मुस्लिम शिक्षा प्रणाली (Muslim Education System)
प्रस्तावना (Introduction)
हमारे देश में आज भी अन्य देशों का सम्मान उसी प्रकार से बरकरार है जैसा कि प्राचीन काल और मध्य काल में होता था। यहाँ कि भोलीभाली जनता ने दूसरों पर विश्वास किया लेकिन अन्य देशों ने धोखा देकर यहाँ कि अमूल्य संपत्ति सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात को लूटकर अपने देश ले गये, साथ ही यहाँ के कला-सौंदर्य व संस्कृति को भी नष्ट किया। उत्तरी सीमा पार के शासक इस पर सदैव आक्रमण करते रहते थे। इन आक्रमणकारियों में सर्वप्रथम नाम पर्शिया (वर्तमान ईरान) के राजा साइरस (538 ई० पू० 530 ई० पू०) का आता है। उसने इसके उत्तरी सीमावर्ती राज्य गांधार पर आक्रमण कर उसके एक भाग पर कब्जा भी कर लिया था। उसके बाद मैसोडोनिया (यूनान, ग्रीस) के राजा सिकन्दर ने 327 ई0पू0 में आक्रमण किया। वह तक्षशिला के राजा आम्भी के सहयोग से आगे बढ़ा परन्तु कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि उसे अपने देश लौटना पड़ा।
ईसा की 5वीं शताब्दी में इसकी उत्तरी सीमा पर हूणों ने आक्रमण शुरू किए परन्तु ये गांधार से आगे नहीं बढ़ पाए। गुप्तकाल में इन्हें वहाँ से भी खदेड़ दिया गया। इसके बाद इस देश पर अरबों ने आक्रमण शुरू किए परन्तु इनके आक्रमण लूटपाट तक ही सीमित रहे। 12वीं शताब्दी में अफगान बादशाह मोहम्मद गोरी ने भारत पर कई बार आक्रमण किए परन्तु पराजित हुआ और लौट गया। सन् 1192 में उसने 11 वीं बार आक्रमण किया और सीमावर्ती राज्यों को रौंदता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ा। दिल्ली के तत्कालीन हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान से उसका तराईन के मैदान में निर्णायक युद्ध हुआ। उसने पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर बन्दी बना लिया। वह स्वयं तो यहाँ से लूट का भारी माल लेकर अपने देश लौट गया परन्तु अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली को शासक बना गया। बस यहीं से भारत में मुस्लिम शासन की शुरूआत हुई। इतिहासकारों ने कुतुबुद्दीन ऐबक और उसके वंशजों को गुलाम वंश की संज्ञा दी है। गुलाम वंश के बाद भारत में क्रमशः खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश, लोदी वंश और मुगल वंश का शासन रहा। मुगल वंश में औरंगजेब ने 1659 से 1707 ई0 तक राज्य किया। वह बड़ा कट्टरपंथी था। उसने इस्लाम धर्म को न मानने वालों के ऊपर जजिया कर लगा दिया था, परिणामस्वरूप चारों ओर विद्रोह की आग भड़क उठी और औरंगजेब के शासन काल के अन्तिम चरण में ही मुगल साम्राज्य का वैभव समाप्त होने लगा था। इतिहासकारों ने 1200 से 1700 ई0 तक के काल को मुस्लिम काल की संज्ञा दी है। इसमें मुसलमान बादशाहों और इस्लाम धर्म का वर्चस्व रहा।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के मुख्य अभिलक्षण
(Main Characteristics of Muslim Education System)
हमारे देश में मध्यकाल में मुसलमान शासकों के सहयोग से एक नई शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ जिसे मुस्लिम शिक्षा प्रणाली कहते हैं। यहाँ मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत है- शिक्षा का प्रशासन एवं वित्त-मुस्लिम शिक्षा के प्रशासन एवं वित्त के सम्बन्ध में तीन तथ्य उल्लेखनीय हैं-
1. निःशुल्क शिक्षा- मकतब और मदरसों में छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। मदरसों के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों को भोजन एवं वस्त्र भी निःशुल्क दिए जाते थे। मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति दी जाती थी।
2. राज्य का परोक्ष नियन्त्रण- इस काल में सभी मुसलमान बादशाहों ने इस्लाम धर्म और संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के लिए मकतब और मदरसों का निर्माण कराया और उन्हें आर्थिक सहायता दी। तब इनके द्वारा शासनानुकूल कार्य करना स्वाभाविक था। इसे हम शिक्षा पर राज्य का परोक्ष नियन्त्रण कह सकते हैं।
3. आय का मुख्य स्रोत राजकीय सहायता- इस काल के सभी बादशाहों ने मकतब और मदरसों को आर्थिक सहायता दी। शासन में उच्च पदों पर आसीन लोग भी इन्हें आर्थिक सहायता देते थे। इस्लाम प्रेमी भी इस कार्य में पीछे नहीं रहे, वे इन संस्थाओं को चलाना अपना पवित्र कार्य मानते थे।
