चेतना और आत्मा : धर्म और विज्ञान का अनसुलझा रहस्य
एक औरत ऑपरेशन टेबल पर लेटी है। उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और कानों में ऐसी मशीन लगी है जिससे उसे सिर्फ क्लिक-क्लिक की तेज आवाज सुनाई दे। मतलब वो कुछ देख नहीं सकती। कुछ सुन नहीं सकती। उसका दिल नहीं धड़क रहा। मशीनें शांत हैं। ईसीजी की लाइन एकदम सीधी हो गई है और डॉक्टर्स की भाषा में वह क्लीनिकली डेड है। लेकिन अचानक उसे होश आ जाता है। वो डॉक्टरों को इस अनुभव के बारे में बताती है कि उसने उस खास किस्म की आरी के बारे में भी उन्हें बता दिया जिससे डॉक्टर उसकी खोपड़ी को काट रहे थे। उसने कहा कि वह तो एक इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसी दिखती थी। बात बिल्कुल सही थी उसकी। अब सवाल यह है कि जब दिमाग बंद था, आंखें बंद थी, कान उसके बंद थे तो उसने ये सब देखा कैसे?
आज हम विज्ञान की सबसे बड़ी और सबसे मुश्किल खोज की कहानी जानेंगे कि क्या चेतना यानी कॉन्शियसनेस शरीर के बिना भी जिंदा रह सकती है। क्या आत्मा का कोई वजन होता है और क्या होता है जब दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक — भूत, प्रेत और पुनर्जन्म के दावों को अपनी लैब्स में टेस्ट करते हैं।
पुनर्जन्म या रीइकार्नेशन हम सब ने इसकी कहानियां सुनी है। फिल्म्स में देखी है लेकिन कुछ लोग हैं जो इसे सिर्फ कहानी नहीं मानते। वो इसे विज्ञान की तरह देखते हैं। शुरुआत बहुत पहले हो गई थी। सबसे पहले सवाल उठा कि अगर आत्मा है तो शरीर में एग्जैक्टली कहां है? दिल में है, दिमाग में है या फिर खून में है।
इस खोज के सबसे शुरुआती जासूसों में से एक थे, ग्रीक दार्शनिक अरस्तु। आज से करीब 2300 साल पहले अरस्तु को लगता था कि आत्मा एक तरह की हवा या भाप है जिसे वह न्यूमा कहते थे। अरस्तु के अनुसार यह न्यूमा पुरुष के वीर्य यानी सीमेन में होती है। जब यह वीर्य औरत के गर्भ में पहुंचता है तो वहां मौजूद खून से मिलकर जीवन बना देता है। अरस्तु का मानना था कि इंसान के पास तीन आत्माएं होती हैं जो एक के बाद एक आ जाती हैं।
आत्मा को लेकर ऐसे कई विचार अलग-अलग धर्मों और परंपराओं में आपको मिल जाएंगे और सदियों तक यह आध्यात्म या फिलॉसोफी का सब्जेक्ट भी रहा। पश्चिम में लंबे समय तक आत्मा को जीवन का सोर्स माना जाता रहा। इसलिए कई लोगों ने जीवन का सोर्स खोजने की कोशिश की इस उम्मीद में कि इस तरह वो आत्मा तक पहुंच जाएंगे।
आत्मा को लेकर ऐसे कई विचार अलग-अलग धर्मों और परंपराओं में आपको मिल जाएंगे और सदियों तक यह आध्यात्म या फिलॉसोफी का सब्जेक्ट भी रहा। पश्चिम में लंबे समय तक आत्मा को जीवन का सोर्स माना जाता रहा। इसलिए कई लोगों ने जीवन का सोर्स खोजने की कोशिश की इस उम्मीद में कि इस तरह वो आत्मा तक पहुंच जाएंगे।
