भारत
*भारत...*
यह सिर्फ़ एक नक़्शे की आकृति नहीं, बल्कि एक अनंत, जीवंत कहानी है। यह कहानी हज़ारों साल पहले उस धरती से शुरू हुई, जिसने वैदिक ऋचाओं के साथ ज्ञान की पहली किरण देखी, मौर्यों और गुप्तों के स्वर्ण युग में समृद्धि का शिखर छुआ, और नालंदा तथा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों से दुनिया को ज्ञान का प्रकाश दिया।
यह भूमि सिर्फ़ अपने वैभव के लिए नहीं जानी जाती, बल्कि अपनी उस अद्वितीय अमरता के लिए भी पहचानी जाती है, जिसने इसे हर तूफान के बाद और भी मज़बूती से खड़ा किया। हूणों, ग़ज़नी और ग़ोरी जैसे विदेशी आक्रमणकारियों के तूफ़ानों को झेलकर भी इसने अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जड़ों को कभी कमज़ोर नहीं होने दिया। मुग़ल शासनकाल में इसने अपनी पहचान को बनाए रखा और ब्रिटिश हुकूमत की सैकड़ों साल की गुलामी के बाद भी अपनी आत्मा को जीवित रखा। भारत की यह अनूठी सहनशीलता और लचीलापन ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
इसीलिए, महान शायर अल्लामा इक़बाल ने सही ही कहा है:
*"यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से,*
*अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा।*
*कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,*
*सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा।"*
यह शेर सिर्फ़ गर्व का नहीं, बल्कि हमारी हस्ती (अस्तित्व) को बचाने के लिए किए गए अनगिनत बलिदानों की याद दिलाता है।
भारत की मिट्टी में हर कण में तपस्या का पसीना है और हर हवा में बलिदान की सुगंध। यह वह भूमि है जहाँ लाखों स्वतंत्रता सेनानियों के लहू की गंध समाई हुई है। हमें उन माताओं को याद करना चाहिए, जिन्होंने जलियाँवाला बाग़ में अपने बेटों को खोकर भी आँसू पी लिए; उन बहनों को, जिन्होंने भगत सिंह की कलाई पर राखी बाँधकर भी उन्हें क्रांति के मार्ग पर भेजा। कितने ही वीर भूखे-नंगे, पर बेखौफ़ होकर 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' का नारा लगाते हुए गोलियों के सामने सीना तानकर खड़े रहे।
सिर्फ़ इसलिए कि हम एक आज़ाद देश में साँस ले सकें। यह वह क्रांति की आग थी जो कभी बुझी नहीं। इस आग ने हमारे स्वतंत्रता संग्राम को हवा दी और अंततः 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की नई किरण लेकर आई।
जब 15 अगस्त, 1947 की सुबह सूरज उगा, तो उसके साथ करोड़ों दिलों में एक नई धड़कन गूँजी—
"हम अपने हैं, यह धरती हमारी है, यह आसमान हमारा है।"
यह सिर्फ़ एक राजनीतिक आज़ादी की घोषणा नहीं थी, बल्कि सदियों की गुलामी से मुक्त हुए एक राष्ट्र की आत्मा का जागरण था। हालाँकि, यह केवल पहला कदम था, पहला ताला जो टूटा था। असल रास्ता तो बहुत लंबा था, और चुनौतियाँ अभी भी सामने खड़ी थीं।
क्या यह वही भारत था जिसकी कल्पना हमारे शहीदों ने की थी? क्या यह वही देश है जिसका सपना भगत सिंह ने फाँसी के फंदे पर जाते हुए देखा था, जहाँ हर नागरिक सम्मान, सुरक्षा और बराबरी के साथ जी सके? क्या यह वही मुल्क है जिसके लिए गांधी ने खादी का चरखा घुमाकर आत्मनिर्भरता का संदेश दिया, और नेहरू ने 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' के ऐतिहासिक वादे में एक उज्ज्वल भविष्य की नींव रखी?