शिक्षा की संरचना एवं संगठन —
मुस्लिम शिक्षा भी दो स्तरों में विभाजित थी- प्राथमिक एवं उच्चा प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मकतबों में होती थी और उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में।
शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)
मुस्लिम शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य एवं आदर्श इस्लाम धर्म एवं संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार था। इसके साथ- साथ इसमें ज्ञान के विकास, कला-कौशल के प्रशिक्षण और सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति पर भी बल दिया गया था। मुस्लिम शिक्षा के इन सब उद्देश्यों एवं आदर्शों को हम निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं-
1. इस्लाम संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार- भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना होने पर उन्होंने भारत में इस्लामी संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार सख्ती से करना आरम्भ कर दिया। यद्यपि मुसलमान भारत में अपनी संस्कृति लेकर आए थे, उनकी अपनी भाषा थी, अपने रीति-रिवाज थे, अपने रहन-सहन की विधियां थीं और इन्हीं में उनकी आस्था थी। उन्होंने यहाँ इस्लाम शिक्षा पर बल दिया। मकतब और मदरसों में बच्चों को अनिवार्य रूप से फारसी भाषा पढ़ाई जाती थी, शरीअत (इस्लामी धर्म एवं कानून) का ज्ञान कराया जाता था और इस्लामी तहजीब सिखाई जाती थी।
2. ज्ञान का विकास- इस्लाम धर्म के प्रतिपादक हज़रत मुहम्मद साहब यद्यपि स्वयं अनपढ़ थे तथापि ज्ञान को निजात (मुक्ति) का साधन मानते थे। ज्ञान से उनका तात्पर्य भौतिक एवं आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के ज्ञान से था और आध्यात्मिक ज्ञान से तात्पर्य इस्लाम के ज्ञान से था। कुरान शरीफ में कलम की स्याही को शहीदों के खून से भी अधिक पवित्र बताया गया है।
3. नैतिक एवं चारित्रिक विकास- मुस्लिम शिक्षा में नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर बल दिया गया है। इस्लामी नैतिकता के आदर्श एवं मूल्य हिन्दुओं की नैतिकता के आदर्श एवं मूल्यों से कुछ भिन्न हैं। इस्लाम में नैतिकता और आचरण का एकमात्र आधार कुरान है। अतः मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस्लामी नैतिकता के विकास पर बल दिया गया था और प्रतिकूल आचरण करने पर इस्लामिक मानदण्डों के आधार पर दण्ड देने एवं प्रायश्चित करने पर बल दिया गया था।
4. शासन के प्रति वफादारी- मुसलमान बादशाह भारत के लिए विदेशी थे इसलिए वे भारतीयों को शासन के प्रति वफादार बनाना चाहते थे। यह मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा उद्देश्य था। यही कारण है कि उन्होंने अरबी और फारसी भाषा जानने वाले और इस्लामी तहजीब को अपनाने वाले हिन्दुओं को ही शासन में उच्च पद दिए।
5. कला-कौशलों एवं व्यवसायों की शिक्षा- जिस समय मुसलमान बादशाह इस देश में आए यहाँ कला-कौशल के क्षेत्र में बड़ा विकास हो चुका था। ये भी अपने साथ अनेक कला लेकर आए थे। प्रायः सभी मुसलमान बादशाह कला और शिल्प प्रेमी थे, इसलिए इन्होंने इनकी शिक्षा पर विशेष बल दिया। इस शिक्षा के परिणामस्वरूप ही उस काल में कला-कौशलों के क्षेत्र में बहुत अधिक उन्नति हुई। साथ ही विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा की व्यवस्था भी की गई थी।
6. सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति- इस्लाम पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता, यही कारण है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले मुहम्मद साहब के दिखाए हुए मार्ग पर चलते हुए सांसारिक सुख की प्राप्ति के पक्षधर हैं।
शिक्षा की पाठ्यचर्या
Curriculum of Education) —
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली शिक्षा दो स्तरों में विभाजित थी- प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर सभी विषय अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाते थे और उच्च स्तर पर अरबी एवं फारसी के अतिरिक्त अन्य विषय वैकल्पिक रूप से पढ़ाए जाते थे।