17वीं सदी में इंग्लैंड में एक डॉक्टर हुए जिनका नाम था विलियम हार्वे। हार्वे वही आदमी थे जिन्होंने पहली बार बताया कि खून हमारे शरीर में नसों के क्लोज सिस्टम में चलता है और यह पता लगाने के लिए उन्होंने लाशों की चीर फाड़ भी की थी। यहां तक कि अपनी बहन की लाश की भी। हार्वे जीवन का सोर्स पता लगाना चाहते थे। लिहाजा उन्होंने ह्यूमन रिप्रोडक्शन को स्टडी किया। उस समय तक रिप्रोडक्शन को लेकर अरस्तु का सिद्धांत ही प्रचलित था । जिसके मुताबिक पुरुष का वीर्य स्त्री के गर्भ में जाकर मेंल ब्लड से मिलकर जमता है और इससे जीवन बनता है। हार्वे इसी बात की पुष्टि करना चाहते थे और इस कोशिश में उन्होंने इंग्लैंड के राजा चार्ल्स प्रथम के हिरणों के झुंड पर एक एक्सपेरिमेंट किया। वह मादा हिरणों को मारकर उनके यूट्रस की चीरफाड़ करते। उन्हें उम्मीद थी कि अरस्तू के सिद्धांत के मुताबिक उन्हें गर्भाशय में जमा हुआ खून का थक्का या कोई पिंड मिलेगा। इसके बजाय उन्हें थैलियों में बंद छोटे-छोटे हिरणों के भ्रूण, एम्ब्रो और फीटीसेस मिले। हार्वे ने गलती से इन थैलियों को ही इंसान का अंडा समझा। वैसे ही जैसे मुर्गी का अंडा होता है। इस एक्सपेरिमेंट से हार्वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जीवन जमे हुए खून से नहीं बल्कि एक अंडे से विकसित होता है। उन्होंने कहा कि जैसे एक वायरस शरीर में घुसकर जुकाम पैदा करता है वैसे ही वीर्य भी एक संक्रमण है जो अंडे में जीवन पैदा करने की जो प्रक्रिया होती है उसे ट्रिगर करता है, शुरू करता है। हार्वे और भी गहरा जाना चाहते थे। लेकिन उनकी सीमा थी कि आंखें बस एक सीमा तक ही देख पाती थी। अंडे और वीर्य के अंदर असल में क्या हो रहा है यह देखने के लिए एक नए टूल की जरूरत थी ।
और यहीं कहानी में एंट्री होती है एक डच अकाउंटेंट की जिसका नाम था एंटनी वॉन ल्यूएनहॉक, इन्हें फादर ऑफ माइक्रोबायोलॉजी के नाम से भी जाना जाता है। अब दिलचस्प बात यह है कि एंटनी कोई साइंटिस्ट नहीं थे। एक कपड़े की दुकान पर हिसाब किताब रखने वाला मुंशी था। एक ही उसका शौक था लेकिन लेंसेस घिसना। लेंस घिसने के इस शौक ने एक नई दुनिया के दरवाजे खोले। माइक्रो ऑर्गेनिज्म्स की दुनिया। लेंस घिसकर एंटिनी ने बढ़िया माइक्रोस्कोप बनाए और फिर एक दिन पानी की बूंद को उसने अपने माइक्रोस्कोप के नीचे रख दिया। उसने देखा कि उस एक बूंद में हजारों छोटे-छोटे जीव तैर रहे थे जिन्हें उसने एनिमल क्यूस नाम दिया। एनिमल क्यूंस। उसने अपने दांतों की मैल खुरच कर देखी। उसमें भी हजारों जीव मिले। ल्यूएनहॉक ने लिखा कि हमारे पूरे देश में इतने लोग नहीं हैं जितने जिंदा जानवर मैं अपने मुंह में लेकर घूमता हूं। माइक्रोब्स के बारे में पता करने के बाद एक रोज कौतूहलवश एंटिनी ने अपने ही वीर्य को माइक्रोस्कोप से देख लिया। वहां भी लाखों करोड़ों पूंछ वाले एनिमल क्यूल्स दिख रहे थे जो तैर रहे थे। उसे लगा कि यही है जीवन का राज। उसे लगा कि यह एनिमल क्यूल्स ही जीवन का सोर्स हैं और बाद में इन्हें नाम दिया स्पर्म। एंटनी का मानना था कि हर स्पर्म के अंदर एक बहुत छोटा पूरा का पूरा इंसान पहले से मौजूद होता है। एक नन्हे मुसाफिर की तरह जो बस औरत के गर्भ में जाकर बड़ा हो जाता है। इस थ्योरी ने एक नई बहस छेड़ दी।
जीवन स्पर्म से शुरू होता है कि अंडे से शुरू होता है?
