वंदे मातरम के 150 वर्ष: एक गीत, एक माँ, और दो भारतों की कहानी
कभी किसी गीत ने सिर्फ़ शब्दों से नहीं, बल्कि अपनी भावना से एक देश की आत्मा को छू लिया। “वंदे मातरम्” ऐसा ही गीत था और शायद आज, जब इस गीत को 150 वर्ष हो गए हैं, यह सवाल पहले से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है कि हम किस *“भारत माता”* की संतान बनना चाहते हैं?
*वह समय जब गीत पैदा हुआ था*
1870 का दशक था। भारत अंग्रेज़ों के शासन के अधीन था। बंगाल अकाल की पीड़ा से कराह रहा था, और भारतीय समाज अपनी पहचान की खोज में था। ऐसे माहौल में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने “वंदे मातरम्” लिखा, एक साधारण देशभक्ति गीत नहीं, बल्कि एक पुकार, एक भावनात्मक उद्घोष।
बंकिम एक प्रशासक थे, पर उनके भीतर एक चिंतनशील साहित्यकार और राष्ट्रप्रेमी भी था। उनके उपन्यास आनंदमठ में पहली बार “भारत माता” का विचार स्पष्ट रूप में सामने आया, एक माँ के रूप में, जो अपनी संतानों से जागने और उसके बंधन तोड़ने की याचना कर रही है। यह छवि हिंदू देवी-पूजा से प्रेरित थी पर यह धर्म का सीमित आग्रह नहीं थी, बल्कि मातृभूमि के प्रति भक्ति का प्रतीक थी।
उन दिनों जब “भारत” का कोई राजनीतिक अस्तित्व नहीं था, बंकिम ने उसे आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप में गढ़ दिया। यह भारत का पहला “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” था, जो तलवार से नहीं, भाव से जन्मा।
*मातृभूमि का चित्र और उसके बदलते अर्थ*
1905 में अबनिंद्रनाथ टैगोर ने जब “भारत माता” की पेंटिंग बनाई, तो बंकिम के साहित्य को रंग मिल गए। चार हाथों में अन्न, वस्त्र, माला और पुस्तक यह एक माँ थी जो शस्त्र नहीं, शांति देती थी। यही वह क्षण था जब भारत माता की छवि ने धार्मिक रंग के बजाय आध्यात्मिक और मानवीय रूप लिया।
यह छवि कांग्रेस के प्रारंभिक दौर में भी लोकप्रिय हुई। आंदोलन में “वंदे मातरम्” नारा बना, और यह गीत वह सेतु बन गया जो बंगाल के नवजागरण से लेकर पूरे भारत की स्वतंत्रता चेतना तक फैला।
लेकिन ध्यान दीजिए, उस समय तक यह “भारत माता” सिर्फ़ हिंदुओं की देवी नहीं, बल्कि एक प्रतीक थी जो हर भारतीय के भीतर बसे प्रेम और त्याग की भावना को अभिव्यक्त करती थी।
*विवेकानंद का योगदान, आत्मबल और सेवा का राष्ट्रवाद*
फिर आए स्वामी विवेकानंद। उन्होंने बंकिम के भावनात्मक राष्ट्रवाद को कर्म और आत्मबल की दिशा दी।
उनका राष्ट्रवाद किसी धर्मग्रंथ से नहीं, बल्कि समाज से निकला, नर सेवा ही नारायण सेवा है।
विवेकानंद ने कहा,
“भारत की आत्मा धर्म है, पर धर्म पूजा नहीं, जीवन की नैतिकता है।”
उन्होंने धर्म को राष्ट्र की आत्मा तो माना, पर उसका अर्थ सर्वधर्म-समभाव में देखा। उन्होंने युवाओं को बताया कि राष्ट्र की सेवा सिर्फ़ मंदिर में दीया जलाने से नहीं, बल्कि स्कूल, खेत और झोपड़ी में श्रम करने से होती है।