1. प्राथमिक स्तर की पाठ्यचर्या- इस शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक स्तर पर लिपि ज्ञान, कुरानशरीफ का 30वां भाग लिखना-पढ़ना, अंकगणित, पत्र लेखन, बातचीत और अर्जीनवीसी पढ़ाई और सिखाई जाती थी। बच्चों को प्रारम्भ से ही कुरान शरीफ की कुछ आयतें रटाई जाती थीं और इस्लाम के पैगम्बरों और मुसलमान फकीरों की जीवनियां पढ़ाई जाती थीं। बच्चों के नैतिक विकास के लिए उन्हें शेरदादी की प्रसिद्ध पुस्तक गुलिस्तां और बोस्ता पढ़ाई जाती थी। इनके अतिरिक्त अरबी फारसी के कवियों की कविताएं पढ़ाई जाती थीं। इस काल में प्रारम्भ से ही बच्चों के उच्चारण और लेख पर बहुत ध्यान दिया जाता था और उन्हें शुद्ध उच्चारण और सुलेख का अभ्यास कराया जाता था।
2. उच्च स्तर की पाठ्यचर्या - इस शिक्षा प्रणाली में उच्च स्तर की शिक्षा का पाठ्यक्रम अति विस्तृत था। इस स्तर की पाठ्यचर्या को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- लौकिक और धार्मिक। लौकिक पाठ्यचर्या में अरबी तथा फारसी भाषाएं एवं उनके साहित्य, अंकगणित, ज्यामिति, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, राजनीति, नीतिशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, इस्लामी कानून, यूनानी चिकित्सा और विभिन्न कला-कौशलों एवं व्यवसायों की शिक्षा को स्थान दिया गया था। धार्मिक पाठ्यचर्या में कुरान शरीफ, इस्लामी इतिहास, इस्लामी साहित्य, सूफी साहित्य और शरीअत (इस्लामी कानून) को स्थान दिया गया था। अकबर बादशाह उदारवादी था, उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई थी इसलिए उसने कुछ मदरसों में संस्कृत भाषा, वैदिक धर्म-दर्शन और वैदिक साहित्य की शिक्षा की व्यवस्था भी करवाई थी।
शिक्षण विधियां (Methods of Teaching)-
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भिन्न-भिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न विषयों के शिक्षण के लिए भिन्न-भिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता था, जो निम्नवत थीं-
1. अनुकरण, अभ्यास एवं स्मरण विधि- मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में इस विधि का प्रयोग मुख्य रूप से प्राथमिक स्तर पर किया जाता था। उस्ताद (शिक्षक) उच्च स्वर में कुरान शरीफ की आयतों, अक्षरों और पहाड़ों का उच्चारण करते थे, शागिर्द (छात्र) सामूहिक रूप से उनका अनुकरण करते थे। अभ्यास/आवृत्ति द्वारा कण्ठस्थ करते थे और स्मरण करते थे। उच्चारण और सुलेख की शिक्षा भी इसी विधि से दी जाती थी। आइने अकबरी में ऐसा उल्लेख है कि उस समय तख्ती, स्याही और सरकण्डे की कलम का प्रयोग होता था, शिक्षक शिक्षार्थियों को लिखकर दिखाते थे, शिक्षार्थी उनका अनुकरण करते थे और अभ्यास द्वारा अपना लेख सुधारते थे। उस समय इस स्तर पर रटने, शुद्ध उच्चारण करने और सुलेख पर विशेष ध्यान दिया जाता था।
2. भाषण, व्याख्यान एवं व्याख्या विधि- मदरसे का अर्थ है- भाषण देना। उस समय उच्च स्तर पर प्रायः भाषण विधि से पढ़ाया जाता था इसीलिए उच्च शिक्षा की संस्थाओं को मदरसा कहा जाता था। भाषण का विकसित रूप है व्याख्यान और व्याख्यान विधि की सफलता निर्भर करती है व्याख्यान में आए तथ्यों की व्याख्या पर। उस समय मदरसों में सैद्धान्तिक विषयों का शिक्षण प्रायः इन तीनों विधियों के संयुक्त रूप से ही किया जाता था।
3. तर्क विधि- इस विधि का प्रयोग दर्शन एवं तर्कशास्त्र जैसे विषयों के शिक्षण के लिए किया जाता था। यह तर्क विधि वैदिक कालीन तर्क विधि और बौद्ध कालीन तर्क विधि से कुछ भिन्न थी। इसमें प्रत्यक्ष उदाहरणों और इस्लामिक सिद्धान्तों का विशेष महत्व था।
4. स्वाध्याय विधि- मुसलमान बादशाहों ने मुख्य ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियां तैयार करने पर खुल कर पैसा खर्च किया और इनके रख रखाव के लिए बड़े-बड़े पुस्तकालयों का निर्माण कराया। परिणामतः स्वाध्याय के अवसर सुलभ हुए। छात्र इन पुस्तकालयों में बैठकर इन पुस्तकों का अध्ययन करते थे।