कहां से शुरू होता है?
आत्मा कहां रहती है?
आत्मा कहां रहती है?
इसका जवाब दिया एक और दार्शनिक ने।
अस्तित्व शुरू होता है सोचने से।
I think, therefore I am
Cogito, ergo sum
मैं सोचता हूं इसलिए हूं
Cogito, ergo sum
मैं सोचता हूं इसलिए हूं
यह बात कहकर फिलॉसफर रेने डेसकार्टेस दुनिया भर में तहलका मचाया। लेकिन डेसकार्टेस सिर्फ कलम के सिपाही नहीं थे। मैथमेटिशियन भी थे। एक और उनका शौक था। वो कसाइयों के दुकान से जानवरों के ताजे कटे हुए सिर खरीद कर लाते थे और उन्हें चीर कर देखते थे। काफी खोजबीन के बाद उन्होंने ऐलान किया कि आत्मा दिमाग के ठीक बीच में एक मटर के दाने जितनी पीनियल ग्लैंड में रहती है। इस तरह के अलग-अलग दावे हैं।
कुछ यहूदी ग्रंथों ने कहा कि आत्मा एक हड्डी में बसती है। एक खास हड्डी जिसे लज़ कहा गया। यह हड्डी इनस्ट्रक्टेबल है। इसे ना आग जला सकती है, ना हथौड़ा तोड़ सकता है और मरने के बाद इंसान इसी हड्डी से दोबारा बना लिया जा सकता है। मान्यता है। कई वैज्ञानिकों ने इस हड्डी को ढूंढने की कोशिश की। किसी ने कहा, यह रीढ़ की हड्डी के आखिर में है तो किसी ने कहा कि यह पैर के अंगूठे में है। लेकिन ऐसी कोई हड्डी कभी नहीं मिली। तो सदियों की चीरफाड़ और माइक्रोस्कोप से झांकने के बाद भी आत्मा हाथ नहीं आई। तब वैज्ञानिकों ने सोचा कि शायद आत्मा को देखा नहीं जा सकता। जैसे हवा को देखा नहीं जा सकता। लेकिन हवा से एक आईडिया मिला कि हवा को तो तोल सकते हैं। तो क्या आत्मा का भी वजन मालूम किया जा सकता है?
20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका में एक डॉक्टर हुए जिनका नाम था डंकन मैकडूगल। मैकडूगल एक सम्मानित एक रेप्यूटेड फिजिशियन थे। उनके दिमाग में बड़ा सिंपल सा आईडिया आया कि अगर आत्मा सच में कोई चीज है और अगर वो कोई जगह घेरती है तो उसका कुछ वजन भी तो होगा तो क्यों ना एक इंसान को उसकी मौत से ठीक पल में तौल लिया जाए एंड उसी पल में और इसके लिए उन्होंने चुना मैसचिट्स का एक चैरिटेबल हॉस्पिटल। यहां टीबी के आखिरी स्टेज वाले मरीजों को रखते थे। मैकडूगल के लिए यह मरीज परफेक्ट थे क्योंकि वह बहुत कमजोर थे हल्के-फुल्के थे और उनकी मौत अक्सर बहुत शांति से होती थी बिना ज्यादा हीले डुले। मैकडूगल ने अस्पताल के एक कमरे में रेशम तौलने वाला एक बहुत बड़ा और सेंसिटिव तराजू लगवाया। रेशम भी तौलने मतलब छोटे से छोटी वो चीज पकड़ेगा जो अंतर आएगा वजन में। इस सेंसिटिव तराजू पर एक बिस्तर फिट किया। 10 अप्रैल 1901 वो दिन था जब पहला मरीज बिस्तर पर था। डॉक्टर मैकडूगल और उनकी टीम इंतजार कर रही थी। वह मरीज को बचाने की कोशिश नहीं कर रहे थे। मौत का इंतजार कर रहे थे। उनकी नजरें मरीज पर नहीं तराजू के कांटे पर थी। 3 घंटे और 40 मिनट बीते और फिर वह पल आया। मरीज ने आखिरी सांस ली और ठीक उसी पल अचानक तराजू का कांटा झटके से नीचे गिरा। टक की आवाज आई। वजन कम हुआ था वाकई और कितना? 