राष्ट्रवाद या कारोबार? सरकार के दोहरे रवैये का सच
पहलगाम में हुए आतंकी हमले को पाँच महीने भी नहीं हुए हैं। यह हमला जम्मू-कश्मीर के इतिहास में निहत्थे नागरिकों पर हुआ सबसे क्रूर हमला था, जहाँ हिंदुओं को सुनियोजित तरीके से निशाना बनाया गया और गवाहों को जानबूझकर बख्श दिया गया ताकि देश को धर्म के आधार पर और गहरे विभाजित किया जा सके। न्यूज़ चैनलों के एंकरों और राजनीतिक नेताओं ने इस आतंकी योजना को और बढ़ावा दिया। हमले के एक हफ्ते के भीतर ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिम मुनीर ने बयान दिया कि हिंदुओं को निशाना बनाओ।
इसके बाद मई में ऑपरेशन सिंदूर शुरू हुआ। यह पाकिस्तान की सेना और आईएसआई को सबक सिखाने का प्रयास था। गोली का जवाब ब्रह्मोस से देने का। इस कार्रवाई में दोनों देशों के नागरिकों को नुकसान हुआ। किसे ज़्यादा नुकसान पहुँचा, इस पर बहस चलती रही, पर आधिकारिक तौर पर ऑपरेशन सिंदूर कुछ दिन पहले ही खत्म हुआ। सीज़फायर की घोषणा के बाद मोदी सरकार ने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग करने के लिए 30 से अधिक देशों में राजनयिक मिशन भेजे। तस्वीरें और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के अलावा इन मिशनों ने कोई ठोस परिणाम नहीं दिए। नतीजा यह हुआ कि सबने आतंकवाद की आलोचना तो की, मगर किसी ने पाकिस्तान का नाम नहीं लिया।
विडंबना यह है कि पाकिस्तान आज संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद-विरोधी समिति का उपाध्यक्ष है और तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष है।वही देश, जहाँ 9/11 के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन छिपा मिला था। और भारत, जो लगातार पश्चिम को चुनौती देने का दावा करता है, पाकिस्तान को बेनक़ाब और अलग-थलग करने में विफल रहा।
इस विफलता को छिपाने के लिए सरकार ने 48 घंटे के भीतर "ऑपरेशन गद्दार" शुरू कर दिया। पाकिस्तानी नागरिकों को देश छोड़ने का आदेश दिया गया, जिनके पास कानूनी लंबे वीज़ा थे उन्हें भी ट्रैक किया गया। पाकिस्तानी कलाकारों और गायकों पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया। पाकिस्तान के साथ व्यापार, जो पहले से ही बेहद सीमित था, पूरी तरह बंद कर दिया गया। सोशल मीडिया पर भी पाकिस्तानी प्रभावशाली लोगों के अकाउंट तक ब्लॉक कर दिए गए।
विचार साफ़ था। भारत किसी भी हाल में पाकिस्तान या उसके लोगों को आर्थिक लाभ नहीं देगा।
इसी बीच जून में दिलजीत दोसांझ की फ़िल्म सरदार जी 3 रिलीज़ होने वाली थी, जिसमें पाकिस्तानी अभिनेत्री हानिया आमिर ने सहायक भूमिका निभाई थी। पूरी शूटिंग पहलगाम हमले से पहले पूरी हो चुकी थी, पर जैसे ही यह ख़बर सामने आई, दोसांझ को गालियाँ दी गईं, फ़िल्म की स्क्रीनिंग रद्द कर दी गई और उन्हें गद्दार तक कह दिया गया। यहाँ तक कि फेडरेशन ऑफ वेस्टर्न इंडिया सिने एम्प्लॉइज ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर दोसांझ की नागरिकता रद्द करने की माँग कर डाली। जावेद अख़्तर ने दोसांझ का बचाव किया और कहा कि अगर फ़िल्म रिलीज़ नहीं होगी तो नुकसान पाकिस्तान को नहीं बल्कि भारतियों को होगा, पर उन्हें भी ट्रोल करके चुप करा दिया गया और "पाकिस्तान चले जाओ" तक कह दिया गया।
यानी हालात यह हैं कि अगर कोई नागरिक, कलाकार या पत्रकार सरकार से सवाल करता है या पाकिस्तान से किसी भी प्रकार का संबंध रखता पाया जाता है, तो उसे तुरंत गद्दार कहा जाता है। पहलगाम और ऑपरेशन सिंदूर के बाद सरकार का यही रुख रहा—
"कोई सवाल नहीं, कोई टिप्पणी नहीं"।
लेकिन जैसे ही क्रिकेट का सवाल आता है, सब नियम बदल जाते हैं। जो सरकार पाकिस्तानी कलाकारों को काम करने से रोकती है, पूरी फिल्म में एक रोल होने पर बायकॉट कर दिया जाता है, और उसको बनाने वाले को गद्दार घोषित कर दिया जाता है तो वही पाकिस्तान की पूरी टीम को भारत के साथ खेलने पर कोई दिक्कत क्यों नहीं।
सवाल यह उठता है कि क्या इससे पाकिस्तान को आर्थिक लाभ नहीं मिलता? और अगर मिलता है, तो क्या यह नीति अपने ही पिछले निर्णयों से टकराती नहीं?