1947 में मिली राजनीतिक आज़ादी हमारी पहली जीत थी, लेकिन इसके बाद भी कई जंजीरें हमारे समाज को जकड़े हुए थीं। गरीबी, भेदभाव, अज्ञानता, भ्रष्टाचार और अन्याय। ये ऐसे ताले थे जो आज भी हमारे समाज के गले में लटके हुए हैं। असली विजय तब होगी, जब हर भारतीय बिना डर, बिना भूख और बिना अपमान के जी सकेगा। यह लड़ाई केवल सरकारों की नहीं, बल्कि हम हर नागरिक की है।
इस लड़ाई में हमें अलग-अलग मोर्चों पर लड़ना होगा।
*आर्थिक आज़ादी* सिर्फ़ जीडीपी या शेयर बाज़ार की उछाल तक सीमित नहीं है। इसकी असल परख तब होगी जब खेतों में पसीना बहाने वाला किसान, कारखानों में काम करने वाला श्रमिक, छोटा दुकानदार और टैक्सी ड्राइवर—सभी अपनी किस्मत खुद लिख सकेंगे। गरीबी और बेरोज़गारी की चिंता ने कई घरों में नई पीढ़ी से आज़ादी के सपने छीन लिए हैं, और हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हर कोई अपने सपनों को पूरा कर सके।
*सामाजिक आज़ादी* बराबरी के बिना अधूरी है। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और LGBTQ+ समुदायों के लिए समानता केवल संविधान की किताब में नहीं, बल्कि हर दिन की हकीकत होनी चाहिए। हमें उन सभी दीवारों को गिराना होगा जो किसी की भागीदारी को रोकती हैं और एक ऐसे समाज का निर्माण करना होगा जहाँ सभी को सम्मान मिले।
इसके अलावा, हमें *दार्शनिक आज़ादी* भी चाहिए, आत्म-ज्ञान और आत्म-सम्मान की आज़ादी। यह मन की आज़ादी है, विचारों की आज़ादी है, और संकुचित सोच के पिंजरे से बाहर निकलकर एक खुला और सहिष्णु समाज गढ़ने की आज़ादी है। यह हमें अपने भीतर के डर और अज्ञानता से लड़ने की शक्ति देगी।
अंत में, *पर्यावरण की आज़ादी* को भी हमें प्राथमिकता देनी होगी। आज़ादी का मतलब प्रकृति का अंधाधुंध दोहन नहीं, बल्कि उसके साथ संतुलित सह-अस्तित्व है। अगर हमारी धरती और हवा दूषित होगी, तो कोई भी सचमुच में आज़ाद नहीं रह पाएगा।
मशाल हमारे हाथ में है: हर साँस के साथ लड़ना है
आज अगर हम चुप रहते हैं, तो हम अपने उन पूर्वजों की कुर्बानियों का अपमान कर रहे हैं जिन्होंने हमें यह अधूरी किताब दी है। इसका सबसे सुनहरा अध्याय हमें ही लिखना है। यह आज़ादी का दिन केवल जश्न का नहीं, बल्कि संकल्प का दिन है।
हमें यह संकल्प लेना होगा कि कोई भी महिला असुरक्षित महसूस नहीं करेगी। हम जात-पात, ऊँच-नीच, और धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वालों के मंसूबों को नाकाम करेंगे। हम इस देश को इतना मज़बूत और न्यायपूर्ण बनाएँगे कि आने वाली पीढ़ियाँ हमें देखकर गर्व से कहें, "उन्होंने सिर्फ़ तिरंगा नहीं फहराया, उन्होंने इंसाफ़ भी लहराया।"
याद रखिए, आज़ादी कोई तोहफ़ा नहीं, यह एक ज़िम्मेदारी है। यह मशाल हमारे हाथ में है और इसे बुझने देना एक गुनाह है। आज से, इस वक्त से, हमें हर साँस के साथ अपने हिस्से की लड़ाई लड़नी है। ताकि कल जब इतिहास लिखा जाए, तो उसमें सिर्फ़ 1947 ही नहीं, बल्कि वह साल भी चमके जब भारत सचमुच पूरी तरह से आज़ाद हुआ।
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