3/4 अंश यानी करीब 21 ग्राम। यह 21 ग्राम वाली खबर आग की तरह फैली कि क्या मैकडूगल ने आत्मा का वजन खोज लिया था? लेकिन कहानी में ट्विस्ट बाकी था। मैकडूगल ने यह एक्सपेरिमेंट पांच और मरीजों पर दोहराया और नतीजे गड़बड़ाए। दूसरे मरीज की सांस रुकने के 15 मिनट बाद तक तराजू हिला ही नहीं। तीसरे मरीज का वजन दो हिस्सों में कम हुआ। आधा मौत के वक्त और बाकी 1 मिनट बाद। बाकी दो मरीजों का डाटा इतना खराब था उसे गिना नहीं गया। यानी वह एक्यूरेट रहा ही नहीं। यह वैज्ञानिक एक्सपेरिमेंट कम और तुक्का ज्यादा लग रहा था और फिर मैकडूगल ने कुत्तों पर एक्सपेरिमेंट करने का फैसला किया। उन्होंने 15 कुत्तों को अपनी लैब में तराजू पर ही मारा। नतीजा क्या हुआ? कुत्तों का वजन एक भी ग्राम कम नहीं हुआ। मैकडूगल ने कहा कि धर्म ग्रंथों के हिसाब से जानवर में तो आत्मा ही नहीं होती। तो प्रॉब्लम एक्सपेरिमेंट में नहीं कुत्तों में थी। आत्मा का वजन तौलने की इसके बाद और भी कई कोशिशें आपको मिल जाएंगी।
कैलिफोर्निया में एक हाई स्कूल फिजिक्स टीचर थे एच लावी ट्विनिंग। उन्होंने चूहों की आत्मा तौलने का बीड़ा उठाया। एक दो नहीं पूरे 30 चूहे थे। उन्होंने चूहों को टेस्ट ट्यूब में दम घोट कर मारा। साइनाइड गैस से, पानी में डुबोकर मारा। नतीजा वही रहा। लेकिन अगर चूहा एक बंद डिब्बे में है तो मरते वक्त उसके वजन में कोई कमी नहीं आती।
साल 2000 में एक और शख्स ने एक्सपेरिमेंट किया। लुई हॉलैंड भेड़ों का फार्म चलाते थे। उन्होंने अपनी लैब में एक बहुत ही सेंसिटिव इलेक्ट्रॉनिक तराजू लगाया और उस पर भेड़ों को लिटाकर आखिरी इंजेक्शन दे दिया। अब इनका नतीजा बिल्कुल नायाब था। मरते वक्त भेड़ों का वजन कम नहीं हुआ बल्कि कुछ सेकंड के लिए बढ़ गया। एक भेड़ का वजन तो करीब 1 किलो तक बढ़ा और फिर नॉर्मल हो गया। यही कोशिश जब मेमनों और बकरियों पर हुई तो कोई बदलाव नहीं हुआ। तो अब आत्मा के वजन को लेकर तीन जवाब थे।
इंसान की आत्मा 21 ग्राम की होती है लगभग।
चूहों में आत्मा होती ही नहीं, कुत्तों में भी नहीं होती
और भेड़ की आत्मा शायद बहुत भारी होती है और वह भी सिर्फ कुछ सेकंड्स के लिए।
एक ही सवाल के तीन अलग-अलग जवाब मतलब साफ था आत्मा को तोलना सही तरीका नहीं था।
जब वैज्ञानिकों को आत्मा शरीर के अंदर नहीं मिली तो कुछ ने एक अलग रास्ता चुना। उन्होंने कहा कि आत्मा को लैब में मत खोजो। उन लोगों की कहानियां सुनो जिन्होंने अपना पिछला जन्म अब तक याद रखा है। यह सुनने में भले अजीब लगे लेकिन दुनिया की कुछ सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटीज में इस पर गंभीर रिसर्च हुई है।
