Religion And Science
आइंस्टीन का एक बहुत प्रसिद्ध कोटेशन है —
*“Science without religion is lame; religion without science is blind.”*
यानी *"धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।"*
आजकल इस वाक्य को सभी धर्मों के धार्मिक लोग इस तरह संदर्भ देते हैं, खासकर वे जो अवतार, चमत्कार, पुनर्जन्म, देवीय शक्ति जैसी बातों पर विश्वास करते हैं।
वे कहते हैं, “देखा, आइंस्टीन भी मानते थे कि धर्म के बिना विज्ञान अधूरा है।” लेकिन वे यह नहीं समझते कि आइंस्टीन इस वाक्य में “Religion” से क्या मतलब ले रहे थे।
आइंस्टीन का "धर्म" किसी विशेष संप्रदाय, देवी-देवता, ग्रंथ या पूजा-पद्धति से जुड़ा हुआ नहीं था। उनका धर्म का मतलब था।
*मानवता के लिए नैतिक ज़िम्मेदारी, ब्रह्मांड के प्रति विस्मय और विनम्रता, और एक ऐसी आध्यात्मिक भावना जो जीवन को केवल भौतिक दृष्टिकोण से न देखकर उसकी गहराई को महसूस करे।*
आइंस्टीन ने एक और कोटेशन में लिखा —
*“My religion consists of a humble admiration of the illimitable superior spirit who reveals himself in the slight details we are able to perceive with our frail and feeble minds.”*
इसका अर्थ है —
*“मेरा धर्म उस अनंत चेतना के लिए एक विनम्र श्रद्धा है, जो खुद को प्रकृति के उन छोटे-छोटे नियमों में प्रकट करता है जिन्हें हम अपने कमजोर मन से बस थोड़ा ही समझ पाते हैं।”*
इसका स्पष्ट संकेत यह है कि वे किसी मूर्त या परंपरागत ईश्वर की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि प्रकृति की महानता के प्रति एक जिज्ञासु और विनम्र भाव को "धर्म" कह रहे थे।
जब उन्होंने कहा कि
*"धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है",* तो उनका आशय था कि विज्ञान को यदि नैतिकता, ज़िम्मेदारी और करुणा से न जोड़ा जाए, तो वह खतरनाक हो सकता है — जैसे परमाणु बम।
जब वे कहते हैं
*"विज्ञान के बिना धर्म अंधा है",*
तो उनका मतलब था कि यदि धर्म में तर्क, ज्ञान और अनुभव न हो, तो वह अंधविश्वास बन जाता है।
इसलिए आइंस्टीन किसी विशेष धार्मिक संस्था या परंपरा के समर्थन में नहीं थे, बल्कि वे उस भावना को “religion” कहते थे जो मनुष्य को अपने ज्ञान की सीमाओं के प्रति विनम्र बनाती है और जो ब्रह्मांड की व्यवस्था को देखकर श्रद्धा और जिम्मेदारी से भर देती है। इसलिए जो लोग आइंस्टीन के इस कोटेशन को लेकर परंपरागत धर्म की पुष्टि करते हैं, वे वास्तव में उनके विचारों को गलत संदर्भ में पेश करते हैं।
दरअसल, इस तरह के उद्धरणों का प्रयोग अक्सर एक लॉजिकल फॉलैसी की तरह किया जाता है, यानी तर्क का ऐसा भ्रम, जिसके सहारे व्यक्ति अपने पूर्वनिर्धारित विश्वासों को तर्कसंगत सिद्ध करना चाहता है। लेकिन ऐसा करते हुए वह उस विचार की मूल भावना को ही विकृत कर देता है, जिसे वह उद्धृत कर रहा होता है।
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