हम विश्वगुरु हैं - क्या है इसकी सच्चाई ?
इन दिनों भारत में एक विचार बड़े जोर-शोर से फैलाया जा रहा है, हम विश्वगुरु हैं। यह नारा खास तौर पर उन समूहों से आता है जो अपने धर्म और संस्कृति को सर्वोच्च मानते हैं और भारत के अतीत को स्वर्णिम युग के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस सोच में एक भावनात्मक गर्व है, जो भारत की ऐतिहासिक उपलब्धियों को वर्तमान के राजनीतिक या सांस्कृतिक विमर्श में जोड़ता है। लेकिन इस दावे की तह में जाने से पहले यह जरूरी है कि हम तथ्यों और इतिहास की कसौटी पर इसे कसें।
निस्संदेह, प्राचीन भारत में ज्ञान की परंपरा अत्यंत समृद्ध थी। नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय न केवल भारतीय छात्रों के लिए बल्कि चीन, तिब्बत, कोरिया जैसे देशों के विद्यार्थियों के लिए भी आकर्षण का केंद्र थे। *आर्यभट्ट* ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी कार्य किए, *ब्रह्मगुप्त* ने बीजगणित की नींव रखी, और *सुश्रुत* ने शल्य चिकित्सा में ऐसे प्रयोग किए जिनका उल्लेख आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी करता है। *चरक* के ग्रंथ आज भी आयुर्वेद की आधारशिला माने जाते हैं। *पिंगल* और *वराहमिहिर* जैसे विद्वानों ने गणित, ज्योतिष और भाषाविज्ञान को समृद्ध किया।
इन उपलब्धियों पर गर्व होना स्वाभाविक है, लेकिन इन्हें पूरी दुनिया के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना भी उतना ही जरूरी है। क्योंकि ज्ञान का यह प्रवाह केवल भारत तक सीमित नहीं था। भारत के समकालीन और उससे पहले की अनेक सभ्यताओं ने समान रूप से महत्वपूर्ण योगदान दिया। *मिस्र की सभ्यता* ने ज्यामिति, खगोल और चिकित्सा में गहन काम किया। पिरामिडों का निर्माण बिना गणितीय कौशल के असंभव था। *मेसोपोटामिया की सभ्यताओं* ने लेखन (क्यूनिफॉर्म), बीजगणित और समय मापन (60-सेकंड की घड़ी प्रणाली) में योगदान दिया। यूनान के दार्शनिकों *प्लेटो, सुकरात, अरस्तू* ने तर्क, नीतिशास्त्र और राजनीति विज्ञान की नींव रखी। *पाइथागोरस* और *यूक्लिड* जैसे गणितज्ञों ने ज्यामिति को विज्ञान की दिशा दी। *चीन की सभ्यता* ने कागज, बारूद, कंपास, और छपाई जैसी क्रांतियों का नेतृत्व किया, और *ताओ* तथा *कन्फ्यूशियस* जैसे विचारकों ने दर्शन को सामाजिक आचरण से जोड़ा।
कहने का मतलब यह कि भारत इस वैश्विक यात्रा में एक अग्रणी स्तंभ जरूर था, लेकिन अकेला नहीं।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि भारत के प्राचीन ऋषि, मुनि और आचार्य कभी अपने आपको *"विश्वगुरु"* कहकर नहीं पुकारते थे। वे ज्ञान को साधना मानते थे, प्रदर्शन का साधन नहीं। उनके लिए विद्या का मूल उद्देश्य था —
*विनय, यानी विनम्रता*।
*"विद्या ददाति विनयम्"*
केवल श्लोक नहीं था, बल्कि एक जीवन दर्शन था। वे दूसरों की सभ्यताओं को नीचा दिखाकर अपने को ऊँचा साबित करने की प्रवृत्ति से कोसों दूर थे।
दुर्भाग्यवश, आज यह परंपरा उलटती जा रही है। अब "विश्वगुरु" का प्रयोग
स्व-प्रशंसा, धार्मिक वर्चस्व या राजनीतिक एजेंडा चलाने के लिए करता है। ज्ञान के नाम पर घमंड और अंधभक्ति का प्रचार किया जाता है। कई बार यह केवल वोटबैंक को साधने और एक नकली गौरवबोध पैदा करने का माध्यम बन जाता है, जिसमें अतीत के गौरव की आड़ में वर्तमान की खामियों को छुपा दिया जाता है।