इस फील्ड के सबसे बड़े इन्वेस्टिगेटर माने जाते हैं डॉक्टर इयान स्टीवनसन। वो जीनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जिन्होंने अपनी जिंदगी के 30 साल ऐसे केसों की पड़ताल में लगाए। स्टीवनसन की रिसर्च से एक पैटर्न सामने आ गया। ज्यादातर केसेस में बच्चे दो से 4 साल की उम्र में अपने पिछले जन्मों की बातें करना शुरू करते हैं और 5 साल के होते-होते भूलने भी लगते हैं। अक्सर उनके पिछले जन्म की मौत किसी दुर्घटना या हिंसा में या अचानक हुई होती है और ज्यादातर बच्चे किसी राजा महाराजा की नहीं बल्कि एक आम साधारण इंसान की साधारण जिंदगी को ही याद करते हैं। स्टीवनसन के सैकड़ों केसेस में से एक को वो अपना सबसे मजबूत केस मानते थे।
यह कहानी लेबनान के एक लड़के की थी। इमाद इलावत। इमाद जब छोटा था तो अपने पिछले जन्म की बातें करता था। कहता था कि वह पास के गांव खिरबी में रहता था और उसकी मौत एक ट्रक एक्सीडेंट में हो गई थी ट्रक से कुचल कर। इस केस में खास बात यह थी कि डॉ. स्टीवनसन ने इमाद के परिवार के साथ खिरबी जाने से पहले ही उसके सारे दावे एक कागज पर लिख लिए थे। एक तरह से सबूतों को लॉक करने जैसा था। जब स्टीवनसन गांव पहुंचे तो कहानी में कुछ पेच भी मिले। इमाद जिन नामों की बात कर रहा था, वह किसी और से जुड़े थे और मौत का तरीका भी थोड़ा अलग था। इसके बावजूद कई डिटेल्स इतनी सटीक थी कि उन्हें नजरअंदाज करना बहुत मुश्किल था। ऐसे और केस भी हैं दुनिया भर में।
भारत में शांति देवी का केस बड़ा फेमस है जिसकी पड़ताल में खुद महात्मा गांधी ने इंटरेस्ट लिया। जांच के लिए कमीशन बनाया।
पुनर्जन्म की ऐसी खूब कहानियां मिलती हैं। लेकिन क्या वो सच हैं? कहना मुश्किल है क्योंकि पक्का तय करने का कोई तरीका ही नहीं है। यह कहने का भी नहीं कि वह सही है और यह कहने का भी नहीं कि वो गलत है। एक और बात जो स्टीवनसन ने अपनी रिसर्च में पाई वो ये थी कि ये दावे लगभग हमेशा उन्हीं देशों और संस्कृतियों में सामने आए जहां के लोग पहले से ही पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। जैसे भारत के हिंदू या लेबनान के ड्रूस। अमेरिका या यूरोप में ऐसे केसेस लगभग न के बराबर हैं। तो सवाल उठता है कि क्या यह सच में पुनर्जन्म की यादें हैं? या फिर उस समाज और संस्कृति के चलते ऐसा हो जाता है।
इस पहेली का एक दिलचस्प पहलू और है जन्म के निशान। डॉक्टर स्टीवनसन ने अपनी किताब रीइकारनेशन एंड बायोलॉजी में ऐसे कई केसेस का जिक्र किया जहां बच्चों के शरीर पर कुछ जन्म जात निशान या कोई कमी थी और ये निशान ठीक उसी जगह पर थे जहां उनके पिछले जन्म वाले शरीर पर कोई जानलेवा घाव लगा था। थ्योरी के हिसाब से। जैसे किसी को गोली लगी हुई तो बच्चे के शरीर पर उसी जगह तिल जैसा निशान मिलेगा। एक केस में एक हिंदू लड़के ने दावा किया कि वह पिछले जन्म में मुसलमान था। हैरानी की बात यह थी कि वह लड़का बिना फोर्स स्किन के पैदा हुआ था। ठीक वैसे ही जैसे खतने के बाद होता है। पुनर्जन्म से इतर आत्मा की खोज के और भी प्रयास हुए और इस चक्कर में कई बार स्कैम भी हुए।
