आधुनिकता या आदिमता


कुछ ही दिन पहले ही की बात है, मैंने संत *प्रेमानंद महाराज जी* का एक वक्तव्य सुना। वे समाज को हमेशा दार्शनिक दृष्टि से गहरी शिक्षाएँ देते हैं। अपने प्रवचन में उन्होंने आज के युवाओं की जीवनशैली खासकर live-in relationship और multiple relations पर टिप्पणी की। उनका कहना था कि यदि स्त्री और पुरुष अपने संबंधों को केवल शारीरिक आकर्षण और अस्थायी सुख तक सीमित रखेंगे, तो वे कभी भी अच्छे पति-पत्नी, जिम्मेदार जीवनसाथी और स्वस्थ परिवार का निर्माण नहीं कर सकते।


इस विचार पर आज के कई युवाओं ने तीखा विरोध किया। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं— किसी ने इसे “freedom पर हमला” कहा, किसी ने इसे “पुराना सोच” कहकर खारिज कर दिया।


लेकिन सचाई यह है कि भले ही संतों के उपदेशों का आधार धर्म या आध्यात्मिकता लगे, उनकी शिक्षाएँ सार्वभौमिक और कालजयी होती हैं। नैतिकता, मर्यादा और मूल्य किसी धर्म-विशेष तक सीमित नहीं होते। ये मानवीय जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं, जिनकी महत्ता कभी कम नहीं हो सकती।


इसी विचार से मुझे लगा कि इस विषय पर कुछ बात रखनी चाहिए। आखिर युवाओं की जो जीवनशैली आज modernity के नाम पर बढ़ावा पा रही है, क्या वह सच में आधुनिक है? या वह तो वही पुरानी आदिम प्रवृत्ति है, जिसे हमारी सभ्यता और संस्कृति ने हज़ारों साल पहले ही पीछे छोड़ दिया था। तो आईए देखते हैं इसका एक और पहलू, और फिर तय करते हैं कि सही कौन है-



आज के कुछ युवा बड़े गर्व से कहते हैं— 

*“हम बहुत लिबरल हैं, हम आधुनिक हैं।”*

पर ज़रा गौर से देखिए, ये आधुनिकता है या बस एक पुराने पैकेज को नए कवर में बेचने जैसा खेल?


कपड़े पहनने की बात हो तो कहते हैं— 


*“मेरा शरीर, मेरी मर्ज़ी। जितना ढकना चाहूँ, उतना ढकूँ। नाम मात्र का कपड़ा भी काफी है। यह मेरी आज़ादी है।”*


अब कोई यह पूछे कि भाई साहब, आधुनिकता का पैमाना कपड़े की लंबाई है या दिमाग़ की गहराई? लेकिन नहीं, कपड़े छोटे, सोच भी छोटी, और नाम दिया 


*“modern lifestyle”*


रिश्तों की बात कीजिए तो जवाब आता है— “हमें शादी जैसी पुरानी संस्था की ज़रूरत नहीं, हमें तो बस live In और casual relationship चाहिए। शादी में जिम्मेदारियां होती हैं, liabilities होती हैं, हमें वो सब नहीं चाहिए।”


मतलब सीधे-सीधे कह दीजिए, 

“हमें मज़ा चाहिए, जिम्मेदारी नहीं।”


आज के कुछ “modern youth” रिश्तों को भी fast food समझ बैठा है— one night stand, hookup, situationship, friend off benefits.


दिल को छोड़िए, यहाँ तो बस शरीर की भूख मिटानी है। अगर एक जगह स्वाद नहीं मिला तो तुरंत दूसरे restaurant की ओर रवाना। और जब पेट खराब हो जाता है तो depression, ghosting और mental conflict की दवाइयाँ खाने लगते हैं।


और lifestyle?

तो उसका नारा है— 

“खाओ, पियो, मस्त रहो। शरीर की सारी इच्छाओं को पूरा करो।”


अरे वाह! यही तो हजारों साल पहले हमारे पूर्वज आदिमानव भी करते थे, शिकार करो, खाओ, सो जाओ, और फिर अगली रात किसी और गुफा पार्टी में पहुँच जाओ। फर्क सिर्फ इतना है कि अब बियर और DJ आ गए हैं।


फिर जब कोई बुज़ुर्ग या संस्कारों की बात करने वाला उनसे कह दे कि “बेटा, जीवन सिर्फ शरीर तक सीमित नहीं है, इसमें संस्कृति और दर्शन भी है”, तो तुरंत तर्क-वितर्क शुरू


“हम liberal हैं, हमें freedom है, fundamental rights हैं। आप हमें रोक नहीं सकते।”


