आस्था की ज़रूरत है, पर आँखें खुली रखकर
हम इंसान न तो धरती के सबसे ताक़तवर जीव हैं, न सबसे तेज़, न सबसे बलवान। लेकिन हम सबसे अधिक प्रबुद्ध हैं। यह बुद्धिमत्ता हमें इसलिए मिली क्योंकि हमने सवाल करना सीखा, सोचने और समझने की आदत विकसित की। प्रकृति के रहस्यों को जानने की इस जिज्ञासा ने ही हमें बाकी जीवों से अलग किया। इंसान ने पेड़ से उतरकर औज़ार बनाए, आग जलाई, भाषा विकसित की और फिर धीरे-धीरे सभ्यता का निर्माण किया। यही वह यात्रा थी जिसने हमें “होमो सेपियन्स” बनाया, सोचने और समझने वाला जीव।
लेकिन यह सोचने की शक्ति हमेशा एक सी नहीं रही। जब हमारे पूर्वजों ने इस दुनिया को समझने की कोशिश शुरू की, तो उनके पास विज्ञान नहीं था। उन्होंने प्रकृति के रहस्यों को कहानियों और मिथकों के ज़रिए समझाने की कोशिश की। बिजली को उन्होंने देवताओं का कोप कहा, बारिश को ईश्वरीय कृपा, और मौत को दैवी न्याय। इन मान्यताओं ने उस समय इंसान को सुरक्षा और अर्थ दिया। धर्म, संस्कृति और विश्वास उसी दौर की उपज थे ,उस समय के ज्ञान और समझ के अनुसार बने हुए सत्य।
आज समय बदल गया है। हम अब उस युग में हैं जहाँ मानव ने अंतरिक्ष में कदम रखा है, सूक्ष्म कणों तक को समझ लिया है, जीवन की रचना को डीएनए के स्तर पर पहचान लिया है। फिर भी हमारे भीतर कहीं न कहीं वह आदिम प्रवृत्ति बची हुई है। अंधे विश्वास की, बिना सवाल किए मान लेने की। यही अंध-आस्था हमारी सबसे बड़ी बौद्धिक कमजोरी है।
समस्या आस्था से नहीं है। आस्था हमारे भीतर भरोसा जगाती है, जीवन को अर्थ देती है, और कठिन समय में मन को सहारा देती है। पर जब वही आस्था तर्क को दबाने लगे, जब वह साक्ष्य और विवेक की जगह लेने लगे, तो वही आस्था अंध-आस्था बन जाती है। और अंध-आस्था सबसे पहले हमारी तार्किकता को मारती है।
आज हम ऐसे युग में हैं जहाँ विज्ञान हमें बताता है कि ब्रह्मांड अरबों साल पुराना है, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, और जीवन करोड़ों वर्षों के विकास का परिणाम है। लेकिन आज भी दुनिया के कई हिस्सों में लोग मानते हैं कि कोई ईश्वर छह दिन में संसार बना गया, या कि हमारे देवता आसमान में उड़ते थे, हथियार चलाते थे और ब्रह्मांड का संचालन करते थे। यह सब सांस्कृतिक कथाएँ हैं। अपने युग की रचनाएँ। इनमें प्रतीक हैं, अर्थ हैं, शिक्षा है , लेकिन जब इन्हें ऐतिहासिक या वैज्ञानिक “सत्य” बना दिया जाता है, तो समस्या वहीं से शुरू होती है।
मुझे दुख इस बात का होता है कि हम 21वीं सदी में भी इस भ्रम को ढो रहे हैं। विज्ञान और तकनीक की हर देन का उपयोग हम करते हैं मोबाइल फोन, इंटरनेट, हवाई यात्रा, चिकित्सा, लेकिन जिस वैज्ञानिक चेतना से ये सब बने, उसी को नकार देते हैं। यह ठीक वैसा है जैसे कोई समुद्र में तैरते हुए पानी से इंकार कर दे।
धर्म या संस्कृति को छोड़ देने की बात नहीं है। धर्म मानव सभ्यता की आत्मा हैं, उन्होंने हमें अनुशासन, करुणा, परोपकार जैसे मूल्य दिए। पर इनका उद्देश्य यह नहीं था कि हम सवाल करना बंद कर दें। बल्कि, असली अध्यात्म तो प्रश्न करने से ही शुरू होता है “मैं कौन हूँ?”, “सत्य क्या है?”, “मेरा कर्तव्य क्या है?” यही तो वे सवाल हैं जो हमें मानव बनाते हैं। पर अंध-विश्वास इन सवालों को रोक देता है। वह हमें सोचने नहीं देता, क्योंकि सोचने से डर लगता है।