5. प्रदर्शन, प्रयोग एवं अभ्यास विधि- यह विधि अनुकरण विधि का ही विकसित रूप है। इसका प्रयोग प्रायोगिक विषयों, कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा के लिए किया जाता था। शिक्षक सर्वप्रथम यथा वस्तु अथवा क्रिया का प्रदर्शन करते थे, शिक्षार्थी देखते थे और देखकर उसके स्वरूप को समझते थे। इसी प्रकार के क्रियाओं को करके दिखाते थे, छात्र ठीक उसी प्रकार उन क्रियाओं को करते थे, बार-बार करते थे और उन्हें सीखते थे।
मुस्लिम शिक्षा के सम्बन्ध में विशेष
(Special in Muslim Education)
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली की शिक्षण विधियों के विषय में अग्रलिखित दो तथ्य और उल्लेखनीय हैं-
1. शिक्षा का माध्यम अरबी और फारसी- यद्यपि मध्य काल में भारत के बहुसंख्यकों की भाषा प्राकृत हिन्दी थी परन्तु मुस्लिम शिक्षा केन्द्रों- मकतब और मदरसों में अरबी और फारसी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। यद्यपि अकबर ने कुछ मकतब व मदरसों में हिन्दी के माध्यम से भी शिक्षा की व्यवस्था कराई थी।
2. नायकीय पद्धति (Monitor System)- इस शिक्षा प्रणाली में कुछ वरिष्ठ एवं योग्य छात्रों को कनिष्ठ छात्रों को पढ़ाने का अवसर दिया जाता था। इसे नायकीय पद्धति कहते हैं। इससे दो लाभ हुए, पहला यह कि शिक्षकों की कमी की पूर्ति हुई और दूसरा यह कि छात्रों को अपने अध्ययन काल में ही शिक्षण में प्रशिक्षण प्राप्त हुआ।
बिस्मिल्लाह खानी- मकतबों में बच्चों का प्रवेश 4 वर्ष 4 माह और 4 दिन कि आयु पर बिस्मिल्लाह खानी की रस्म से होती थी। बच्चे को नए वस्त्र पहनाकर शिक्षक (उस्ताद, मौलवी) के सामने उपस्थित किया जाता था। शिक्षक बच्चे से कुरान शरीफ की कुछ आयतें दोहरवाते थे और जो बच्चे कुरान शरीफ की आयते दोहराने में असमर्थ होते थे उनसे बिस्मिल्लाह शब्द का उच्चारण करवाते थे। बिस्मिल्लाह का अर्थ है- अल्लाह के नाम पर। और इसके बाद बच्चे को मकतब में प्रवेश दिया जाता था।
शिक्षक (उस्ताद) Teacher-
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा में इस्लाम धर्म को मानने वाले अरबी और फारसी के विद्वान और अपने विषय के अच्छे जानकार व्यक्ति ही शिक्षक पद पर नियुक्त किए जाते थे। नियुक्ति के बाद ये अपने ज्ञान और आचरण के प्रति सदैव सचेष्ट रहते थे। पर साथ ही ये भारी वेतन पाते थे और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते थे। यही कारण है कि उस समय उन्हें समाज में उच्च स्थान प्राप्त था।
शिक्षार्थी (शागिर्द) Student-
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षार्थियों को मकतब तथा मदरसों में शिक्षकों के अनुशासन में रहना होता था, उन्हें किसी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं थी। पर इस काल में वे वैदिक एवं बौद्ध काल की तरह कठोर जीवन नहीं जीते थे बल्कि आरामदायक जीवन जीते थे। छात्रावासों में कालीनों पर सोते थे और भोजन में चपाती, पुलाव और बिरयानी खाते थे। वे अरबी, फारसी का मेहनत से अध्ययन करते थे।
शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध
(Teacher and Students Relationship) —
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भी शिक्षक और शिक्षार्थियों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे। शिक्षक शिक्षार्थियों को प्रेम करते थे और उन्हें परिश्रम से पढ़ाते थे और शिक्षार्थी उनका आदर करते थे और उनके आदेशों का पालन करते थे। शिक्षकों के भोजन-पानी, रहने-सहने की व्यवस्था शिक्षार्थी व समाज के व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। प्रतिदिन मुस्लिम समाज के घर से मौलवी साहब लिये भोजन की व्यवस्था की जाती थी।
अनुशासन (Discipline) —
मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों के आदेशों और मकतब तथा मदरसों के नियमों का पालन ही अनुशासन माना जाता था। आदेशों और नियमों का पालन न करने वाले छात्रों को कठोर दण्ड दिया जाता था, उन्हें दिन भर खड़ा रखा जाता था, मुर्गा बनाया जाता था, बेतों से पीटा जाता था, कोड़े लगाए जाते थे और कभी-कभी कपड़े से बाँध कर टांग दिया जाता था। इसे आज की भाषा में दमनात्मक अनुशासन कहा जाता है। इस दण्ड व्यवस्था के साथ योग्य एवं अनुशासित छात्रों को पारितोषित देने की भी व्यवस्था थी।
शिक्षण संस्थाएं (Educational Institute) —
