घर‚ विद्यालय‚ समुदाय और संचार में संबंध (Relationship Between Home School Community & Media)

 प्रस्तावना–

पिछली इकाई में आपने यह जाना कि शिक्षा एक सामाजिक तथा एक वैयक्तिक आवश्यकता होती है, क्योंकि मुख्यतः बच्चा एक सामाजिक व्यक्ति है। शारीरिक, जैविक, संज्ञानात्मक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक इन सभी पक्षों की दृष्टि से उसकी वृद्धि तथा विकास का अनिवार्य रूप से एक सामाजिक संदर्भ होता है। मानव अधिगम एवं शिक्षा का स्वरूप, स्वभाव से ही अन्तःक्रियात्मक होता है। यह अन्तः क्रिया भौतिक जगत् अथवा सामाजिक जगत् किसी से भी हो सकती है।


बच्चे की शिक्षा उसके जन्म के तुरन्त पश्चात् आरंभ हो जाती है जबकि बच्चे में होने वाली वृद्धि मात्र एक जैविक परिपक्वता संबंधी प्रक्रिया है। बच्चे की प्रथम भेंट माँ तथा परिवार के सदस्यों से होती है। इससे बच्चे का बाह्य दुनिया के विषय में सीखना सुगम हो जाता है। इसके अतिरिक्त बच्चे की शिक्षा का अन्य स्रोत अथवा अभिकरण विद्यालय है। विद्यालय में बच्चे की अंतःक्रिया अध्यापकों, समकक्ष बच्चों तथा अन्य व्यक्तियों से होती है जिसका बच्चे के चिंतन तथा व्यवहार पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रभाव होता रहता है। साथ-साथ बच्चे का व्यवहार समुदाय तथा जनसंचार माध्यमों, जैसे टी.वी., रेडियो, सिनेमा आदि से प्रभावित होता रहता है। ये सभी स्रोत, जिनके द्वारा बच्चा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में औपचारिक अथवा अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त करता रहता है, शिक्षा के अभिकरण कहलाते हैं। इन सभी अभिकरणों की सहायता से बच्चा संस्कृति संबंधी लोकाचार (ethos) तथा समाज के मूल्य विकसित करता है। इसके अतिरिक्त इन अभिकरणों के माध्यम से बच्चा अपने आस-पास की दुनिया के बारे में जानकारी या ज्ञान प्राप्त करता रहता है, अपने परिवेश से संबंधित या उस में पाई जाने वाली चीजों के प्रति सकारात्मक, नकारात्मक अथवा तटस्थ अभिवृत्ति विकसित कर लेता है तथा ऐसे कुछ सामाजिक व व्यक्तिगत कौशलों में प्रवीणता प्राप्त कर लेता है जो अपने परिवेश को वश में करने तथा स्वयं निपुणता प्राप्त करने में उसकी सहायता करते हैं। 

विकास की प्रक्रिया पर कोई एक घटक प्रभाव नहीं डालता, कोई एक अभिकरण उत्तरदाई नहीं होता, अपितु अनेक कारक तथा अनेक अभिकरण बालक के विकास में योगदान देते हैं। घर, विद्यालय तथा समुदाय भी ऐसे ही अभिकरण है जिसका उपयोग बालक के विकास में मनोवैज्ञानिक रूप से होना चाहिए।

इस इकाई में आप शिक्षा के विभिन्न अभिकरणों तथा इन अभिकरणों की भूमिका के विषय में अध्ययन करेंगे जिससे यह मालूम हो सकेगा कि किस भांति ये अभिकरण बच्चे को परिवेश के विषय में जानने में उसकी सहायता करते हैं तथा किस भांति बच्चे की वृद्धि तथा उसके विकास को प्रभावित करते हैं।

 


 घर - शिक्षा के एक अभिकरण के रूप में
(Home - As An Agency Of Education)

परिवार, बालक के विकास की प्रथम पाठशाला है। यह बालक में निहित योग्यताओं एवं क्षमताओं का विकास करता है। परिवार का प्रत्येक सदस्य, बालक के विकास में योगदान देता है।

यंग एवं मैक (Young & Mack) के अनुसार- 

"परिवार सबसे पुराना और मौलिक मानव समूह है। पारिवारिक ढांचे का विशिष्ट रूप एक समाज के रूप में समाज में विभिन्न हो सकता है और होता है पर सब जगह परिवार के मुख्य कार्य हैं- बच्चे का पालन करना, उसे समाज की संस्कृति से परिचित कराना, सारांश में उसका समाजीकरण करना।"

परिवार या घर समाज की न्यूनतम समूह इकाई है। इसमें पति-पत्नी, बच्चे तथा अन्य आश्रित व्यक्ति सम्मिलित हैं। इसका मुख्य आधार रक्त संबंध है। 

क्लेयर ने परिवार की परिभाषा देते हुए कहा है- 

"परिवार, संबंधों की वह व्यवस्था है जो माता-पिता तथा संतानों के मध्य पाई जाती है|" 
"By family women a system of relationship existing between parents and children."


मांटेसरी (Montessori) ने बालकों के विकास के लिए परिवार के वातावरण तथा परिस्थिति को महत्वपूर्ण माना है। इसीलिए उन्होंने विद्यालय को बचपन का घर (House of childhood) कहा है। 


रेमंट के अनुसार- 

“घर ही वह स्थान है जहां वे महान गुण उत्पन्न होते हैं जिन की सामान्य विशेषता सहानुभूति है।” 

घर में घनिष्ठ प्रेम की भावनाओं का विकास होता है। यही बालक उदारता-अनुदारता, निस्वार्थ और स्वार्थ, न्याय और अन्याय, सत्य और असत्य, परिश्रम और आलस्य में अंतर सीखता है।” 


बालक के जीवन पर घर का प्रभाव इस प्रकार पड़ता है -

  1. घर बालक की प्रथम पाठशाला है।
  2. वह घर में सभी गुण सीख सकता है। जिसकी पाठशाला में आवश्यकता होती है।
  3. बालकों को घर पर नैतिकता एवं सामाजिकता का प्रशिक्षण मिलता है।
  4. सामाजिक तथा अनुकूलन के गुण विकसित करता है।
  5. सामाजिक व्यवहार अनुकरण करता है। 
  6. सामाजिक,नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करने में घर का योगदान मुख्य है। 
  7. उत्तम आदतों एवं चरित्र के विकास में योग देता है।
  8. बालक की व्यक्तिता का विकास होता है।
  9. बालक की व्यक्तिता का विकास होता है।
  10. प्रेम की शिक्षा मिलती है।
  11. सहयोग,परोपकार,सहिष्णुता,कर्तव्य पालन के गुण विकसित होते हैं।
  12. घर बालक को समाज में व्यवहार करने की शिक्षा देता है।

प्लेटो के अनुसार -

“यदि आप चाहते हैं कि बालक सुंदर वस्तुओं के प्रशंसा और निर्माण करे तो उसके चारों और सुंदर वस्तुएँ प्रस्तुत करें।”


विद्यालय - शिक्षा के एक अभिकरण के रूप में
(School - As An Agency Of Education)



जॉन डीवी(John Dewey) के अनुसार - 

“विद्यालय अपनी चाहारदीवारी के बाहर वृहत समाज का प्रतिबिंब है जिसमें जीवन को व्यतीत कर के सीखा जाता है। यह एक सरल, शुद्ध तथा उत्तम समाज है।”

स्कूल (School) शब्द स्कोला (Schola) से बना है जिसका अर्थ है अवकाश। यूनान में विद्यालयों में पहले खेल-कूद आदि पर बल दिया जाता था। कालांतर में यह विद्यालय विद्यालय के केंद्र बन गए।

टी.एफ.लीच (T.F.Leach) के शब्दों में - 

“वाद विवाद या वार्ता के स्थान, जहां एथेंस के युवक अपने अवकाश के समय को खेल-कूद, व्यवसाय और युद्ध कौशल के प्रशिक्षण में बिताते थे। धीरे धीरे दर्शन और कुछ कलाओं के स्कूलों में बदल गए। एकेडमी के सुंदर उद्यानों में व्यतीत किए जाने वाले अवकाश के माध्यम से विद्यालयों का विकास हुआ।” 


