रक्षाबंधन: बंधन से परे — धर्म, वचन और स्नेह की कहानी

श्रावण मास की पूर्णिमा का चाँद जैसे ही आकाश में मुस्कुराता है, भारत के आंगन में एक विशेष भाव जगता है—रक्षाबंधन का। यह केवल एक पर्व नहीं, बल्कि वचन, विश्वास और स्नेह का बंधन है, जिसकी जड़ें पौराणिक कथाओं, शास्त्रीय मंत्रों और हजारों वर्षों की सांस्कृतिक स्मृतियों में गहराई से धँसी हैं।


कहते हैं, जब महाबली नामक पराक्रमी असुरराज ने अपने दान, तप और धर्म से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया, तो देवता भयभीत हो उठे। भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर आए और तीन पग भूमि का दान माँगा। दो पगों में उन्होंने पृथ्वी और आकाश नाप लिया, तीसरे पग में महाबली ने स्वयं को समर्पित कर दिया। वामन ने प्रसन्न होकर उसे पाताल लोक का राज्य दिया, और उसके धर्म से प्रभावित होकर स्वयं उसके द्वारपाल बनकर रहने लगे।


परंतु वैकुंठ में माँ लक्ष्मी का मन उदास था। वे अपने प्रभु से बिछुड़ चुकी थीं। उन्होंने एक युक्ति सोची। ब्राह्मण स्त्री का वेश धारण कर वे पाताल पहुँचीं और महाबली के द्वार पर जा खड़ी हुईं। बोलीं—

“मैं आपके घर शरण में आई हूँ, मुझे भाई मानकर रक्षा का वचन दीजिए।” महाबली ने उन्हें आदर से बैठाया, बहन का स्थान दिया। श्रावण पूर्णिमा के दिन लक्ष्मी ने उसकी कलाई पर एक पवित्र सूत्र बाँधा।


महाबली ने वचन दिया—

“बहन, आज के दिन जो भी तुम चाहो, मांग लो।” लक्ष्मी ने कहा—“मुझे अपने द्वारपाल चाहिए।” 

धर्म से बढ़कर महाबली के लिए कुछ न था। उन्होंने बिना विलंब विष्णु को मुक्त कर दिया। तभी यह पावन मंत्र गूंजा—


“येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबलः।

तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”


जिस धागे ने महाबली जैसे महाबलवान राजा को धर्म के बंधन में बांधा, वही धागा आज भी रक्षा का प्रतीक है। रक्षा केवल शरीर की नहीं, धर्म, सत्य और वचन की भी।


महाभारत के युग में भी इस बंधन का एक अद्भुत प्रसंग मिलता है। कुरु सभा में, जब श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध किया और अपना सुदर्शन चक्र लौटाया, तो उनकी उंगली कट गई, रक्त की धार बहने लगी। सभा में उपस्थित द्रौपदी ने यह देखा, तो उसने एक क्षण भी विलंब न किया। अपनी साड़ी का किनारा फाड़ा और कृष्ण की उंगली पर बाँध दिया।

यह कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, न मंत्रोच्चार, न यज्ञ की अग्नि, बस एक सहज, निस्वार्थ भाव था, जिसमें सखी का प्रेम, चिंता और अपनत्व समाया था।


कृष्ण ने उसकी आँखों में देखा और गहरी मुस्कान के साथ कहा—

“द्रौपदी, यह बंधन केवल कपड़े का नहीं, यह मेरे हृदय पर अंकित हो गया है। मैं जीवन भर तुम्हारे सम्मान की रक्षा करूँगा।”

वर्षों बाद, जब कौरव सभा में द्रौपदी का चीरहरण करने का प्रयास हुआ, वह लाचार होकर सब ओर देखती रही। किसी ने सहायता न की।

तब उसके हृदय में वह दिन याद आया, जब उसने कृष्ण की उंगली पर बंधन बाँधा था।

उसने हृदय से पुकारा, और उसी क्षण, मानो आकाश से अनंत वस्त्र उतरने लगे। उसकी साड़ी लंबी होती चली गई, अपमान का हर प्रयास विफल हो गया।


यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची रक्षा केवल शारीरिक सुरक्षा नहीं, बल्कि उस वचन की होती है जिसे हम पूरी निष्ठा और आस्था से निभाते हैं।

यह बंधन केवल भाई-बहन तक सीमित नहीं। यह उस हर संबंध का प्रतीक है, जिसमें हम किसी के सम्मान, गरिमा और सत्य की रक्षा का संकल्प लेते हैं। और जब वह संकल्प आत्मा की गहराई से लिया गया हो, तो समय, स्थान, परिस्थिति कुछ भी उसे तोड़ नहीं सकता।


महाभारत से ही एक और कथा प्रचलित है। कहा जाता है, एक अवसर पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—

