गणपति उत्सव: उत्सव या उपदेश
गणपति महा उत्सव का आगमन हो चुका है। हमारे शहरों और गाँवों में एक बार फिर वही भव्य दृश्य देखने को मिलेंगे: विशालकाय मूर्तियाँ, रंग-बिरंगे पंडाल, कान फाड़ देने वाले डीजे, और लोगों का हुजूम। इन सब के बीच, हम नाचेंगे, गाएँगे, तस्वीरें लेंगे और अच्छे कपड़े पहनकर "गुड वाइब्स" का अनुभव करेंगे। खूब प्रसाद और कर्मकांड होंगे, और अंत में, गणेश जी की प्रतिमा को जुलूस के साथ ले जाकर नदी या नाले में विसर्जित कर दिया जाएगा। कभी-कभी भोजपुरी गानों के शोर में।
यह सब देखकर मन में सवाल उठता है कि क्या यही गणेश जी के प्रति हमारा सम्मान है? क्या यह उत्सव सिर्फ भोग-विलास, प्रदर्शन और मनोरंजन का साधन बनकर रह गया है? यह सचमुच दुखद है कि जिस धर्म और संस्कृति पर हम इतना गर्व करते हैं, उसी के मूल संदेश को हम भूलते जा रहे हैं। हमारे शास्त्रों में छिपी कहानियाँ और उपदेश केवल कर्मकांडों तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाने के लिए हैं।
हर त्यौहार और हर कथा के पीछे कोई गहरा संदेश होता है, जो हमें अपने जीवन को और बेहतर, समृद्ध और संतुलित बनाने का मार्ग दिखाता है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने पर्वों और पूजा-पद्धतियों के माध्यम से यही शिक्षा दी है, और गणेश उत्सव भी इसका अपवाद नहीं है। यह केवल उत्सव मनाने का अवसर नहीं, बल्कि हमें विवेक, आस्था और सादगी का महत्व समझाने वाला पर्व है।
तो फिर, गणपति उत्सव का सच्चा संदेश क्या है?
गणेश जी का स्वरूप: एक जीवन-दर्शन
गणेश जी की प्रतिमा का हर अंग हमें एक गहरा आध्यात्मिक और व्यावहारिक ज्ञान देता है:
बड़ा सिर (हाथी का मस्तक): यह विवेक, बुद्धि और व्यापक दृष्टिकोण का प्रतीक है। गणेश जी सिखाते हैं कि हमें संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर हर स्थिति को व्यापकता से देखना चाहिए।
छोटे नेत्र: ये एकाग्रता और गहन अवलोकन का संदेश देते हैं। हमें जीवन के हर पहलू को गहराई से समझना चाहिए, न कि केवल सतही तौर पर देखना चाहिए।
बड़े कान: ये धैर्यपूर्वक सुनने और ज्ञान ग्रहण करने की शक्ति का प्रतीक हैं। असली ज्ञान वही है जो हम दूसरों को सुनकर ग्रहण करते हैं।
छोटी और लचीली सूँड़: यह अनुकूलनशीलता और संतुलन का गुण सिखाती है। जीवन में कभी कठोरता तो कभी कोमलता, दोनों का समन्वय जरूरी है।
बड़ा उदर (पेट): यह सहनशीलता को दर्शाता है। जीवन के हर सुख-दुःख को बिना विचलित हुए स्वीकार करना ही सच्ची सहनशीलता है।
एक दाँत: यह हमें सिखाता है कि अपूर्णताओं को स्वीकार करते हुए भी हमें आगे बढ़ते रहना चाहिए। जीवन में कमियाँ होती हैं, पर वे हमारी प्रगति को रोक नहीं सकतीं।
मूषक (चूहा) वाहन: यह अहंकार और चंचलता पर नियंत्रण का प्रतीक है। अगर हम अपने भीतर की छोटी-छोटी इच्छाओं और अहंकार पर काबू पा लें, तो जीवन में बड़ी से बड़ी ऊँचाई को छू सकते हैं।
गणेश जी: प्रथम पूज्य और विघ्नहर्ता
गणेश जी को 'प्रथम पूज्य' कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी कार्य को शुरू करने से पहले हमें बुद्धि और विवेक को सबसे आगे रखना चाहिए। यह सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन का एक नियम है।
गणेश जी को विघ्नहर्ता कहा गया है। इसका अर्थ केवल इतना नहीं है कि वे बाहरी विघ्न दूर कर देते हैं, बल्कि वे हमें यह सिखाते हैं कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत से पहले हमें अपने अंतर्मन के विघ्नों—आलस्य, लोभ, अहंकार और भय—को हटाना होगा। तभी साधना सफल होगी और कार्य फलदायी होगा। यही कारण है कि वे प्रथम पूज्य हैं। उनका मंत्र “ॐ गं गणपतये नमः” हमें याद दिलाता है कि हर प्रयास से पहले हमें भीतर की चेतना को जगाना चाहिए और ईश्वर को प्रणाम करना चाहिए।
निष्कर्ष
दुर्भाग्य से, आज का उत्सव हमें उसके गहरे संदेशों से दूर ले जा रहा है। हमारा ध्यान पंडाल, सेल्फी और शोर-शराबे पर है, और इस भाग-दौड़ में हम उस दर्शन को भूल रहे हैं जो हमें बुद्धिमान, विनम्र और सहनशील बनने की प्रेरणा देता है। आज हमारे उत्सव भक्ति से अधिक प्रदर्शन का माध्यम बन गए हैं। ऊँचे साउंड बॉक्स और शोरगुल में भक्ति का माधुर्य खो जाता है, और मूर्तियों के अंधाधुंध विसर्जन से नदियाँ और तालाब प्रदूषित होते हैं, जिससे जलचर जीवों को हानि पहुँचती है। गणपति के नाम पर जिस प्रकृति का सम्मान होना चाहिए, वही सबसे अधिक आहत होती है।
वास्तव में, गणपति पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन है। यह हमें सिखाती है कि जीवन की शुरुआत विवेक, धैर्य, अनुकूलनशीलता और आत्म-नियंत्रण के साथ करनी चाहिए, तभी हर विघ्न दूर होता है और जीवन मंगलमय बनता है। इस पर्व का वास्तविक संदेश है कि हम अपनी कमियों को पहचानें, इच्छाओं और अहंकार पर नियंत्रण रखें, और समाज में एकता व सद्भाव का वातावरण बनाएँ। हमारी संस्कृति का मूल भाव संयम और संतुलन है—इसे अपनाते हुए जब हम प्रकृति का सम्मान करेंगे, उत्सव को केवल आनंद का नहीं बल्कि जिम्मेदारी का भी रूप देंगे, और गणपति को केवल मूर्ति में नहीं बल्कि अपने आचरण और जीवन-दर्शन में स्थापित करेंगे। तभी यह पर्व अपने सच्चे स्वरूप में खरा उतरेगा।
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