20वीं सदी की शुरुआत यूरोप और अमेरिका में स्पिरिचुअलिज्म नाम का एक आंदोलन जोर पकड़ने लगता है। इस आंदोलन में कुछ खास लोग होते थे जिन्हें मीडियम कहा जाता था। दावा था कि ये लोग मरे हुए लोगों की आत्माओं से बात कर सकते हैं और सिर्फ बात ही नहीं कुछ मीडियम्स तो आत्मा को दुनिया में बुलाने का दावा भी करते थे। एक रहस्यमई पदार्थ ये लोग इस्तेमाल करते थे जिसका नाम था एक्टोप्लाज्म। यह एक अजीब चिपचिपा सफेद सा पदार्थ था जो मीडियम के शरीर से अक्सर उसके नाक, कान या मुंह से निकलता था। कभी धुएं जैसा, कभी जालीदार कपड़े जैसा और कभी-कभी तो इसके हाथ और चेहरे भी बन जाते थे। इस फिनोमिना की जांच के लिए दुनिया के बड़े-बड़े दिमाग मैदान में उतरे।
कहानी है बॉस्टन की एक मशहूर मीडियम माजरी क्रैंडन की। माजरी के पति हावर्ड से पढ़े हुए एक बड़े सर्जन थे। उसकी शक्तियों की जांच के लिए साइंटिफिक अमेरिकन मैगजीन ने एक कमेटी बनाई। इस कमेटी में हावर्ड और एमआईटी के प्रोफेसर थे और साथ में था दुनिया का सबसे बड़ा जादूगर हैरी हुडीनी। अंधेरे कमरे में मर्जरी का शो शुरू होता है और उसके शरीर से एक्टोप्लाज्म निकलने लगता है। कमेटी के कुछ मेंबर हैरान उन्हें लगा कि सच है भाई लेकिन हुडीनी को दाल में कुछ काला लगा। एक दिन जांच करने वाले वैज्ञानिकों ने उस एक्टोप्लाज्म का एक सैंपल लिया और उसे जांच के लिए हावर्ड की लैब में भेजा। रिपोर्ट सामने आई तो पता चला कि मामला फ्रॉड का था। हावर्ड के बायोलॉजिस्ट ने बताया कि वह एक जानवर के फेफड़े का टुकड़ा था।
अब यह कोई इकलौता केस नहीं था। स्कॉटलैंड की एक और मीडियम थी हेलेन डंकन। वह भी ऐसे करतब करती थी। लेकिन जांच के बाद पता चला कि वह एक कपड़े को निगल कर वापस निकालने में माहिर थी और उसे वह एक्टोप्लाज्म बताकर लोगों को दिखा देती थी और भारत का तो आप जानते ही हैं आत्म बुलाने के कितने दावे हैं। लेकिन फिलहाल का पैटर्न हम आपको इतनी बात कह के समझा दे रहे हैं। यूं भी इस मामले में आस्थाएं बहुत ही नाजुक हैं।
अपन चलते हैं उस जगह जहां भरोसे से ज्यादा कठोर तर्क और सबूत चलते हैं। यानी अदालत।
यह कहानी है 1925 की। अमेरिका के नॉर्थ कैरोलना राज्य का एक छोटा सा कस्बा है मॉक्सवेल। यहां एक किसान रहता था जेम्स पिंकनी चैफिल। एकदम सीधा-साधा आदमी था। अपनी मेहनत से खाना कमाने वाला। उस सपनों और भूत-प्रेत की कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। 1921 में जेम्स के पिता की मौत हुई, और उन्होंने अपनी वसीयत में सारी जमीन अपने चार में से सिर्फ एक बेटे मार्शल के नाम की। बाकी तीन बेटों को कुछ मिला नहीं। अब यह थी तो नाइंसाफी लेकिन तीनों भाई चुप रहे। उन्होंने कानून का दरवाजा नहीं खटखटाया।
