विज्ञान, तर्क और मूर्खताओं की कीमत
*📝 विज्ञान, तर्क और मूर्खताओं की कीमत : एक इतिहास, जो अब भी दोहराया जा रहा है*
इतिहास गवाह है कि जो लोग तर्क, विज्ञान और स्वतंत्र सोच को अपनाते हैं, वही अक्सर सबसे पहले भीड़ की आँखों की किरकिरी बनते हैं। प्राचीन ऐलेक्ज़ेंड्रिया में एक विलक्षण गणितज्ञ और दार्शनिक *हिपैशिया* थीं, जिन्होंने ग्रहों और तारों की गति को समझने की कोशिश की। पर अफ़सोस, उनकी खोजों और उनके साहस को धार्मिक कट्टरता ने पचा नहीं पाया। भीड़ ने उन्हें घसीटा, उनकी चमड़ी तक नोच डाली, और फिर उनके शरीर को जलाकर राख कर दिया।
*हिपैशिया की हत्या को अक्सर विश्व में तर्क, विज्ञान और स्वतंत्र चिंतन के पतन का सबसे वीभत्स प्रतीक माना जाता है।*
इसी तरह यूनान में *सुकरात* ने युवाओं को सिखाया कि प्रश्न पूछो, तर्क करो, किसी भी परंपरा को आँख बंद कर न मानो। लेकिन जब लोग सचमुच प्रश्न पूछने लगे, तो सत्ता और पुरोहित घबरा गए। उन्होंने सुकरात को ज़हर का प्याला थमाया ताकि वह 'सोचने की बीमारी' का वायरस फैलाना बंद कर दे।
*जियोर्दानो ब्रूनो* ने जब कहा कि हमारे सूरज की तरह और भी अनगिनत तारों के अपने-अपने ग्रह होंगे, तो चर्च को यह बात बर्दाश्त न हुई। उन्होंने ब्रूनो को जिंदा आग में जलवा दिया। गैलीलियो ने जब अपनी दूरबीन से देख कर बताया कि पृथ्वी ही ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है, तो चर्च ने उन्हें माफ़ी माँगने पर मजबूर किया और जीवनभर घर में नजरबंद रखा।
कोई सोच सकता है कि यह सब तो 'मध्य युग' की बातें हैं, अब हम आधुनिक हैं, वैज्ञानिक हैं, सभ्य हैं। लेकिन यह मात्र भ्रम है। हमारे अपने भारत में भी, प्राचीन चार्वाक दर्शन ने आत्मा, पुनर्जन्म, यज्ञ और पाखंड का तर्क से खंडन किया। परिणाम? उन्हें 'नास्तिक' और 'अधर्मी' कहकर समाज से अलग कर दिया गया।
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा, मूर्तिपूजा और अंधविश्वास पर सवाल उठाए तो उन्हें धर्मद्रोही कहा गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी कट्टरता पर वार किया तो उनके जीवन पर हमले हुए। पेरियार ने जब दक्षिण में जातिव्यवस्था और पुरोहितवाद पर उंगली उठाई, तो उन्हें भी सामाजिक बहिष्कार, विरोध और धमकियों का सामना करना पड़ा।
और अगर आप सोचें कि यह सब सिर्फ पुरानी बात है, तो आज भी देख लीजिए। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने अंधविश्वास के खिलाफ अभियान चलाया, उन्हें गोली मार दी गई। गोविंद पानसरे ने जातिवाद और सांप्रदायिकता पर सवाल उठाए, उनका भी खून बहा दिया गया। एम. एम. कलबुर्गी ने कुरीतियों की आलोचना की, और गौरी लंकेश ने कट्टरवाद पर कलम चलाई — इन दोनों को भी गोलियों ने चुप करा दिया।
अब ज़रा सोचिए — हम सभी जानते हैं कि हमारी पौराणिक कथाएँ केवल मनुष्य के मन की कल्पनाएँ थीं। विज्ञान ने सिद्ध कर दिया कि न कोई समुद्र में 100 योजन लंबा सांप है, न कोई पृथ्वी हाथी-कछुए की पीठ पर खड़ी है। विज्ञान ने बताया कि बिजली इंद्र के गुस्से का वज्र नहीं, बल्कि चार्ज के अंतर की एक साधारण प्रक्रिया है। और हाँ, विज्ञान ने यह भी दिखा दिया कि आपके पवित्र ग्रहों और नक्षत्रों का 'दोष' आपके पेट के अल्सर से कहीं कम ख़तरनाक है।
लेकिन वही लोग जो विज्ञान से निकली कार में बैठकर, वैज्ञानिक सिद्धांतों से बने इंटरनेट पर अपने धर्म की कहानियाँ शेयर करते हैं, वही लोग जब विज्ञान उनकी कथाओं पर प्रश्न उठाता है, तो विज्ञान को ही दोष देने लगते हैं। यही लोग अपने बच्चों के लिए मोबाइल, वैक्सीन, MRI और GPS तो चाहते हैं, पर विज्ञान द्वारा अपने मिथकों की पोल खोलने पर उसे 'पश्चिमी षड्यंत्र' बता देते हैं।
और सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि आज भी लोग तर्क करने की बजाय अपने पुराने ग्रंथों में उलझकर समाज को बांटने में लगे हैं। धर्म और जाति के नाम पर इंसान मर रहे हैं, जबकि विज्ञान ने तो हमें सितारों तक पहुँचने का रास्ता दिखा दिया।
हिपैशिया से लेकर सुकरात, ब्रूनो और गैलीलियो, पेरियार, दाभोलकर और लंकेश तक — इन सबकी कहानियाँ हमें सिर्फ एक ही बात समझाती हैं: जब कोई समाज सवाल पूछना छोड़ देता है, तब अंधकार फिर से पाँव पसार लेता है।
और फिर कोई हिपैशिया मार दी जाती है, कोई ब्रूनो जला दिया जाता है, कोई दाभोलकर गोलियों से छलनी कर दिया जाता है।
क्योंकि सवालों से डर हमेशा रहेगा — सवाल ही वो हथियार हैं जो किसी भी झूठ को बेनकाब कर सकते हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें