मदन मोहन मालवीय जी का शिक्षा दर्शन ( Education Philosophy Of Madan Mohan Malviya Ji )

मदन मोहन मालवीय जी के शैक्षिक विचार ’

( मदन मोहन मालवीय जी का शिक्षा दर्शन )


( प्रश्न )


पं० मदन मोहन मालवीय के शिक्षा सम्बन्धी विचारों को स्पष्ट कीजिए।


‘या’


पं० मदन मोहन मालवीय के शिक्षा दर्शन को स्पष्ट कीजिए।


( उत्तर )



मालवीयजी का शिक्षा - दर्शन उनके जीवन - दर्शन के समान आदर्शवादी एवं यथार्थवादी है। शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण अपेक्षाकृत उदार और आधुनिक रहा है। वे शिक्षा को केवल आत्मानुभूति का साधन मात्र नहीं मानते थे अपितु अर्वाचीन जीवन हेतु उपयोगी विज्ञानों और उद्योगों को भी महत्त्वपूर्ण तथा भौतिक उन्नति का स्रोत मानते थे। वे ज्ञान और विज्ञान दोनों प्रकार की शिक्षा का समर्थन करते थे, राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए, समाज की भौतिक सम्पन्नता और आध्यात्मिक उन्नति के लिए वे देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार शिक्षा में समायोजन के समर्थक थे। वे भारतीय दर्शन, वेद, उपनिषद आदि की शिक्षा इसलिए अपेक्षित मानते थे जिसमें उसे ज्ञात हो जाय कि तुम हिन्दी हो, हिन्दू हो, हिन्दुस्तानी हो, तुम कस्तूरी के मृग हो और तुम्हारी नाभि में कस्तूरी है। 


यहाँ शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर मालवीयजी के विचारों को दिया जा रहा है —


  1. शिक्षा का अर्थ —


          यद्यपि मालवीयजी ने कहा था कि "मैं कोई शिक्षाशास्त्री नहीं हूँ।" परन्तु हिन्दू विश्वविद्यालय की योजना जिस मस्तिष्क की उपज थी वह व्यक्ति साधारण व्यक्ति न होकर एक महान शिक्षाशास्त्री था। उन्होंने कहा है,


"शिक्षा से मेरा मतलब विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से है।"


इन शब्दों में उन्होंने शिक्षा के संकुचित अर्थ की ओर संकेत किया है परन्तु उनके व्यापक शैक्षिक विचारों का मनन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे शिक्षा को मनुष्य के सर्वांगीण विकास हेतु अनिवार्य साधन मानते थे। शिक्षा के अन्तर्गत् उन्होंने चारित्रिक निर्माण, शारीरिक विकास, वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति को भी महत्त्वपूर्ण माना है।

उनके शब्दों में,


“शिक्षा से हमारा तात्पर्य हृदय और मन की सारी शक्तियों का सम्यक् रूप से विकास और उनकी पूर्ण पुष्टि से है।”


  1. शिक्षा के उद्देश्य — 


            मालवीयजी ने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करने में जीवन के उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित किया है। उन्होंने हिन्दू शास्त्रों में वर्णित जीवन के उद्देश्यों पर आधारित धर्म - शिक्षा के अधोलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं —


  1. धार्मिक, चारित्रिक एवं नैतिक विकास

  2. व्यावसायिक, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास 

  3. आनन्द एवं सुख की प्राप्ति

  4. मुक्ति प्राप्ति या आध्यात्मिक विकास


शिक्षा के उद्देश्य का संकेत हमें उनके द्वारा प्रस्तावित विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य में मिलते हैं जो इस प्रकार हैं —


  1. सर्वसाधारण जनता मुख्यतः हिन्दुओं को हिन्दूशास्त्र तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा देना जिसमें प्राचीन भारत की संस्कृति और उसके उच्च विचारों की रक्षा हो सके तथा प्राचीन भारत में जो कुछ महान तथा गौरवपूर्ण था, उसका निर्देशन हो।

 

  1. साधारणतः कला तथा विज्ञान में शिक्षा तथा अन्वेषण के कार्य की सर्वतोमुखी उन्नति करना।

 

  1. भारतीय घरेलू धन्धों और भारत के वैभव के पुनरुद्धार होने के लिए उपर्युक्त आवश्यक व्यावहारिक ज्ञान से युक्त वैज्ञानिक तथा व्यावसायिक शिल्पकलादि ज्ञानों की शिक्षा देना।