कुछ लोगों की यह जिद होती है कि पूरी दुनिया का विज्ञान केवल हमारे वेदों से निकला है, और पश्चिम ने हमारे ग्रंथों की "चोरी" करके आज की वैज्ञानिक प्रगति हासिल की है। यह दावा न केवल ऐतिहासिक रूप से ग़लत है, बल्कि खतरनाक रूप से आत्ममुग्ध भी। वे यह मानने से इनकार करते हैं कि ज्ञान एक सांझा वैश्विक प्रयास है, जो संघर्ष, बलिदान और निरंतर प्रश्नों के रास्ते से विकसित होता है। क्या वे यह भूल जाते हैं कि अरस्तू, सुकरात, हाइपेशिया, ब्रूनो, गैलीलियो जैसे दार्शनिक और वैज्ञानिक — केवल अपने विचारों के कारण या तो कारावास में झोंक दिए गए, प्रताड़ित किए गए या उन्हें मृत्यु दंड तक दिया गया?
वे यह नहीं देखते कि मध्य युग में यूरोप में वैज्ञानिकों और विचारकों को चर्च की घोर प्रताड़ना सहनी पड़ी, फिर भी उन्होंने सत्य की खोज नहीं छोड़ी। थॉमस एडिसन ने एक बल्ब बनाने के लिए 1600 से अधिक असफल प्रयोग किए; निकोला टेस्ला ने जीवनभर बिजली की अवधारणाओं पर काम किया और आर्थिक तंगी में मर गए; मैडम क्यूरी ने रेडियोधर्मिता की खोज करते हुए अपनी जान गंवाई। न्यूटन, कॉपरनिकस, केप्लर, आइंस्टीन, हॉकिंग — इन्होंने जीवन को प्रयोगशाला बना दिया। ये लोग न किसी 'वेद' से चोरी करने बैठे थे, न किसी एक धर्म या ग्रंथ से ज्ञान चुराने। वे अपने-अपने कालखंड के भीतर, सीमित संसाधनों और सामाजिक बाधाओं के बावजूद निस्वार्थ भाव से मानवता के लिए सोचते, खोजते और लड़ते रहे।
ऐसे में यह दावा करना कि “सब कुछ हमारे पास पहले से था, बाकी सबने चुराया” — न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से नासमझी है, बल्कि यह उन हजारों विचारकों और वैज्ञानिकों के प्रति अनादर है जिन्होंने मानव जाति को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया। यह विचार दरअसल उस बौद्धिक अहंकार को दर्शाता है जो तथ्यों से ज्यादा आत्मप्रशंसा में विश्वास करता है — और यही वह मानसिकता है जो किसी भी समाज को प्रगति नहीं, जड़ता की ओर ले जाती है।
यह सोच समाज में बौद्धिक आत्ममुग्धता को बढ़ावा देती है। धर्म और संस्कृति के नाम पर खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को निम्न दिखाने की प्रवृत्ति ने तर्क, विवेक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हाशिए पर धकेल दिया है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है —
*कि क्या हम वाकई में आज “विश्वगुरु” कहलाने लायक हैं?*
अगर हम आधुनिक विज्ञान की बात करें, तो भारत का योगदान शुरू में आशाजनक रहा है। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भाभा, रमन, रामानुजन, जगदीश चंद्र बोस, मेघनाद साहा जैसे वैज्ञानिकों ने भारत को विज्ञान के वैश्विक मानचित्र पर रखा। इसरो ने कम बजट में शानदार अंतरिक्ष अभियानों को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। चंद्रयान और मंगलयान जैसे मिशन उसकी मिसाल हैं। भारत ने कोविड-19 के दौर में वैक्सीन उत्पादन और वितरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फिर भी यदि हम आधुनिक भारत की स्थिति देखें, तो सच्चाई आंखें खोल देने वाली है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अनुसंधान के क्षेत्र में हम दुनिया से पीछे हैं। देश की GDP का एक अत्यंत छोटा हिस्सा