समाजीकरण - अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, उद्देश्य, प्रक्रिया, अवस्थायें, माध्यम, स्तर एवं प्रविधियाँ (SOCIALIZATION)
शिक्षा एक समाजीकरण की प्रक्रिया
[EDUCATION AS A PROCESS OF SOCIALIZATION]
समाजीकरण से तात्पर्य
(MEANING OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण की परिभाषाएँ
(Definitions of Socialization)
समाजीकरण की विशेषताएं
(Features Of Socialization)
समाजीकरण के उद्देश्य
(Objectives Of Socialization)
समाजीकरण की प्रक्रिया
(SOCIALIZATION PROCESS)
समाजीकरण एक सतत् एवं प्रतिमानित प्रक्रिया
(SOCIALIZATION AS A CONTINUOUS AND PATTERNED PROCESS)
समाजीकरण की अवस्थायें
(STAGES OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण के माध्यम
(AGENCIES OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण की प्रविधियाँ
(TECHNIQUES OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण के नियन्त्रण की क्रियाविधि
(CONTROL MECHANISM OF SOCIALIZATION)
समाजीकरण के स्तर
(STAGES OF SOCIALIZATION)
परिवार एवं समाजीकरण
(FAMILY AND SOCIALIZATION)
समाजीकरण पर सहोदर प्रभाव एवं परिवार में क्रमिक स्थिति
(SOCIALIZATION EFFECTS OF SIBLING'S ORDINAL POSITION WITHIN THE FAMILY)
बालक का समाजीकरण एवं शिक्षा
(SOCIALIZATION OF THE CHILD AND EDUCATION)
समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका
(THE ROLE OF TEACHER IN THE PROCESS OF SOCIALIZATION)
प्रस्तावना -
एक नवजात शिशु सम्भावनाओं का भण्डार होता है। उसका विकास इन सम्भावनाओं के आधार पर ही होता है। वंशानुक्रमिक जैविक दाय (Biological Heredity) उसके विकास के लिए कच्चा पदार्थ (Raw Material) प्रदान करती है। सामाजिक वातावरण वे दशाएँ प्रदान करता है जिसके अन्तर्गत यह कच्चा पदार्थ एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में आकार ग्रहण कर लेता है जिसकी शारीरिक, प्रेरणात्मक एवं बौद्धिक सम्भावनाएँ जिस स्तर तक प्राप्त हो सकती हैं उसकी सीमायें निर्धारित हो जाती हैं। यह सतत् चलने वाली क्रिया, जिसके द्वारा बालक दूसरे व्यक्तियों द्वारा प्रभावित होता है जिनमें बालक के माता-पिता प्रमुख होते हैं, समाजीकरण (Socialization) कहलाती है। यह एक सीखने का मार्ग है जिसके द्वारा बालक उन मुख्य माँगों के अनुरूप कार्य करने लगता है जो एक विशिष्ट समाज की सदस्यता के कारण उस पर लगी होती है। इस प्रकार बालक, समूह के मूल जीवन से अपने आपको समायोजित कर लेता है और प्रौढ़ व्यवहार के आधार स्तम्भों (Foundation Stones) को प्राप्त कर लेता है।
EDUCATION AS A PROCESS OF SOCIALIZATION |
समाजीकरण में एक व्यक्ति-विशेष तो एक ओर होता है और दूसरी ओर ऐसे कुछ अन्य व्यक्ति हैं जिनके सम्मुख कुछ मान्य सत्य तथा वांछित व्यवहार के प्रतिमान होते हैं। यह एक परस्पर होते सम्बन्धों की प्रक्रिया है। व्यक्ति-विशेष का व्यवहार अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से रूपान्तरित हो जाता है। सम्पर्क में आने वाले समाज के सदस्य मान्य सत्य तथा वांछित व्यवहार के प्रतिमानों के आधार पर एक विशेष व्यवहार की आशा रखते हैं। यह व्यक्ति-विशेष उन आशाओं के अनुरूप ही अपने व्यवहार में रूपान्तर लाता है। व्यवहार के रूपान्तर की इस प्रक्रिया को ही हम समाजीकरण कहते हैं।
समाजीकरण में व्यक्ति द्वारा उन मूल्यों, विश्वासों एवं समाज का प्रत्यक्षीकरण करने के मार्गों को अपना लिया जाता है तथा अन्तर्विष्ट (Internalize) कर लिया जाता है जो उसके समूह के सदस्यों के होते हैं। जब अन्तर्विष्टीकरण प्रभावशाली होता है तब व्यक्ति उस प्रकार के व्यवहार को अपनाने की चाहना करने लगता है जिस प्रकार के व्यवहार की उत्तरदायित्वपूर्ण समूह के सदस्यों द्वारा उससे आशा की जाती है। जब व्यक्ति समूह के मानक (Norm) को अन्तस्थ नहीं कर पाता तो यह विसामान्य (Deviate) हो जाता है।
समाजीकरण वास्तव में प्रत्येक उस स्थान पर होता है जहाँ भी एक व्यक्ति को नए समूह के स्तरों के अनुरूप अपने को समायोजित करना होता है। उदाहरण के लिए, सेना में नए रंगरूट को, विद्यालय में नए छात्र को, सेवा में नए कर्मचारी को उन सब मान्यताओं को अन्तर्विष्टीकरण करना होता है जो उस समूह में विशेष है। इस प्रकार समाजीकरण में प्रौढ़ की वह क्रिया भी सम्मिलित है जिसके द्वारा वह उन व्यवहारों को अपना लेता है जो उसकी समूह संगठन अथवा समाज में नई स्थिति से सम्बन्धित आशाओं के अनुरूप होते हैं। यद्यपि समाजीकरण से तात्पर्य उपर्युक्त वर्णित प्रौढ़ व्यवहार के रूपान्तर की प्रक्रिया से भी है, तथापि अधिकतर मनोवैज्ञानिक साहित्य में समाजीकरण की प्रक्रिया बाल्यावस्था के विकास में सामाजिक तथ्यों तक ही सीमित रखी गई है। समाजीकरण में इस प्रकार वह प्रक्रिया वर्णित की जाती है जिसके द्वारा एक बालक अपने समाज के प्रौढ़ व्यक्तियों के प्रति प्रतिक्रिया करने का प्रयास करता है ताकि उनके व्यवहारों, आदर्शों इत्यादि को सीख ले। यह एक ऐसी प्रक्रिया समझी जा सकती है जो कि एक बालक के व्यवहार, अभिवृत्तियों, प्रेरणाओं और मूल्यों पर उस सीमा तक बन्धन लगाती है जिस तक कि वह स्थापित सामाजिक व्यवस्था को मान्यता देने लगे।
समाजीकरण एक समाज की विभिन्न वर्गों और समूहों को सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से एक साथ लाने की प्रक्रिया है। इसके माध्यम से समाज में समानता, न्याय, संघर्षमुक्ति, स्वतंत्रता और समरसता को बढ़ाया जाता है। समाजीकरण के माध्यम से समाज में समानता और समरसता को बढ़ाया जाता है जिससे लोग एक दूसरे के साथ अधिक मेल-जोल होते हुए एक साथ रहने के लिए सक्षम होते हैं।
हम यहाँ कुछ विशेषज्ञों द्वारा प्रतिपादित समाजीकरण की परिभाषाओं का वर्णन कर रहे हैं-
जानसन (1961) समाजीकरण को वह सीखना कहते है,
किम्बल यंग (Kimbal Young) के अनुसार,
(Socialization mean the process of inducting the individual into the social and cultural world.)