तीन बार के चैंपियन पाकिस्तान ने भारत में सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए हॉकी के एशिया कप से नाम वापस ले लिया। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तानी टीम को हेलीकॉप्टर से स्टेडियम से बाहर निकालना पड़ता। ऐसा हमारे देश में नहीं होता, लेकिन कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण हम क्रिकेट के एशिया कप टूर्नामेंट से नाम वापस नहीं ले सके और वह परिस्थिति यह है।
की क्रिकेट मैच सिर्फ खेल नहीं है, बल्कि भारी-भरकम कारोबार है। टिकटों की कीमतें 10 हज़ार से 2.5 लाख रुपये तक पहुँच जाती हैं। विज्ञापनदाता 10 सेकंड के स्लॉट के लिए 14–16 लाख रुपये तक देने को तैयार रहते हैं तो एक शाम के लिए राष्ट्रवाद और पाकिस्तान को कोसने को एक तरफ रखकर, लोग एक मैच का आनंद ले सकते हैं ना? यह यहीं खत्म नहीं होता।
पिछले 20 सालों में, सभी सीमा तनावों और आतंकवादी हमलों के बीच, इस क्रिकेट कारोबार में सिर्फ भारत या बीसीसीआई ही नहीं, पाकिस्तान भी मुनाफ़ा कमाता है।
अगर हम भारत सरकार के तर्क को मानें तो, पाकिस्तान को होने वाला हर आर्थिक लाभ उन संगठनों को जाता है जो भारत के खिलाफ काम करते हैं, उन समूहों को बढ़ावा देते हैं जो भारत में हिंसा फैलाते हैं। तो क्रिकेट मैच से होने वाला लाभ उससे अलग कैसे हो सकता है? अब सवाल उठता है कि भारत सरकार अनुमति क्यों देती है? अब ऐसे पैसे से कोई दिक्कत क्यों नहीं है।
बीसीसीआई के पास इतना कर-मुक्त पैसा है कि उन्हें पता नहीं है कि इसका क्या करना है, बीसीसीआई ने यह कहा है एशिया कप जैसे बहु-पार्श्व टूर्नामेंट में, हम दुश्मन देशों के साथ खेल सकते हैं, बहुत अच्छा तर्क है, लेकिन भारतीय सरकार को अपनी नीति बदलने से कौन रोकता है?
जब कलाकार, सेलेब्रिटी, सोशल मीडिया अकाउंट ब्लॉक किए जा सकते हैं, व्यापार बंद किया जा सकता है,पानी रोका जा सकता है तो एक मैच को क्यों नहीं रोका जा सकता?
इन दिनों अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कौन चला रहा है? जिनके पैसे के बिना आईसीसी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता? क्या आप एक मैच से नाम वापस नहीं ले सकते या पहलगाम के पीड़ितों को याद करके मैच को नहीं रोक सकते?
आप वोट मांगते समय पुलवामा के शहीदों को बहुत अच्छी तरह से याद करते हैं। यहाँ क्या? हो सकता है कि कल हमारे नेता भारत-पाकिस्तान मैच का बचाव यह कहकर करें कि यह हमारे सैनिकों की याद में खेला जाता है, हमारे बल्लेबाज सैनिकों की शहादत का बदला लेंगे। भारत-पाकिस्तान मैच न देखने और इस पर सवाल उठाने को देश-विरोधी कहा जा सकता है और लोग सहमत हो जाएंगे। हमें मैच से दिक्कत नहीं है, बल्कि उस तिलचट्टे जैसी मानसिकता से है जिसमें हमें बदल दिया गया है।
स्पष्ट है कि यहाँ राष्ट्रवाद का असली चेहरा सामने आता है। जब बात कलाकारों या आम नागरिकों की हो, तो "गद्दारी" का तमगा देना आसान होता है। लेकिन जब बात करोड़ों रुपये के मैच और विज्ञापन की हो, तो अचानक राष्ट्रवाद के सारे तर्क बदल जाते हैं। यही कारण है कि कई लोग कहने लगे हैं—गद्दारी किसी पत्रकार या उदारवादी द्वारा सवाल पूछने में नहीं है; असली गद्दारी वह है जो पैसों के लिए अपने सिद्धांत बेचता है।
युद्ध और शांति की नीति में यह असंगति केवल क्रिकेट तक सीमित नहीं है। राजनीति और मीडिया के ज़रिये बार-बार जनता को यह सिखाया गया है कि दुश्मन को पहचानना कपड़ों से आसान है, सवाल पूछना गद्दारी है और सरकार की हर नीति पर आँख मूँदकर भरोसा करना ही सच्चा राष्ट्रवाद है।
यही कारण है कि जब वे पाकिस्तान के साथ लंच करते हैं, तो अमन की आशा अच्छी है, आज वे पाकिस्तान से नाराज़ हैं, इसलिए यह बुरा है, इसका बहिष्कार करो। आज एक मैच है चलो थोड़ी खेल भावना का आनंद लेते हैं।