  1. धर्म तथा नीति को शिक्षा का आवश्यक अंग मानकर नवयुवकों में सुन्दर चरित्र - गठन का विकास करना।


मालवीयजी ने लिखा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों के साधन का मूल कारण आरोग्य है। वास्तव में बिना शारीरिक बल के कोई भी काम नहीं हो सकता है और सारी साधना अपूर्ण रहती है। इस प्रकार मालवीयजी ने शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक विकास भी माना है।



  1. शिक्षा का माध्यम —


                 पं० मदन मोहन मालवीय ने  'हिन्दी , हिन्दू एवं हिन्दुस्तान'  का नारा लगाते हुए हिन्दी भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने पर विशेष बल दिया। उनका कथन था कि हमारे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा अन्य आस - पास के स्थानों में जहाँ प्राय: सभी लोगों की बोलचाल की भाषा हिन्दी है, शिक्षा का माध्यम हिन्दी भाषा को बनाया जाय। 


  मालवीयजी ने यह अनुभव किया कि प्राइमरी एवं सेकेण्ड्री शिक्षा में तो हिन्दी माध्यम से काम चल सकता है किन्तु उच्च एवं विश्वविद्यालय शिक्षा में हिन्दी को माध्यम बनाने में कुछ कठिनाइयाँ हैं। उन्होंने विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को रखने की बात कही परन्तु यह भी कहा कि मातृभाषा के विकास के साथ विश्वविद्यालय को वह अधिकार होगा कि यह किसी एक अथवा अधिक विषयों की शिक्षा का माध्यम हिन्दी को कर दे। 


  1. पाठ्यक्रम —


         मालवीयजी के द्वारा पाठ्यक्रम की कोई वर्गीकृत योजना नहीं दी गयी है लेकिन इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उन्होंने विश्वविद्यालय में जिन विभागों को स्थापित करने की योजना तैयार की थी, वह बहुत व्यापक और विविधतापूर्ण है।


   वैदिक शिक्षा विभाग, चिकित्सा शिक्षा विभाग, विज्ञान और कला की शिक्षा का विभाग और कृषि शिक्षा का विभाग हिन्दू विश्वविद्यालय में है। इस प्रकार धर्म, दर्शन, ज्योतिष, रसायन, भौतिक, वनस्पति विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, गणित, इतिहास, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, टैक्नालॉजी, उद्योग, कृषि - व्यापार, वाणिज्य, भाषा, कला, संगीत आदि विषयों की शिक्षा की व्यवस्था विश्वविद्यालय में है।

 

  मालवीयजी ने पाठ्यक्रम का आधार देश एवं समाज की संस्कृति तथा जीवन - दर्शन को माना है। इसलिए उन्होंने संस्कृत तथा संस्कृति का अध्ययन अनिवार्य कराया तथा धर्म की शिक्षा पर अत्यधिक जोर दिया।


उन्होंने कलात्मक विषयों को पाठ्यक्रम में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया तथा मौखिक विकास के आधार पर पाठ्यक्रम में भाषाओं का अध्ययन करने के लिए कहा। उन्होंने कहा हैं की,  ‘अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषायें इस उद्देश्य से पढ़ाई जायँ कि भारतीय साहित्य, विज्ञान तथा भाषा में उनसे भली प्रकार सहायता मिल सके। उन्होंने पाठ्यक्रम में विषयों को उपयोगिता के संगठित किया।’


  1. शिक्षण-पद्धति —


               यद्यपि मालवीय जी ने अपने शिक्षा - दर्शन के अन्तर्गत किसी शिक्षण - विधि का प्रतिपादन नहीं किया किन्तु वे एक सफल अध्यापक थे। सफल अध्यापक के रूप में उन्होंने शिक्षा की प्राचीन परंपरागत शिक्षण - विधियों का प्रयोग किया और उसके संबंध में उन्होंने यत्र- तत्र अपने दीक्षांत भाषण, वक्तव्य एवं उपदेश में अपने विचार स्पष्ट किए।


उन्होंने जिन शिक्षण - विधियों अधिक बल दिया है, वे निम्नलिखित हैं —


  1. चिन्तन एवं मनन - विधि

  2. उपदेश एवं भाषण - विधि

  3. अन्वेषण - विधि 

  4. क्रिया एवं अभ्यास - विधि 

  5. प्रयोग - विधि 


  1. शिक्षक और शिक्षार्थी — 


                     मालवीयजी की श्रद्धा अध्यापकों के प्रति थी। उन्होंने माता को प्रथम शिक्षिका के रूप में माना है। माता के बाद शिक्षक है जो पूरे राष्ट्र का भार रखता है विशेषतः भारतवर्ष में जहाँ की अधिकांश जनता अशिक्षित है। उन्होंने कहा है कि, 