सीकोर्ड तथा बेकमैन अपनी पुस्तक में समाजीकरण की परिभाषा एक अन्तःक्रियात्मक प्रक्रिया की भाँति देते हैं,
ग्रीन के अनुसार,
कुक के अनुसार,
व्यक्ति द्वारा व्यवहार के परम्परागत प्रतिमानों को ग्रहण करने की प्रक्रिया उसका समाजीकरण कहलाती हैं। क्योंकि वह उसके दूसरों पर संगठन करने पर और उसके द्वारा कार्य करने वाली संस्कृति के प्रति खुलेपन पर निर्भर करती हैं।
सहयोग करने वाले लोगों में अंह की भावना का विकास और उनके साथ काम करने की क्षमता तथा संकल्प को समाजीकरण कहते हैं।
एक व्यक्ति के सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का नाम ही समाजीकरण हैं।
(Features Of Socialization)
समाजीकरण के कुछ मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
1-समानता: समाजीकरण के माध्यम से समाज में समानता का विकास होता है। इससे विभिन्न वर्गों और समूहों के लोगों के बीच समानता बढ़ती है।
2-समरसता: समाजीकरण से समरसता का विकास होता है। इससे विभिन्न समूहों और वर्गों के लोगों के बीच अधिक मेल-जोल होता है जो समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है।
3-संघर्षमुक्ति: समाजीकरण के माध्यम से समाज में संघर्षमुक्ति का विकास होता है। इससे विभिन्न समूहों और वर्गों के लोगों के बीच संघर्ष कम होता है जो समाज के विकास के लिए आवश्यक है।
4-स्वतंत्रता: समाजीकरण के माध्यम से समाज में स्वतंत्रता का विकास होता है। इससे विभिन्न समूहों और वर्गों के लोगों के बीच आजादी का माहौल बढ़ता है जो समाज के लिए आवश्यक होता है।
(Objectives Of Socialization)
समाजीकरण के मुख्य उद्देश्यों में निम्नलिखित शामिल होते हैं:
1-समाज में समानता का संरक्षण और बढ़ावा: समाजीकरण का मुख्य उद्देश्य समाज में समानता का संरक्षण और बढ़ावा होता है। इससे समाज के सभी वर्गों और समूहों के लोगों के बीच समानता का विकास होता है।
2-समाज की समरसता का विकास: समाजीकरण के माध्यम से समाज की समरसता का विकास होता है। इससे विभिन्न समूहों और वर्गों के लोगों के बीच मेल-जोल बढ़ता है जो समाज के विकास के लिए आवश्यक होता है।
3-समाज में न्याय का संरक्षण: समाजीकरण का एक अन्य मुख्य उद्देश्य समाज में न्याय का संरक्षण होता है। इससे विभिन्न समूहों और वर्गों के लोगों के बीच न्याय का समान वितरण होता है और समाज में न्याय के आधारों पर संघर्ष कम होता है।
4-क्षमताओं का विकास: समाजीकरण व्यक्ति में ऐसी क्षमतायें भी पैदा करता हैं जिससे वह सामाजिक परिस्थितियों के साथ सरलतापूर्वक अनुकूलन कर सके।
इस प्रकार स्पष्ट है कि समाजीकरण की प्रक्रिया व्यक्ति एवं समाज दोनों के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया हैं।
समाजीकरण की प्रक्रिया को समझना अत्यन्त कठिन है। यद्यपि यह क्रिया रोचक भी बहुत है। इसका अध्ययन करने के लिए विभिन्न विधियों को अपनाया जाता है। प्रयोगात्मक परीक्षण, साक्षात्कार विधि, सांस्कृतिक, अध्ययन, बालकों का यथाक्रम ढंग से निरीक्षण, उपाख्यानात्मक अभिलेख इत्यादि सबके उपयोग द्वारा ही इस प्रक्रिया के सम्बन्ध में सम्यक सूचना मिलती है। यहाँ पर अब हम जिस प्रकार यह प्रक्रिया होती है, उसका वर्णन करेंगे।
एक मानव-बालक बिना दूसरों की सहायता के जीवित नहीं रह सकता। जीवन के प्रारम्भ से ही वह सामाजिक सम्बन्धों में बँध जाताहै जो कि उसके अस्तित्त्व के लिए आवश्यक होते हैं। क्योंकि बालक प्रौढ़ व्यक्तियों पर इतना निर्भर रहता है। इसलिए समाजीकरण की माँगों को बालक पूरा कर पाता है। बालक की निर्भरता ही उसमें उस व्यवहार को करने के लिए उसे तैयार करती है जो कि प्रौढ व्यक्तियों द्वारा उसके लिए अच्छा समझा जाता है।
माता-पिता ही बालक के समाजीकरण के प्रथम एजेण्ट होते हैं। वह उन उत्तेजको पर नियन्त्रण रखते हैं जो वांछित प्रतिक्रिया को जन्म देते हैं। वह जानते हैं कि बालक किस प्रकार से पथ-प्रदर्शित होने पर कैसा व्यवहार करेगा। वह बालक को वांछित प्रतिक्रिया करना सम्बद्धता द्वारा सिखा देते हैं। उदाहरण के लिए, वह बालक को बहुत शीघ्र सिखा देते हैं कि उसे दूध और खाना नियमित समय पर ही मिलेगा, उसे वह रात्रि के समय सोना, जो एक साधारण मानव-व्यवहार है. सिखा देते हैं। इस प्रकार अभिभावक किसी प्रतिक्रिया का पुष्टीकरण करके और किसी प्रक्रिया के पुष्टीकरण में कमी लाकर वांछित व्यवहार के प्रतिमान सिखा देते हैं बालक से बार-बार कहा जाता है कि वह खाने से पहले हाथ धो ले और यदि वह ऐसा नहीं करता तो कभी दण्ड स्वरूप उसे खाना भी नहीं दिया जाता। बालक धीरे-धीरे यह अन्तर्विष्टीकरण कर लेता है कि हाथ धोकर खाना खाना चाहिए। इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रभाव-निर्भरता (Effect Dependence) होने के कारण ही बालक का समाजीकरण परिवार से प्रारम्भ होता है।
प्रभाव-निर्भरता के अतिरिक्त बालक में सूचना निर्भरता (Information Dependence) भी होती है। ब्रह समाज के अन्य सदस्यों के ऊपर सूचना प्राप्त करने के लिए भी निर्भर रहता है वह वातावरण के सम्बन्ध में सूचना ग्रहण करना चाहता है, उसके अर्थ को समझना चाहता है। उसमें अपने कार्य करने की सम्भावनाओं को समझना चाहता है। बहुत कुछ तो वातावरण-सम्बन्धी ज्ञान वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा स्वयं प्रयास करके प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो उसके लिए अत्यन्त महत्त्व का ज्ञान है वह समाज में दूसरे व्यक्तियों के साथ उनसे सीख कर प्राप्त करता है।
बालक की सूचना-निर्भरता में यह निहित है कि जो समाजीकरण के एजेण्ट होते हैं, वह बालक के ज्ञानात्मक आकार (Cognitive Structure) पर एक व्यापक नियन्त्रण रखते हैं। कुछ घटनाओं में घटने की वह व्याख्या देकर जा वह उन्हें देना चाहते हैं, यह एजेण्ट बालक का जो यथार्थता के प्रति संप्रत्यय बनाता है, उसे प्रभावित कर देते हैं। बालक अपने अनुभवों का अर्थ भी इसी प्रकार से प्रभावित होकर देने लगते हैं।
समाजीकरण की प्रक्रिया एक सतत् प्रक्रिया है। यह बालक के जन्म के समय से प्रारम्भ होकर जीवन भर चलती है। बालक एक परिवार में जन्म लेता है। परिवार ही उसके समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। जीवन भर व्यक्ति के ऊपर दूसरों का प्रभाव पड़ता ही रहता है और उसे समाज में अपना समायोजन (Adjustment) प्राप्त करने की चेष्टा करनी पड़ती है। जब वह समाज के नियम, परम्पराओं, रीति-रिवाज, कानून इत्यादि को मान्यता देता है तो हम कह सकते हैं कि उसका समाजीकरण हो गया है। वह अब समाज द्वारा निर्धारित समाज के प्रतिमानों के अनुरूप अपना व्यवहार करने लगता है। इस कारण ही हम समाजीकरण की प्रक्रिया को एक प्रतिमानित प्रक्रिया कहते हैं। समाजीकरण की प्रक्रिया में मानक (Norms) एवं मूल्य (Values) महत्त्वपूर्ण होते हैं। प्रत्येक समाज अपने मानक एवं मूल्य स्थापित करता है। व्यक्ति इनको सीख लेता है और उनके अनुरूप ही कार्य करने लगता है। क्योंकि प्रत्येक समाज में व्यवहार के मानकों एवं मूल्यों में परिवर्तन आता रहता है इसलिए व्यक्तियों के समय के साथ बदलते मूल्यों के अनुसार व्यवहार को सीखना पड़ता है। समाजीकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति समाज द्वारा प्रतिपादित मूल्यों एवं मानकों को आत्मसात् (Assimilate) कर लेता है। हमने पिछले अध्याय में समाज और संस्कृति का वर्णन करते समय इसे स्पष्ट किया है।
STAGES OF SOCIALIZATION |