शोध और नवाचार में खर्च होता है। भारत का कुल वैज्ञानिक अनुसंधान (R&D) पर खर्च आज भी GDP का लगभग 0.7% है। जो अमेरिका (3.5%), चीन (2.4%), इज़राइल (4.9%) जैसे देशों से बहुत कम है। नोबेल पुरस्कारों की सूची में भारतीय वैज्ञानिकों की संख्या बेहद सीमित है। उच्च शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब भी बहुत पीछे है। भारत से बहुत छोटे देशों ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी में हमसे कहीं अधिक अग्रणी भूमिका निभाई है, क्योंकि वहां
अनुसंधान को सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है, और वैज्ञानिक सोच को आधार बनाया जाता है और ज्ञान को समाज की मुख्यधारा में रखा गया है। राजनीति और धर्म से अलग।
दुर्भाग्यवश भारत में आज भी ऐसे लोग बड़ी संख्या में हैं जो विज्ञान की देन मोबाइल, इंटरनेट और हवाई यात्रा का उपयोग तो करते हैं, लेकिन मानसिकता आज भी अंधविश्वास और छद्म धार्मिकता से ग्रस्त है। जब तक हम इस विरोधाभास से नहीं उबरते, तब तक 'विश्वगुरु' बनने की बात महज एक भावनात्मक नारा ही रहेगी।
वहीं वैश्विक परिदृश्य में, आधुनिक विज्ञान का स्वरूप पूरी तरह सहयोगात्मक हो चुका है। कोई एक देश अकेले विज्ञान और तकनीक में नेता नहीं बन सकता। यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, इज़राइल, ऑस्ट्रेलिया, और कई अफ्रीकी व लैटिन अमेरिकी देश अब साझा वैज्ञानिक परियोजनाओं में लगे हुए हैं। *Large Hadron Collider* से लेकर अंतरिक्ष अन्वेषण और जलवायु परिवर्तन तक। हर जगह वैज्ञानिक सीमाओं से परे काम कर रहे हैं। इस वैश्विक संदर्भ में, "विश्वगुरु" जैसे दावे हास्यास्पद प्रतीत होते हैं।
सच्चाई यह है कि आज ज्ञान का कोई एक केंद्र नहीं है, और न ही किसी एक संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है। ज्ञान, विज्ञान, और मानवता का विकास अब वैश्विक साझेदारी पर आधारित है। भारत इसमें एक जिम्मेदार और सक्रिय भागीदार हो सकता है, लेकिन अगर वह खुद को अकेला “गुरु” मानकर चलता है, तो वह पीछे छूट जाएगा।
गर्व करना गलत नहीं, लेकिन गर्व का आधार सच्चाई और आत्ममंथन होना चाहिए। प्राचीन भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया, पर आज का भारत तभी विश्वगुरु बन सकता है जब वह अंधविश्वास, घमंड और आत्ममुग्धता को छोड़कर, शोध, शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्राथमिकता देगा।
"हम विश्वगुरु थे" कहना आसान है,
"हम ज्ञान में अग्रणी हैं" साबित करना कठिन।
और यही अंतर, एक नारे और एक सच्चाई के बीच की रेखा है।
आज भारत को ज़रूरत है,
जीवित ज्ञान की, न कि जड़ परंपरा की।
विनय की, न कि अहंकार की
और सच्चे प्रयास की,न कि खोखले दावों की।
"आज के युग में कोई भी राष्ट्र अकेले 'विश्वगुरु' नहीं बन सकता, क्योंकि ज्ञान सीमाओं में नहीं बंधता। बुद्धि से उपजा हुआ ज्ञान मानवता की साझी रोशनी है। वह न किसी साम्राज्य के अधीन होता है, न किसी ग्रंथ, और न ही किसी झंडे के।"
"No nation can be the sole teacher of the world in an age where wisdom transcends borders. Knowledge is born of intellect, and intellect is the shared light of humanity. it submits to no empire, no scripture, no flag."
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