सरकार का खर्च, चमकती छवि, और अनदेखी सच्चाई
भक्ति की बयार
नेताओं की ट्विटर तस्वीरें।
2019 में 4200 करोड़ रुपये, और 2025 में? अनुमानित 5000-6000 करोड़ रुपये। हमारा टैक्स, जो हर बार कुंभ की चमक में डूब जाता है। लेजर शो, टेंट सिटी, ड्रोन से वीडियो, और नेताओं की वह वाहवाही, जो सोशल मीडिया पर "वायरल" हो जाती है। हर मुख्यमंत्री, हर मंत्री, हर नेता गर्व से सीना ठोकता है—देखो, हमने कितना भव्य आयोजन किया! माँ गंगा की जय! लेकिन आज, जब गंगा-यमुना ने कुंभ क्षेत्र को जलमग्न कर दिया, जब सड़कें, घर, और लोगों की जिंदगी पानी में डूब गई, तब वही ट्विटर अकाउंट खामोश हैं। न कोई वीडियो, न कोई गर्व का ट्वीट, न कोई जवाब। क्यों? क्योंकि यह दुख की घड़ी वोट नहीं लाती। अब यह स्थान दिव्य और भव्य नहीं रहा, या प्राथमिकता ही कुछ और थी।
*Tax का पैसा, छवि की चमक और असल मुद्दों की अनदेखी*
हमारा टैक्स, जो सरकार के खजाने में जाता है, वह कुंभ जैसे आयोजनों में अरबों रुपये की तरह बहाया जाता है। अस्थायी सड़कें, अस्थायी टेंट, अस्थायी बिजली—सब कुछ अस्थायी। लेकिन जब गंगा का पानी शहर में घुसता है, तब कोई स्थायी समाधान क्यों नहीं? क्यों नहीं बने बैराज? क्यों नहीं बनी बाढ़-रोकथाम की दीवारें? क्यों नगर निगम गंगा किनारे अवैध निर्माण को रोक नहीं पाता? क्योंकि यह सब "बोरिंग" है। इसमें न तो फोटो सेशन की गुंजाइश है, न ही वायरल ट्वीट की। सरकार की प्राथमिकता है छवि चमकाना—भव्य आयोजन, बड़े-बड़े वादे, और सोशल मीडिया पर तालियां। बाढ़-रोकथाम? नदी की सफाई? दीर्घकालिक योजनाएं? ये सब तो बस कागजों पर रह जाते हैं।
क्योंकि यह सब दिखता नहीं, बिकता नहीं। फोटो सेशन में नहीं आता, सोशल मीडिया पर वायरल नहीं होता। कुंभ की चमक को हम सबने देखा, लेकिन आज जो अंधेरा पसरा है, उसमें कोई सरकारी कैमरा नहीं है।
जब गंगा का पानी घरों में घुसता है, जब लोग अपनी जिंदगी बचाने को जूझते हैं, तब सरकार कहती है, "यह प्रकृति की मर्जी है।" लेकिन जब अरबों रुपये कुंभ की सजावट में खर्च होते हैं, तब प्रकृति की मर्जी क्यों नहीं याद आती? टैक्स का पैसा जनता का है, लेकिन जवाबदेही किसी की नहीं। नेताओं का जवाब वही घिसा-पिटा "माँ गंगा सबको दर्शन देने आई हैं।" दर्शन? हाँ, डूबते घरों और बर्बाद जिंदगियों के दर्शन।
*दुख की सच्चाई, हमारी चुप्पी, उनकी बेफिक्री*
यह दुख सिर्फ गंगा के किनारे रहने वालों का नहीं। यह दुख उस व्यवस्था का है, जो हमारा पैसा अपनी चमक के लिए खर्च करती है, लेकिन असल मुद्दों से मुँह मोड़ लेती है। नगर निगम, जो अनियोजित निर्माण को देखकर आँखें मूंद लेता है। सरकार, जो बाढ़-रोकथाम के बजाय भव्य आयोजनों में व्यस्त रहती है। और हम? हम भी तो चुप हैं। जब तक पानी हमारे घर में नहीं घुसता, हम क्यों सवाल पूछें? हमारा तो सब ठीक है न? कुंभ की चमक देखी, ट्विटर पर तालियां ठोंकी, और बस।
लेकिन सच्चाई यह है कि यह चुप्पी हमें महंगी पड़ती है। हर बार जब हम वोट देते हैं, हम उस चमक को चुनते हैं, जो हमें दिखाई जाती है। हम उन वादों को चुनते हैं, जो सिर्फ कागजों पर रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि हमारा टैक्स, हमारा हक, हमारी जिम्मेदारी है।हम तब तक चुप रहते हैं, जब तक मुसीबत हमारी चौखट पर नहीं आती। जब गंगा का पानी हमारे घर में नहीं घुसता, जब बाढ़ हमारी जिंदगी नहीं उजाड़ती, तब तक हम कहते हैं, "क्या फर्क पड़ता है? हमारा तो सब ठीक है।" लेकिन जब पानी गले तक आता है, तब हमें याद आता है कि सवाल पूछना था। हिसाब मांगना था। बैराज, बाढ़-रोकथाम, नदी की सफाई—ये सब हमारी मांग होनी चाहिए थी।