समाजीकरण की प्रक्रिया जैसा ऊपर स्पष्ट किया गया एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया द्वारा एक नवजात शिशु (Neonate) एक सामाजिक प्राणी का रूप धारण कर लेता है। इस प्रक्रिया का अध्ययन हम व्यक्ति के विकास की विभिन्न अवस्थाओं पर ध्यान केन्द्रित करके करेंगे।
बालक जन्म के पश्चात् सबसे प्रथम माता के सम्पर्क में आता है। वह उसे पहचानने लगता है। धीमे-धीमे उसे देखकर मुस्कराना प्रारम्भ कर देता है। माता के न होने पर उसकी कमी महसूस करने लगता है। फिर अन्य स्त्री या स्त्रियों जिनमें नर्स हो सकती है उससे उसका परिचय हो जाता है या दादी माँ के सम्पर्क में आता है और उसके प्रति प्रतिक्रिया करने लगता है। पिता के सम्पर्क में आने पर उसे पहचानने लगता है। यह एक पहचान जन्म के बाद ही कुछ ही सप्ताह में हो जाती है। जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है। अन्य व्यक्ति उसके सम्पर्क में आते जाते हैं और वह उनके प्रति प्रतिक्रियायें रोकर या हाथ पाव उठाकर करने लगता है।
स्तनपान (Breast Feeding) का शिशु के समाजीकरण मे बहुत महत्व है। माता का दूध केवल पोषण के लिए उत्तम है वरन् यह बालक को सुरक्षा एवं प्रेम भी प्रदान करता है। माता के वक्ष से लगकर बालक सुरक्षित महसूस करता है और उसे माता के प्रेम का आभास हो जाता है जो आगे चलकर उसके व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव डालता है।
जब बालक 10 माह का हो जाता है तो प्रायः उसकी मलमूत्र त्यागने का प्रशिक्षण (Toilet Training) प्रारम्भ हो जाता है जो 18 माह तक चलता है। बालक सीखने लगता है कि उसका परिवार चाहता है कि वह शौचालय इत्यादि का उपयोग सीखें।
माता तथा पिता जब बालक को अत्यधिक प्रेम देते हैं तो वह आश्रितता का व्यवहार (Dependency) सीख लेता है। दूसरों पर निर्भर रहना भी समाजीकरण की प्रक्रिया का एक अंग है। समाज में कोई व्यक्ति भी पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है। वह किसी-न-किसी रूप में दूसरों पर निर्भर है। शिशु अपने प्रारम्भिक जीवन में ही यह तथ्य सीख लेता है।
शिशु अनुकरण (Imitation) की प्रक्रिया द्वारा कुछ शब्द बोलना सीखने लगता है। माता तथा अन्य व्यक्ति उसे सिखाते हैं कहो मामा, बाबा इत्यादि। बालक धीमे-धीमे इन शब्दों को उन व्यक्तियों के साथ सम्बन्चित करना सीख जाता है जिनके लिए इनका उपयोग होता है।
लगभग 1.5 वर्ष का होने पर शिशु दूसरे बालकों में रुचि लेने लगता है। 1 वर्ष के पश्चात् ही वह ईष्या, सहयोग, शर्मीलापन इत्यादि का व्यवहार अपनाने लगता है। वह जब कोई नया व्यक्ति सामने आता है तो शरमाने लगता है। दूसरे बालकों के प्रति यदि माता या अन्य सम्बन्धी प्रेम प्रकट करते हैं तो उसे ईर्ष्या होने लगती है। वह दूसरे बालकों को देखकर उनकी ओर आकर्षण भी प्रतीत करने लगता है।
दो वर्ष के लगभग बालक क्रोध और झुंझलाहट भी प्रदर्शित करने लगता है। उसमें जिद का व्यवहार भी प्रकट होने लगता है।
दो या 6 वर्ष तक का काल समाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अब बालक समाज के अनेक सदस्यों के सम्पर्क में आता है। यदि नर्सरी या किण्डरगार्टन विद्यालय में जाता है तो अन्य बालकों और शिक्षकों के सम्पर्क में आता है। प्रारम्भ में बालक अपने खिलौने से ही अकेला खेलता रहता है। तीन चार वर्ष की आयु से वह दूसरे बालकों के साथ खेलना पसन्द करने लगता है। इस आयु में लड़के और लड़कियाँ साथ-साथ खेलते हैं और उनमें लिंग सम्बन्धी भेदभाव नहीं होता।
लगभग चार-पाँच वर्ष का बालक बहुत जिद करने लगता है। वह क्रोध प्रकट करता है। आक्रामकता (Aggression) का व्यवहार अपनाता है, घर से बाहर की ओर भागता है, भाई बहिनों से झगड़ता है, एक-दूसरे को चिढ़ाता है और उसमें आज्ञा के विपरीत कार्य करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है जिसे निषेधात्मक व्यवहार (Negative Behavior) कहते हैं। उसमें सहयोग से कार्य करने की प्रवृत्ति भी होती है। वह अपने व्यवहार का दूसरों से अनुमोदन (Social Approval) चाहने लगता है। वह मित्र बनाने लगता है और उनका सहयोग और साथ चाहने लगता है। इस आयु पर भी बालक में आश्रितता (Dependency) का भाव रहता है, किन्तु वह माता-पिता की आज्ञा के विपरीत भी कभी-कभी कार्य करने लगता है।
यह काल 6 वर्ष की आयु से 11-12 वर्ष की आयु तक होता है। इस काल में बालक समाज के नियम और कानूनों को सीखता है। अब उसके मित्रों की संख्या भी बढ़ जाती है और वह टीम बनाकर खेलों में रुचि लेने लगता है। इस काल में लड़के लड़कों का साथ, लड़कियाँ लड़कियों का साथ अधिक पसन्द करते हैं। लड़के या लड़कियाँ अपनी-अपनी लिंग सम्बन्धी भूमिकायें सीखने लगते हैं। यदि कोई लड़का लड़कियों की तरह कुछ व्यवहार करता है तो उसका मजाक बनाया जाता है और उसे अनेक अपमानजनक नामों से पुकारा जाता है। यही उन लड़कियों के साथ होता है जो लड़कों जैसा पहनावा या व्यवहार करती हैं, किन्तु पुरुष प्रभुत्व समाज में जैसा हमारा है लड़कों को लड़की की भाँति पुकारना अधिक अपमानजनक समझा जाता है।बालकों की भाषा का विकास हो जाने से वह दूसरे व्यक्तियों के साथ विचारों का आदान- प्रदान करने लगते हैं।
बालकों में विचरण की भावना बढ़ जाती है और वह अपना गुट बनाकर घर से बाहर खेलकूद में लग जाते हैं। बालकों में स्पर्धा और प्रतियोगिता (Rivalry and Competition) होने लगती है। वह एक-दूसरे से अपने को अच्छा प्रदर्शित करना चाहते हैं। मित्रतापूर्ण खेलों में एक-दूसरे को हराने की या अपने गुट या टीम को जिताने की जोरदार चेष्टायें की जाती हैं। इस अवस्था में बालक यह भी चाहने लगते हैं कि उनके परिवार एवं समाज के सदस्य उनके व्यवहार का अनुमोदन करें। वह समाज के प्रतिमानों को दृढता से मानने लगते हैं और अपने उत्तरदायित्वों की ओर से सजग हो जाते हैं।
यह काल 12 वर्ष से 18-19 वर्ष तक का होता है। इस काल के प्रारम्भ में बालक के शरीर में बहुत से परिवर्तन होने लगते हैं जिसके कारण उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगते हैं और वह समाज के सदस्यों के सामने बेढंगा सा महसूस करने लगते हैं। लडके तेजी से लम्बाई खींचते हैं, उनकी आवाज भारी तथा बेसुरी एवं फटी-फटी सी हो जाती है, मुँह पर बाल आने लगते हैं और वीर्य बनने लगता है।लड़कियों के नितम्ब भारी होने लगते हैं, वक्ष उठने लगते हैं, गुप्त स्थानों पर बाल आने लगते हैं इत्यादि। इन सब शारीरिक परिवर्तनों के कारण ही बालक एवं बालिकायें अधिक मिलने-जुलने से घबराने लगते हैं।
किशोर काल में प्रारम्भिक वर्षों में बालकों में समाज विरोधी व्यवहार भी प्रकट होने लगता है। किशोर समाज के नियमों को दमन करने वाला समझने लगता है और उनके विरोध के व्यवहार में रुचि लेता है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है जबकि बाल्यकाल में बालक समाज के नियमों को कड़ाई से मानने की चेष्टा करता है। 12-13 वर्ष की आयु में इनके विरोध में व्यवहार अपनाने में रुचि लेने लगता है, किन्तु जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती जाती है और वह परिपक्वता (Maturity) की ओर बढ़ता है, विरोधी व्यवहार में कमी आने लगती है।
किशोर काल की मित्रतायें गहरी होती हैं और जीवन पर्यन्त कायम रहती हैं। उसके व्यवहार पर उसके सहपाठी एवं साथी बहुत प्रभाव डालते हैं। अब वह अभिभावकों की बातों पर इतना ध्यान न देकर गुट या समूह के सदस्यों के मतों की ओर अधिक झुक जाता है।