उनके राष्ट्रवाद में भारत माता मंदिर की मूर्ति नहीं, बल्कि भूखी जनता का चेहरा थी। यही वह पुल था जिसने बंकिम की देवी-माँ को इंसानियत की धरती पर उतारा।
*गांधी — जब राष्ट्रवाद का मानवीकरण हुआ*
बंकिम की माँ और विवेकानंद की आत्मा, दोनों गांधी में मिलती हैं। गांधी ने “वंदे मातरम्” को सिर्फ़ नारे की तरह नहीं, बल्कि नैतिक शक्ति की तरह देखा।
उन्होंने कहा —
“वंदे मातरम् का अर्थ है, मैं इस भूमि की सेवा करूँ, इस पर अन्याय न करूँ, और इसके हर बच्चे को अपना समझूँ।”
गांधी के राष्ट्रवाद में न कोई “हम” था, न “वे”, सब भारत माता के बेटे-बेटियाँ थे। उनके लिए भारत माता गीता की देवी नहीं, खेत में काम करती औरत थी। मंदिर में नहीं, चरखा चलाने वाले हाथों में थी।
गांधी ने जब सत्याग्रह और अहिंसा को राष्ट्र की आत्मा बनाया, तब उन्होंने “मातृभूमि की आराधना” को “नैतिक जिम्मेदारी” में बदला। यह वही राष्ट्रवाद था जो विविधता से डरता नहीं, बल्कि उसे गले लगाता था।
*एक अलग राह — हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का उदय*
पर इतिहास हमेशा एक दिशा में नहीं चलता। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में एक दूसरी आवाज़ उठी, विनायक दामोदर सावरकर की। उनका ग्रंथ Hindutva: Who is a Hindu? (1923) भारत के राष्ट्रवाद की एक नई व्याख्या था।
सावरकर ने कहा कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है — क्योंकि इसकी संस्कृति, इतिहास और पवित्र भूमि हिंदुओं की है।
उनके लिए हिंदू वह था जिसकी “पितृभूमि” और “पुण्यभूमि” दोनों भारत में हों।
यह परिभाषा भारत को सांस्कृतिक एकरूपता पर टिकाती थी और अनजाने में उन लोगों को किनारे कर देती थी जिनकी आस्था की जड़ें अरब या यरुशलम में थीं।
यह राष्ट्रवाद शक्ति, गौरव और अनुशासन पर आधारित था, पर उसके भीतर विविधता के लिए बहुत कम जगह थी।
जहाँ गांधी का राष्ट्रवाद “सत्य की शक्ति” था, वहीं सावरकर का राष्ट्रवाद “शक्ति का सत्य” बन गया।
*संघ और भारत माता का नया रूप*
1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना की।
संघ का लक्ष्य था — “हिंदू समाज का संगठन।” धीरे-धीरे संघ ने भारत माता की उस छवि को अपनाया जो भगवा ध्वज के साथ खड़ी थी, जिसके चारों ओर अनुशासित स्वयंसेवक थे।
यह मातृभूमि अब आध्यात्मिक या मानवीय प्रतीक नहीं रही, बल्कि एक राजनीतिक और सांस्कृतिक देवी बन गई।
उसके हाथ में अब शस्त्र था, उसके पीछे अब एक विशेष धार्मिक प्रतीक था।
यह छवि गांधी की उस “माँ” से भिन्न थी जो खेतों और चरखों के बीच मुस्कुरा रही थी।
वंदे मातरम् जो गांधी के समय में सबका गीत था, अब कुछ लोगों के लिए पहचान की कसौटी बन गया। जो गाते हैं, वे “सच्चे देशभक्त”, और जो नहीं गाते, उनकी देशभक्ति संदिग्ध। गीत अब जोड़ने की जगह, बाँटने लगा और यही उसकी सबसे बड़ी त्रासदी बनी।
*दो राष्ट्रवाद एक जोड़ने वाला, दूसरा सीमाएँ खींचने वाला*