जॉन ड्यूवी -

"विद्यालय ऐसा वातावरण है, जहां जीवन के कुछ गुणों और विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।"


रॉस- 

"विद्यालय वे संस्थाएं हैं जिनको सभ्य मनुष्यों द्वारा इस उद्देश्य से स्थापित किया जाता है कि समाज में सुव्यवस्थित और योग्य सदस्यता के लिए बालकों को तैयारी में सफलता मिले।'


के0 जी0 सैय्दैन-
 
"एक राष्ट्र के विद्यालय जनता की आवश्यकताओं तथा समस्याओं पर आधारित होने चाहिए। विद्यालय का पाठ्यक्रम उनके जीवन का सार देने वाला होना चाहिए। इसको सामुदायिक जीवन की महत्वपूर्ण विशेषताओं को अपने स्वाभाविक वातावरण में प्रतिबिंबित करना चाहिए।"


टि0 पि0 नन- 

"एक राष्ट्र के विद्यालय उसके जीवन के अंग है जिन का विशेष कार्य है उसकी आध्यात्मिक शक्ति को दृढ़ बनाना, उसकी ऐतिहासिकता की निरंतरता को बनाए रखना, उसकी भूतकाल की सफलताओं को सुरक्षित रखना और उसके भविष्य की गारंटी करना।”


इस दृष्टि से विद्यालय बालक के विकास में इस प्रकार योगदान करता है -

  1. बालकों को जीवन की जटिल परिस्थितियों का सामना करने योग्य बनाता है।
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करता है तथा उसे अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करता है। 
  3. विद्यालय, बालकों को घर तथा संसार से जोड़ने का कार्य करते हैं। 
  4. व्यक्तित्व का सामंजस्य पूर्ण विकास करने में विद्यालय का महत्वपूर्ण योगदान है।
  5. विद्यालय में समाज के आदर्शों, विचारधाराओं का प्रचार होता है तथा अशिक्षित नागरिकों के निर्माण में योग देता है।
  6. मनोविज्ञान में बालक के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव लाने की सहायता दी है, इसीलिए विद्यालय, सूचना के बजाय, बालकों को अनुभव प्रदान करते हैं।
  7. आधुनिक विद्यालयों में बालकों का दृष्टिकोण विश्व के संदर्भ में विकसित किया है। 

आज के विद्यालय, बालक के विकास के लिए विशेष वातावरण प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। पवित्र वातावरण में बालक में पवित्र भावनाओं का सृजन होता है। उनके व्यक्तित्व में संतुलन उत्पन्न होता है। आज विद्यालय, सामुदायिक केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं। यह लघु समाज है। 


थॉमसन के अनुसार-
 
"विद्यालय, बालकों का मानसिक, चारित्रिक, सामुदायिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय विकास करता है तथा स्वस्थ रहने का प्रशिक्षण देते हैं।



समुदाय - शिक्षा के एक अभिकरण के रूप में
(Community - As An Agency Of Education)


क्रो एवं क्रो (crow & crow) के शब्दों में-

 "कोई समुदाय व्यर्थ में किसी बात की आशा नहीं कर सकता। यदि वह चाहता है, उसके तरुण व्यक्ति अपने समुदाय की भली-भांति सेवा करे तो उसे उन सब शैक्षिक संसाधन को जुटाना चाहिए जिसकी तरुण व्यक्तियों को व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से आवश्यक है।


मैकावार एवं पेज (Machlver & Page) के शब्दों में- 

“जब कभी छोटे या बड़े समूह के सदस्य इस प्रकार करते हैं कि वे इस अथवा उस विशिष्ट उद्देश्य में भाग नहीं लेते बल के जीवन के समस्त भौतिक दशाओं में भाग लेते हैं, तब हम ऐसे समूह को समुदाय कहते हैं।"

बालक की शिक्षा में समुदाय की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। समुदाय अपने आदर्शों तथा मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति के व्यवहार का निर्माण करता है। 


विलियम इगर के अनुसार-
 
"मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है, इसीलिए उसने वर्षों के अनुभव से यह सीख लिया है कि व्यक्तित्व तथा सामूहिक क्रियाओं का विकास समुदाय द्वारा सर्वोत्तम रूप से किया जा सकता है।"