इस काल में विषम लिंगीय (Opposite sex) रुचि जाग्रत हो जाती है। लड़के-लड़कियों की ओर और लड़कियाँ लड़कों की ओर आकर्षित होते हैं। वह उनके साथ मित्रता करना चाहते हैं और आपसी प्रेम का सूत्रपात भी हो जाता है। किन्तु बहुधा यह आकर्षण थोडे समय के लिए ही होता है और आयु बढ़ने के साथ विषम लिंगीय खिंचाव में परिपक्वता आ जाती है।
किशोर में समाज सेवा का भाव भी बहुत होता है। वह अपने कार्य से समाज को बदलना चाहता है और यदि उसे अच्छा नेतृत्व मिल जाता है तो वह अच्छा समाज सेवक बन जाता है, किन्तु यदि नेतृत्व उपयुक्त नहीं हो तो किशोर समाज विरोधी कार्यों या तोड़-फोड़ में रुचि लेने लगता है।
हमारे देश में क्योंकि लड़के और लड़कियों के मिलने के अवसर कम होते हैं। इस कारण ही बहुधा लड़के युवा लड़कियों से छेड़खानी (Eve teasing) करने लगते हैं। यह दूषित व्यवहार विषम लिंगीय की ओर आकर्षण के कारण ही होता है।
(5) वयस्क अवस्था (Adulthood) -
यह काल 20 वर्ष से लगभग 55 वर्ष तक होता है। इसमें युवावस्था (Young Adulthood) 20 से 35 वर्ष तक मानी जाती है और मध्य वयस्कावस्था (Middle Adulthood) 35 साल के पश्चात् मानी जाती है। वयस्क अवस्था में व्यक्ति शादी करता है, परिवार बनाता है, धन्धा करता है, ताकि परिवार का पोषण कर सके। इस काल में वह समाज के अन्य सदस्यों के साथ समायोजन करता है और अपना तथा अपने परिवार का जीवन समाज स्वीकृत मानकों (Socially Approved Norms) के अनुरूप बनाने की चेष्टा करता है।
मध्य वयस्कावस्था में वह नयी पीढी के मार्गदर्शन की चेष्टा करता है। अपने व्यवहार में परिवार की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन लाता है। यह कहा जा सकता है कि वयस्क अवस्था में व्यक्ति का मुख्य बल समाज और परिवार में समायोजन प्राप्त करना होता है।
(6) वृद्धावस्था (Old Age)-
यह अवस्था 55 वर्ष के पश्चात् की होती है। इस अवस्था में व्यक्ति अवकाशकालीन जीवन (Retired Life) की ओर सजग हो जाता है। वह समझने लगता है कि उसका जीवन अब कुछ ही वर्षों का है और इसलिए उसे परोपकार सम्बन्धी कार्यों में रुचि हो जाती है। इस अवस्था की मुख्य समस्या एकाकीपन है। उसके पुत्र इत्यादि अपने-अपने कार्यों में लगे रहते हैं और जो व्यक्ति अब तक परिवार का केन्द्र था वह अब एक हाशिये की भाँति हो जाता है। संयुक्त परिवार व्यवस्था (Joint Family System) के टूटने के कारण वृद्धावस्था की कठिनाइयाँ हमारे समाज में अधिक बढ़ गई हैं।
(1) परिवार (Family)- जैसा अभी ऊपर हमने कहा, बालक को सबसे प्रथम उसके माता-पिता प्रभावित करते हैं। बालक प्रारम्भ में अपने मूल्य, आदर्श, विश्वास उन्हीं से सीखता है। यदि अभिभावक किसी एक विशेष धर्म को मानते हैं तो उसी के आदर्श इत्यादि सिखाते हैं। यह दूसरे धर्मों के विरुद्ध भी हो सकते हैं। कभी-कभी माता-पिता के प्रभाव के कारण दूषित अभिवृत्तियाँ भी बस जाती हैं। जब बालक बड़ा होने लगता है तो उसे और अधिक सूचना मिलने लगती है। जब वह विभिन्न विचारों में विभेद भी करने लगता है। कभी-कभी वह माता-पिता के मूल आदर्शों का त्याग भी कर देता है। कुछ भी हो, अभिभावकों की भूमिका समाजीकरण में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि बालक के लिए संसार के कोई और साधन नहीं होते वह जो कुछ माता-पिता कहते हैं उसे मानते हैं। जितना लम्बा समय बालक का अभिभावकों पर पराधीनता का होता है, उतना ही अधिक उन पर अभिभावकों के विचारों, आदर्शों इत्यादि का प्रभाव पडता है।
(2) मित्र तथा सहपाठी (Friends and Peer Group)- बाल्य में जैसे-जैसे बालक किशोरावस्था और फिर प्रौढावस्था की ओर बढ़ता है, उस पर परिवार के बाहर के व्यक्तियों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। शिक्षक, परामर्शदाता, स्काउट मास्टर इत्यादि एक बढती हुई भूमिका अभिभावक प्रभावों को सहयोग देने में, पुनः परिभाषित करने में और कभी-कभी दूर करने में निबाहने लगते हैं। अब बालक पर उसके सहपठियों और खेल के साथियों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है। बहुधा साथी उसे बताते हैं-क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या कार्य करने में आनन्द आता है।
(3) विद्यालय- समाजीकरण का विद्यालय भी एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है। विद्यालय में बालक का बौद्धिक, संवेगात्मक एवं शारीरिक विकास होता है। उसे समाज के नियमों, परम्पराओं, संगठन एवं रहन-सहन के तरीकों से परिचित कराया जाता है। यह उसके समाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। बालक सीखता है कि कैसे मिल-जुलकर कार्य किये जायें। वह यह जान जाता है कि प्रशंसा, पक्षपात, जलन, स्नेह, अपमान, आदर इत्यादि क्या होते हैं और इनका उसके अपनी जीवन में क्या महया पर बहुत प्रभाव डालता है। उनके साथ शिक्षकों का व्यवहार उनके अपने सामाजिक व्यवहार के विकास से बहुत महत्त्वपूर्ण होता है।
(4) समुदाय (Community)- प्रत्येक व्यक्ति एक या अनेक समूहों और संस्थाओं का सदस्य होता है। इन समूहों की सदस्यता के द्वारा अपनी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय संस्कृति में व्यक्ति भाग लेते हैं। कुछ तो समूह औपचारिक ढंग से निर्मित होते हैं और कुछ दूसरे पूर्णरूप से अनौपचारिक होते हैं न केवल प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक समूह में एक छोटे रूप में समाजीकरण होता है वरन् यह अनुभव मिलकर विस्तृत संस्कृति में समाजीकरण के भाग बन जाते है।। इस प्रकार संस्कृति अनेक समूहों की, जो समाजीकरण प्रक्रिया में निहित प्रकार की सदस्यता की बीच की कड़ी है। यद्यपि अभिभावक बालक प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अभिवृत्तियों विकसित होती है तथापि अनेक विशिष्ट अभिवृत्तियों विभिन्न समूहों की ओर तुलनात्मक वफादारी के आधार पर आकृति ग्रहण करती है।
(5) जाति और वर्ग (Caste and Class)- जाति और वर्ग भी समाजीकरण पर प्रभाव डालते हैं। बालक जिस जाति और वर्ग में जन्म लेता है उसकी परम्परायें रीति-रिवाज धीमे-धीमे सीख लेता है। इस प्रक्रिया में उसके जाति के सदस्य अपने उदाहरण द्वारा उसे सिखाते हैं। वह सीख लेता है कि उसकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण बहुत कुछ उसकी जाति या वर्ग की समाज में क्या स्थिति है इस पर निर्भर होती है।
(6) धार्मिक संस्थायें (Religious Institutions)- धर्म के द्वारा प्रतिपादित आदर्श बालक धार्मिक संस्थाओं से सीखता है। प्रत्येक धर्म अपने आदर्शों इत्यादि का प्रतिपादन करता है। धार्मिक पूजा-पाठ, धर्म सम्बन्धी उत्सव, धर्म ग्रन्थों का शिक्षण, धार्मिक कहानियाँ, नाटक, जीवन चरित्र इत्यादि सब बालक के जीवन पर प्रभाव डालते हैं और बालक सीख लेता है कि कौन से कार्य उसे करने चाहिए और कौन से नहीं। वह अपने समाज में एक धर्मपरायण व्यवहार क्या होता है, समझ लेता है।
समाजीकरण अनेक प्रविधियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता हैं यह प्रविधियाँ हैं-
(1) पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment)- यह समाजीकरण की प्रविधि बालक की बहुत छोटी आयु से ही माता-पिता द्वारा प्रयोग की जाती है। माता जब बालक रोना बन्द नहीं करता तो अपना दूध पिलाने लगती है और यदि वह नाराज हो जाती है तो उसे अकेला छोड देती है। इसी तरह जब वह बड़ा होने लगता है उसका पिता उसे दण्ड एवं पुरस्कार द्वारा आचरण के नियम सिखाता है। विद्यालय तथा समाज भी इस प्रविधि का प्रयोग करके समाजीकरण में योगदान देता है।