मैं अध्यापकों के लिए बहुत माँग रहा हूँ। प्रायः सभी सभ्य देशों में, देश के राष्ट्रीय उत्पादन में अध्यापक का स्थान बहुत उच्च माना जाता है।”


मालवीयजी शिक्षकों को प्राचीन गुरुओं के समान धर्मपरायण, ब्रह्मचारी, ज्ञान - विज्ञान वेत्ता, सत्यानुशीलन करने वाला, विद्यार्थियों की देखभाल करने वाला, निर्देशन देने वाला, समाज का नेता और प्रतिनिधि होना चाहते थे।  


विद्यार्थी को भी मालवीयजी एक आदर्श विद्यार्थी बनाना चाहते थे। वे विद्यार्थियों से कहते थे कि,


“ब्रह्मचर्य का आजीवन पालन करो, सबेरे - शाम सन्ध्या करो, ईश्वर से प्रार्थना करो, माता - पिता, गुरु तथा प्राणीमात्र की सेवा करो, सत्य बोलो, व्यायाम करो, पढ़ो, देश - सेवा करो और जगत् में सम्मान प्राप्त करो।”


उनका कहना था कि,


“यह शरीर परमात्मा का मन्दिर है । इसमें ईश्वर का निवास है इस पवित्र मंदिर का रक्षक ब्रम्हचर्य है। भीम, अर्जुन, लक्ष्मण, शंकर, हनुमान आदि महापुरुषों के चित्र अपने कमरों में लगा लो, क्योंकि ब्रह्मचारियो ने भारतवर्ष का मस्तक ऊंचा रखा है। उनके उपदेश और आचरण पर अपने मन को जमाओ।”


  1. शिक्षालय —


        भारतीय विचारधारा में विद्यालय की तुलना तपोवन से की गयी है। इसी विचारधारा से महामना ने विश्वविद्यालय की स्थापना एक अत्यन्त सुरम्य वातावरण में की।


 “यह फैली हुई भूमि, हरी मखमली दूब से भरे सुहावन बड़े - बड़े खेल के मैदान, स्वच्छन्द उन्मुक्त वायु, माँ पतित पावनी गंगा का पुनीत पावन तट , संसार में कहीं भी ऐसा दूसरा स्थान तुम्हारे लिए नहीं। प्रकृति के साथ जीवन को मेल में लाने वाला, इतना विशाल क्षेत्र संसार में अन्यत्र है तो मुझे मालूम नहीं।”


इन शब्दों में यह बात स्पष्ट होती है शिक्षालय का वातावरण प्रकृति की सुरम्यता एवं सौरभता से परिपूरित हो, शांत एवं पवित्र हो और हृदय, मन तथा आत्मा को बल देने वाला हो। मालवीयजी शिक्षालय को समाज एवं राष्ट्र को नवजागरण का साधन बनाना चाहते थे जैसा कि आज के युग में सभी जनतन्त्रीय देशों में हो रहा है। 


  1. अनुशासन —


          मालवीयजी आदर्शवाद के पृष्ठपोषक एवं समर्थक थे। अतः उन्होंने अन्य आदर्शवादियों की भाँति प्रभावात्मक अनुशासन पर बल दिया है किन्तु उनका प्रभावात्मक अनुशासन पाश्चात्य आदर्शवादियों की भाँति न था जो शिक्षार्थियों पर शिक्षक के व्यक्तित्व के अत्यधिक प्रभाव पर जोर देते हैं बल्कि उन्होंने प्रभावात्मक अनुशासन को वैदिक कालीन शिक्षा - प्रणाली के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया जिसमें गुरु अपने शिष्यों के प्रति पितृवत् व्यवहार करते हुए उन्हें आत्मानुशासन और आत्मनियन्त्रण का प्रशिक्षण प्रदान करते थे। इस प्रकार मालवीयजी आत्मनियन्त्रण पर बल देते थे जो अन्तःप्रेरित होता है।


मालवीयजी ने दमनात्मक और मुक्तात्मक अनुशासन का कभी समर्थन नहीं किया। उन्होंने आत्मानुसन्धान के विकास के लिए सांध्योपासना, व्रत, उपवास आदि क्रियाओं पर बल दिया है।



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