सामुदायिक बालक के विकास पर इस प्रकार प्रभाव डालते हैं- 

  1. सामाजिक प्रभाव– समुदाय का प्रत्यक्ष प्रभाव बालक के सामाजिक विकास पर पड़ता है यहां उसका सामाजिकरण होता है अधिकार एवं कर्तव्य के ज्ञान के साथ-साथ स्वतंत्रता के अनुशासन की जानकारी भी होती है।
  2. राजनीतिक प्रभाव - सामुदाय, बालक पर राजनीतिक प्रभाव भी डालता है। विद्यालयों में छात्र संघों के माध्यम से राजनीतिक संरचना का अनुभव मिलता है तथा समाज के राजनीतिक वातावरण के लिए तैयार हो जाते हैं। 
  3. आर्थिक प्रभाव - समुदाय की आर्थिक स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव विद्यालयों तथा बालकों पर प्रकट होता है। संपन्न समुदायों में विद्यालय आकर्षक होते हैं और उस में पढ़ने वाले छात्रों को सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है। अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों का स्तर, जिला परिषदों के विद्यालयों से इसी कारण भिन्न होता है।
  4. सांस्कृतिक प्रभाव– प्रत्येक समुदाय की अपने सांस्कृतिक होती है और उसका प्रभाव वहां के विद्यालयों तथा छात्रों पर पड़ना स्वाभाविक है।बोलचाल,व्यवहार, शब्दावली तथा शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
  5. सांप्रदायिक प्रभाव– समुदायों में यदि एक से अधिक संप्रदायों के लोग रहते हैं और उसमें समरसता नहीं है तो ऐसे समाज में विद्यालयों का वातावरण दूषित हो जाता है। 
  6. सार्वभौमिक मांग– समुदाय, विद्यालय तथा शिक्षा की सार्वभौमिक मांग की पूर्ति करते हैं। शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए विद्यालयों की मांग बढ़ रही है और समुदाय उसे पूरा कर रहे हैं।
  7. प्रारंभिक शिक्षा का विकास– सामुदायिक कार्य अपने छोटे छोटे बालकों के लिए समुदाय परिसर में विद्यालय खोलता है। इस प्रकार उनकी प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था करता है।
  8. माध्यमिक शिक्षा का विकास– समुदाय का प्रभाव माध्यमिक शिक्षा पर भी देखा जाता है। देश में माध्यमिक शिक्षा के विकास में समुदायों का योगदान प्रमुख है।
  9. उच्च शिक्षा– भारतीय समुदायों ने उच्च शिक्षा के विकास पर भी बल दिया है। आज उच्च शिक्षा स्थानीय आवश्यकता हो तथा साधनों के अनुसार दी जाती है।



जनसंचार - शिक्षा के एक अभिकरण के रूप में
(Media - As An Agency Of Education)

सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 20 वीं शताब्दी में हुई उन्नति के फलस्वरूप मल्टी मीडिया प्रणालियों के रूप में संचार प्रौद्योगिकी में विस्मयकारी क्रांति आई जो आधुनिक संसार को समझने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है। मल्टी-मीडिया की सहायता से समाजीकरण के नए रूप और नए प्रकार के व्यक्तिगत एवं सामूहिक पहचान बन रही है। सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार तथा नेटवर्क से विभिन्न व्यक्तियों के साथ, चाहे वे देश के अंदर के हों अथवा देश से बाहर के हों संप्रेषण और संवाद बढ़ रहा है। जन संचारण माध्यम के, जिसकी सहायता से विभिन्न व्यक्तियों के साथ अंतःक्रियात्मक संप्रेषण संभव हो पाया है, शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक निहितार्थ देखे जा सकते हैं।