(2) प्रशंसा एवं दोष (Praise and Blame) - पुरस्कार एवं दण्ड की भाँति प्रशंसा एवं दोष का प्रयोग भी समाज, परिवार, विद्यालय इत्यादि द्वारा समाजीकरण के लिए प्रयोग किये जाते हैं।
(3) परामर्श (Advise) - एक प्रविधि जो बडी आयु के बालकों के साथ प्रयोग होती है वह है परामर्श। घर के बड़े, बालकों को सलाह देते हैं कि वह किस प्रकार व्यवहार करें ? विभिन्न समस्याओं को कैसे सुलझाये आदि।
(4) मॉडल का अनुकरण (Imitation of a Model)- यह प्रविधि भी समाजीकरण में बहुत महत्त्वपूर्ण है। बालक अपने पिता या माता को एक प्रकार से व्यवहार करते देखता है तो वैसा ही व्यवहार करने लगता है। जैसे बड़ों के पाँव छूना इत्यादि। यहाँ माता-पिता उसके सामने मॉडल हैं। बालक के लिए अध्यापक, चलचित्र या ड्रामे के पात्र, सहपाठी, मित्रगण, भाई-बहिन इत्यादि मॉडल हो सकते हैं।
(5) सुझाव (Suggestion) - सुझाव देकर बालकों को सिखाया जाता है कि वह कैसा व्यवहार करें। सुझाव प्रत्यक्ष (Direct) या अप्रत्यक्ष (Indirect) हो सकता है। प्रत्यक्ष वह जब शिक्षक या बड़ा भाई या बहिन कहती है कि 'ऐसा कार्य करना अच्छा है' या 'ऐसा कार्य करो' अप्रत्यक्ष सुझा वह है जब बालक दूसरों द्वारा किसी समस्या के हल का अवलोकन करके यह सीख लेता है कि इस प्रकार की समस्या को इस प्रकार हल किया जा सकता है।
(6) आज्ञा-पालन (Obedience) - बालक को आज्ञा देकर या उसका पालन करने को बाध्य करके भी उसका समाजीकरण किया जा सकता है। आज्ञापालन की प्रविधि महत्त्वपूर्ण तो है, किन्तु इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक होना चाहिए क्योंकि जब सख्ती से आज्ञा-पालन कराया जाता है तो बालक के व्यक्तित्व पर दूषित प्रभाव पड़ता है।
(7) समाज सेवा (Social Service) - बालक को समाज सेवा के कार्यों में लगाकर भी उसका समाजीकरण किया जा सकता है। समाज सेवा द्वारा बालक बहुत कुछ समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझ जाता है। आगे हम फिर समाजीकरण के प्रशिक्षा के सम्बन्ध में पुरस्कार और दण्ड की विधियों की और स्पष्ट व्याख्या करेंगे।
समाजीकरण पर निम्न प्रकार से नियन्त्रण रखा जा सकता है-
(1) बालक के व्यवहार पर प्रशंसा-आरोप, पुरस्कार-दण्ड का प्रयोग करके नियन्त्रण रखा
(2) बालक के समक्ष अच्छा सामाजिक व्यवहार प्रदर्शित किया जाये।
(3) बालक को परोपकार एवं समाज सेवा का प्रशिक्षण दिया जाये।
(4) खेलकूद के नियमों का पालन सिखाया जाये।
(5) सहयोग, आदर, आज्ञा पालन इत्यादि गुणों पर बल दिया जाये।
(6) सहपाठियों एवं अन्य मित्रों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार सिखाया जाये।
(7) दूरदर्शन एवं अन्य जन-संचार के माध्यमों का प्रयोग सामाजिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने के लिए किये जायें।
जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया कि परिवार सबसे बड़ा समाजीकरण का माध्यम है। घर के अनुभव ही बालक के समाजीकरण में प्रथम चरण होते हैं। सबसे प्रथम प्रभाव माता का होता है। यदि माता प्रेमपूर्ण व्यवहार करती है तो समाजीकरण सरलता से हो जाता है। यदि बालक को माता से अलग कर दिया जाये तो उसके समाजीकरण में दोष आ जाते हैं। माता के साथ-साथ पिता का प्रभाव भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण है। घर के पश्चात् विद्यालय इत्यादि के प्रभाव से समाजीकरण होता है। जिन चरणों में समाजीकरण होता है उनका वर्णन अब हम करेंगे।
समाजीकरण का प्रारम्भ बालक की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति द्वारा होता है। मानव- बालक बिना दूसरों की सहायता के जीवित नहीं रह सकता। वह बहुत असहाय हाता है और यह असहाय का काल काफी लम्बा होता है। उसे आवश्यकता होती है माता के प्रेम की, सुरक्षा की एव खान-पान की जिसकी पूर्ति उसके अभिभावक करते हैं। इस प्रकार वह उनके सम्पर्क में आता है और सीख जाता है कि दूसरे व्यक्ति उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति में किस प्रकार सहायता देते हैं और उससे उनकी अपेक्षायें क्या है ?
बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है सीखता जाता है कि उसका कुछ निजी अस्तित्त्व है। उसके अपने सम्बन्ध में धारणा बनने लगती है। उससे कहा जाता है, "अच्छे बच्चे बनो", "अच्छे बच्चे ऐसा व्यवहार करते हैं', अच्छे बच्चे खाना समय पर खाते हैं, इत्यादि। यह सब कथन उसमें दूसरों के प्रति अपने को अच्छा बनाने की प्रेरणा देते हैं और उसका आत्मिक विकास वांछित ढंग से होने लगता है।
बालक के समाजीकरण का तीसरा स्तर उसके नैतिक विकास का स्तर है। इस स्तर पर वह समाज द्वारा मान्य मूल्यों को जान जाता है और उसके अनुरूप अपने व्यवहार को ढालने की चेष्टा करता है। वह सत्य क्या है समझने लगता है और मूल्यों का आत्म आवेष्ठन कर लेता है।
इस स्तर पर व्यक्ति परम्पराओं को अपेन व्यावहारिक जीवन में अपना लेता है। उसके लिए सामाजिक निष्ठाएँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। वह अपने जीवन को उनके अनुरूप बनाने की चेष्टा करने लगता है
सामाजिकता के अन्तिम चरण में व्यक्ति अपने अनुभवों तथा दूसरों के विचारों को ध्यान में रखकर नये सामाजिक प्रतिमानों का निर्माण करता है, किन्तु इस स्तर तक प्रत्येक व्यक्ति नहीं पहुँचता। कुछ ही व्यक्ति इस ओर आकर्षित होते हैं। अधिकतर व्यक्ति परम्पराओं और रूढ़ियों से चिपके रहते हैं। इस कारण ही इस स्तर को अनेक मनोवैज्ञानिक समाजीकरण का स्तर न कहकर सामाजिक परिवर्तन का नाम देते हैं।
हमने ऊपर कहा है कि बालक के समाजीकरण से परिवार का महत्त्व सबसे अधिक होता है। किस प्रकार परिवार समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण है। इस सम्बन्ध में बहुत-से अध्ययन हुए हैं। इन्होंने हमें इस बात का बहुत कुछ ज्ञान दे दिया हैं कि परिवारों में रहकर बालक का समाजीकरण किस प्रकार होता है, किन सिद्धान्तों पर होता है और विभिन्न परिवारों में इस प्रक्रिया के सम्बन्ध में क्या विभेद होते हैं।
कुछ काल पहले किए गए एक अध्ययन का यहाँ हम वर्णन कर सकते हैं। यह अध्ययन कारनेल (Cornell), हार्वर्ड एवं येल (Harvard and Yale) के दलों ने किया था। इसमें छः विभिन्न संस्कृतियों का अध्ययन यह पता लगाने के लिए किया गया कि किन महत्त्वपूर्ण आयामों में छः छोटे समुदाय विभिन्न हैं। जो संस्कृतियाँ चुनी गईं, वे उत्तर भारत (North India), ओकिनावा (Okinawa). मेक्सिको (Mexico), अफ्रीका (Africa), फिलीपाइन्स (Philippines) तथा उत्तरी-पूर्वी अमरीका (North-Eastern U. S. A.) की थी। प्रत्येक समुदाय में बालकों के समूह का अध्ययन किया गया और छोटे बालकों की माताओं के साथ एक लम्बा साक्षात्कार किया गया जिसमें उन्होंने बताया कि किस प्रकार से वह और उनके परिवार के सदस्य बालकों के साथ व्यवहार करते हैं। बहुत कुछ प्रदत्त-सामग्री इस प्रकार उन दबावों के सम्बन्ध में प्राप्त की गई जो बालक पर विभिन्न संस्कृतियों से डाले जाते हैं। फिर इस प्रदत्त सामग्री से सांख्यिकीय (Statistical) विधि कारक विश्लेषण (Factor Analysis) के द्वारा 7 प्रकार के मुख्य अपने में स्वतन्त्र विभेदों को प्राप्त किया गया। यह पाया गया कि जो कुछ भी परिवार दबाव में अन्तर मिले, वह अधिकांश में माताओं के अन्तर के कारण थे न कि संस्कृति में अन्तर के कारण।
जिन सात स्वतन्त्र विभेदों का पता चला वे थे -
(1) उत्तरदायित्व सम्बन्धी माँगें, जो बालक से की जाती हैं, तात्पर्य यह कि कितने और कैसे उत्तरदायित्वों की आशा बालकों से की जाती है.
