पूंजीवाद और समाजवाद

 कैपिटलिस्ट विचारधारा का मूल आधार यह है कि व्यक्ति को अधिक से अधिक धन अर्जित करने का अवसर मिलना चाहिए। इसके विपरीत सोशलिस्ट दृष्टिकोण यह मानता है कि संपत्ति का न्यायसंगत वितरण समाज की प्राथमिक आवश्यकता है। एक पक्ष केवल उत्पादन और कमाई पर केंद्रित रहता है, जबकि दूसरा पक्ष केवल वितरण और समानता पर। परिणामस्वरूप दोनों विचारधाराओं के बीच निरंतर संघर्ष दिखाई देता है।



इस संघर्ष को स्पष्ट करने के लिए खेत का उदाहरण लिया जा सकता है। भूमि का स्वामी अपनी ज़मीन उपलब्ध कराता है और उस पर श्रमिक कार्य करते हैं। जब फसल तैयार होती है तो सबसे कठिन प्रश्न यह उठता है कि उसका वितरण किस प्रकार किया जाए। भूमि का स्वामी अपने स्वामित्व और निवेश के आधार पर अधिक अधिकार की अपेक्षा करता है, जबकि श्रमिक अपने श्रम और परिश्रम के आधार पर अधिक हिस्से की मांग करते हैं। यही वह मूल विवाद है, जिसने पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच निरंतर मतभेद उत्पन्न किए हैं।


पूँजीवाद की प्रवृत्ति को बकासुर के रूपक द्वारा समझाया जा सकता है। बकासुर निरंतर यह कहता है — “मुझे और चाहिए, और चाहिए।” इसी प्रकार असीमित लालच से प्रेरित पूँजीवाद धीरे-धीरे सम्पूर्ण संसाधनों को अपने अधिकार में ले लेता है, यहाँ तक कि समाज के श्रमिक वर्ग को भी निगलने लगता है।


इसके विपरीत, साम्यवाद का उग्र रूप भस्मासुर के समान है। भस्मासुर हर समय यह अनुभव करता है कि उसके साथ अन्याय हो रहा है, और क्रोधावेश में वह सम्पूर्ण व्यवस्था को जलाकर समाप्त कर देना चाहता है। यह दृष्टिकोण निरंतर असंतोष, विध्वंस और हिंसात्मक क्रांति की ओर ले जाता है।


समकालीन समाज में भी यही दो प्रवृत्तियाँ प्रमुख रूप से देखी जा सकती हैं। एक प्रवृत्ति संस्थाओं का उपयोग कर लाभ का केंद्रीकरण करना चाहती है, जबकि दूसरी प्रवृत्ति संस्थाओं को नष्ट कर देने पर तुली रहती है। दोनों ही स्थितियाँ समाज के लिए हानिकारक हैं।


अतः यह प्रश्न अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि सही मार्ग कौन-सा है। न तो असीमित लालच से प्रेरित पूँजीवाद समाज को स्थिर रख सकता है और न ही विध्वंसक साम्यवाद समाज को टिकाऊ समाधान दे सकता है। आवश्यकता है एक संतुलित मार्ग की, जिसमें उत्पादन को प्रोत्साहन मिले और साथ ही न्यायसंगत वितरण के तंत्र भी निर्मित हों।


इस संतुलित दृष्टिकोण का अर्थ है — उत्पादन को निरंतर बढ़ावा देना, पर साथ ही उसके लाभ का ऐसा वितरण करना जो श्रम और स्वामित्व दोनों के अधिकार को मान्यता दे। यही वह मार्ग है, जो समाज को स्थायित्व, न्याय और विकास प्रदान कर सकता है।




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