हमारी चुप्पी ही सरकार की बेफिक्री को हवा देती है। हमारी चुप्पी ही उन्हें छवि चमकाने की आजादी देती है। हमारी चुप्पी ही हमें बार-बार डूबने को मजबूर करती है।
हमारे टैक्स का पैसा हमारा अधिकार है। वह सिर्फ किसी आयोजन की चमक में नहीं डूबना चाहिए, उसे हमारे शहरों को बेहतर बनाने में लगना चाहिए। लेकिन सवाल कौन पूछेगा? जब तक हम चुप रहेंगे, सरकार को चमकदार आयोजनों पर खर्च करने से कोई नहीं रोकेगा। जब तक हम आवाज़ नहीं उठाएंगे, नदी की सफाई, बाढ़ की तैयारी और शहरी योजना सिर्फ योजनाओं तक सीमित रहेंगी।
*विकास मेनिफेस्टो में रहता है, खर्च दिखावे में होता है।*
अगर 2019 और 2025 के कुंभ के खर्च का सिर्फ 20-30% यानी लगभग 1500-2000 करोड़ रुपये भी स्थायी बुनियादी ढांचे पर खर्च होता, तो तस्वीर कुछ और होती। और देशों की तरह गंगा-यमुना के किनारे मजबूत बैराज और बाढ़-रोधी दीवारें बनाई जा सकती थीं, जिसकी लागत 800-1200 करोड़ के बीच होती। यह हर साल हजारों जिंदगियों को डूबने से बचा सकती थीं।
आधुनिक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स और गंगा में गिरते नालों को रोकने के लिए करीब 1000 करोड़ खर्च किए जा सकते थे, साथ ही AI और स्मार्ट सेंसर (200-300 करोड़) से जलस्तर और प्रदूषण की निगरानी होती, जैसा सिंगापुर में होता है।
500 करोड़ में स्मार्ट ड्रेनेज और IoT सिस्टम (100-150 करोड़) लग सकते थे, जिससे बाढ़ के पानी की निकासी आसान होती और शहर की गलियाँ डूबने से बचतीं।
400 करोड़ से सोलर माइक्रो-ग्रिड्स लगाए जा सकते थे, जो कुंभ के बाद भी आसपास के गाँवों को बिजली देते।
ड्रोन और AI से अवैध निर्माण पर निगरानी रखी जा सकती थी, जिसकी लागत 50-100 करोड़ होती, और 200 करोड़ से वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट लगाए जा सकते थे, जो कुंभ में जमा कचरे को ऊर्जा में बदल देते।
यह सब सिर्फ कल्पना नहीं है, यह व्यवहारिक समाधान हैं। यह वही टेक्नोलॉजी है, जिसे दुनिया के अन्य देश इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन हमारे यहाँ टेक्नोलॉजी का मतलब है ड्रोन से भीड़ का वीडियो और मुख्यमंत्री की हेलिकॉप्टर लैंडिंग की क्लिप। असल समस्याओं को हल करने वाली टेक्नोलॉजी "बोरिंग" मानी जाती है, क्योंकि उसमें ना फोटो है, ना ट्वीट।
*सवाल पूछे क्योंकि हमारा अधिकार है,*
कुंभ हमारी आस्था है, लेकिन आस्था के साथ विवेक भी चाहिए। अगली बार जब सरकार टैक्स का पैसा खर्च करे, तो पूछें—यह पैसा कहाँ गया? क्या यह बाढ़-रोकथाम में नहीं लग सकता था? क्या यह नदियों की सफाई में नहीं जा सकता था? क्या यह स्थायी समाधान में नहीं खर्च हो सकता था? क्या यह हाईटेक तकनीकों से हमारे शहरों को बेहतर नहीं बना सकता था?
हमारी चुप्पी हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है। जब तक हम सवाल नहीं पूछेंगे, सरकार जवाबदेही से भागती रहेगी। जब तक हम हिसाब नहीं मांगेंगे, हमारा टैक्स चमक में डूबता रहेगा। हमारी आवाज ही वह ताकत है, जो गंगा को स्वच्छ कर सकती है, शहरों को सुरक्षित बना सकती है, और कुंभ को सिर्फ भव्य नहीं, बल्कि स्थायी और सार्थक बना सकती है।
तो आइए, चुप्पी तोड़ें। सवाल उठाएं। हिसाब मांगें। क्योंकि गंगा सिर्फ माँ नहीं, हमारी जिम्मेदारी भी है। और अगर हम आज नहीं बोले, तो कल फिर डूबेंग पानी में, और अपनी ही चुप्पी में।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें