मदन मोहन मालवीयजी का जीवन - दर्शन (Life - Philosophy of Madan Mohan Malaviyaji)
मालवीयजी का जीवन - दर्शन
पं० मदन मोहन मालवीय हिन्दू धर्म के अनन्य भक्त एवं उपासक थे और उनका वेदों, स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों, शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों की बातों में पूर्ण विश्वास था। वे किसी एक वाद या सिद्धान्त से बँधे नहीं थे बल्कि वे सभी सम्प्रदायों की अच्छी बातों पर विश्वास करते थे। पं० मालवीय के जीवन - दर्शन से सम्बन्धित निम्नलिखित तथ्य हैं —
सनातन धर्म
ईश्वर
जगत्
मनुष्य एवं अन्य प्राणी
सनातन धर्म - मालवीयजी का सनातन धर्म पर अटूट विश्वास था। उनके शब्दों में,
"सनातन धर्म पृथ्वी पर सबसे पुराना एवं पुनीत धर्म है। यह वेद , स्मृति और पुराण से प्रतिपादित है।"
श्रीमद्भागवतगीता को तो वे सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ मानते थे। गीता से प्रभावित होकर मालवीयजी जीवनपर्यन्त 'कर्मयोग' के मार्ग का अनुसरण करते रहे। धर्म के विषय में उनका कहना था कि "धर्म वह है जिसमें क्रियाशीलता की प्रशंसा आर्य लोग (श्रेष्ठ जन) करते हैं।" मालवीयजी का विकास जिस सनातन धर्म में था उसकी सबसे बड़ी विशेषता वर्णाश्रम व्यवस्था है जो मानव एवं समाज के जीवन को विभिन्न भागों में विभाजित करती है और इस विभाजन का आधार जन्म, गुण एवं कर्म है। सनातन धर्म इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक प्राणी को मन, वचन, कर्म एवं व्यवहार से पवित्र होना चाहिए। मालवीयजी सनातन धर्म के अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति विद्वेष - भाव नहीं रखते थे । मालवीयजी के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि जितनी प्रसन्नता उन्हें भागवत एवं सत्यनारायण की कथा में उपस्थित होने पर प्राप्त होती थी उतनी प्रसन्नता वे आर्य समाजियों के यज्ञ - मण्डप , ईसाइयों के गिरजाघरों , सिक्खों के गुरुद्वारों तथा मुसलमानों की ईदगाहों में प्रविष्ट होकर प्राप्त करते थे।
ईश्वर - मालवीयजी ने वेदों, स्मृतियों, उपनिषदों, भागवत पुराण आदि के आधार पर ईश्वर को 'एकमेवाद्वितीयम्' और 'आत्मा इदमेकेवाग्र आसीत्' माना है जो हम सबका पिता, स्रष्टा, निर्माता और सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। वे मानते हैं कि एक ही ईश्वर सभी प्राणियों में है। सभी जीवों में वह अन्तरात्मा है। यद्यपि कि मालवीयजी मूर्तिपूजा, देवी - देवता आदि पर विश्वास करते थे किन्तु प्राणीमात्र में ईश्वर का भाव देखने को वे सबसे उत्तम पूजा मानते थे। उन्होंने हिन्दू, मुसलमान और ईसाई को एक ही ईश्वर की सन्तान माना है।
जगत् — मालवीयजी इस जगत् को एक अद्वितीय कृति मानते हैं और इसीलिए वे जगत् को मिथ्या, माया आदि न मानकर यथार्थ मानते हैं। मालवीयजी बुद्धि पर विश्वास करते हैं। अत: उनके अनुसार जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों एवं बुद्धि के सामने अस्तित्वमान है वह भ्रम, माया और धोखा नहीं हो सकता। इस प्रकार जगत् के सम्बन्ध में मालवीयजी यथार्थवादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हैं। उन्होंने जगत् को मानव का 'कर्म - क्षेत्र' माना है और बतलाया है कि मानव के सभी तीर्थ इसी जगत् में मिलते हैं। यद्यपि की कर्तव्य की दृष्टि से मालवीयजी वर्णों के विभाजन पर विश्वास करते थे किन्तु विभिन्न जातियों में मेल, सौहार्द एवं भ्रातृत्व की भावना रखने पर वे बल देते थे।
मनुष्य एवं अन्य प्राणी — प्रत्येक जीव में एक 'स्थूल शरीर' होता है और दूसरा 'सूक्ष्म तत्त्व' । मालवीयजी ने अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य के सूक्ष्म तत्त्व को विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है क्योंकि उनके अनुसार मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो कि अपने व्यवहार का नियन्त्रण करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है। ईश्वर ने यह अधिकार केवल मनुष्य को ही दिया है अन्य जीवों को नहीं। मालवीयजी ने मनुष्य के जीवन में दीक्षा को अति महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है क्योंकि बिना दीक्षा के वह मानव जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त मालवीयजी का यह कथन है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने धर्म के पालन के लिए भक्ति, नाम, स्मरण, व्रत, भजन, उपवास आदि का पालन करना चाहिए। ये सभी बातें सम्भव हैं जबकि प्रत्येक नर - नारी विद्या प्राप्त कर लें क्योंकि बिना विद्या के किसी देश, जाति व समाज की उन्नति सम्भव नहीं है। मालवीयजी में शारीरिक, चारित्रिक एवं आत्मिक बल की वृद्धि करने पर बल देते हैं ताकि वे अपना एवं समूचे समाज का कल्याण कर तभी प्रत्येक सके।
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