जनसंचार माध्यम (मीडिया) के महत्वपूर्ण कार्य –

शिक्षा के विभिन्न अभिकरणों में से समाजीकरण, उत्संस्करण, तथा सूचना प्रसारण के लिए आज जनसंचार माध्यम संभवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। जनसंचार माध्यम को बच्चों तथा बड़ों दोनों की औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा में उचित स्थान प्राप्त हो चुका है। सभी आयु वर्गो के व्यक्तियों में सार्थक ज्ञान, कौशलों, अभिवृत्तियों तथा मूल्यों के विकास में जन संचार माध्यम में महत्वपूर्ण व बहुत बड़ी संभाव्यताएँ (Potential) छिपी हैं। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चर्तुथांश में सूचना प्रौद्योगिकी ने तीव्र गति से उन्नति की, जिसकी सहायता से अब ज्ञान का विशाल भंडार वांछित व प्रभावी ढंग से संसाधित किया जा सकता है तथा उसका संचारण किया जा सकता है। अधिकांश संप्रेषण / संचारण प्रणालियों ने मानव विश्व के क्षितिज पर नई दिशाएँ खोल दी हैं। मनुष्य के ज्ञान संचयन व्यवहार में इन्होंने एक क्रांति ला दी है। अंतरिक्ष यानों पर लगाए गए कैमरों से चंद्रमा तथा अन्य आकाशीय पिण्डों के निकट से लिए गए चित्र टेलीविजन स्क्रीन पर देखे जा सकते हैं। दुनिया के एक छोर से दूसरे छोर की ओर आ टेलीविजन कार्यक्रम संचारित किए जाते हैं। भारत में SITE (सैटेलाइट इन्फोर्मेशन टेलीविजन एक्सपेरीमैंट) कार्यक्रम बहुत ही सफल रहे हैं जिसके माध्यम से पृथ्वी के किसी भी भाग से मौसम संबंधी या अन्य किसी भी प्रकार की सूचना तुरंत उपलब्ध हो जाती है। इसी प्रकार शैक्षिक प्रसारण कम्प्यूटर नेटवर्क, ई - मेल टेक्नोलॉजी, कम्पाक्ट डिस्क इत्यादि ने मानव के ज्ञान संसाधन विधियों में एक प्रकार की क्रांति ला दी है। ETV (एजुकेशनल टेलीविजन) आज औपचारिक व औपरिकेतर शिक्षा का एक प्रभावी व विश्वस्त साधन बन गया है। 

सूचना प्रौद्योगिकी में हुई तीव्र गति से यह प्रगति व उन्नति विकास के नए आयाम दे सकती है। इससे हमारी पहुँच बहुत से अलग-अलग पड़े क्षेत्रों तक बढ़ जाती है और व्यक्ति वैज्ञानिक शोध के महत्वपूर्ण क्षेत्र में सारी दुनिया से बातचीत कर सकता है। इसकी सहायता से अंतर्राष्ट्रीय डेटा बेस भी व्यक्ति की सरल पहुँच के अंतर्गत आ गया है तथा प्रयोगशालाएँ स्थापित की जा सकती है जिसकी सहायता से विकासशील देशों के लोग अपने ही देशों में वही कार्य कर सकते हैं जो वे विकसित देशों में जा कर किया करते थे। इस प्रकार प्रखर बुद्धिवाले व्यक्तियों का विदेशों में जाना भी रुक जाएगा।

जनसंचार माध्यम के शैक्षिक प्रकार्य - 

भारत जैसे अधिगमोन्मुख समाज (Learning Society) में जिस की 100 करोड़ से भी अधिक विशाल जनसंख्या है, आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित जनसंचार प्रणाली शैक्षिक विकास का एक सक्षम उपकरण है। इसके विभिन्न तथा असंख्य अनुप्रयोग हैं जिनका प्रभाव लगभग समस्त व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन पर पड़ता है। एक अर्थ में, सूचना प्रौद्योगिकी के ये सभी उपयोग अपना प्रभाव मूल रूप से लोगों को शिक्षित करने, उनका ज्ञान वर्धन करने, कौशलों व बोध के विकास, तथा उनकी अभिवृत्तियों में परिवर्तन लाने में दिखाते हैं। आज के युग में जन संचार माध्यम औपचारिक तथा औपचारिकतर प्रणालियों में विशिष्ट शैक्षिक प्रकार्यों को संपन्न करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इन माध्यमों का उपयोग अधिगम के व्यक्तिगत तथा जनसमूह दोनों स्तरों पर किया जा रहा है। सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकियों का उपयोग, विशेषतया औपचारिकतर शिक्षा में (दूर शिक्षा विधि) एक अधिगमोन्मुख समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण वितरण प्रणाली बन गई है। दूर शिक्षा के लिए इसका उपयोग दुनिया के प्रत्येक देश में आशा का मार्ग दिखता है। भारत में इग्नू तथा केन्द्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी संस्थान (CIET) देश भर में दूर शिक्षा कार्यक्रम चला रहे हैं। सामान्यतया दूर शिक्षा में विभिन्न प्रकार की वितरण प्रणालियों जैसे पत्राचार पाठ्यक्रम, रेडियो, टेलीविजन, श्रव्य - दृश्य सामग्री, दूरभाष पाठ तथा टेलीकांफ्रेंसिंग का उपयोग किया जाता है। प्रौढ़ शिक्षा क्षेत्र में जीवन पर्यन्त अधिगम की अवधारणा के अंतर्गत इन नई प्रौद्योगिकियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