एक तरफ स्वामी विवेकानंद और गांधी का राष्ट्रवाद था जो विविधता को ताक़त मानता था, और प्रेम को नीति।
दूसरी तरफ सावरकर और संघ का राष्ट्रवाद था, जो एकरूपता को ताक़त और भिन्नता को खतरा मानता था।
गांधी कहते थे, “भारत की आत्मा सभी धर्मों में बसती है।”
सावरकर कहते थे, “भारत की आत्मा हिंदू संस्कृति में बसती है।”
गांधी का भारत नागरिकता से बना था, सावरकर का भारत संस्कृति से।
गांधी का भारत बातचीत से चलता था, सावरकर का अनुशासन से।
और इस फर्क ने भारत की राजनीति, समाज और मन, सब पर गहरा असर छोड़ा।
*आज का सवाल, हम किस दिशा में जा रहे हैं?*
150 साल बाद, जब “वंदे मातरम्” फिर गूंजता है, तो उसका अर्थ अब वैसा नहीं रहा।
अब यह गीत कभी गर्व जगाता है, तो कभी विवाद।
अब भारत माता की छवि पर राजनीति होती है कि उसके हाथ में तिरंगा रहे या भगवा।
पर असली सवाल प्रतीकों का नहीं, अर्थ का है। क्या हम उस राष्ट्रवाद को चुनना चाहते हैं जो सबको एक करता है, या उस राष्ट्रवाद को जो “एकता” के नाम पर विविधता को दबा देता है?
*भविष्य की राह, कौन-सा राष्ट्रवाद भारत को आगे ले जाएगा?*
आज का भारत वैश्विक है, डिजिटल है, विचारों में विविध है। यहाँ 22 भाषाएँ हैं, सैकड़ों जातियाँ और धर्म, और उससे भी ज़्यादा सपने। क्या एक “सांस्कृतिक रूप से एकरूप” राष्ट्रवाद इस विविधता में टिक सकता है?
या फिर हमें वही मार्ग अपनाना होगा जो गांधी और विवेकानंद ने दिखाया, जहाँ एकता का अर्थ एक जैसे होना नहीं, बल्कि एक-दूसरे को स्वीकारना है।
हमारे पास दो रास्ते हैं,
*एक,* जो शक्ति से प्रेरित है और डर से चलता है।
*दूसरा,* जो प्रेम से प्रेरित है और आत्मबल से चलता है।
“वंदे मातरम्” तब भी प्रासंगिक रहेगा, जब हम इसे किसी पर थोपेंगे नहीं, बल्कि उससे जुड़ेंगे।
भारत माता तब सशक्त होगी, जब उसके हर बेटे-बेटी को समान अधिकार, समान सम्मान और समान अवसर मिलेगा चाहे उसका ईश्वर कोई भी हो।
*और अंत में…*
बंकिम ने कहा था —
“माँ, तेरे चरणों में प्रणाम।”
गांधी ने उस प्रणाम को कर्म में बदला,
विवेकानंद ने उसे सेवा में।
पर आज यह प्रणाम तभी सच्चा होगा जब हम याद रखें, माँ किसी एक धर्म की नहीं, सबकी है।
150 साल बाद, यह गीत हमें फिर बुला रहा है।
पूछ रहा है, “तुम किस भारत के बच्चे हो?”
जो प्रेम से जुड़ता है, या जो पहचान से अलग करता है?
वंदे मातरम्,
पर उसी मातरम् को,
जो सबकी है।
जय हिंद
जय भारत
और आज हम नमन करते हैं, उस भारत माता को, जो बंकिम की करुणा में जन्मी, विवेकानंद के आत्मबल में पली, गांधी के करुणा-सत्य में निखरी, और हर उस क्रांतिकारी की धड़कन में धधकी जिसने उसकी स्वतंत्र साँसों के लिए अपना जीवन अर्पित किया।
वह भारत माता, जो किसी एक की नहीं, सबकी है, जिसकी जय में सबके स्वप्न, सबकी आस्था, और सबका भविष्य गूंजता है।
*भारत माता की जय।*

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