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मुख्य रूप से मकतब और दरगाह एवं कुरान स्कूल में होती थी। उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में होती थी। इनके अतिरिक्त खानकाहें, फारसी स्कूल, कुरान स्कूल और अरबी स्कूलों की व्यवस्था भी थी।
मकतब- मकतब शब्द अरबी भाषा के 'कुतुब' शब्द से बना है जिसका अर्थ है- वह स्थान जहाँ पढ़ना-लिखना सिखाया जाता है। मध्यकाल में ये मकतब प्रायः मस्जिदों से संलग्न होते थे और एक शिक्षकीय होते थे। उस समय पर्दा प्रथा थी इसके बावजूद मकतबों में लड़के-लड़कियां एक साथ पढ़ते थे।
मदरसा - मदरसा शब्द अरबी भाषा के 'दरस' शब्द से बना है जिसका अर्थ है- भाषण देना और चूँकि उस समय उच्च शिक्षा प्रायः भाषण द्वारा दी जाती थी इसलिए उन स्थानों को जहाँ भाषण द्वारा शिक्षा दी जाती थी मदरसा कहा गया। मध्यकाल में ये मदरसे प्रायः राजधानियों और मुस्लिम बाहुल्य बड़े-बड़े नगरों में स्थापित किए गए थे। इन मदरसों के भवनों, पुस्तकालयों और छात्रावासों आदि के निर्माण में उस समय मे मुसलमान शासकों का बड़ा योगदान रहा। ये मदरसे बहुशिक्षकीय थे। इनके शिक्षकों को उच्च वेतन दिया जाता था। वेतन आदि की व्यवस्था के लिए भी राजकोष से आर्थिक सहायता दी जाती थी।
इब्नबतूता के लेखों से पता चलता है कि अधिकतर मदरसों में बड़े-बड़े पुस्तकालय थे। इन पुस्तकालयों के बड़े-बड़े भवन थे और इनमें अरबी एवं फारसी भाषा और इस्लाम धर्म के सभी मुख्य ग्रन्थों की कई-कई प्रतियां थीं। साथ ही शिक्षक निवास और छात्रावास भी थे। ये भी बहुत उच्च श्रेणी के थे और इनमें हर प्रकार की सुविधा थी। मनोरंजन के लिए पार्क, तालाब और खेल के मैदानों की व्यवस्था थी। कर्मचारियों का वेतन भुगतान और छात्रावासों में रहने वाले छात्रों की भोजन व्यवस्था आदि के लिए राज्य से आर्थिक सहायता मिलती थी परन्तु इनका प्रबन्ध पूर्ण रूप से शिक्षकों के हाथ में था।
खानकाह- खानकाहें प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र थी। इनमें केवल मुसलमान बच्चें ही प्रवेश ले सकते थे। इनका व्यय दान से प्राप्त धनराशि से चलता था।
दरगाह- दरगाहें भी प्राथमिक शिक्षा केन्द्र थी। इनमें भी केवल मुसलमान बच्चों को प्रवेश दिया जाता था।
कुरान स्कूल- ये धार्मिक शिक्षा के केन्द्र थे। इन स्कूलों में केवल कुरान शरीफ की पढ़ाई ही की जाती थी। फारसी स्कूल- ये उच्च शिक्षा के ऐसे केन्द्र थे जिनमें मुख्य रूप से फारसी भाषा और मुस्लिम संस्कृति की शिक्षा दी जाती थी और हिन्दू और मुसलमानों दोनों को शासन कार्य के लिए तैयार किया जाता था।
परीक्षा (Evaluation/Exam)-
मध्यकालीन मदरसों में आज जैसी परीक्षाएं नहीं होती थी। शिक्षा पूरी करने पर शिक्षकों की संस्तुति पर ही किसी छात्र को सफल घोषित किया जाता था। इन मदरसों में इस्लाम धर्म में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को आमिल, अरबी फारसी साहित्य में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को काबिल और तर्क तथा दर्शनशास्त्र में विशेष योग्यता प्राप्त करने वालों को फाजिल की उपाधियां दी जाती थी। उस काल में काबिल उपाधि प्राप्त व्यक्तियों को ही शासन में उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था।
शिक्षा के अन्य विशेष पक्ष
(Other Parts of Education) —
मुस्लिम काल में जन शिक्षा, स्त्री शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा का रूप आज से कुछ भिन्न था जो निम्नवत था-
जन शिक्षा- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में जन शिक्षा की बात ही नहीं सोची गई। मुसलमान बादशाहों का मुख्य उद्देश्य भारत में अपना शासन कायम रखना था और इस्लाम धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना था। यहाँ के जन उत्थान की बात उनके मस्तिष्क में कभी नहीं रही। उन्होंने इस देश में जिस शिक्षा प्रणाली का विकास किया वह इस्लाम धर्म और संस्कृति प्रधान थी। परिणामतः बहुत कम हिन्दू उसकी ओर आकृष्ट हुए। दूसरी ओर हिन्दुओं के लिए जो ब्राह्मणीय शिक्षा दबे पाँव चल रही थी उसे जन-जन तक पहुँचाना सम्भव नहीं था। परिणाम यह था कि उस समय हमारे देश में केवल 6 प्रतिशत लोग ही साक्षर थे।