“पार्थ, सावन मास के इस विशेष दिन, सभी ब्राह्मणों को अपने श्रेष्ठ जजमानों, राजाओं और संरक्षकों के पास जाकर उनकी कलाई में रक्षा-सूत्र बाँधना चाहिए। और उन्हें यह स्मरण दिलाना चाहिए कि यह धागा केवल आभूषण नहीं, धर्म का बंधन है। जैसे देवी लक्ष्मी ने राजा महाबली को धर्म और वचन के बंधन में बाँधकर अपने प्रभु को मुक्त कराया था, वैसे ही यह धागा राजाओं को उनके धर्म, प्रजा-पालन और न्याय-पालन के व्रत में स्थिर रखता है।”


यह परंपरा केवल व्यक्ति की रक्षा नहीं, बल्कि पूरे समाज की नैतिक रीढ़ को मजबूत करने का प्रतीक थी। जहाँ शक्ति का हाथ धर्म के बंधन में रहकर ही कल्याणकारी बनता है।


एक और कथा स्वर्गलोक से जुड़ी है, जिसे लोकपरंपरा में रक्षाबंधन की जड़ों में गिना जाता है।

एक समय असुरों और देवताओं के बीच युद्ध छिड़ा। असुरों का पलड़ा भारी पड़ रहा था, और देवताओं के राजा इंद्र पराजय के भय से निराश होकर लौट आए।

तब देवगुरु बृहस्पति ने कहा—

“राजन्, तुम्हें केवल अस्त्र-शस्त्र से नहीं, आत्मबल और अडिग संकल्प से विजय मिलेगी।”

इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने यह सुना और इसी दिन एक पवित्र रक्षा-सूत्र तैयार किया।

गुरु बृहस्पति के मंत्रोच्चार के साथ जब यह सूत्र इंद्र की दाईं कलाई पर बाँधा गया, तो मानो उनके भीतर नई ऊर्जा का प्रवाह हो गया। उनकी आँखों में दृढ़ विश्वास की चमक लौट आई। वे युद्धभूमि में लौटे, और इस बार उनके मन में भय का नामोनिशान न था और असुरों पर विजय प्राप्त हुई।


यह प्रसंग हमें यह शिक्षा देता है कि रक्षा-सूत्र केवल संबंध का प्रतीक नहीं, बल्कि एक मानसिक कवच है। एक स्मरण कि हम अकेले नहीं हैं। जब किसी प्रियजन का आशीर्वाद, विश्वास और स्नेह हमारे साथ हो, तो हमारा मन हर भय से मुक्त हो जाता है।

युद्ध जीवन के हों या विचारों के विजय पाने के लिए केवल बाहरी हथियार नहीं, बल्कि भीतर का साहस और संकल्प सबसे बड़ा अस्त्र है।


रक्षाबंधन का अर्थ केवल इतना नहीं कि बहन भाई की कलाई पर धागा बाँध दे और भाई बदले में उसकी रक्षा का वचन दे। इसका अर्थ है एक ऐसा व्रत, जिसमें दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ खड़े हों, एक-दूसरे के विवेक, स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करें। प्राचीन काल में यह धागा युद्ध में जाने वाले योद्धाओं की कलाई पर भी बाँधा जाता था, यह स्मरण दिलाने के लिए कि तुम्हारा संकल्प अडिग रहे।


आज के समय में यह पर्व और भी व्यापक हो गया है। अब रक्षा का अर्थ बहन को “कमज़ोर” मानकर उसकी सुरक्षा तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसकी क्षमता को पहचानना, उसे प्रोत्साहित करना, उसके स्वप्नों और अधिकारों की रक्षा करना भी है।

बहन भी अब केवल “सुरक्षा पाने वाली” नहीं, बल्कि अपने भाई, परिवार और समाज के लिए रक्षा-कवच बन सकती है। सत्य, धर्म और न्याय के लिए खड़ी हो सकती है।


रक्षा का दायरा अब घर की चारदीवारी से बाहर फैल चुका है। पृथ्वी, पर्यावरण, नदियों, पशु-पक्षियों, ज्ञान और संस्कृति की रक्षा करना भी आज का रक्षाबंधन है। अगर राखी का धागा हमें यह याद दिला सके कि हमें झूठ, अन्याय और अज्ञान से भी लड़ना है, तो इसका उद्देश्य और भी पूर्ण हो जाता है।


रक्षाबंधन की डोर केवल भाई-बहन को ही नहीं बाँधती, यह हमें एक बड़े परिवार, मानवता की याद दिलाती है। यह धागा हमें याद दिलाता है कि रक्षा केवल तलवार या शक्ति से नहीं, बल्कि करुणा, वचनबद्धता और सत्य से होती है। जब तक यह धागा हमारे हृदय में बंधा है, हम अडिग हैं, और यही इसकी सबसे बड़ी विजय है।


रक्षाबंधन का यह पर्व केवल एक रस्म नहीं, बल्कि अपने भीतर बहुत बड़ा अर्थ समेटे हुए है। भाई का धर्म सिर्फ यह नहीं कि वह बहन की शारीरिक रक्षा करे, बल्कि उससे कहीं बड़ा कर्तव्य है कि वह उसकी आत्मा, उसकी स्वतंत्रता और उसकी संभावना की रक्षा करे।

