आज के भारत में सबसे बड़ा अपराध क्या है?

आज के भारत में अगर आप शिक्षक हैं, छात्र हैं, और ऊपर से सवाल पूछने की जुर्रत कर बैठें, तो फिर तैयार रहिए लाठी खाने, गिरफ़्तार होने और गद्दार कहे जाने के लिए। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि हमारे तथाकथित 'न्यू इंडिया' की कड़वी सच्चाई है, जहाँ सोचने और बोलने वालों को संदिग्ध निगाहों से देखा जाता है।


SSC हो या रेलवे, CTET हो या UPPCS, REET, UPTET, BPSC, MPPSC, HSSC,  कोई भी परीक्षा उठा लीजिए, हर जगह एक ही कहानी है: पेपर लीक, सालों-साल तक रिज़ल्ट का इंतज़ार, भर्तियाँ स्थगित और कोर्ट केसों की अंतहीन लाइनें। छात्र परेशान हो रहे हैं, उनकी जवानी इंतज़ार करते-करते बीत रही है, लेकिन सरकार को कोई जल्दी नहीं। शायद इसलिए क्योंकि उन्हें पढ़े-लिखे नागरिकों से डर लगता है, उन नागरिकों से जो तर्क करें, सवाल करें, और अपने हक मांगें। आखिर, एक जागरूक युवा पीढ़ी सत्ता के लिए चुनौती क्यों न होगी?


सरकारी स्कूलों की हालत ये है कि कई राज्यों में उन्हें बंद कर निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। कहीं शिक्षक ही नहीं हैं, लेकिन पोस्टर ज़रूर छपते हैं कि "न्यू इंडिया में डिजिटल क्लासरूम" चल रहे हैं। सरकारें शिक्षा में निवेश नहीं करतीं, लेकिन सोशल मीडिया में "शिक्षा का महाकुंभ" जरूर चलाती हैं। असल में, आज का शिक्षा तंत्र ICU में है और वेंटिलेटर भी किसी कॉर्पोरेट के नाम कर दिया गया है। यह 2014 के बाद से एक ऐसी प्रवृत्ति बन गई है, जहाँ शिक्षा को केवल एक बोझ समझा जा रहा है, न कि राष्ट्र निर्माण का आधार।


अब आइए सत्ता के उन पसंदीदा पात्रों पर, वे जिन्हें देश का गौरव बताया जा रहा है। जो टीवी पर आकर कहते हैं  “विमान प्राचीन काल में उड़ता था”, “किसी विशेष प्रकार से आग जलाएंगे तो ऑक्सीजन पैदा होगा”। आज के जो तथाकथित धर्म गुरु हैं, वे सीधे हमारी किताबों को रद्दी बोल देते हैं, और उन्हें बहुत मान-सम्मान मिलता है। इन बयानों पर ना FIR होती है, ना गिरफ्तारी, उल्टा ऐसे महानुभावों को राष्ट्रीय मंच, पुरस्कार और सरकारी संसाधन मिलते हैं। क्योंकि वे वही बोलते हैं, जो सत्ता को चाहिए, तथ्य नहीं, भावना; विज्ञान नहीं, भ्रम। अंधविश्वास को इस कदर प्रसारित किया जा रहा है कि यह समाज की जड़ों में घुसता जा रहा है, और सरकार का मौन समर्थन इसे और बढ़ावा दे रहा है।


उधर, शिक्षक जो संविधान पढ़ाता है, छात्र जो परीक्षा की तारीख पूछता है, उन्हें देशद्रोही, अर्बन नक्सल और 'प्रोपेगेंडा फैलाने वाला' करार दिया जाता है। क्योंकि सत्ता को ऐसे नागरिक नहीं चाहिए जो सोचते हैं, उसे चाहिए ऐसे लोग जो नारा लगाएं और वोट दें। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि ज्ञान और तर्क की बात करने वाले को हाशिए पर धकेला जा रहा है, जबकि अवैज्ञानिक दावों को महिमामंडित किया जा रहा है।


धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था का विषय होना चाहिए था, अब शासन का टूलकिट बन चुका है। हर गली में धर्म का उत्सव है, हर बजट में मंदिरों के लिए विशेष अनुदान है, और हर नेता की ज़ुबान पर कोई न कोई चमत्कारिक कथा जरूर है। लेकिन जब बात आती है स्कूलों की, तो जवाब मिलता है,