(2) माताओं के बालकों के प्रति सकारात्मक संवेगात्मक व्यवहार (Emotionally Positive behavior) जैसे प्रशंसा, दण्ड का अभाव एवं प्रेम की गहराई
(3) सह-आयु वालों के ऊपर आक्रामक व्यवहार के ऊपर नियन्त्रण की सीमा, दोनों परिवारों के अन्दर और बाहर;
(4) अभिभावकों के साथ आक्रमण व्यवहार और आज्ञा अवहेलना के ऊपर नियन्त्रण की सीमा,
(5) वह सीमा जिस तक माता बालकों की देखरेख करती है;
(6) वह सीमा जिस तक वह बड़े बालकों की देखरेख करती है;
(7) माता के संवेगात्मक स्थायित्व (Emotional Stability) की मात्रा।
ऊपर की लिस्ट (List) पूर्ण नहीं है, न ही यह पूर्ण हो सकती है जब तक कि और अधिक संस्कृतियों का अध्ययन न किया जाय; किन्तु यह हमें स्पष्ट कर देती है कि समाजीकरण में विभिन्न परिवारों का अभाव भिन्न होता है। माता-पिता के विभिन्न ढंग के व्यवहार के आधार पर विभिन्न बालकों के समाजीकरण में विभेद किया जा सकता है।
इकलौता बालक, दूसरा बालक या छोटा बालक होने का, भाई तथा बहिनों की विभिन्न संख्याओं योगों का क्या प्रभाव एक बालक पर पड़ता है; इसका अध्ययन पिछले बहुत-से दशकों में किया गया है, किन्तु फिर भी इस सम्बन्ध में कोई बहुत विश्वासपूर्ण सामान्य विचार नहीं प्रस्तुत किये जा सकते हैं। हम केवल यही कह सकते हैं कि जो निष्कर्ष प्रस्तुत किये जा रहे हैं वह वर्तमान पाश्चात्य प्रकार के पारिवारिक संगठन के सन्दर्भ में ही उपयुक्त समझे जा सकते हैं।
कोच महोदय (Koch) ने विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत सहोदरों के सामाजिक प्रभाव का अध्ययन बालक की व्यावहारिक प्रवृत्तियों पर किया है। उसने पाया कि वे लड़कियाँ जिनके एक बड़ा भाई होता है कुछ उसकी पुरुषत्व की विशेषताओं को अपना लेती हैं। (वह लड़केनुमा (Tom boy) भाँति की हो जाती हैं) और अधिक प्रौढ़ता केन्द्रित हो जाती है। कोच का कहना है कि ऐसा अपने माता-पिता का अधिक ध्यान अपनी ओर केन्द्रित करने के कारण होता है। वह लड़के भी जिनके बड़ी बहिन होती है वह अपनी बहिनों की स्त्रीत्व की विशेषताओं को अधिक अपना लेते हैं। यह प्रभाव उस समय सबसे अधिक होता है जब कि भाई-बहिनों की आयु में बहुत कम अन्तर होता है।
ब्रिम (Brim) ने पाया कि वह बालक जिनके दूसरे लिंग के भाई-बहिन होते हैं वह अधिक अपने से दूसरे लिंग की विशेषताएँ अपने व्यक्तित्व में प्रदर्शित करते हैं। जैसे भाई बहिनों की और बहिनें भाइयों की विशेषताओं को अपना लेते हैं।
जो बालक की क्रमिक स्थिति परिवार में होती है उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव बालक की सामाजिक भूमिका तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताओं पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, बड़े परिवारों में यह आमतौर से देखा जाता है कि बड़ी बेटी को छोटे भाई-बहिनों के लिए स्थानापन्न माता (Substitute Mother) की भूमिका निबाहनी पड़ती है। सबसे बड़े बालक को अनुशासित करने में पिता अधिक सक्रिय रहता है। शायद इस कारण ही सबसे बड़े बालक में अधिक उत्तरदायित्व का भाव विकसित हो जाता है। परिवार में सबसे छोटे बालक के बिगडने के अवसर अधिक होते हैं क्योंकि इतने सारे व्यक्तियों का ध्यान उसके आराम की ओर लगा रहता है तथा कभी-कभी एक-दूसरे के विपरीत सलाह उसे दी जाती है।
परिवार में दूसरा बालक बहुत मेलजोल वाला होता है और आमतौर से अपने भाई-बहिनों द्वारा पसन्द किया जाता है।
इकलौता बालक सहोदर प्रतिस्पर्धा (Sibling Rivalry) से तो बच जाता है. किन्तु उसे नजदीकी साथियों का अभाव हो जाता है। इस कारण बहुत बार वह दिवास्वप्नों में ही जीने लगता है। कभी वह माता-पिता के अत्यधिक प्रेम के कारण भी दूषित आदतें अपना लेता है।
बालक के जन्म से प्रौढ़ावस्था के विकास तक दो विभिन्न प्रवृत्तियाँ दिखाई पड़ती हैं-एक तो जैविक है और दूसरी, सामाजिक। जैविक वह है जिसमें बालक का शरीर विकसित होता है। आयु के साथ-साथ उनका शरीर बढ़ने लगता है, उसकी माँसपेशियाँ एवं हड्डियाँ मजबूत हो जाती हैं और वह शारीरिक सन्तुलन प्राप्त करता है। इस प्रकार के विकास के महत्त्वपूर्ण तत्त्व है- सन्तुलित भोजन, स्वस्थ वातावरण इत्यादि।
बालक की वृद्धि का दूसरा रूप व्यक्तिगत सामाजिक (Personal-social aspect) है। बालक के व्यक्तित्व का विकास उसके सामाजिक अनुभवों पर होता है, जबकि व्यक्तिगत एवं मस्तिष्क के विकास के लिए शारीरिक आधार (जैसे-शरीर, स्नायुमण्डल इत्यादि) की आवश्यकता है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणों के जो प्रकार विकसित होते हैं, यह मुख्यतः बालक के सीखने पर एवं उस प्रतिक्रिया पर निर्भर रहते हैं जो बालक अपने चारों ओर के व्यक्तियों के साथ करता है। बालक के अनुभव ही सामाजिक प्रतिक्रिया को जन्म देते हैं।
बालक के विकास पर वंशानुक्रम के तत्त्व एवं सामाजिक तत्त्व किस प्रकार प्रभाव डालते हैं, यह समझने के लिए आवश्यक है कि बालक का पालन-पोषण सब व्यक्तियों से अलग करके किया जाये, किन्तु ऐसा होना असम्भव प्रतीत होता है। इसलिए यह कहना कठिन है कि किसका प्रभाव अधिक है और किस सीमा तक। कुछ भेड़ियों द्वारा उठाये हुए बालकों के अध्ययन हमें प्राप्त हैं। यह बालक शैशव में ही उठा लिये गये और भेड़ियों के साथ पले। ऐसे बालकों के साथ यह पाया गया कि उनमें मानव रुचि एवं भावों का सर्वथा अभाव था। दूसरे व्यक्तियों के साथ जब उन्हें रखा गया तो उनमें बहुत कम परिवर्तन आया। इससे यही सिद्ध होता है कि सामाजिक एकाकीपन में पले बालक मानव गुणों में विकसित नहीं हो पाते हैं और यदि अधिक समय तक एकाकीपन में रहते हैं तो उनमें स्थायी दोष घर कर जाते हैं और उनका मानवीकरण अत्यन्त कठिन हो जाता है। अतएव मानव-समाज से दूर रहने में व्यक्ति की मानवीय सम्भावनाएँ दमित ही रह जाती है।
सामाजिक विकास के दो रूप शिक्षा में महत्त्वपूर्ण है। पहले रूप को हम बालक के समाजीकरण का रूप कह सकते हैं। बालक वह सब सीखता है जो उसे करना चाहिए या नहीं करना चाहिए ताकि वह समाज का स्वीकृत सदस्य बन जाये। यह स्वीकृति ही उसके समाजीकरण का मापदण्ड है। बालक सीखने के द्वारा समाज की सदस्यता प्राप्त कर लेता है और समाज की विधियों को अपना लेता है। इस समाजीकरण की प्रक्रिया में अभिभावक, अध्यापक एवं समाज के अन्य सदस्य महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