स्त्री शिक्षा- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा केन्द्र मकतबों में तो लड़के-लड़कियां दोनों को प्रवेश दिया जाता था परन्तु उच्च शिक्षा के मदरसों में केवल लड़कों को ही प्रवेश दिया जाता था। यद्यपि शहजादियों की शिक्षा का प्रबन्ध व्यक्तिगत रूप से महलों में और शासन में उच्च पदों पर कार्यरत व्यक्तियों और धनी वर्ग के लोगों की बच्चियों की शिक्षा का प्रबन्ध व्यक्तिगत रूप से उनके अपने-अपने घरों में अवश्य होता था। उस समय पर्दा प्रथा होने के कारण लोग अपनी बच्चियों को घर से बाहर नहीं भेजते थे। इस काल में अनेक विदुषी महिलाएं हुई, जिनमें बाबर की बेटी गुलबदन लेखिका के रूप में प्रसिद्ध हुई, हुमायूँ की भतीजी सलीमा सुल्तान कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हुई, नूरजहाँ, मुमताज और जहाँआरा आदि अरबी एवं फारसी की विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुई, रजिया बेगम और चाँदबीबी कुशल शासक के रूप में प्रसिद्ध हुई और औरंगजेब की पुत्री जेबुन्निसा अरबी और फारसी की अच्छी कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हुई, परन्तु ये सब राजघरानों से सम्बन्धित शहजादियां थी। आम महिलाओं को उच्च शिक्षा के अवसर बिल्कुल भी प्राप्त नहीं थे परिणामतः इस काल में स्त्री शिक्षा और अधिक पिछड़ गई। हमारे देश की इस आधी मानव शक्ति का बिल्कुल भी विकास नहीं हुआ।
कला-कौशल एवं व्यावसायिक शिक्षा- प्रथमतः तो उस समय हमारे देश में ही कला-कौशलों और व्यवसायों के क्षेत्र में बड़ा विकास हो चुका था, द्वितीय ये मुसलमान अपने साथ अपने कला-कौशल लाए थे और तीसरे उस काल के मुसलमान बादशाह बड़े कलाप्रेमी थे इसलिए उन्होंने जो भी मदरसे स्थापित किए उनमें से अधिकतर में अरबी, फारसी भाषा और साहित्य तथा इस्लाम धर्म एवं संस्कृति की शिक्षा के साथ विभिन्न कला-कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा का उत्तम प्रबन्ध किया। इस काल में संगीत, नृत्य और चित्रकला, मलमल निर्माण और कशीदाकारी कौशल और भवन निर्माण कला के क्षेत्र में बहुत विकास हुआ। आगरे का ताजमहल और दिल्ली की कुतुबमीनार इस तथ्य के जीवंत प्रमाण हैं।
सैनिक शिक्षा- मध्यकाल युद्धों का युग था अतः सैनिक शिक्षा के लिए विशेष मदरसों का निर्माण किया गया। इनमें सामान्य व्यक्तियों को घुड़सवारी और भाला व तलवार चलाना सिखाया जाता था और शहजादों को इसके साथ- साथ किलाबन्दी और सैन्य संचालन की शिक्षा दी जाती थी और कुछ सैनिकों को अस्त्र-शस्त्र निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। मुगलकाल में बन्दूक चलाने और तोपों से गोले दागने का प्रशिक्षण भी दिया जाने लगा था।
मुस्लिम शिक्षा के प्रमुख केन्द्र
(Main Centers of Muslim Education)
मध्यकाल में मुस्लिम बादशाहों ने अपने राज्यों के मुख्य नगरों में बड़े-बड़े मदरसे और पुस्तकालयों का निर्माण कराया और इन्हें उच्च शिक्षा केन्द्रों के रूप में विकसित किया। दिल्ली, फिरोजाबाद, बदायूँ, आगरा, फतेहपुर सीकरी, जौनपुर, मालवा, बीदर आदि मुस्लिम शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे।
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के गुण
(Merits of Muslim Education System)
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के निम्नलिखित गुण थे-
1. शिक्षा को राजकीय संरक्षण प्राप्त लोकतन्त्रीय शासन में शिक्षा की व्यवस्था करना राज्य का उत्तरदायित्व माना जाता है। भारत में इस कार्य की शुरूआत मध्यकालीन मुसलमान बादशाहों ने ही कर दी थी। उन्होंने इस देश में अनेक मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों का निर्माण कराया और उन्हें खुले हाथों से आर्थिक सहायता दी। उन्होंने उच्च कोटि के मदरसों के साथ बड़ी-बड़ी जागीरें भी लगा दी थीं। उन्होंने मदरसों में योग्य शिक्षकों की नियुक्ति में भी सहयोग दिया था। इस प्रकार मध्यकाल में शिक्षा को राज्य का संरक्षण प्राप्त हुआ।
2. निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था- मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के मकतब और मदरसों में किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। इतना ही नहीं अपितु मदरसों के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए आवास एवं भोजन की निःशुल्क व्यवस्था थी। यह सब व्यय राज्य (शासक) और समाज (प्रजा, विशेषकर धनी वर्ग के लोग) दोनों मिलकर उठाते थे।