लेकिन असलियत यह है कि यह “freedom” नहीं, बल्कि वही “instincts” हैं, जो आदिमानव के थे। फर्क बस इतना है कि आदिमानव आग और हड्डियों के बीच नाचता था और आज का आधुनिक युवा disc light और DJ पर।




अगर आप ज़रा मनोविज्ञान की किताबें पलटें तो साफ़ दिखेगा कि यह आकर्षण का खेल कोई नया नहीं है।


पुराने ज़माने में पुरुष महिला के शरीर— उसकी त्वचा, उसके उभार, और उसकी काया से मोहित होता था। वहीं महिलाएँ पुरुष की शारीरिक शक्ति, प्रभुत्व और संसाधनों से आकर्षित होती थीं। क्योंकि उस दौर में वही असली सुरक्षा और भविष्य की गारंटी हुआ करती थी।


अब आइए आधुनिक ज़माने में।

यहाँ भी खेल वही है, बस स्टेज और ड्रेस बदल गए हैं।


महिलाओं को पूरी तरह पता है कि पुरुष उनसे कैसे आकर्षित होंगे। तो वे कपड़े पहनती हैं इस तरह कि उनके “specific body parts” उभरकर सामने आएं। बाज़ार में ट्रेंडिंग ड्रेस भी वही मिलेंगी, जो शरीर के आकर्षक हिस्सों को highlight करें। आज की language में इसे “fashion” कहा जाता है, पर असल में यह वही पुराना biological psychology है, बस designer tag के साथ।


उधर पुरुष भी चुप नहीं बैठे। वे भी जानते हैं कि महिलाओं के लिए आज भी “power, पैसा और प्रभुत्व” सबसे बड़ा magnet है।


तो खेल शुरू— कोई अपने six-pack abs दिखा रहा है, कोई imported car और branded watch flaunt कर रहा है, कोई bank balance और office chair के ज़रिये अपना “status” प्रोजेक्ट कर रहा है।


मतलब वही पुराना जंगल वाला सिस्टम: पहले शेर अपना शिकार और ताकत दिखाता था, अब लड़का अपनी गाड़ी और followers दिखाता है।


और अब जरा इंडस्ट्री पर नज़र डालिए—


उन्हें इस psychology का पूरा-पूरा अंदाज़ा है।

इसलिए हर फिल्म में एक “item song” ज़रूरी है। क्यों? क्योंकि male audience को sexually attract करना है। भले ही कहानी कुछ भी हो, बीच में एक महिला कम कपड़ों में आकर नाचेगी और audience तालियाँ बजाएगी।


उधर महिलाओं के लिए भी special arrangement है, एक ऐसा male hero, जिसकी entry ही helicopter या sports car से हो, चार bodyguards साथ खड़े हों, six pack abs हों और बैंक अकाउंट करोड़ों में।


मतलब स्क्रीन पर भी वही पुराना biology का खेल, 

पुरुष की शक्ति और पैसा, महिला का शरीर और आकर्षण।

इसे ही आज की भाषा में कहते हैं— 


*“Sexuality का बाज़ार”*


असलियत यह है कि हम modern होकर भी वही ancient instincts जी रहे हैं।

फर्क बस इतना है कि अब जंगल की आग की जगह Instagram की reel है, शिकार की जगह luxury car है, और tribal dance की जगह item number।


बाक़ी कहानी वही है— attraction के biological rules वही, psychology वही, बस packaging बदल गई।


Modern होना मतलब होता है, सोच में विकास, विचारों में गहराई, दर्शन और विज्ञान की समझ। लेकिन यहाँ modernity का मतलब सिर्फ़ है— 


*“कपड़े छोटे, रिश्ते छोटे, सोच भी छोटी।”*


हज़ारों साल की वैश्विक सभ्यता ने जो ज्ञान, संस्कृति और मूल्य दिए, उसमें से एक प्रतिशत भी अपनाने की फुर्सत नहीं।


और सबसे मज़ेदार बात— जब कोई इन्हें आईना दिखा दे तो feminism, freedom, और न जाने कौन-कौन सी imported philosophies की encyclopedia खुल जाती है।


लेकिन भाई, imported शब्दों से modernity नहीं आती। modern वही है, जो परंपरा और विज्ञान, दोनों की समझ रखे।


आज का “modern youth” असल में modern नहीं, बल्कि *neo-aadimanav* है।

एकदम वही जीवन— बिना लक्ष्य, बिना गहराई, बस खाने-पीने और शारीरिक इच्छाओं के इर्द-गिर्द।


तो ज़रा सोचिए— 


*यह modernity है या बस fashionable आदिमता?* 

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