भय बिनु होइ न प्रीति — सत्ता और जनता के संबंध की अनकही सच्चाई
विनय न मानत जलधि जड़,गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब,भय बिनु होइ न प्रीति।
गोस्वामी तुलसीदास जी की यह चौपाई केवल धार्मिक संदर्भ नहीं है, बल्कि सत्ता, समाज और नागरिकता के शाश्वत संबंध की गहरी व्याख्या है। जब समझाने और विनम्र निवेदन से भी कोई अन्याय या जड़ता नहीं टूटती, तब श्री राम कहते हैं, बिना भय के न प्रेम टिकता है, न मर्यादा।
आज के समय में यह पंक्ति पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। हमारे समाज में सत्ता इतनी निर्भय हो चुकी है कि उसे अब जनता का भय नहीं रहा। न्यायालय उनकी भाषा बोलते हैं, पुलिस और सेना उनके आदेश पर चलती है, मीडिया उनकी छाया बन चुका है। और जनता? जनता बस सहती है। लुटती है, पिटती है, मरती है, और फिर ईश्वर को दोष देती है। लेकिन सच्चाई यह है कि इस नियति के रचयिता हम स्वयं हैं। हमने अपनी आवाज़ बेची, विवेक त्यागा, और सत्ता को यह अधिकार दे दिया कि वह जिसे चाहे देशद्रोही कह दे, जिसे चाहे कैद कर ले, जिसे चाहे मिटा दे। जब जनता स्वयं चुप्पी चुनती है, तब अत्याचार उसकी नियति बन जाता है।
यह स्थिति केवल राजनीतिक नहीं, नैतिक भी है। जब तक सत्ता के मन में जनता का भय नहीं होगा, तब तक वह जनता से प्रेम नहीं कर सकती। जिस सत्ता को यह भरोसा हो जाए कि जनता कभी सवाल नहीं पूछेगी, वहाँ से जनसेवा समाप्त हो जाती है। भय का अर्थ यहाँ आतंक नहीं है, बल्कि जवाबदेही है। वही भय जो सत्ता को मर्यादा में रखे, जो उसे अपने कर्मों का हिसाब देने को बाध्य करे, वही लोकतांत्रिक “भय” है।
लेकिन यह भय किसी बाहरी ताकत से नहीं आता। यह जनता की जागरूकता से जन्म लेता है। जब जनता यह समझती है कि संविधान उसकी ढाल है, जब वह धर्म या दल से ऊपर उठकर सही-गलत का विवेक करती है, तब ही सत्ता के भीतर जवाबदेही का भाव पैदा होता है। जागरूक नागरिक ही सत्ता को प्रेम करना सिखाते हैं, क्योंकि उन्हें भय होता है कि यदि उन्होंने जनता की अनदेखी की, तो जनता उन्हें नकार देगी।
हम बार-बार अपने पतन के लिए ईश्वर को दोष देते हैं। पर ईश्वर ने हमें विवेक दिया, और हमने उसे छोड़ दिया। उसने हमें एकता दी, और हमने उसे धर्म, जाति और लोभ के नाम पर बाँट दिया। उसने हमें वाणी दी, और हमने उसे मौन कर दिया। फिर भी जब हम पीड़ित होते हैं, तो कहते हैं, “यह ईश्वर की इच्छा है।” नहीं, यह हमारी अपनी कायरता का परिणाम है।
शायद ईश्वर करे कि देश और भी कठिन समय देखे, ताकि हम अपनी भूलों से सीखें। ताकि हम समझें कि हमारी स्थिति किसी दैवी योजना का परिणाम नहीं, बल्कि हमारी अंधभक्ति और निष्क्रियता का फल है। क्योंकि जब तक हम यह नहीं मानेंगे कि हमने सत्ता को बेखौफ़ बनाया है, तब तक बदलाव असंभव है।
यह देश तभी सुधरेगा जब जनता जागेगी। जब जनता जागेगी, तब ही नेताओं में भय उत्पन्न होगा। और जब सत्ता को जनता का भय होगा, तभी वह जनता से प्रेम करेगी। यही “भय बिनु होइ न प्रीति” का सच्चा अर्थ है, भय जो हिंसा नहीं, बल्कि अनुशासन है; भय जो सत्ता को याद दिलाता है कि यह राष्ट्र जनता का है, राजा का नहीं। जब यह भय लौटेगा, तभी प्रीति, न्याय और मर्यादा का पुनर्जागरण होगा।

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