असल समस्या यह है कि हमें पढ़ा-लिखा होकर भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल न करने की आदत डाल दी गई है। हमें बताया जाता है—
"जो बताया जा रहा है वही करो, अपनी समझ से मत सोचो"।
और यही इस राजनीति की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
सच यह है कि ग़ज़वा-ए-हिंद का नारा जितना डर पैदा करने के लिए इस्तेमाल होता है, उतना ही असल ग़ज़वा-ए-धन हमारे सामने है। जब पैसा धर्म और राष्ट्रवाद दोनों से बड़ा बन जाता है। कोई 200 रुपये के लिए देश बेचने को तैयार है, कोई 2000 करोड़ के मैच के लिए। सेना को हम सम्मान ज़रूर देते हैं, लेकिन उनकी असल समस्याओं— पेंशन, सुविधाएँ, युद्ध के बाद का जीवन पर शायद ही ध्यान देते हैं। नेताओं के लिए शहीद सिर्फ वोट माँगने का साधन हैं। पुलवामा और पहलगाम की शहादत को हम चुनावी भाषणों में याद करते हैं, लेकिन उन्हीं के नाम पर दुश्मन देश के साथ क्रिकेट खेलकर पैसे कमाने को भी तैयार हो जाते हैं।
गद्दार को कपड़ों से या पेशे से नहीं पहचाना जा सकता। गद्दार वह है जो अपने लाभ के लिए देश को बेचता है। गद्दार वह है जो अपने शब्दों और अपनी राजनीति से इस देश को बाँटता है। गद्दार वह है जो भविष्य की परवाह नहीं करता, बल्कि इतिहास के जाल में फँसकर जनता को वहीं अटकाए रखता है। गद्दार कोई भी हो सकता है— क्रिकेटर, राजनेता वर्दीधारी या आम नागरिक। जो चंद रुपयों के लिए देश की सेंसिटिव जानकारी दुश्मन देश को दे देता है या आर्थिक लाभ के लिए अपनी देशभक्ति से समझौता।
मैं अक्सर क्रिकेट देखता हूँ, लेकिन यह मैच नहीं। मैं न तो प्रतिबंधों और बहिष्कारों का समर्थक हूँ, न ही नफ़रत का, मगर इस बार नहीं देखूँगा। क्योंकि सरकार हमें मूर्ख बना रही है। कल तक हमें उनके कलाकारों और गायकों से नफ़रत करना सिखाया जा रहा था, हमें सिखाया जा रहा था कि किसी भी तरह पाकिस्तान को मौद्रिक लाभ नहीं देना है, आज उसी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने पर हमें मजबूर किया जा रहा है। वह देश जिसने हमारे लड़ाकू विमानों को मार गिराया, जिस पर युद्ध के नाम पर सवाल पूछना गद्दारी माना गया, अब वही देश हमारे साथ टीवी स्क्रीन पर 4K क्वालिटी में दिखाई देगा।
पुलवामा और पहलगाम जैसे हमलों के बाद हमारी कूटनीति और नेतृत्व की पोल खुल गई थी। और अब वही पाकिस्तान हमारे साथ मैदान में गले और हाथ मिलाता दिखेगा। जिसे कभी आतंकवाद रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर घेरने का दावा किया गया था, आज बीसीसीआई उसी देश को करोड़ों रुपये कमाने का अवसर दे रहा है।
क्या भारत इस मैच को खेलकर पाकिस्तान को राजनयिक जीत नहीं सौंप रहा? क्या यह उनके लिए हमारी स्वीकृति का संकेत नहीं है? और अगर यह गद्दारी नहीं है तो फिर और क्या है?
आप चाहें तो यह मैच देखें। भारत के झंडे के साथ, ताकि राष्ट्रवाद की एक नई लहर महसूस कर सकें। अगर आपको मेरी बात पसंद नहीं आई तो क्षमा करें। यदि यह लेख आपको अखरता है तो मुझे देश-विरोधी कह सकते हैं। शायद यही कहकर देश की सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। और उसके बाद पाकिस्तान पैसा कमाएगा, और वही पैसा आतंकवाद के रूप में हमें नुकसान पहुंचाएगा लेकिन हम तो मैच देखकर ताली बजाएँगे।
देशभक्ति का असली इम्तिहान तालियाँ बजाने में नहीं, बल्कि सत्ता से सवाल करने में है। क्योंकि हमारी देशभक्ति हमारे देश के लिए है, सरकार के लिए तब होगी जब वह इसके योग्य होगी। क्योंकि देश शाश्वत है, सरकार अस्थायी।
जय हिंद।
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