 “ये राज्य का विषय है।” वाह! मंदिर राष्ट्र का विषय है, लेकिन स्कूल राज्य का? यह दोहरा मापदंड स्पष्ट रूप से बताता है कि प्राथमिकताएँ कहाँ हैं। धर्म के नाम पर कई लोगों पर केस हुए हैं, लेकिन अक्सर ये वे लोग होते हैं जो सत्ता के नैरेटिव से असहमत होते हैं, जबकि धार्मिक उन्माद फैलाने वालों को अक्सर खुली छूट मिलती है।


आज भारत में अगर आप कोई नई तकनीक पर काम कर रहे हैं, तो आप ‘विदेशी प्रभाव’ कहलाएंगे, अगर विज्ञान की बात करेंगे, तो आपको ‘संस्कृति विरोधी’ ठहरा दिया जाएगा। लेकिन अगर आप कहें कि "भक्ति से ब्रह्मांड चलता है", तो आपको अखबारों में जगह मिलेगी और समाज में सम्मान। यह स्थिति हमें मध्ययुगीन अंधकार की ओर धकेल रही है, जहाँ तर्क और वैज्ञानिक प्रगति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।


यही है इस समय का असली “न्यू इंडिया” जहाँ सरकारें बच्चों को स्मार्ट क्लास की तस्वीर दिखा कर वोट लेती हैं, लेकिन उसी बच्चे के हाथ में नियुक्ति पत्र देने से कतराती हैं। जहाँ शिक्षक की जगह बाबाओं की जयकार होती है। और जहाँ एक छात्र के भविष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है , कौन किस देवता को क्या बोल गया। यह भारत की वर्तमान स्थिति का एक स्याह पहलू है, जहाँ वास्तविक मुद्दों को धार्मिक और भावनात्मक नारों के पीछे छिपाया जा रहा है।


और तब जब छात्र–शिक्षक सड़कों पर उतरते हैं, तब उनके हिस्से आता है, लाठी, आंसू गैस, और मीडिया ट्रायल। क्योंकि आज के भारत में अगर आप ज़िंदा हैं, सोचते हैं, और बोलते हैं, तो आप सरकार की नज़र में संदिग्ध हैं। यह एक ऐसा भारत है जहाँ असहमति को अपराध माना जाता है, और जहाँ नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लगातार कुचला जा रहा है।

आज के भारत में अगर आप शिक्षक हैं, छात्र हैं, और ऊपर से सवाल पूछने की जुर्रत कर बैठें, तो फिर तैयार रहिए लाठी खाने, गिरफ़्तार होने और गद्दार कहे जाने के लिए। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि हमारे तथाकथित 'न्यू इंडिया' की कड़वी सच्चाई है, जहाँ सोचने और बोलने वालों को संदिग्ध निगाहों से देखा जाता है।


SSC हो या रेलवे, CTET हो या UPPCS, REET, UPTET, BPSC, MPPSC, HSSC, कोई भी परीक्षा उठा लीजिए, हर जगह एक ही कहानी है: पेपर लीक, सालों-साल तक रिज़ल्ट का इंतज़ार, भर्तियाँ स्थगित और कोर्ट केसों की अंतहीन लाइनें। छात्र परेशान हो रहे हैं, उनकी जवानी इंतज़ार करते-करते बीत रही है, लेकिन सरकार को कोई जल्दी नहीं। शायद इसलिए क्योंकि उन्हें पढ़े-लिखे नागरिकों से डर लगता है, उन नागरिकों से जो तर्क करें, सवाल करें, और अपने हक मांगें। आखिर, एक जागरूक युवा पीढ़ी सत्ता के लिए चुनौती क्यों न होगी?


सरकारी स्कूलों की हालत ये है कि कई राज्यों में उन्हें बंद कर निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। कहीं शिक्षक ही नहीं हैं, लेकिन पोस्टर ज़रूर छपते हैं कि "न्यू इंडिया में डिजिटल क्लासरूम" चल रहे हैं। सरकारें शिक्षा में निवेश नहीं करतीं, लेकिन सोशल मीडिया में "शिक्षा का महाकुंभ" जरूर चलाती हैं। असल में, आज का शिक्षा तंत्र ICU में है और वेंटिलेटर भी किसी कॉर्पोरेट के नाम कर दिया गया है। यह 2014 के बाद से एक ऐसी प्रवृत्ति बन गई है, जहाँ शिक्षा को केवल एक बोझ समझा जा रहा है, न कि राष्ट्र निर्माण का आधार।