4 साल बीते। एक सुबह जेम्स पिंकनी ने अपनी पत्नी को बताया कि उसके मरे हुए पिता उसके सपने में आए। सपने में पिता ने अपना पुराना काला ओवरकोट पहना हुआ था और उसकी जेब की तरफ इशारा वो कर रहे थे। पिता ने अपने सपने में कहा, "मेरी वसीयत मेरे ओवरकोट की जेब में देख लो।" जेम्स अपने बड़े भाई के घर गया। वहां अटारी में वह पुराना ओवरकोट रखा मिल गया। उसने ओवरकोट के अंदर वाली जेब टटोली तो वह सिली हुई थी। जेम्स ने सिलाई काटी। अंदर वसीयत नहीं थी। एक कागज की छोटी सी पुड़िया जरूर थी लेकिन और उस पर लिखा था मेरे पिता की पुरानी बाइबल में उत्पत्ति यानी जेनेसिस का 27वां चैप्टर पढ़ो। क्या था इस चैप्टर में? बाइबल का 27वां चैप्टर दो भाइयों की कहानी है जिसमें एक भाई धोखे से दूसरे भाई का हक छीन लेता है। जेम्स अपने पड़ोसियों को गवाह बनाकर अपनी मां के घर गया। पुरानी बाइबल निकाली गई और जब उत्पत्ति का 27वां चैप्टर खोला गया तो उसके पन्नों के बीच एक और कागज मिला। यह एक दूसरी वसीयत थी। 1919 की जिसमें लिखा था कि जमीन चार बेटों में बराबर बटेगी।
मामला अदालत पहुंचा। पेशी के दौरान मार्शल की विधवा पत्नी सूजी समेत 10 गवाहों ने माना कि नई वसीयत पर हैंडराइटिंग सच में जेम्स के पिता की ही थी। जूरी को सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी। फैसला जेम्स पिंकनी के हक में सुनाया गया और एक भूत की गवाही ने केस पलट दिया। तो क्या यह वाकई एक भूत का कमाल था? या कहानी में कोई और झोल था। सालों बाद इस केस की फिर से पड़ताल हुई। दोनों वसीयतों को जांच के लिए हैंडराइटिंग एक्सपर्ट्स को दिया गया। एक्सपर्ट्स ने पाया कि पुरानी वसीयत जो 1905 में बनी उस पर पिता के दस्तखत कांपते हुए और अनाड़ी तरीके से किए गए थे। लेकिन भूत वाली नई वसीयत जो 1919 में मिली उस पर दस्तखत ज्यादा साफ सदे हुए और बेहतर थे। जबकि उम्र के साथ हैंडराइटिंग बेहतर नहीं खराब होती है। मतलब जिस नई वसीयत का पता भूत ने बताया था वो शायद नकली थी। किसी और ने लिखी थी।
तो आत्मा ना तो शरीर की चीर फाड़ में मिली, ना तराजू में तुली, ना पुनर्जन्म के किस्सों में पक्का सबूत मिला, ना अदालत में साबित हो पाई। विज्ञान लगभग हार मानने वाला था। लेकिन एक जगह है जो आज भी रिसर्च का एक्टिव फील्ड है। वो जगह जहां इंसान मौत के दरवाजे से लौट कर वापस आता है। इसे कहते हैं नियर डेथ एक्सपीरियंस। ये उन लोगों के अनुभव है जो कुछ देर के लिए क्लीनिकली डेथ डिक्लेअर किए गए। अक्सर हार्ट अटैक या किसी एक्सीडेंट के बाद ऐसा होता है और जब वो वापस आए तो उन्होंने बताया कि वह बेहोश नहीं थे बल्कि उन्होंने सब कुछ देखा। कई लोग ऐसी बातें बताते हैं। जैसे वो अपने शरीर से बाहर निकलकर हवा में तैर रहे थे और नीचे डॉक्टर्स को अपने ही शरीर पर काम करते देख रहे थे। कुछ ने बताया कि वह एक अंधेरी सुरंग से गुजरे जिसके आखिर में बहुत तेज रोशनी थी। कुछ ने अपने मरे हुए रिश्तेदारों से मिलने का दावा किया। यह सब सुनने में फिल्मी लगता है। शायद दिमाग का धोखा भी हो सकता है। ऑक्सीजन की कमी से या दवाओं के असर से होने वाला हैलुसिनेशन भी हो सकता है।
