सकता है। स्वच्छता व सफाई से रहने की आदत, समय की पाबन्दी , बड़ों का सम्मान करना जैसी अच्छी आदतें इसी सिद्धान्त का व्यावहारिक परिणाम हैं। 

2. बालकों को विभिन्न प्रकरणों को सिखाने में अनुबंधित अनुक्रिया का सिद्धान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। छात्रों को शब्दार्थ , गुणा , भाग , पहाड़े आदि विभिन्न बातों को सिखाते समय अध्यापक इस सिद्धान्त का प्रयोग कर सकता है। 

3. बुरी तथा अवांछित आदतों, भय तथा असामान्य व्यवहार आदि को समाप्त करने के लिए भी अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धान्त का उपयोग किया जा सकता है । 

4. स्कूली पढ़ाई - लिखाई, विद्वानों व अध्यापकों के प्रति छात्रों का उचित दृष्टिकोण विकसित करने के लिए भी अनुबंधित अनुक्रिया सिद्धान्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यदि अनुकूलन गलत हो गया तब व्यक्ति भय, घृणा, अन्धविश्वास जैसी अप्राकृतिक प्रतिक्रियायें कर सकता है। 

6. मानसिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों को पढ़ाने व प्रशिक्षित करने के लिए भी अनुकूलित - अनुक्रिया सिद्धान्त को प्रयोग में लाया जा सकता है।



शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त की आलोचना 
(Criticism Of Classical Conditioning Theory) -

सीखने की प्रक्रिया में अत्यधिक उपादेयी होने के पश्चात भी कई मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त में अनेक कमियाँ निकाली हैं जो निम्न हैं -

1. यह सिद्धान्त मनुष्य को एक मशीन मानकर चलता है। कल्पना, चिंतन एवं तर्क का इस सिद्धान्त में कोई स्थान नहीं है। 

2. शास्त्रीय अनुबन्धन सिद्धान्त जटिल विचारों की व्याख्या करने में असफल रहा है। 

3. इस सिद्धान्त का प्रयोग बालकों एवं पशुओं पर ही किया गया है। परिपक्व एवं अनुभवी लोगों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता। 

4. इस सिद्धान्त में स्थायित्व का अभाव पाया जाता है । जो बालक उत्तेजनाओं के सम्बन्धों के फलस्वरूप सीखता है उन्हीं को यदि शून्य कर दिया जाए तो सीखना संभव नहीं होगा। यह उद्दीपकों को लंबे समय तक प्रस्तुत कर सकता है। 

5. पॉवलव ने सीखने की प्रक्रिया में पुनर्बलन को आवश्यक माना है जिसका ब्लौजेट एवं टॉलमैन, हॉनजिक जैसे मनोवैज्ञानिकों ने विरोध किया है। 

6. पॉवलव सीखने की प्रक्रिया में क्रिया को बार - बार दोहराने पर बल देते हैं। परन्तु गरम पानी में हाथ लगाने जैसी अनुभूति से बालक एक बार में ही सीख जाता है। 


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