3. कला-कौशल एवं व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था- प्रायः सभी मुसलमान बादशाह कला प्रेमी और तरक्की पसन्द हुए। यही कारण है कि उन्होंने मदरसों में कौशलों और व्यवसायों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था कराई और शिक्षा को व्यवसायपरक बनाने पर बल दिया।
4. प्राथमिक एवं उच्च शिक्षा की अलग-अलग व्यवस्था- मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था मकतबों और उच्च शिक्षा की व्यवस्था मदरसों में होती थी। आज भी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित देवबंद मुस्लिम शिक्षा का एक बड़ा और महत्वपूर्ण केंद्र है।
5. ज्ञान के विकास पर बल- मुहम्मद साहब ज्ञान को अमृत मानते थे। यही कारण है कि मध्यकालीन मुसिलम शिक्षा प्रणाली में इस्लाम धर्म एवं संस्कृति के विकास के साथ-साथ ज्ञान के विकास पर बल दिया गया।
6. साहित्य रचना को प्रोत्साहन- मुसलमान बादशाहों ने अपने काल में साहित्य रचना को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने साहित्यिक रचना की प्रवृति वाले छात्रों को सम्मान दिया, उनकी आर्थिक सहायता की, उन्हें प्रोत्साहित किया।
7. नायकीय पद्धति का विकास (Monitor System)- मध्यकाल में मुस्लिम मदरसों में उच्च कक्षाओं के योग्य छात्र निम्न कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाते थे, इसे नायकीय पद्धति कहते हैं। यद्यपि इस पद्धति की शुरूआत प्राचीन काल में ही हो गई थी परन्तु मध्यकाल में इस विधि में थोड़ा विकास किया गया, पहले वरिष्ठ छात्रों को इसका प्रशिक्षण दिया जाता था और फिर उन्हें यह कार्य सौंपा जाता था।
8. उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था- मध्यकाल में मुसलमान बादशाहों ने भिन्न-भिन्न प्रकार की उच्च शिक्षा के लिए भिन्न-भिन्न मदरसों का निर्माण कराया और उनमें उच्च कोटि के पुस्तकालयों और योग्य शिक्षकों की व्यवस्था कराई। इस प्रकार इस काल में उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था हुई। उस समय शासन के उच्च पदों पर उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती थी परिणामतः उच्च शिक्षा का विकास हुआ।
मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के दोष
(Demerits of Muslim Education System)
मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा प्रणाली के दोषों को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध किया जा सकता है-
1. आर्थिक सहायता में पक्षपात- यह बात सत्य है कि मध्यकाल में मुसलमान बादशाहों ने शिक्षा के विकास में विशेष रूचि ली और उन्होंने अनेक मकतब और मदरसों का निर्माण कराया। यह बात भी सत्य है कि उन्होंने इन शिक्षण संस्थाओं को पूरी-पूरी आर्थिक सहायता दी। परन्तु दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि मुगल सम्राट अकबर को छोड़कर अन्य किसी भी मुसलमान बादशाह ने हिन्दू शिक्षा संस्थाओं को किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं दी जो पक्षपातपूर्ण नीति को दर्शाती है।
2. तत्कालीन भारतीय शिक्षा पर प्रहार- मध्यकाल में केवल इस्लाम धर्म एवं संस्कृति की शिक्षा की व्यवस्था की गयी। तत्कालीन ब्राह्मणीय शिक्षा संस्थाओं को सहयोग देना तो दूर, उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न किया गया। इस देश के प्रथम मुसलमान बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने गद्दी पर बैठते ही अपने सेनापति बख्तियार खिलजी द्वारा यहाँ के विश्वविख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय नालन्दा और विक्रमशिला को नष्ट करवा डाला था।
3. शिक्षा का मूल उद्देश्य इस्लाम धर्म और संस्कृति का प्रचार- मध्यकाल में लगभग सभी मुसलमान शासकों ने इस्लाम धर्म और संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार पर बहुत अधिक बल दिया परिणामतः चाहे मकतब हों, चाहे मदरसे, सभी में इस्लाम धर्म और संस्कृति की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी। यह मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य की संकीर्णता को प्रदर्शित करता है।