अगर कोई बहन ऐसी ज़िंदगी जी रही हो जो उसकी उच्चतम क्षमता से बहुत कम है, जैसे कोई गाड़ी जो 120 की रफ्तार के लिए बनी हो लेकिन खाली सड़क पर भी बीस की रफ्तार से चल रही हो, तो भाई का असली उपहार यही है कि वह उसे याद दिलाए:

"बहन, तुम ऐसी ज़िंदगी जीने के लिए पैदा नहीं हुई थी। तुम्हारा जीवन किसी भी अन्य मनुष्य की तरह अपने शिखर तक पहुँचने के लिए है।"


यही असली गिफ्ट है—ना कि कपड़े, गहने या नोटों की गड्डी।सच्चा तोहफ़ा वह प्रेरणा और सहारा है, जिससे बहन अपने पंख फैलाकर मुक्त आकाश में उड़ सके और यह रिश्ता एकतरफ़ा नहीं, बहन भी भाई को वही याद दिलाए।

जब बहन राखी बाँधे, तो यह कहे: 

“भाई, मुझे बचाने की चिंता मत करो; मैं समर्थ हूँ, सबल हूँ, अबला नहीं। बल्कि ज़रूरत पड़ी तो मैं तुम्हारी भी रक्षा कर सकती हूँ। यह धागा हम दोनों को याद दिलाता रहेगा कि हमें मिलकर सत्य, धर्म और विवेक की रक्षा करनी है।”


हमारा समाज अब बराबरी के दौर में है। लड़कियाँ हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं। ऐसे में यह दृश्य कि 10 साल की बहन, एक साल के भाई को राखी बाँधकर कहे—

“तुम मेरी रक्षा करना”

थोड़ा हास्यास्पद लगता है, खासकर जब भाई पालने में बैठा रो रहा हो। तो प्रश्न यह है कि आज किसे सचमुच रक्षा की आवश्यकता है?

इतिहास में मेवाड़ की रानी कर्मावती ने संकट के समय हुमायूँ को राखी भेजी थी, क्योंकि वह परिस्थितियों में दुर्बल थीं।दुर्बलता लिंग से नहीं, परिस्थिति से आती है। आज के युग में सबसे अधिक दुर्बल कौन है?

 हमारी पृथ्वी, पर्यावरण, जल, वायु, पशु-पक्षी—और सबसे बढ़कर, हमारे समाज का विवेक और सत्य। आज मौसम चक्र बिगड़ चुका है, बारिशों का पैटर्न बदल रहा है, धरती का तापमान बढ़ रहा है। इन सबको बचाना ही असली रक्षा है।

विवेक की रक्षा करो, क्योंकि सही और गलत में भेद करने की क्षमता आज घटती जा रही है। सत्य की रक्षा करो, क्योंकि झूठ इतना फैला हुआ है कि आम आदमी उसे सच मानकर जी रहा है। करुणा की रक्षा करो, क्योंकि स्वार्थ और क्रूरता बढ़ रही है।


राखी का धागा केवल धातु की तलवार या ताकत का प्रतीक नहीं, बल्कि एक मानसिक कवच है। यह हमें यह याद दिलाए कि हम दोनों भाई और बहन मिलकर इन मूल्यों की रक्षा करेंगे। धर्म की रक्षा करने से ही शेष सबकी रक्षा होती है। 

धर्मो रक्षति रक्षितः।

और हाँ, कुछ लोग राखी को “एनर्जाइज़” करने की बातें करते हैं, कि उसे किसी विशेष मंत्र या क्रिया से शक्ति मिलती है।असलियत यह है कि धागे में शक्ति तब आती है जब उसमें हमारा संकल्प और नीयत जुड़ती है। बाकी तो धागा धागा ही है, उसकी सिलवटें भी किसी रासायनिक बंधन के टूटने-बंधने से ही जाती हैं, जैसे कपड़े को प्रेस करने से। राखी की असली ऊर्जा हमारे मन के इरादे और दिल की सच्चाई से आती है।


इसलिए, इस रक्षाबंधन पर जब हम धागा बाँधें, 

तो सोचें— रक्षा किसकी?

जो हमें अपने से ऊँचा और सच्चा दिखे, उसके साथ बंधन बाँधें और जो हमें सच्चा लेकिन असहाय दिखे, उसकी रक्षा का संकल्प लें। यह भाई का भी धर्म है, बहन का भी।

रक्षा का दायरा घर की दीवारों से निकलकर समाज, संस्कृति, प्रकृति और मूल्यों तक फैलाना ही इस पर्व की सबसे बड़ी सफलता है।

जब राखी का धागा हमें यह याद दिलाता रहेगा कि हम सत्य, धर्म और करुणा की रक्षा में एक साथ खड़े हैं। तब यह केवल त्योहार नहीं रहेगा, बल्कि एक जीवित व्रत बन जाएगा।

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