अंत में इस बात पर बल देना सार्थक होगा कि इन प्रौद्योगिकियों के विकास का अर्थ पठन सामग्री तथा अध्यापक का प्रतिस्थापन नहीं है। बच्चे की शिक्षा में इनकी अपनी भूमिका होती है। पाठ्य पुस्तकें यद्यपि आज अध्यापन अधिगम के मात्र उपकरण नहीं है, तथापि, इस प्रक्रिया में इनका स्थान केन्द्रीय है। वे सभी माध्यमों में सबसे सस्ते हैं तथा संचालन की दृष्टि से सरलतम, जिनमें अध्यापक अपने पाठ को निर्देशित कर सकता है विद्यार्थी अपने पाठ की पुनरावृत्ति कर सकता है तथा स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार इन प्रौद्योगिकियों का विकास अध्यापक की भूमिका अथवा उसके कार्य को कम नहीं करता, अपितु यह तो उन्हें एक अवसर देता है जिसका वह लाभ उठा सकता है l। यह सत्य है कि आज के युग में अध्यापक ही उस ज्ञान के एक मात्र स्रोत नहीं हैं जो बच्चों तक संचारित किया जा सके। वे तो ज्ञान के सामूहिक भंडार में सांझेदार हैं। इन प्रौद्योगिकियों के विकास से इतना अवश्य है कि अध्यापक की भूमिका की प्रभाविता में बदलाव आया है। उन्होंने अब बच्चों को मात्र पढ़ाना ही नहीं है अपितु यह भी सिखाना है कि ज्ञान, सूचनाओं तथा तथ्यों को किस भांति ढूंढना है प्राप्त करना है, आकलन करना है। अध्यापक की यह दक्षता उसकी साक्षरता का एक और रूप होगी।

अतः इस प्रकार देखते हैं कि घर, विद्यालय, समुदाय तथा संचार बालक के विकास को पृथक पृथक नहीं बल्कि समन्वित रूप से प्रभावित करते हैं।



घर, विद्यालय, समुदाय और संचार में संबंध
(Relationship Between Home, School,  Community & Media)


इस इकाई में विवेचित शिक्षा के विभिन्न अभिकरण बच्चे को पृथक-पृथक रूप से प्रभावित नहीं करते अपितु एक दूसरे के संपूरक के रूप में कार्य करते हैं तथा बच्चे के ज्ञान, कौशलों, बोध या अभिवृत्तियों को समाकलित रूप में प्रबलित करते हैं। बच्चे की शिक्षा के संदर्भ में ये सभी अभिकरण साथ-साथ कार्य करते रहते हैं। बच्चा इन सभी अभिकरणों से अनुभूतियाँ प्राप्त करता है और जब कोई अनुभव एक अभिकरण से प्राप्त होता है तथा दूसरे अभिकरणों द्वारा प्रबलित हो जाता है या इसका शुद्धिकरण होता है तो बच्चा उस अनुभव को आत्मसात कर लेता है। इस प्रकार अधिगम और शिक्षा की प्रक्रिया में समस्त वातावरण , जिसमें घर ,विद्यालय समकक्ष वर्ग, समुदाय तथा संचार माध्यम सम्मिलित होते हैं, बच्चे को प्रभावित करता रहता है। बच्चे का अपने सामाजिक-सांस्कृतिक तथा भौतिक वातावरण से निरंतर अन्योन्य क्रिया चलती रहती है। शिक्षा तथा विकास की इस प्रक्रिया में बच्चे का अनन्य व्यक्तित्व उसकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ अभिवृत्तियाँ, उसका ज्ञान, उसकी आकांक्षाएँ तथा ध्येय, बाह्य बलों के साथ अन्योन्य क्रिया करता है और फलस्वरूप बच्चा अपनी दुनिया की रचना करता है। इस प्रकार बच्चे की शिक्षा में उसका भूत, वर्तमान तथा भविष्य, सभी परस्पर मिल जाते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक बालक अपने आप में विलक्षण या अद्वितीय होता है, इस बात के होते हुए भी कि वह अन्य बच्चों के साथ अथवा अपने समकक्षों के साथ सांझा बाह्य वातावरण बाँटता है। 

इस प्रकार, बच्चे की इन सभी अभिकरणों के साथ पृथक रूप में अन्योन्य क्रिया होती है तथा ये अभिकरण भी परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, अध्यापक से मात्र यही अपेक्षा नहीं होती कि वह ज्ञान का प्रसार प्रचार करेगा जो उसकी निष्क्रिय भूमिका होती है परन्तु वह सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक गतिशीलता का एक सक्रिय अभिकर्त्ता भी होता है। वह नई विचारधारा ,अभिवृत्तियों तथा मूल्यों का व्याख्याकार (समीक्षक) तथा मध्यस्थ होता है। वह एक ऐसा अभिकर्त्ता जो समुदाय तथा परिवार को परंपराओं की गहन निद्रा से जगाने में सहायता करता है और उनका सामाजिक उत्थान तथा राष्ट्रीय विकास में सक्रिय भागीदारी के लिए नेतृत्व करता है परन्तु साथ ही साथ अध्यापक भी बच्चों के साथ घर तथा समुदाय में अपनी सक्रिय अन्योन्य क्रियाओं द्वारा बहुत कुछ सीख जाता है। 

शिक्षा के ये सभी अभिकरण एक सर्वनिष्ठ प्रयोजन में अपनी साझेदारी करते हैं। यह प्रयोजन है बच्चे को एक ऐसे स्वतंत्र, स्वायत्त परन्तु जिम्मेदार व्यक्ति के रूप में विकसित करना जो अपने निर्णय स्वयं ले सके, अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सके, जो दूसरों का ध्यान रख सकें तथा अपने साथियों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हों। अतः आज की भ्रान्तिपूर्ण तथा परिवर्तनशील सामाजिक व्यवस्था में बच्चे को इस भांति शिक्षित करना है कि वह अपनी वैयक्तिक पहचान बना सके। अतः यदि उन्हें आत्मानुभूत व्यक्तियों के रूप में, न कि मात्र बढ़ती सामाजिक मशीनरी में स्व व्यवस्थित व्यक्ति बनना है तो उन्हें वैयक्तिक वरण की अभिव्यक्ति का कार्यक्षेत्र देना होगा।अतः यदि इन अभिकरणों को बच्चे की आत्मानुभूति में सहायक होना है, अर्थात् उसकी गुप्त या प्रच्छन्न शक्तियों और सामाजिकता को यथार्थ बनाना है तो इनका बच्चे के साथ तथा परस्पर भी महत्वपूर्ण व सार्थक संबंध होना अनिवार्य है।


निष्कर्ष -
        समग्र रूप में हम कह सकते हैं कि शिक्षा की समस्त प्रक्रिया में बच्चा केन्द्रक पर बैठा है। जिसकी सहजात क्षमताएँ एक साथ विभिन्न अभिकरणों के साथ अन्योन्य क्रियाएँ कर रही हैं तथा इस प्रकार बच्चे का अनुभव संवर्द्धित हो रहा है। बच्चे के विकास के लिए संभवतः ये अभिकरण उसी भांति कार्य कर रहे हैं जैसे एक बीज के अंकुरित होने तथा क्रमशः एक फूलदार वृक्ष में विकसित होने में भूमि, जल, तापमान, आर्द्रता आदि कार्य करते हैं।

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