4. भारतीय भाषाओं, साहित्य, धर्म और दर्शन की अवहेलना- मध्यकाल में अकबर बादशाह से पहले इस देश में जितने भी मकतब और मदरसे स्थापित किए गए उनमें न भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाती थीं और न भारतीय साहित्य पढ़ाया जाता था। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली में भारतीय भाषाओं, साहित्य, धर्म और दर्शन की पूरी तरह से अवहेलना की गयी।
5. शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएं- मध्यकाल में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषाएं अरबी और फारसी थीं। अतः सभी बच्चों को प्रारम्भ से ही इन भाषाओं को सीखना होता था। हिन्दुओं के लिए अरबी और फारसी अतिरिक्त बोझ थी। वैसे भी तब अधिकतर हिन्दू इन भाषाओं को सीखना हेय समझते थे। परिणामतः इस देश के बहुसंख्यक इस शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए, शासन में उच्च पद प्राप्त करने के इच्छुक कुछ हिन्दू ही इस शिक्षा को प्राप्त करते थे। यही कारण है कि तब शिक्षा को सर्वसुलभ नहीं बनाया जा सका।
6. रटने पर अधिक बल- मध्यकाल में समझने के बजाय रटने पर बल लिया जाता था। मकतबों में प्रारम्भ से ही कुरान शरीफ की आयतें रटाई जाती थीं, गिनती और पहाड़े रटाए जाते थे और इस्लामी शिक्षाएं और कानून रटाए जाते थे। बच्चों की आधे से अधिक शक्ति इन सबके रटने में ही व्यय होती थी। यह उस समय की मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का बहुत बड़ा दोष था।
7. दमनात्मक अनुशासन/शारीरिक दण्ड का प्रावधान- मध्यकाल में शिक्षक अपने में तानाशाह होते थे। वे छात्रों को छोटे-छोटे अपराधों पर कठोर दण्ड देते थे। बच्चों को दिनभर खड़े रखना, मुर्गा बनाना, बेतों से पीटना, कोड़े लगाना और कपड़ों से बाँधकर लटका देना, उस समय की दण्ड व्यवस्था थी। छात्र शिक्षकों के भय से आतंकित रहते थे। इसे निकृष्ट कोटि का अनुशासन ही कहेगे। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दण्ड के भय से स्थापित व्यवस्था को अनुशासन नहीं माना जा सकता।
8. जन शिक्षा की अवहेलना- मध्यकालीन मुस्लिम शिक्षा में आम जनता की शिक्षा की बात उस काल के किसी बादशाह ने नहीं सोची। इस प्रकार इस शिक्षा प्रणाली में जन शिक्षा की पूरे तौर से अवहेलना की गई।
9. स्त्री शिक्षा की अवहेलना - मध्यकाल में बच्चियों को मकतबों में तो प्रवेश दिया जाता था परन्तु मदरसों में नहीं। मकतबों में भी बहुत कम लोग अपनी बच्चियों को भेजते थे। शासक और उच्च वर्ग के कुछ लोग अपनी बच्चियों की शिक्षा की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से अपने घरों में अवश्य करा लेते थे। इस प्रकार इस काल में स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा हास हुआ।
सारांश (Summary) —
मध्यकाल में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ। मुस्लिम शिक्षा प्रणाली इसलिए कि यह मुस्लिम धर्म और संस्कृति पर आधारित थी। हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली के विकास में मुस्लिम शिक्षा प्रणाली का भी काफी योगदान है। आज देश भर में जो मकतब और मदरसे दिखाई दे रहे हैं, वे इसी शिक्षा प्रणाली के अवशेष हैं। आज जो देश में इस्लाम धर्म की शिक्षा के केन्द्र दिखाई दे रहे है, ये भी इसी शिक्षा प्रणाली की देन हैं। देवबन्द का दारूल उलूम तो इस्लाम धर्म की शिक्षा का विश्वविख्यात केन्द्र है, देश-विदेश के इस्लाम धर्मावलम्बी इसमें शिक्षा प्राप्त करते हैं। अरबी, फारसी और उर्दू की शिक्षा की व्यवस्था की निरन्तरता इसी प्रणाली का परिणाम है। परोक्ष रूप में भी इस शिक्षा प्रणाली का अपना कुछ योगदान है। उसमें कुछ बातें ऐसी थीं जो किसी भी शिक्षा प्रणाली में होनी चाहिए और आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली में भी हमें देखने को मिल रही हैं जैसे- शिक्षा की व्यवस्था में राज्य और समाज का सहयोग, निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था, योग्य एवं निर्धन छात्रों के लिए छात्रवृत्तियों की व्यवस्था और समस्त ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा की उत्तम व्यवस्था।
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अच्छा लेख है
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