सामाजिक विकास का दूसरा रूप है, समाज के प्रति वफादारी। बालक के अन्दर यह भावना घर कर जाये कि, वह जिन समाजों का सदस्य है, उनके प्रति वफादार रहना उसका कर्तव्य है। उसे सहयोग से कार्य करना है और समाज के हित के आगे उसे अपने हित को बढ़ावा नहीं देना है।
सामाजिक विकास के दोनों रूप-समाजीकरण एवं सामाजिक वफादारी एक साथ चलने बाली, एक-दूसरे से गुथी-बंधी क्रियाएँ हैं। अब हम यहाँ समाजीकरण का वर्णन स्पष्ट रूप से करेंगे।
समाजीकरण से हमारा तात्पर्य उस क्रिया से है जिसके द्वारा बालक समाज की विधियों सीखते हैं और उन विधियों को अपने व्यक्तित्व का एक अंग बना लेते हैं। एक शिशु धीरे-धीरे परिवर्तित होकर समाज का सदस्य बन जाता है, इस प्रक्रिया को हम समाजीकरण कहते हैं।
समाजीकरण की प्रक्रिया जीवन-पर्यन्त चलती है। जब बालक विद्यालय में लिखना-पढ़ना सीखता है जब एक किशोर मित्रों के साथ खेलना सीखता है, जब एक प्रौढ़ अपने व्यवसाय में प्रगति करना सीखता है एवं जब एक वृद्ध अवकाश ग्रहण करने पर सुन्दर जीवन व्यतीत करना सीखता है, तब उनका समाजीकरण ही हो रहा होता है। जीवन पर्यन्त व्यक्ति विभिन्न सामाजिक समूहों के सम्पर्क में आता है और वह उससे कुछ आशा रखते है। जब वह उन आशाओं की पूर्ति करना सीखता है तब उसका समाजीकरण ही हो रहा होता है।
समाजीकरण के सम्बन्ध में एक बात और याद रखनी है कि यह केवल ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसमें बालक पर प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं, उसके व्यवहार में रुकावटें डाली जाती हैं. वरन् यह एक सक्रिय एवं रचनात्मक प्रक्रिया भी है। यह प्रक्रिया वृद्धि एवं विकास को प्रोत्साहित करती है। यह व्यक्ति को प्रेरणा प्रदान करती है, उनकी इच्छा-शक्ति को जाग्रत करती है और उसे अनेक ढंग से अपने को उत्कृष्ट बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है। अतएव हम कह सकते हैं कि समाजीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति की सम्भावनाओं को उभारती भी है और उनमें से कुछ का दमन भी करती है। यह एक सृजनात्मक तथा साथ ही अवरोधक प्रक्रिया है। भारतीय समाज की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि बालक का समाजीकरण उसी समय प्राप्त हो सकता है जबकि अवरोधक प्रक्रिया समाज के दोषों पर दृढ़ रूप से कार्य करे और नव-समाज के निर्माण के लिए पूर्णरूप से सृजनात्मक तत्त्वों को प्रोत्साहित करे।
बालक के समाजीकरण में बहुत से साधन सहयोग देते हैं। यह औपचारिक (जैसे-विद्यालय की भाँति) हो सकते हैं अथवा अनौपचारिक (जैसे राज्य, समुदाय, धर्म, संचार के साधनः जैसे- रेडियो एवं चित्रपट इत्यादि) हो सकते हैं।
समाजीकरण के प्रशिक्षण में अनेक विधियाँ प्रयोग की जाती है। इनका अब हम वर्णन करेंगे। इनको हम समाजीकरण सीखने के कारण के रूप में भी वर्णन कर सकते हैं।
(i)दण्ड एवं पुरस्कार (Punishment and Reward)- जब एक बालक को दण्ड दिया जाता है जबकि वह दूसरे बालक से लड़ता है, या वस्त्र उतार फेंकता है तो उसका समाजीकरण दण्डाता द्वारा होता है। जब एक बालक को अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कार दिया जाता है, तब उसको सामाजीकरण पुरस्कार के द्वारा होता है। इस प्रकार प्रशंसा एवं आरोप भी बालक को समाजीककरण सिखाने के महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
दण्ड एवं पुरस्कार का रूप बालक की आयु के साथ बदलता रहता है। पुरस्कार के रूप में कभी एक छोटे बालक को चॉकलेट दी जाती है. बड़े को पुस्तक अथवा साइकिल और एक प्रौढ को वेतन में वृद्धि। पुरस्कार सामाजिक स्वीकृति स्पष्ट करते हैं और इस कारण वह समाजीकरण सिखाने में महत्त्वपूर्ण हैं। दण्ड भी अनेक प्रकार से दिया जा सकता है। मारना-पीटना एवं बालक की पसन्द की वस्तु को छीन लेना इत्यादि इसके रूप हैं। हमारे साधारण जीवन में इनका प्रयोग होता ही रहता है और समाजीकरण की प्रक्रिया चलती ही रहती है। भारतीय समाज में दण्ड का प्रयोग जातिवाद को फैलाने में बहुत अधिक हुआ है। अब समय है कि इस कारक का प्रयोग समाज के दोषों से रहित करने वाला हो।
(ii) उपदेशात्मक सिखाना (Didactic Teaching)- बालक को सूचना दी जाती है और उससे कहा जाता है कि 'यह करो', 'वह न करो', इत्यादि, तो उसे उपदेशात्मक रूप से सिखाया जाता है। इस प्रकार के सिखाने में बालक का समाजीकरण हो जाता है। बालक सीख लेता है कि समाज की स्वीकृति के लिए उसे क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए। उपदेशात्मक सिखाना भी बहुत महत्त्वपूर्ण ढंग से भारतीय बालक का समाजीकरण समाज के दोषों से दूर रहने के रूप में कर सकता है।
(iii) अनुकरण (Imitation)- बालक के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं और उससे आशा की जाती है कि वह अनुकरण द्वारा सीखेगा। शिक्षक बोर्ड पर लिखता है और बालक अनुकरण करता है अथवा पिता कोई कार्य करता है और बालक उसका अनुकरण करता है।
अनुकरण चेतन रूप से या अचेतन रूप से किया जा सकता है। जब बालक बिना बताये स्वय ही अनुकरण करके सीखता है, तब अनुकरण अचेतन होता है। जब उससे कहकर अनुकरण कराया जाता है, तब वह चेतन होता है। समाजीकरण में दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। बालक जीवन के प्रारम्भ में ही सीख लेता है कि अनुकरण उसके लिए उपयोगी है और अनुकरण करने से उसका स्थान समाज में बन जाता है, अतएव वह अनुकरण करने की आदत-सी बना लेता है। यह आदत कभी- कभी इतना गम्भीर रूप ले लेती है कि व्यक्ति चिन्तन-शक्ति खो देता है। भारतीय समाज की रीति एवं परम्पराएँ इसी कारण संक्रमण द्वारा होती रहती हैं। उनमें से जो धर्म, जाति, भाषा इत्यादि है, उनका भी संक्रमण हो जाता है और समाज प्रगति के स्थान पर स्थायित्व प्राप्त करता है। भारतीय समाज में इस कारक को समुचित ढंग से प्रयोग करना आवश्यक है।
(iv) तादात्म्य (Identification)- अनुकरण से सम्बन्धित तादात्म्य प्रक्रिया भी समाजीकरण में महत्त्वपूर्ण है। तादात्म्य से तात्पर्य है कि बालक दूसरा व्यक्ति अपने को प्रदर्शित करने की चेष्टा करता है। बालक चेतन या अचेतन रूप से उस व्यक्ति के व्यवहार का अनुकरण करता है जिससे वह अपना तादात्म्य स्थापित करता है। वह उस व्यक्ति का व्यवहार, आदर्श, मनोवृत्ति इत्यादि सबका अनुकरण करता है।
