E pur si muove
*"E pur si muove..."*
*"और फिर भी यह घूमती है…"*
*🕯️ 22 जून 1633 – रोम, इटली*
इटली के रोमन चर्च की विशाल सभा कक्ष में, एक वृद्ध वैज्ञानिक को घुटनों के बल लाया गया। उम्र लगभग सत्तर वर्ष, शरीर थका हुआ, लेकिन आंखों में अब भी सच्चाई की चमक बाकी थी।
उसका नाम था — *गैलीलियो गैलीली।*
उसके हाथों में बाइबल दी गई, और कहा गया:
*"बोलो, पृथ्वी नहीं घूमती। बोलो कि सूर्य ब्रह्मांड का केंद्र नहीं है। बोलो कि तुमने झूठ बोला था।"*
गैलीलियो जानता था कि यदि वह इनकार करेगा , तो उसका अंजाम वही होगा जो *Giordano Bruno* का हुआ था: जिंदा जला दिया जाना।
वह घुटनों पर बैठा, कांपते हाथों से बाइबल को छुआ और बोला:
*"I, Galileo, being in my seventieth year, being a prisoner and on my knees… abjure, curse and detest the error and heresy of the movement of the Earth."*
(मैं, गैलीलियो, जो सत्तरवें वर्ष में हूं, बंदी हूं, घुटनों के बल… पृथ्वी की गति के विचार को त्यागता हूं, शापित करता हूं, और उसे धर्म-विरोधी घोषित करता हूं।)
सभा मौन थी। और चर्च ने अपने को विजयी समझा। मगर उसी क्षण, कहते हैं, जैसे ही गैलीलियो उठा और मुड़ा, उसने धीरे से फुसफुसाया:
*"E pur si muove."*
*(और फिर भी यह घूमती है…)*
*तीन सौ उनसठ साल बाद — 31 अक्टूबर 1992*
वेटिकन सिटी के एक शांत, ऐतिहासिक दिन में, *पोप जॉन पॉल द्वितीय* ने दुनिया के सामने एक घोषणा की। उन्हें एहसास हो चुका था कि चर्च ने विज्ञान नहीं, बल्कि सत्य को दंडित किया था।
उन्होंने कहा:
*"We express our regret for the way Galileo was treated... the Galileo affair was a tragic mutual incomprehension."*
*(हम गैलीलियो के साथ किए गए व्यवहार पर खेद प्रकट करते हैं… यह एक दुखद और ग़लतफहमी भरा अध्याय था।)*
चर्च ने गैलीलियो से माफ़ी मांगी।
लेकिन तब तक गैलीलियो की आत्मा, विज्ञान के आकाश में स्वतंत्र होकर घूम रही थी। वो सत्य, जिसे चर्च ने दबाने की कोशिश की थी, अब स्कूलों, प्रयोगशालाओं, और हर खगोलशास्त्री की आंखों में चमक रहा था।
यह कहानी केवल एक वैज्ञानिक की नहीं , यह संघर्ष है सत्य बनाम सत्ता, ज्ञान बनाम परंपरा, और विज्ञान बनाम अंधविश्वास का।
गैलीलियो ने झुककर स्वीकार किया, पर भीतर से नहीं टूटा। उसे अपनी खोज पर भरोसा था, और समय ने यह सिद्ध कर दिया कि सत्य का पक्ष उसी के साथ था।
उसे चर्च की माफ़ी की ज़रूरत नहीं थी, मगर इतिहास को उसे इंसाफ़ देना था। 1992 में, सदियों बाद, चर्च ने यह स्वीकार किया कि उसने उस सत्यवक्ता को न समझ पाने की भूल की थी।
यह घटना , गैलीलियो के प्रति की गई माफी ,केवल एक इंसान के लिए नहीं थी। यह एक संस्थागत स्वीकृति थी कि कभी-कभी धर्म जब जड़ हो जाता है, तो वह ज्ञान का विरोधी बन जाता है।
इतिहास ने कई बार दिखाया है कि:
*जब भी विज्ञान ने नयी दिशा दिखाने की कोशिश की, धर्म ने पहले उसे रोकने की कोशिश की।*
पर सच्चाई की खासियत यही है, वह चाहे जितनी देर से सामने आए, मगर जब आती है, तो अपने साथ बदलाव भी लाती है।
और जब हम आज आकाशगंगा को घूमते हुए देखते हैं, सौरमंडल को समझते हैं, उपग्रह भेजते हैं,तो कहीं दूर से एक धीमा, शांत स्वर सुनाई देता है:
*"E pur si muove..."*
*(और फिर भी यह घूमती है…)*
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