यही सोचकर दुनिया के कुछ बड़े डॉक्टर्स ने इसकी वैज्ञानिक पड़ताल शुरू की। इनमें से एक डॉक्टर थे ब्रूस ग्रेसन। यूनिवर्सिटी ऑफ़ वर्जनिया के प्रोफेसर और दूसरे थे इनके साथ जो रिसर्च पे थे डॉ. पिम वैन लोमल। नीदरलैंड्स के एक जानेमाने कार्डियोलॉजिस्ट। इनकी रिसर्च में एक बात निकल कर सामने आई कि जब किसी का दिल रुकता है तो कुछ ही सेकंड्स में दिमाग काम करना बंद कर देता है। मेडिकलली दिमाग पूरी तरह से ऑफलाइन हो जाता है। लेकिन कई केसेस में लोगों ने ऐसी चीजें देखने का दावा किया जो उनके लिए जानना नामुमकिन था। कई मामलों में जिन मरीजों को नियर डेथ एक्सपीरियंस हुआ, वह बेहोशी के दौरान की घटनाओं को एकदम सही-सही बयान कर सकते थे बिना किसी गलती के। जबकि जिन मरीजों को नियर डेथ एक्सपीरियंस नहीं हुआ, वह आम बेहोशी से जागे और उनसे जब अंदाजा लगाने को कहा गया, तो उन्होंने गलतियां की। 1970 के दशक से अमेरिका का एक फेमस केस है जिसके बारे में आपको बताते हैं।
एक सोशल वर्कर थी कि क्लार्क। उनकी मुलाकात मारिया नाम के एक मरीज से हुई। मारिया को हार्ट अटैक आया था और उसने अपने नियर डेथ एक्सपीरियंस में देखा कि वह अस्पताल की बिल्डिंग से बाहर निकल गई और उसने तीसरी मंजिल की एक खिड़की के छज्जे पर एक टेनिस शो पड़ा दे। किंबबली को यकीन नहीं हुआ। पर फिर भी वो उस खिड़की तक गई और छज्जे पर सच में वो जूता पड़ा था। ठीक वैसा ही जैसा मारिया ने बताया था।
और याद कीजिए उस औरत को जिसकी कहानी से हमने यह लेख शुरू किया था। उसका नाम था पम रनल्स। ऑपरेशन के दौरान उसका दिमाग पूरी तरह से बंद था। आंखें बंद, कान बंद। फिर भी उसने बोन सॉ को एकदम सही डिस्क्राइब किया था। उसने कहा कि वो इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसी दिखती थी और उसका बॉक्स सॉकेट रिंच के केस जैसा था। अब यह बातें एकदम सच थी।
तो क्या यह है आत्मा का सबसे बड़ा सबूत?
वह आखिरी दरवाजा है क्या यह जिसके पास विज्ञान झांक नहीं पा रहा?
हम नहीं कह सकते। पुनर्जन्म के दावों से लेकर अमेरिका की अदालतों में भूत की गवाही तक, भेड़ के फेफड़ों से लेकर 21 ग्राम के वजन तक और बंद दिमाग से देखे गए जूतों तक विज्ञान ने आत्मा की मौजूदगी का सबूत ढूंढने में कोई कसर छोड़ी नहीं। कहानियां कई हैं लेकिन हर दिलचस्प किस्से के पीछे एक लेकिन छिपा है। हर सबूत पर एक सवालिया निशान भी है। पक्का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है।
हर बार कोई न कोई सवाल बाकी रह जाता है। लेकिन एक बात तय है— मानव चेतना अब भी विज्ञान की सबसे गहरी पहेली बनी हुई है।
हाँ, विज्ञान ने यह जरूर किया है कि उसने सालों से चली आ रही कई धार्मिक और रूढ़िवादी धारणाओं को प्रयोगों के माध्यम से गलत साबित किया। लेकिन साथ ही, विज्ञान कभी ठहरता नहीं। वह लगातार नए प्रयोग और अनुसंधान के जरिए यह समझने की कोशिश कर रहा है कि क्या चेतना शरीर से परे भी अस्तित्व रख सकती है, या यह सिर्फ हमारे मस्तिष्क का कमाल है।
शायद यही खोज मानव सभ्यता की सबसे बड़ी यात्रा है। आख़िर हम कौन हैं, और हमारी असली पहचान कहाँ छुपी है।
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