अब आइए सत्ता के उन पसंदीदा पात्रों पर, वे जिन्हें देश का गौरव बताया जा रहा है। जो टीवी पर आकर कहते हैं “विमान प्राचीन काल में उड़ता था”, “किसी विशेष प्रकार से आग जलाएंगे तो ऑक्सीजन पैदा होगा”। आज के जो तथाकथित धर्म गुरु हैं, वे सीधे हमारी किताबों को रद्दी बोल देते हैं, और उन्हें बहुत मान-सम्मान मिलता है। इन बयानों पर ना FIR होती है, ना गिरफ्तारी, उल्टा ऐसे महानुभावों को राष्ट्रीय मंच, पुरस्कार और सरकारी संसाधन मिलते हैं। क्योंकि वे वही बोलते हैं, जो सत्ता को चाहिए, तथ्य नहीं, भावना; विज्ञान नहीं, भ्रम। अंधविश्वास को इस कदर प्रसारित किया जा रहा है कि यह समाज की जड़ों में घुसता जा रहा है, और सरकार का मौन समर्थन इसे और बढ़ावा दे रहा है।


उधर, शिक्षक जो संविधान पढ़ाता है, छात्र जो परीक्षा की तारीख पूछता है, उन्हें देशद्रोही, अर्बन नक्सल और 'प्रोपेगेंडा फैलाने वाला' करार दिया जाता है। क्योंकि सत्ता को ऐसे नागरिक नहीं चाहिए जो सोचते हैं, उसे चाहिए ऐसे लोग जो नारा लगाएं और वोट दें। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि ज्ञान और तर्क की बात करने वाले को हाशिए पर धकेला जा रहा है, जबकि अवैज्ञानिक दावों को महिमामंडित किया जा रहा है।


धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था का विषय होना चाहिए था, अब शासन का टूलकिट बन चुका है। हर गली में धर्म का उत्सव है, हर बजट में मंदिरों के लिए विशेष अनुदान है, और हर नेता की ज़ुबान पर कोई न कोई चमत्कारिक कथा जरूर है। लेकिन जब बात आती है स्कूलों की, तो जवाब मिलता है,

 “ये राज्य का विषय है।” वाह! मंदिर राष्ट्र का विषय है, लेकिन स्कूल राज्य का? यह दोहरा मापदंड स्पष्ट रूप से बताता है कि प्राथमिकताएँ कहाँ हैं। धर्म के नाम पर कई लोगों पर केस हुए हैं, लेकिन अक्सर ये वे लोग होते हैं जो सत्ता के नैरेटिव से असहमत होते हैं, जबकि धार्मिक उन्माद फैलाने वालों को अक्सर खुली छूट मिलती है।


आज भारत में अगर आप कोई नई तकनीक पर काम कर रहे हैं, तो आप ‘विदेशी प्रभाव’ कहलाएंगे, अगर विज्ञान की बात करेंगे, तो आपको ‘संस्कृति विरोधी’ ठहरा दिया जाएगा। लेकिन अगर आप कहें कि "भक्ति से ब्रह्मांड चलता है", तो आपको अखबारों में जगह मिलेगी और समाज में सम्मान। यह स्थिति हमें मध्ययुगीन अंधकार की ओर धकेल रही है, जहाँ तर्क और वैज्ञानिक प्रगति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।


यही है इस समय का असली “न्यू इंडिया” जहाँ सरकारें बच्चों को स्मार्ट क्लास की तस्वीर दिखा कर वोट लेती हैं, लेकिन उसी बच्चे के हाथ में नियुक्ति पत्र देने से कतराती हैं। जहाँ शिक्षक की जगह बाबाओं की जयकार होती है। और जहाँ एक छात्र के भविष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है , कौन किस देवता को क्या बोल गया। यह भारत की वर्तमान स्थिति का एक स्याह पहलू है, जहाँ वास्तविक मुद्दों को धार्मिक और भावनात्मक नारों के पीछे छिपाया जा रहा है।


और तब जब छात्र–शिक्षक सड़कों पर उतरते हैं, तब उनके हिस्से आता है, लाठी, आंसू गैस, और मीडिया ट्रायल। क्योंकि आज के भारत में अगर आप ज़िंदा हैं, सोचते हैं, और बोलते हैं, तो आप सरकार की नज़र में संदिग्ध हैं। यह एक ऐसा भारत है जहाँ असहमति को अपराध माना जाता है, और जहाँ नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लगातार कुचला जा रहा है।

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