अंध-आस्था हमें भावनात्मक सुरक्षा तो देती है, पर वह हमें मानसिक रूप से गुलाम भी बनाती है। हम किसी पुरानी किताब में लिखे शब्दों को अंतिम सत्य मान लेते हैं, जबकि वही किताबें हमें आत्मबोध और विवेक सिखाने के लिए बनी थीं। आज की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम धर्म को सांस्कृतिक धरोहर की तरह देखें, न कि वैज्ञानिक सत्य की तरह।
यह बात हमें समझनी होगी कि श्रद्धा और तर्क एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। श्रद्धा हमें भीतर से मजबूत करती है, और तर्क हमें बाहर की दुनिया को समझने में सक्षम बनाता है। अगर हम इन दोनों को संतुलित कर लें, तो न केवल अपनी ज़िंदगी को सरल बना सकते हैं बल्कि समाज को भी आगे बढ़ा सकते हैं।
मगर जब कोई समाज अपनी पहचान को धार्मिक कट्टरता से जोड़ लेता है, तब तर्क शत्रु बन जाता है। ऐसे समाज में सवाल पूछना अपराध बन जाता है, और जो व्यक्ति सोचता है उसे ‘अविश्वासी’ या ‘अपवित्र’ कहा जाता है। यह प्रवृत्ति सभ्यता को आगे नहीं ले जाती, बल्कि उसे अतीत के अंधेरे में ठहरा देती है। इतिहास ने यह कई बार दिखाया है । गैलीलियो को इसलिए सज़ा दी गई क्योंकि उसने कहा कि पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूमती है; डार्विन का विरोध इसलिए हुआ क्योंकि उसने बताया कि मानव प्रकृति से विकसित हुआ है, न कि किसी दैवी योजना से। लेकिन आज वही बातें वैज्ञानिक शिक्षा की नींव हैं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि कोई भी धार्मिक कथा “विज्ञान” नहीं है, वे नैतिक और सांस्कृतिक रूपक हैं। उनका उद्देश्य हमें जीवन जीने की कला सिखाना था, न कि ब्रह्मांड के नियम समझाना। अगर हम इन कथाओं को प्रतीकात्मक रूप में समझें, तो वे प्रेरणा बन सकती हैं; लेकिन अगर हम उन्हें भौतिक सत्य मान लें, तो वे भ्रम बन जाती हैं।
आज मानवता को सबसे ज़्यादा जरूरत वैज्ञानिक दृष्टिकोण की है नास्तिकता की नहीं, बल्कि विवेक की। विज्ञान केवल प्रयोगशालाओं की चीज़ नहीं है, यह सोचने का तरीका है। इसका अर्थ है, हर विचार, हर दावा, हर सिद्धांत को साक्ष्य और तर्क की कसौटी पर परखना। यही तरीका हमें सच्चे अर्थों में “मानव” बनाता है।
हमारे लिए सबसे बड़ा प्रश्न यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, बल्कि यह है कि क्या हम अपने भीतर के ईश्वर यानी बुद्धि को जगा पाए हैं या नहीं। अगर हम अपनी सोचने की क्षमता को दबा देंगे, तो चाहे कितनी भी प्रार्थनाएँ कर लें, न तो समाज आगे बढ़ेगा न हम।
समय आ गया है कि हम अपनी आस्था को अंध-आस्था से मुक्त करें। धर्म को जीवन का सहारा बनाएँ, लेकिन निर्णय का आधार नहीं। विज्ञान को उपकरण बनाएँ, लेकिन आत्मा को खोए बिना। यही रास्ता है जिससे हम अपने देश, समाज और दुनिया को सच में प्रबुद्ध बना सकते हैं।
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