बहुधा तादात्म्य का प्रारम्भ परिवार के सदस्यों से होता है। वह माता-पिता को अपना आदर्श बनाता है। इसके पश्चात् जो भी व्यक्ति उसे आकर्षित करता है वह उसके तादात्म्य के लिए आदर्श बन जाता है। इन व्यक्तियों में अध्यापक, नेता, नायक कोई भी हो सकता है। बालक बहुत कुछ तादात्म्य तथा अनुकरण से ही सीखता है। समाजीकरण में इन दोनों तत्त्वों को महत्त्व देना समाधयक है। तादात्म्य यदि ऐसे व्यक्तियों से समाजीकरण में इन दोनों तत्त्वों कसे दूर हैं, तो समाजीकरण के साथ समाज-सुधार भी सम्भव है।
सामाजिक भूमिका (Social Roles)-सामाजिक सीखने के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति का सामाजीकरण कुछ सामाजिक भूमिकाओं को सीखने के द्वारा हो जाता है।
हैविंघर्स्ट महोदय के अनुसार,
"सामाजिक भूमिका की परिभाषा एक समुचित व्यवहार के प्रतिमान के रूप में दी जा सकती है जो उन सब व्यक्तियों में समान होते हैं जो वह स्थिति समाज में रखते रूप में की जा भूमिका में है और एक ऐसे व्यवहार का प्रतिमान प्रदर्शित करते हैं जिसकते है जिसकी वह सदस्यों द्वारा उनसे आशा होती है।"
प्रतिमान का वर्णन बिना उन विशिष्ट व्यक्तियों की ओर ध्यान दिए हुए किया जा सकता है जो उस स्थिति में होते हैं। उदाहरण के लिए, सब स्त्रियाँ विशिष्ट व्यवहार के प्रतिमान के रूप में व्यवहार करती है, जब वह 'माता' की सामाजिक भूमिका में होती हैं। अतएव सामाजिक भूमिका में कुछ व्यवहार के प्रतिमान निहित होते हैं और जब बालक उनको करना सीख लेता है तो उसका समाजीकरण हो जाता है और वह सामाजिक भूमिका में जिस व्यवहार की आशा की जाती है. उसे करने लगता है।
बालक अनेक सामाजिक भूमिकाएँ निभाना सीख जाता है। पहले वह बालक की भूमिका सीखता है। फिर वह भाई-बहिन इत्यादि जो वह है उस भूमिका को सीख लेता है। इसी तरह से वह मित्र, खेल के साथी, शिष्य इत्यादि की भूमिका सीख लेता है। हम एक व्यक्ति के समाजीकरण को अच्छा उसी समय कहते हैं जब वह सफलतापूर्वक अपनी विभिन्न सामाजिक भूमिकाएँ निभा सकता है। एक व्यक्ति की सामाजिक भूमिकाएँ अनेक होती हैं; जैसे बेटे की, बालक की, मित्र की. भाई की, शिष्य की, पिता की, सहयोगी की, नागरिक की, इत्यादि। प्रत्येक भूमिका में जिस व्यवहार के प्रतिमानों की आशा है, जब वह अच्छे ढंग से किये जाते हैं तब हम कहते हैं कि व्यक्ति का समाजीकरण सफलतापूर्वक हो गया है।
भारतीय समाज के उत्थान एवं प्रगति के लिए बालकों को वे सामाजिक भूमिकाएँ निभाना सीखना आवश्यक है, जिनकी समाज के सुधार के लिए उनसे आशा की जा सकती है।
शिक्षक की भूमिका में शिक्षक से यह आशा की जाती है कि वह उन व्यवहार के प्रतिमानों को प्रदर्शित करेगा, जिनकी आशा समाज, शिक्षक की स्थिति वाले व्यक्तियों से करता है। शिक्षक की भूमिका में शिक्षक का व्यवहार शिष्यों से तथा समाज में महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि शिक्षक शिष्यों में उन व्यवहार के प्रतिमानों को प्रोत्साहित करेगा जो उनका समाजीकरण कर देंगे। इसके अतिरिक्त शिक्षक से समाज यह भी आशा करता है कि वह उनकी परम्पराओं, रीति-रिवाज इत्यादि की नयी पीढ़ी को संक्रमण करने में सहयोग देकर समाज में स्थायित्व लायेगा और यह भी आशा की जाती है कि वह समाज को कुछ अपनी ओर से देकर उसे प्रगति की ओर ले जायेगा। जब वह इन सब आशाओं की पूर्ति अपने व्यवहार के प्रतिमानों द्वारा करेगा तभी यह समझा जायेगा कि वह शिक्षक की भूमिका में सफल है और उसका समाजीकरण हो गया है।
अतएव हम कह सकते हैं कि समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षक का सम्बन्ध दो प्रकार से है-
(1) बालक का समाजीकरण प्राप्त करने के रूप में, तथा
(2) स्वयं शिक्षक का समाजीकरण शिक्षक की भूमिका की सफलता के रूप में।
शिक्षक के दो प्रकार के सम्बन्ध, जिसका ऊपर संकेत किया गया है, एक-दूसरे से विलग नहीं है, वरन् वह अतिवादी है। जब शिक्षक बालक का समाजीकरण प्राप्त करने में सफल होता है तब वह शिक्षक की भूमिका में भी सफल होता है। वह बालक का समाजीकरण भी उसी समय करा सकता है जबकि वह स्वयं समा को समझे तथा उसके संक्रमण में विश्वास रखे। इसके अतिरिक्त, वह समाज के दोषों से अवगत हो और बालक को उनसे बचाये रखने के लिए सक्रिय हो। इस रूप में वह समाज सुधारक की भूमिका भी अपना सकता है। भारतीय समाज में इसी कारण शिक्षक की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है।
बालक का समाजीकरण प्राप्त करने में शिक्षक एक आदर्श प्रस्तुत करता है जिसका अनुकरण बालक करते हैं तथा उससे तादात्म्य स्थापित करते हैं। शिष्यों के प्रति अपनी भूमिका निभाने के लिए शिक्षक तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा करेगा। इसके अतिरिक्त वह बालकों को नेतृत्व प्रदान करेगा। नेतृत्व द्वारा वह उन्हें समाज में अपना स्थान बनाना सिखायेगा। वह उन्हें समाज की विशेषताओं से परिचित करायेगा और सामाजिकता की भावना को प्रोत्साहित करेगा।
शिक्षक बालकों के सामूहिक व्यवहार का भी अध्ययन करेगा। वह भिन्न समूह की रुचियों इत्यादि का पता लगायेगा और उनके अनुसार ही बालकों में अच्छी समाजीकरण की भावनाएँ जाग्रत करेगा। शिक्षक देखेगा कि कौन-सा बालक बहुत अधिक मिलने वाला है और कौन-सा अलग-अलग रहता है। जो बालक समूह से अलग रहने वाला होगा, उसको मनोवैज्ञानिक ढंग से समूह में मिलना सिखायेगा और चेष्टा करेगा कि वह सामाजिक जीवन में दूसरे बालकों की भाँति हीं अपनाए।
सामूहिक जीवन में यदि कुछ दोष होंगे तो इनका अध्ययन भी शिक्षक करेगा और उनको दूर करने की चेष्टा करेगा। वह बालक के समाजीकरण को उसी रूप में लेगा जिसमें वह समाज के लिए उपयोगी है तथा व्यक्ति एवं सामाजिक प्रगति की ओर केन्द्रित है।
अन्त में, हम कह सकते हैं कि बालक का समाजीकरण बहुत कुछ शिक्षक के सीखने पर निर्भर होता है और शिक्षक का सीखना स्वयं उसके समाजीकरण पर निर्भर होता है। अतएव एक शिक्षक जो अपनी भूमिका निभाना जानता है, समाजीकरण के उचित प्रेरकों को अपनाकर अपने शिष्यों का समाजीकरण प्राप्त कर सकता है। एक भारतीय शिक्षक के लिए ये दोनों बातें समझना अत्यन्त आवश्यक है।
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