लेखन
ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी परिदृश्य में यह आंकड़ा अधिक नजर आता है। यदि पुरुषों और महिलाओं में तुलना की जाए तो द लैंसेट और ICMR के आंकड़ों से हमें ज्ञात होता है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष अकेलेपन के अवसाद से अधिक ग्रसित पाए गए हैं।
हमारा समाज पितृसत्तात्मक होने के साथ-साथ अपनी उन बुराइयों से भी आजाद नहीं हो पाया है जिसमें बेरोजगारी की समस्या को मुख्य रूप से पुरुषों की एक अनिवार्य जिम्मेदारी के रूप में देखा जाता है। कोई युवा अच्छी नौकरी न मिल पाने के कारण अवसाद में है, कोई अपने मनपसंद शहर में काम न मिलने से चिंतित है, तो कई युवा अच्छा जीवन साथी न मिल पाने के कारण समाज को स्वयं से अकेला महसूस करने लगा है। ऐसे में छोटी छोटी स्वास्थ्य समस्याएं अधिक विकराल रूप धारण कर व्यक्ति को अधिक कुंठित बना देती हैं और इसका खामियाजा हमें कुछ लोगों में अपराध के रूप में भी दृष्टिगोचर होता है, जिसमें किसी पर जानलेवा हमला करना ओर लोगों में आत्महत्याओं तक की नौबत भी आ जाती है। NIMHANS के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि 18 से 35 वर्ग आयु के युवाओं में 60% इसी अकेलेपन का सामना करने को मजबूर हैं जिसके चलते बड़े बड़े महानगरों ओर शिक्षण संस्थानों से लेकर कोटा ओर दिल्ली जैसे निजी कोचिंग संस्थानों में भी आत्महत्याओं की दर निरंतर बढ़ रही हैं।
इसी त्रासदी के दौर में सकारात्मक सोचने और लिखने से दिमाग सक्रिय होता है और एक तरह की आनंद भरी एकाग्रता से दिल तक पहुंचने वाली धमनियों में खून का प्रवाह सुचारु रूप से होता है, जिससे हृदय रोगों की समस्या नहीं होती। अनेक परीक्षण, प्रयोग और शोध जैसे अमेरिकी मनोवैज्ञानिक जेम्स पेनेबेकर की "एक्सप्रेसिव राइटिंग" स्टडी से यह सिद्ध हुआ है कि जो अनुभव किया, उसे लिखने में भी हमारी कई इंद्रियां सकारात्मक रूप से सक्रिय होकर कार्य करती हैं, और उसने एक लचीलापन आने लगता है। अल्जाइमर जैसी समस्याओं से छुटकारा मिलता है, मानसिक विकार नहीं पनपते ओर इस हेतु डॉक्टर की आवश्यकता महसूस ही नहीं होती।
भारत में कुछ आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी लेखन चिकित्सा को मान्यता मिली है। आधुनिक समय में भी कई स्कूलों और कॉलेज में जर्नलिंग क्लब शुरू हो रहे हैं, जहां बच्चे अपनी कल्पनाओं को लिखकर मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं को खुद से दूर रख पाने में सफल भी हुए हैं। जीवन के इस सफर में लिखना केवल व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का भी एक माध्यम है। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा सत्य के साथ मेरे प्रयोग लिखकर दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाया,नेल्सन मंडेला ने जेल में रहते हुए डायरी लिखकर अपनी लड़ाई को ओर सशक्त किया। वहीं आधुनिक युवा, जलवायु कार्यकर्ता या सामाजिक न्याय के योद्धा, सोशल मीडिया के माध्यम से अपने विचारों को लिखकर लाखों लोगों को जागृत कर रहे हैं। लिखना हमें जोड़ता है, खुद से,अपनों से समाज से। यह एक पुल है जो अतीत की यादों को वर्तमान की उम्मीदों से और भविष्य की संभावनाओं से जोड़ता है।
"कुछ रास्ता लिख देगा, कुछ मैं लिख दूंगा...
तुम लिखते जाओ मुश्किल,मैं मंजिल लिख दूंगा।
आंखों में समंदर, दिलों में आग लिख दूंगा...
तुम तूफान लेकर आना,मैं चराग रख दूंगा।
मेरे पर काटकर भी तुम्हें कोई फायदा नहीं होगा,
मैं जमीन पर भी बैठा पूरा आसमान लिख दूंगा।
यह शब्द हमें बताते हैं कि लिखना जीवन का सार है। मुश्किलों को मंजिल में बदलना, तूफानों में चिराग जलाना और सीमित पन्नों में अनंत आसमान रच देना।
तो आज से शुरू कीजिए, कलम उठाइए✍ फोन का नोट्स एप खोलिए या पुरानी डायरी निकालिए। स्वास्थ्य, खुशी रचनात्मकता और सामाजिक जुड़ाव आपकी प्रतीक्षा कर रहा है लिखिए और इस सफर को अमर बना दीजिए।
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